Friday, 27 April 2018

23वां राष्ट्रीय सम्मेलन भाकपा से जन - अपेक्षा ------ विजय राजबली माथुर


* घोषित रूप से नेतृत्व खुद को नास्तिक - एथीस्ट कहता है जिस कारण जनता का समर्थन पार्टी को नहीं मिलता है लेकिन ब्राह्मण वादी कामरेड्स खुद तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा लेकर पार्टी पर अपना नियंत्रण बनाए रख कर पार्टी को न तो जन- प्रिय होने देते हैं न ही संगठन का विस्तार। 
**यदि भाकपा का 23 वां राष्ट्रीय सम्मेलन जनता को ढोंग- पाखंड के विरुद्ध जाग्रत करने का संकल्प लेकर थोथे आडंबर - धर्म पर प्रहार करके जनता को धर्म का मर्म समझा सके तो जनप्रियता हासिल करना मुश्किल न होगा।
*** प्रकृति प्राणी- प्राणी में ही भेद नहीं करती उसकी ओर से हवा, पानी, भोजन सबके लिए समान रूप से उपलब्ध कराया जाता है। यह मानव ही है जो मानव- मानव में भेद अपने शोषण को मजबूत करने के लिए उत्पन्न करता है।
**** भारतीय संस्कृति तो  ' कृण्वन्तो विश्वमार्यम ' वाली है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण विश्व को आर्य = आर्ष = श्रेष्ठ बनाना। यह आदर्श कम्यूनिज़्म का आदर्श है लेकिन यूरोपीय उत्कृष्टता ने एक दृष्टिकोण को एक जाति और क्षेत्र से जोड़ दिया जिसे दुर्भाग्य से देश के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने अंगीकार करके खुद को जनता से दूर कर लिया है। 
***** राम ने रावण के साम्राज्यवाद / विस्तारवाद को नष्ट किया था लेकिन उन राम के नाम पर कारपोरेट और व्यावसायिक घराने सांप्रदायिकता जो कि साम्राज्यवाद की ही सहोदरी है को ताकत प्रदान कर रहे हैं। लेकिन कम्युनिस्ट इसे काल्पनिक कह कर सांप्रदायिक / साम्राज्यवादी  तत्वों  को अपना खेल खेलने को खुला मैदान छोड़ देते हैं। इस विभ्रम से निकल कर जनता को  समष्टिवाद के प्रति जाग्रत करने और उसका समर्थन हासिल करने की ज़रूरत है।   








माकपा के संबंध में अंतिम अनुच्छेद में जो कुछ अनिल सिन्हा साहब ने लिखा है वैसा ही  कुछ - कुछ भाकपा के संबंध में भी चस्पा होता है। यू पी के मास्को रिटर्ण्ड ब्राह्मण कामरेड डिफ़ेक्टो नियंता भी हैं और उनका निर्वाचित पदाधिकारियों को निर्देश है कि, obc व sc कामरेड्स से काम तो लिया जाये लेकिन उनको कोई पदाधिकार न दिया जाये। अतीत में वह दो बार इसी हेतु पार्टी को विभाजित भी कर चुके हैं। उनकी स्पष्ट घोषणा है कि, वह जिसकी पीठ पर हाथ रखेंगे वही वैधानिक प्रमुख बन सकेगा अन्य कोई नहीं। 
यह आश्चर्य और खेद की बात है कि, सर्वाधिक पुरानी पार्टी होते हुये भी और प्रथम आम चुनावों में मुख्य विपक्षी दल बनने के बावजूद भाकपा की जनता पर पकड़ नहीं है । इसकी मुख्य वजह भी यही है कि, घोषित रूप से नेतृत्व खुद को नास्तिक - एथीस्ट कहता है जिस कारण जनता का समर्थन पार्टी को नहीं मिलता है लेकिन ब्राह्मण वादी कामरेड्स खुद तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा लेकर पार्टी पर अपना नियंत्रण बनाए रख कर पार्टी को न तो जन- प्रिय होने देते हैं न ही संगठन का विस्तार।  
भाजपा तो घोषित सांप्रदायिक पहचान वाली पार्टी है ही लेकिन कांग्रेस गुप्त रूप से सांप्रदायिकता को मजबूत करती है जैसा कि, आर एस एस की नीति है कि , सत्ता और विपक्ष दोनों पर उसका नियंत्रण रहे । 1980 में इन्दिरा गांधी और 1985 में राजीव गांधी आर एस एस के सहयोग से बहुमत पा सके थे इसीलिए उनको खुश करने के लिए अयोध्या से ताला खुलवाया था और 1992 में कांग्रेस शासन में ही विवादित ढांचा गिराया गया जिसके बाद तेजी से भाजपा की बढ़त हुई थी और वर्तमान मोदी सरकार मनमोहन सिंह की कृपा का फल है। लेकिन कांग्रेस-भाजपा विरोधी विपक्ष जनता से कटा होने के कारण उसके लिए कांग्रेस का साथ देना मजबूरी हो जाती है।और अंततः भाजपा भले ही सत्ताच्युत हो जाये आर एस एस दिन - ब - दिन मजबूत होता जाता है। 
यदि भाकपा का 23 वां राष्ट्रीय सम्मेलन जनता को ढोंग- पाखंड के विरुद्ध जाग्रत करने का संकल्प लेकर थोथे आडंबर - धर्म पर प्रहार करके जनता को धर्म का मर्म समझा सके तो जनप्रियता हासिल करना मुश्किल न होगा। जनता को यह समझाया जा सके कि, परमात्मा या प्रकृति प्राणी- प्राणी में ही भेद नहीं करती उसकी ओर से हवा, पानी, भोजन सबके लिए समान रूप से उपलब्ध कराया जाता है। यह मानव ही है जो मानव- मानव में भेद अपने शोषण को मजबूत करने के लिए उत्पन्न करता है। असामाजिक और अधार्मिक तत्व धर्म का चोला ओढ़ कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ते हैं जबकि, भारतीय संस्कृति तो  ' कृण्वन्तो विश्वमार्यम ' वाली है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण विश्व को आर्य = आर्ष = श्रेष्ठ बनाना। यह आदर्श , कम्यूनिज़्म का आदर्श है लेकिन यूरोपीय उत्कृष्टता ने एक दृष्टिकोण को एक जाति और क्षेत्र से जोड़ दिया जिसे दुर्भाग्य से देश के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने अंगीकार करके खुद को जनता से दूर कर लिया है। 
राम ने रावण के साम्राज्यवाद / विस्तारवाद को नष्ट किया था लेकिन उन राम के नाम पर कारपोरेट और व्यावसायिक घराने सांप्रदायिकता जो कि साम्राज्यवाद की ही सहोदरी है को ताकत प्रदान कर रहे हैं। लेकिन कम्युनिस्ट इसे काल्पनिक कह कर सांप्रदायिक / साम्राज्यवादी  तत्वों  को अपना खेल खेलने को खुला मैदान छोड़ देते हैं। इस विभ्रम से निकल कर जनता को  समष्टिवाद के प्रति जाग्रत करने और उसका समर्थन हासिल करने की ज़रूरत है।   

Sunday, 22 April 2018

देश की परेशानी की वजह : नागपूर की नारंगी व हैदराबाद की बिरयानी ------ अतुल अंजान






भाकपा के राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान साहब की बेबाक बयानी वक्त की ज़रूरत है। लेकिन भाकपा में जिस ब्राह्मण वादी सोच के लोग नियंत्रक स्थिति में बढ़ रहे हैं जैसे कि, उपरोक्त टिप्पणीकार जो कि, लेख को पढे - समझे बगैर गलत व्याख्या कर रहे हैं। असहमत होना तो एक अलग बात है लेकिन जो लिखा नहीं गया है उसे रेखांकित किया जा रहा है कि, सोवियत क्रांति की कोई उपलब्धि नहीं है --- यह विचार खुद टिप्पणीकार कामरेड का है न कि, कामरेड लेनिन संबंधी लेख के लेखक का। 
ऐसे टिप्पणीकार कामरेड तो अतुल अंजान साहब के प्रयासों पर पानी फेर रहे हैं। 

Tuesday, 3 April 2018

कामरेड अतुल अंजान की हैदराबाद में सिंह गर्जना


 अपने ओजस्वी उद्बोद्धन द्वारा आर एस एस , भाजपा पर शक्तिशाली प्रहार करने के उपरांत अंत में कामरेड अंजान ने कहा कि, निराश होने की कोई बात नहीं है :

गुजर गए ये     गम के            और चार दिन । 
गुजर गए   सितम के ये          और चार दिन । । 
गुजर गए हजार दिन, ये दिन भी बीत जाएँगे । 
कभी तो इस चमन पे भी बहार के दिन आएंगे । । 

उदाहरण के रूप में कामरेड अंजान ने नेपाल का ज़िक्र किया जो हिन्दू राष्ट्र से कम्युनिस्ट राष्ट्र बन गया है। जहां कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री के पी शर्मा ' ओली ' हैं तो कम्युनिस्ट महिला राष्ट्रपति विद्या भण्डारी हैं। 






99TV Telugu
Published on Apr 1, 2018

𝐖𝐚𝐭𝐜𝐡 CPI Leader and National Secretary Atul Kumar Anjan Sensational Comments On Yogi Adityanath | Telangana State CPI Maha Sabhalu | Hyderabad.

Atul Kumar Anjaan (born in Lucknow, India) is a senior CPI leader and national secretary of the Communist Party of India.[2][3] He did his schooling from Lucknow in state board school and graduation, post graduation and then L.L.B also from Lucknow University in 1967, 1972, 1976 and 1983 respectively.[4] Ghosi (Lok Sabha constituency) has the history of sending Communist Party of India (CPI) candidates for many times and remained a stronghold of communists in northern India till early 1980s but 1990s onwards communist lost its ground from there but still CPI fielded Atul Kumar as a CPI candidate from Ghosi in the general election, 2014 and he fought unsuccessfully Lok Sabha election since 1998 from Ghosi.



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06-04-2018 

रामराज्य और समाजवाद / प्रकाश करात और पी विजयन द्वारा भाजपा के लिए संजीवनी ------ innbharat

 *पलक्काड़ की यह इकलोती ऐसी निगम है जिस पर भाजपा का कब्जा है।
बावजूद इसके कि भाजपा के पास बहुमत नही था पलक्काड़ की नगर निगम की चैयरपर्सन भाजपा की प्रमिला शशिधरन बनी। पलक्काड़ नगर निगम में 52 सीटें हैं और बहुमत के लिए 27 सीटों की जरूरत है। भाजपा निगम में केवल 24 सीटें ही जीत पाई। परंतु फिर भी भाजपा की उम्मीदवार 2015 में निगम की चैयरपर्सन बन बैठी। केवल माकपाई जिद के कारण और यही अडियलपन प्रकाश करात और पी विजयन का खेमा देश की राजनीति में दिखाना चाह रहा है।
** अब इसी फार्मूले पर चलकर माकपा के क्रान्तिकारी खेमे के नेता प्रकाश करात और पूर्व में केरल सरकार में हुए एक घोटाले को लेकर सीबीआई जांच के दायरे में रहे पी विजयन फिर से गैर कांग्रेसवाद का आत्मघाती गीत गाते हुए केरल के पलक्काड माॅडल को देशभर में थोपने चले हैं।
***  वैसे यह बात दीगर है कि सीबीआई नामक तोते के हद से ज्यादा इस्तेमाल के आरोपों को झेल रही भाजपा के सत्ता में रहते हुए भी अभी विजयन की जांच वाला मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, जिसमें सीबीआई की तरफ से तुषार मेहता वकील हैं और प्रकाश के साढू प्रणव राय और उनकी कंपनी पर एकबार छापेमारी के बाद सीबीआई और ईडी दोनों खामोश हैं।
रामराज्य और समाजवाद
Written by innbharat on March 30, 2018

डा. गिरीश
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा बजट भाषण पर चर्चा के दौरान विधान परिषद् में “समाजवाद” को लेकर दिए गये वक्तव्य ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। हो सकता है कि बड़बोले श्री आदित्यनाथ ने यह बातें समाजवादी पार्टी के नाम में विहित समाजवाद को लक्षित कर कही हों, लेकिन उन्होंने इसे व्यापक फलक देते हुये जो कुछ कहा वह आश्चर्य में डालने वाला है। उन्होंने कहा कि प्रदेश की जनता अब तय कर चुकी है कि उन्हें समाजवाद नहीं रामराज्य चाहिये। उन्होंने न केवल समाजवाद को धोखा कहा बल्कि उसे समाप्तवाद तक कह डाला। उन्होंने समाजवाद की तुलना जर्मनी के नाजीवाद और इटली के फासीवाद तक से कर डाली।

विपक्षी सदस्यों द्वारा यह याद दिलाने पर कि समाजवाद शब्द संविधान की प्रस्तावना में दर्ज है, और मुख्यमंत्रीजी उसे धोखा बता रहे हैं। वे भागते नजर आये। उन्होंने विपक्ष से प्रतिप्रश्न किया कि संविधान में समाजवाद शब्द कब जोड़ा गया? उनका आशय इसे इंदिरा सरकार से जोड़ कर खारिज करना था जिनके कि कार्यकाल में संसद ने इसे संविधान में जोड़ा।

अब यह तो समय ही बतायेगा कि प्रदेश की जनता क्या तय कर चुकी है और आगे क्या तय करेगी। लोकतंत्र में समय समय पर सरकारों के क्रियाकलापों और कार्यप्रणाली के अनुसार जनता अपना मत और मंतव्य बदलती रहती है, यह योगी आदित्यनाथ से ज्यादा कौन जानता है। जिस गोरखपुर की लोकसभा सीट पर दशकों से योगीमठ का कब्जा था उसे मतदाताओं ने एक पल में उनसे छीन लिया।

वस्तुतः रामराज्य एक कल्पना है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं। यह एक मिथक है। हमारे मनीषियों और कवियों की सुशासन के बारे में एक सुखद परिकल्पना है। यह अभी तक के इतिहास के किसी दौर में न तो अस्तित्व में था, और न ही इसके अस्तित्व के कहीं कोई प्रमाण ही मिलते हैं। लेकिन राम के आख्यान के लोकप्रिय होने के बाद शासक और शासक तबके रामराज्य का नाम लेकर जन-मानस को भरमाते रहे हैं। योगी जैसे शासकों के लिये ये पूंजीवाद की विकृतियों को ढांपने की कवायद मात्र है।

लेकिन समाजवाद गत चार शताब्दियों के राजनैतिक चिंतकों के अब तक की शासन व्यवस्थाओं के अध्ययन के उपरांत अधिरूपित की गयी समाज व्यवस्था है जिसको मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के विचारों ने गढ़ा, और जो आज से सौ वर्ष पहले रूस की समाजवादी क्रांति के बाद अस्तित्व में आई। यद्यपि अनेक बाह्य और आतंरिक कारणों से लगभग सात दशकों तक अस्तित्व में रहने के बाद रूस की यह समाजवादी व्यवस्था ढह गयी लेकिन इसकी विशाल उपलब्धियां आज भी पूंजीवादी व्यवस्था को मुहं चिढ़ा रही हैं। क्यूबा और वियतनाम जैसे देश आज भी इस व्यवस्था के जरिये अपने नागरिकों के जीवन को समुन्नत बना रहे हैं तो लैटिन अमेरिका एवं अफ्रीकी महाद्वीप के कई देश तमाम दबावों के बावजूद इस दिशा में बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

भारत में आधुनिक समाजवाद का स्वरूप हमारी आजादी के आन्दोलन और विश्व सर्वहारा के क्रांतिकारी आन्दोलन के साथ मजबूती से जुड़ा है। वह किसी की दया या कृपा पर निर्भर नहीं है. कार्ल मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन भारत की दुर्दशा और उसके भविष्य को बहुत बारीकी से देख रहे थे। कार्ल मार्क्स ने भारत को ‘महान और दिलचस्प’ देश कहने के साथ ही “हमारी भाषाओं और धर्मों का उद्गम” कहा। मार्क्स और एंगेल्स ने सिध्द किया कि जैसे ही विश्व सर्वहारा का क्रांतिकारी संघर्ष प्रबल होगा और भारत तथा अन्य पराधीन देशों की जनता स्वाधीनता के लिये सचेत और संगठित होकर संघर्ष करने लगेगी “इस महान और दिलचस्प देश की मुक्ति और पुनरुत्थान और समूची औपनिवेशिक प्रणाली का पतन अपरिहार्य हो जायेगा।”

मार्क्स और एंगेल्स ने सन 1853 में ही लिखा था, “भारत के लोग उन नये तत्वों से, जिन्हें ब्रिटिश पूंजीपतियों ने उनके बीच बिखेरा है ( रेल, तार, पानी के जहाज आदि ) तब तक कोई लाभ नहीं उठा सकेंगे, जब तक खुद ब्रिटेन में औद्योगिक सर्वहारा आज के शासक वर्ग की जगह न ले ले या जब तक भारतीय लोग स्वयं इतने मजबूत न हो जायें कि अंग्रेजों के जुए को पूरी तरह उतार फेंकें। कुछ भी हो, हम पूरी तरह आश्वस्त रह सकते हैं कि भविष्य में, कुछ कम या ज्यादा लंबे अर्से के बाद इस महान और दिलचस्प देश का पुनरुत्थान होगा।”

अंग्रेजी हुकूमत द्वारा की जा रही भारत की लूट पर पर मार्क्स की पैनी नजर थी। उन्होंने 1881 में लिखा था कि “जो माल भारतीय प्रति वर्ष मुफ्त इग्लेंड भेजने को मजबूर होते हैं, उनकी कीमत ही भारत के छह करोड़ औद्योगिक और खेतिहर कामगारों की कुल आमदनी से अधिक है। यह क्षोभजनक बात है। वहां एक के बाद एक भुखमरी के साल आते हैं और भुखमरी का आकार भी इतना बड़ा होता है कि यूरोप में आज तक उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।”

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर भी मार्क्स और एंगेल्स अपनी सतर्क नजरें गढ़ाए हुए थे और उन्होंने उसे राष्ट्रीय विद्रोह माना था। उन्होंने लिखा कि उन्नीसवीं सदी के मध्य में भारत का यह विद्रोह “ब्रिटिश आधिपत्य के खिलाफ महान एशियायी राष्ट्रों के सर्वव्यापी असंतोष की एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है।”

मार्क्स एंगेल्स की इस समझ को आगे बढाते हुये लेनिन ने 1908 में लिखा कि “भारत में ब्रिटिश शासन पध्दति के नाम पर जो लूटमार और हिसायें की जा रही हैं उनका कोई अंत नहीं।” उन्होंने 1912 में पुनः लिखा कि “इग्लेंड देश (भारत) के उद्योग का गला घोंट रहा है।” 1913 में लेनिन ने लिखा कि ब्रिटिश पूंजी भारत तथा अन्य उपनिवेशों को “बहुत निर्दयता के साथ और जमींदाराना ढंग से गुलाम बनाती और लूटती है।” आगे यह भी लिखा कि भारत की “लगभग 30 करोड़ आबादी ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा लूटे जाने और सताये जाने के लिये छोड़ दी गयी है।” लेनिन उस दौर के राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के उभार में जनवादी तत्वों के उदय को भली प्रकार देख रहे थे। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को “भारतीय जनवादी” कहा।

परतंत्र भारत की ब्रिटिश शासकों द्वारा की जा रही निर्मम लूट के विरुध्द संघर्ष में ही भारत में समाजवाद की वैचारिक नींव पड़ी।

19 वीं सदी के अंतिम दशक में स्वामी विवेकानंद ने भी भारत के जनवादी समाजवादी स्वरुप का अनुमान लगा लिया था। उन्होंने भविष्यवाणी की कि “भावी महापरिवर्तन, जिसे एक ऐसे नये युग का सूत्रपात करना है जिसमें सत्ता शूद्रों (श्रम जीवियों) के हाथ में होगी, संभवतः रूस से ही शुरू होगा।”

बीसवीं सदी के पहले दशक में ही भारत के प्रवासी स्वतंत्रता सेनानी अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी मंचों से सहायता लेने का प्रयास करने लगे थे। वे दूसरे सोशलिस्ट इंटरनेशनल के अधिवेशनों में भाग लेने लगे थे। इनमें दादाभाई नौरोजी, मैडम कामा, एस. आर. राना, बी. बी. एस. अय्यर और श्यामजी कृष्ण वर्मा प्रमुख हैं। उन्होंने उन मंचों पर भारत की परिस्थिति पर प्रस्ताव पेश किये और भाषण दिये। मैडम कामा ने पहली बार स्टुटगार्ड अधिवेशन में तिरंगा झंडा फहराया और कहा कि आदर्श सामाजिक व्यवस्था का तकाजा है कि कहीं की भी जनता गुलाम न रहे। भारत की जनता जागेगी और हमारे रूसी साथियों द्वारा दिखाये रास्ते पर चलेगी, जिन्हें हम अपना बहुत ही बन्धुत्वपूर्ण अभिवादन भेजते हैं।

बाल गंगाधर तिलक की गिरफ्तारी पर 1908 में बंबई के मजदूरों द्वारा की गयी पहली राजनैतिक हड़ताल पर टिप्पणी करते हुये लेनिन ने लिखा कि “जनता का भारत अपने बुध्दिजीवियों और राजनेताओं के रक्षार्थ खड़ा हो रहा है।” उन्होंने भविष्यवाणी की कि “भारत में भी सर्वहारा सजग राजनीतिक जन-संघर्ष के स्तर पर जा पहुंचा है। इन परिस्थितियों में भारत में अंग्रेजी- रूसी ढंग की शासन व्यवस्था के दिन बस गिने चुने रह गये हैं।”

1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में एनीबीसेंट ने कहा कि “रूसी क्रांति तथा यूरोप और एशिया में रूसी जनतंत्र के संभावित उदय ने भारत में पहले से विद्यमान परिस्थितियों को पूर्णतया बदल दिया है।” अक्टूबर क्रांति के बाद 1918 में बाल गंगाधर तिलक ने लिखा कि “अभिजातों की जमीनों के किसानों को बांटे जाने के परिणामस्वरूप सेना और जनता में लेनिन का प्रभाव बढ़ गया है।” 1920 में लाला लाजपत राय ने कहा कि “पूंजीवादी और साम्राज्यवादी सत्य की अपेक्षा समाजवादी, बोल्शेविक सत्य कहीं ज्यादा श्रेष्ठ, विश्वसनीय और मानवीय है। 1919 में बोल्शेविज्म का अर्थ स्पष्ट करते हुए तत्कालीन विद्वान विपिनचंद पाल ने लिखा कि इसका अर्थ है कि “धनिकों और तथाकथित उच्च वर्गों की ओर से उत्पीडन को नकारते हुये सभी लोगों को आजादी और सुख से रहने का अधिकार।” उन्होंने यह भी कहा कि “बोल्शेविक सभी प्रकार के आर्थिक और पूंजीवादी शोषण तथा सट्टेबाजी के खिलाफ हैं और वे सामाजिक असमानता का विरोध करते हैं। कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1918 में क्रांतिकारी रूस की तुलना “उस भोर के तारे” से की जो “नवयुग के प्रभात का संदेश लेकर आता है।”

भारत की अस्थाई सरकार जो काबुल में स्थापित हुयी थी के राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप और प्रधानमंत्री बरकतुल्लाह खान के नेतृत्व में प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों का एक प्रतिनिधिमंडल लेनिन से मिला था जिनसे लेनिन ने कहा कि “हम मुसलमानों और गैर मुसलमानों की घनिष्ठ एकता का स्वागत करते हैं। हमारी कामना है कि यह एकता पूरब के समस्त मेहनतकशों को एक सूत्र में पिरोये।”

शहीदे आजम भगत सिंह और उनके साथियों को ‘क्रांतिकारी’ या ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ कहा जाता है. लेकिन वे भारत में समाजवाद/साम्यवाद के अधिष्ठाता कहे जा सकते हैं। अपने मित्र सुखदेव को उन्होंने लिखा था- “तुम और मैं तो जिन्दा नहीं रहेंगे लेकिन हमारी जनता जिन्दा रहेगी। मार्क्सवाद लेनिनवाद के ध्येय और साम्यवाद की विजय निश्चित है।”

दिल्ली के सेशन जज के सामने दिये वक्तव्य में उन्होंने कहा- “क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष अन्याय पर आधारित वर्त्तमान व्यवस्था बदलनी चाहिये। वास्तविक उत्पादनकर्ता या मजदूर को समाज का अत्यावश्यक हिस्सा बनाने के स्थान पर, शोषक उनकी मेहनत के फल छीन लेते हैं और उन्हें उनके सामान्य अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। एक तरफ तो है किसान जो सबके लिये अनाज उगाता है, अपने परिवार के साथ भूखा मरता है, बुनकर जो विश्व बाजार को कपड़ा सप्लाई करता है, अपने बच्चों का तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा नहीं प्राप्त कर सकता, राज, लोहार, और बढई जो शानदार महल तैयार करते हैं, खुद गन्दी बस्तियों में जीते और मरते हैं और दूसरी तरफ हैं समाज के परजीवी, पूंजीवादी शोषक जो अपनी सनक पर ही लाखों की रकम उड़ा देते हैं। ये भयानक असमानतायें और जबरन थोपी गयी विकृतियां विप्लव की तरफ ले जारही हैं। ये हालात ज्यादा दिन नहीं चल सकते और यह स्पष्ट होगया है कि वर्त्तमान समाज व्यवस्था ज्वालामुखी के किनारे खड़ी जश्न मना रही है……. इस सभ्यता की पूरी इमारत अगर वक्त रहते बचायी नहीं गयी तो लड़खड़ा कर ढह जायेगी। इसलिए एक मूलभूत परिवर्तन आवश्यक है। और जो इस बात को समझते हैं, उनका कर्तव्य है कि समाजवादी आधार पर समाज का पुनर्गठन किया जाये।

डा. भीमराव अंबेडकर को आमतौर पर जातिवाद विरोधी, आरक्षण के पुरोधा और संविधान निर्माता के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनके मन मस्तिष्क में भी समाजवाद की साफ तस्वीर थी। उन्होने संविधान सभा में कहा था कि 26 जनवरी 1950 को हम एक विरोधाभासी स्थिति में प्रवेश करने जा रहे हैं, जहां राजनीति में तो हमने नागरिकों को समानता दे दी है। परन्तु सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में ऐतिहासिक कारणों से हम समानता से दूर रहे हैं। अतः हमें शीघ्र- अतिशीघ्र राजनीतिक एवं सामाजिक- आर्थिक जीवन में इस विरोधाभास को खत्म करना होगा। वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीड़ित हैं, वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनैतिक लोकतंत्र के भवन को ध्वस्त कर देंगे। अपने पत्र ‘मूकनायक’ में डा. अंबेडकर ने 1920 में लिखा था कि भारत की आजादी के साथ सभी वर्गों को धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर बराबरी की गारंटी होनी चाहिए और हर व्यक्ति को अपनी प्रगति के लिये अनुकूल स्थितियां भी हासिल हों।

संविधान के प्रारूप की व्याख्यात्मक टिपण्णी में भी इस बात पर बल दिया गया है कि देश के तीव्र विकास के लिये स्टेट सोशलिज्म वांछित है,…….. निजी क्षेत्र कृषि में कोई समृद्धी नहीं ला सकते। 6 करोड़ अछूतों को जो भूमिहीन मजदूर हैं, उनके जीवन में खुशी चकबंदी और हदबंदी कानूनों से नहीं आ सकती, केवल सरकारी खेती इसका समाधान है।

डा. अंबेडकर प्रत्येक नागरिक की मूल आवश्यकताओं की आपूर्ति किसी भी लोकतंत्र का प्रथम कर्तव्य मानते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में वांछित आर्थिक प्रणाली के बारे में उनके विचार “स्टेट एंड माइनारिटीज” नामक पुस्तिका में स्पष्टरूपेण वर्णित हैं। वे साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खुले विरोधी थे। उनकी सोच में कार्ल मार्क्स और गौतम बुद्ध के विचारों का अभूतपूर्व समन्वय है। उन्होंने “प्रिवीपर्स” की समाप्ति, बैंकों, बीमा कंपनियों और कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण की बात बहुत पहले उठाई थी। वे समाजवाद और सार्वजनिक क्षेत्र के पक्षधर थे।

आजादी के आन्दोलन की इन तमाम धाराओं को अपना आदर्श मानते हुए हमने स्वतन्त्र भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति अपनाई जिसका लक्ष्य उत्तरोत्तर सार्वजनिक उद्योग और सामूहिक खेती की व्यवस्था को मजबूत करते हुये समाजवाद की ओर बढ़ना था। इसी क्रम में राजाओं के प्रिवीपर्स खत्म किये गये और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद के उद्देश्य को समाहित किया गया। इन सारी उपलब्धियों पर पलट वार हमें भूमंडलीकरण, आर्थिक नव उदार की व्यवस्था के रूप में देखने को मिला। लेकिन इसके तहत असमानता- और गरीबी- अमीरी के बीच चैड़ी होती खाई ने समाजवाद की प्रासंगिकता को पुनर्स्थापित कर दिया है, जिस पर पर्दा डालने की कोशिश में रामराज्य का शिगूफा छोड़ा गया है।
(यह लेखक के अपने स्वतंत्र विचार हैं)

http://www.innbharat.com/archives/5005



प्रकाश करात और पी विजयन का कांग्रेस विरोध करेगा भाजपा की कुर्सी सुरक्षित
Written by innbharat on April 1, 2018
आईएनएन भारत डेस्क
माकपा के पूर्व महासचिव प्रकाश करात की तर्ज पर केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन ने भी कहा है कि कांग्रेस के साथ कोई गठजोड़ नही होगा। दरअसल, माकपा का एक हिस्सा एक खास तरह के गैर कांग्रेसवाद का शिकार है और यह गैर-कांग्रेसवाद किस तरह से भाजपा के लिए संजीवनी बन सकता है, इसका उदाहरण केरल के पलक्काड़ की नगर निगम है। पलक्काड़ की यह इकलोती ऐसी निगम है जिस पर भाजपा का कब्जा है।
बावजूद इसके कि भाजपा के पास बहुमत नही था पलक्काड़ की नगर निगम की चैयरपर्सन भाजपा की प्रमिला शशिधरन बनी। पलक्काड़ नगर निगम में 52 सीटें हैं और बहुमत के लिए 27 सीटों की जरूरत है। भाजपा निगम में केवल 24 सीटें ही जीत पाई। परंतु फिर भी भाजपा की उम्मीदवार 2015 में निगम की चैयरपर्सन बन बैठी। केवल माकपाई जिद के कारण और यही अडियलपन प्रकाश करात और पी विजयन का खेमा देश की राजनीति में दिखाना चाह रहा है। जबकि देशभर के वामपंथी कार्यकर्ताओं और जमीनी नेताओं की राय इससे एकदम अलग है।
दरअसल पलक्काड नगर निगम में 2015 में भाजपा को 24 सीटें मिली और यूडीएफ को 17 और एलडीएफ को नौ सीटें हासिल हुई और एक एक सीट वेलफेयर पार्टी और आजाद उम्मीदवार ने जीती। भाजपा, यूडीएफ और एलडीएफ तीनों ने चैयरमेन पद के लिए अपने अपने उम्मीदवार खड़े किये जिसमें भाजपा को 24 वोट और यूडीएफ का 18 वोट एवं एलडीएफ को 10 वोट हासिल हुए। इस प्रकार हमेशा की तरह वोट बंअवारे के कारण भाजपा पलक्काड की सत्ता में काबिज हो गई।
यदि यूडीएफ और एलडीएफ मिलकर लड़ते और बारी बारी से अध्यक्ष, उपाध्यक्ष पद बांटने का फार्मूला बनाते तो पलक्काड़ नबर निगम की तस्वीर दूसरी होती। अब संघ प्रमुख पलक्काड़ जाते हैं वहां के स्कूल आदि के सरकारी कार्यक्रम में शामिल होकर ब्राहमणवादी भगवा आतंक का बिगुल फंूकते हैं और एलडीएफ के विजयन और प्रकाश इस फैलते आतंक पर कबूतर की तरह आंख बंद करके बिल्ली के गायब रहने का अलाप लेते हुए देशभर में इसी वोट बांटने के गीत को गाते घूमते रहते हैं।
यहां तक कहा जाता है कि स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व ने यूडीएफ और एलडीएफ के बीच कोई बात नही बनते देख वाम नेताओं से दोनों पक्षों के समर्थन किसी स्वतंत्र उम्मीदवार को अध्यक्ष बनाने की बात भी की थी। परंतु वाम नेतृत्व ने उसे भी नकार दिया।
अब इसी फार्मूले पर चलकर माकपा के क्रान्तिकारी खेमे के नेता प्रकाश करात और पूर्व में केरल सरकार में हुए एक घोटाले को लेकर सीबीआई जांच के दायरे में रहे पी विजयन फिर से गैर कांग्रेसवाद का आत्मघाती गीत गाते हुए केरल के पलक्काड माॅडल को देशभर में थोपने चले हैं। उनकी असली मंशा और उसके पीछे के कारणों को प्रकाश करात और पी विजयन ही बता सकते हैं। वैसे यह बात दीगर है कि सीबीआई नामक तोते के हद से ज्यादा इस्तेमाल के आरोपों को भेल रही भाजपा के सत्ता में रहते हुए भी अभी विजयन की जांच वाला मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, जिसमें सीबीआई की तरफ से तुषार मेहता वकील हैं और प्रकाश के साढू प्रणव राय और उनकी कंपनी पर एकबार छापेमारी के बाद सीबीआई और ईडी दोनों खामोश हैं।
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