Friday, 27 April 2018

23वां राष्ट्रीय सम्मेलन भाकपा से जन - अपेक्षा ------ विजय राजबली माथुर


* घोषित रूप से नेतृत्व खुद को नास्तिक - एथीस्ट कहता है जिस कारण जनता का समर्थन पार्टी को नहीं मिलता है लेकिन ब्राह्मण वादी कामरेड्स खुद तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा लेकर पार्टी पर अपना नियंत्रण बनाए रख कर पार्टी को न तो जन- प्रिय होने देते हैं न ही संगठन का विस्तार। 
**यदि भाकपा का 23 वां राष्ट्रीय सम्मेलन जनता को ढोंग- पाखंड के विरुद्ध जाग्रत करने का संकल्प लेकर थोथे आडंबर - धर्म पर प्रहार करके जनता को धर्म का मर्म समझा सके तो जनप्रियता हासिल करना मुश्किल न होगा।
*** प्रकृति प्राणी- प्राणी में ही भेद नहीं करती उसकी ओर से हवा, पानी, भोजन सबके लिए समान रूप से उपलब्ध कराया जाता है। यह मानव ही है जो मानव- मानव में भेद अपने शोषण को मजबूत करने के लिए उत्पन्न करता है।
**** भारतीय संस्कृति तो  ' कृण्वन्तो विश्वमार्यम ' वाली है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण विश्व को आर्य = आर्ष = श्रेष्ठ बनाना। यह आदर्श कम्यूनिज़्म का आदर्श है लेकिन यूरोपीय उत्कृष्टता ने एक दृष्टिकोण को एक जाति और क्षेत्र से जोड़ दिया जिसे दुर्भाग्य से देश के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने अंगीकार करके खुद को जनता से दूर कर लिया है। 
***** राम ने रावण के साम्राज्यवाद / विस्तारवाद को नष्ट किया था लेकिन उन राम के नाम पर कारपोरेट और व्यावसायिक घराने सांप्रदायिकता जो कि साम्राज्यवाद की ही सहोदरी है को ताकत प्रदान कर रहे हैं। लेकिन कम्युनिस्ट इसे काल्पनिक कह कर सांप्रदायिक / साम्राज्यवादी  तत्वों  को अपना खेल खेलने को खुला मैदान छोड़ देते हैं। इस विभ्रम से निकल कर जनता को  समष्टिवाद के प्रति जाग्रत करने और उसका समर्थन हासिल करने की ज़रूरत है।   








माकपा के संबंध में अंतिम अनुच्छेद में जो कुछ अनिल सिन्हा साहब ने लिखा है वैसा ही  कुछ - कुछ भाकपा के संबंध में भी चस्पा होता है। यू पी के मास्को रिटर्ण्ड ब्राह्मण कामरेड डिफ़ेक्टो नियंता भी हैं और उनका निर्वाचित पदाधिकारियों को निर्देश है कि, obc व sc कामरेड्स से काम तो लिया जाये लेकिन उनको कोई पदाधिकार न दिया जाये। अतीत में वह दो बार इसी हेतु पार्टी को विभाजित भी कर चुके हैं। उनकी स्पष्ट घोषणा है कि, वह जिसकी पीठ पर हाथ रखेंगे वही वैधानिक प्रमुख बन सकेगा अन्य कोई नहीं। 
यह आश्चर्य और खेद की बात है कि, सर्वाधिक पुरानी पार्टी होते हुये भी और प्रथम आम चुनावों में मुख्य विपक्षी दल बनने के बावजूद भाकपा की जनता पर पकड़ नहीं है । इसकी मुख्य वजह भी यही है कि, घोषित रूप से नेतृत्व खुद को नास्तिक - एथीस्ट कहता है जिस कारण जनता का समर्थन पार्टी को नहीं मिलता है लेकिन ब्राह्मण वादी कामरेड्स खुद तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा लेकर पार्टी पर अपना नियंत्रण बनाए रख कर पार्टी को न तो जन- प्रिय होने देते हैं न ही संगठन का विस्तार।  
भाजपा तो घोषित सांप्रदायिक पहचान वाली पार्टी है ही लेकिन कांग्रेस गुप्त रूप से सांप्रदायिकता को मजबूत करती है जैसा कि, आर एस एस की नीति है कि , सत्ता और विपक्ष दोनों पर उसका नियंत्रण रहे । 1980 में इन्दिरा गांधी और 1985 में राजीव गांधी आर एस एस के सहयोग से बहुमत पा सके थे इसीलिए उनको खुश करने के लिए अयोध्या से ताला खुलवाया था और 1992 में कांग्रेस शासन में ही विवादित ढांचा गिराया गया जिसके बाद तेजी से भाजपा की बढ़त हुई थी और वर्तमान मोदी सरकार मनमोहन सिंह की कृपा का फल है। लेकिन कांग्रेस-भाजपा विरोधी विपक्ष जनता से कटा होने के कारण उसके लिए कांग्रेस का साथ देना मजबूरी हो जाती है।और अंततः भाजपा भले ही सत्ताच्युत हो जाये आर एस एस दिन - ब - दिन मजबूत होता जाता है। 
यदि भाकपा का 23 वां राष्ट्रीय सम्मेलन जनता को ढोंग- पाखंड के विरुद्ध जाग्रत करने का संकल्प लेकर थोथे आडंबर - धर्म पर प्रहार करके जनता को धर्म का मर्म समझा सके तो जनप्रियता हासिल करना मुश्किल न होगा। जनता को यह समझाया जा सके कि, परमात्मा या प्रकृति प्राणी- प्राणी में ही भेद नहीं करती उसकी ओर से हवा, पानी, भोजन सबके लिए समान रूप से उपलब्ध कराया जाता है। यह मानव ही है जो मानव- मानव में भेद अपने शोषण को मजबूत करने के लिए उत्पन्न करता है। असामाजिक और अधार्मिक तत्व धर्म का चोला ओढ़ कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ते हैं जबकि, भारतीय संस्कृति तो  ' कृण्वन्तो विश्वमार्यम ' वाली है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण विश्व को आर्य = आर्ष = श्रेष्ठ बनाना। यह आदर्श , कम्यूनिज़्म का आदर्श है लेकिन यूरोपीय उत्कृष्टता ने एक दृष्टिकोण को एक जाति और क्षेत्र से जोड़ दिया जिसे दुर्भाग्य से देश के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने अंगीकार करके खुद को जनता से दूर कर लिया है। 
राम ने रावण के साम्राज्यवाद / विस्तारवाद को नष्ट किया था लेकिन उन राम के नाम पर कारपोरेट और व्यावसायिक घराने सांप्रदायिकता जो कि साम्राज्यवाद की ही सहोदरी है को ताकत प्रदान कर रहे हैं। लेकिन कम्युनिस्ट इसे काल्पनिक कह कर सांप्रदायिक / साम्राज्यवादी  तत्वों  को अपना खेल खेलने को खुला मैदान छोड़ देते हैं। इस विभ्रम से निकल कर जनता को  समष्टिवाद के प्रति जाग्रत करने और उसका समर्थन हासिल करने की ज़रूरत है।   

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