Wednesday, 25 November 2020

Atul Anjaan wants to promote Critical thinking at Lucknow Univarsity


Lucknow University is celebrating its 100 years(Centennary). The Times of India is covering it on a special manner. Prominent personalities affilated with LU are interviewed by TOI . ATUL KUMAR ANJAAN former President LUSU ,expressed his viewpoint on important issues.


 

Saturday, 10 October 2020

आपको भिखारी और मज़दूर बनानेवाला खुद-ब-खुद ख़त्म हो ------ अश्विनी प्रधान / रेनूआनंद

 


10-10-2020 

#सामंतवाद_क्या_है? 

   पड़ोसी लाठी लेकर आये और आपकी भैंस छीन ले जाए !

    #पूंजीवाद_क्या_है? 

    पड़ोसी लाठी लेकर आये और आपकी भैंस का आपका दूहा दूध छीन ले जाए !

     #समाजवाद_क्या_है? 

    जब आपकी भैंस दूध न दे, तो पड़ोसी अपनी भैंस का आधा दूध आपको दे दे और जब पड़ोसी की भैंस दूध न दे, तब आप अपनी भैंस का आधा दूध उसे दे दें !

      #साम्यवाद_क्या_है? 

    जब सारी भैंसे पूरे गांव की हों, सारा दूध पूरे गांव में बराबर बांटा जाए !

      #वर्ग_संघर्ष_क्या_है?

     जब वे लाठी ले कर आएं और आपकी भैंस खोल ले जाएँ या जबरदस्ती भैंस दुह ले जाएँ या दूहा हुआ दूध छीन ले जाएँ और आप उनके विरोध में अपनी भैस को और दूध को बचाने के लिए लाठी उठा लें और मुक़ाबला करें तो यही संघर्ष वर्ग-संघर्ष है !

     #बुर्ज़ुआ_क्या_है?

   जब कोई आपकी सारी गाय-भैंसे-बकरियां, ज़मीन-जायदाद, कपडे-लत्ते, खेत-खलियान, घर-आँगन, सब छीन ले जाए और आप के पास पहनने को न लंगोटी हो और न भीख मांगने को कटोरा और ज़िंदा रहने के लिए आपको मज़दूरी करनी पड़े और मज़दूरी के बदले में केवल वह आदमी आपको उतना ही खाने के लिए दे कि आप ज़िंदा रहकर उसके बेगारी और मज़दूरी कर सकें, और वह खुद कुछ भी मेहनत-मज़दूरी न करे, आपके बल पर ऐश करे, आपकी सारी संपत्ति हड़प ले, आप को गुलाम और बिना पैसे का नौकर बना ले, तो वह बुर्ज़ुआ है !

    #वाम_पंथ_क्या_है_और_दक्षिण_पंथ_क्या_है_१

    अगर कोई आप पर धौंस जमाए और आपकी भैंस को अपनी भैंस बताये तो यह दक्षिण-पंथ है !

    अगर कोई अपनी भैंस को अपनी माने और आपकी भैंस को आपकी भैंस माने तो यह वाम-पंथ है !

     #वाम_पंथ_क्या_है_और_दक्षिण_पंथ_क्या_है_२

   #वाम-पंथ वह है जो मानववाद में विश्वास करता है, जिसके केंद्र में मनुष्य है, जो इहलोक में विश्वास करता है, जो समता-समानता और प्रगति में विश्वास करता है और उसी के अनुरूप आचरण करता है !

    #दक्षिण-पंथ वह है तो मानवतावाद में विश्वास करता है, जिसके केंद्र में ईश्वर है, जो परलोक में विश्वास करता है, जो भेद-भाव में विश्वास करता है और पिछड़ेपन में विश्वास करता है और उसी के अनुरूप आचरण करता है !

     👉#क्रांति_क्या_है?

    जब आपकी सारी गाय-भैंसे-बकरियां, ज़मीन-जायदाद, कपडे-लत्ते, खेत-खलियान, घर-आँगन, सब छीन लिए जाएँ और आप के पास पहनने को न लंगोटी हो और न भीख मांगने को कटोरा, 

    आपको मज़दूरी करनी पड़े और मज़दूरी के बदले में केवल उतना मिले कि आप ज़िंदा रहकर मज़दूरी कर सकें, .... और आप मज़दूरी करने से मना कर दें और सचमुच किसी की मज़दूरी न करें, और सब लोग मिलकर एक साथ ऐसा करें, तो यह 'क्रांति' है …

     ऐसे हालत में आपको भिखारी और मज़दूर बनानेवाला खुद-ब-खुद ख़त्म हो जाएगा क्योंकि उसकी ज़िन्दगी आपकी मज़दूरी से चलती है !

                                    #साभार- #रेनूआनंद


https://www.facebook.com/ashwani.pradhan.3/posts/3378187565568974?__cft__[0]=AZUjEz20NmD5s2r1OFZ7VpVr3MW3q6_SqTsata1kSblohLLLSl87_LTney6f3iGqeR4qxXWF6GHck-De9E9se5LqKOZPXAZ5dx_B9DFG5l2vrPJT9q1to7XbK1lYf3pkGq_cophdyFZmHxhUE3w3_gX3n0G8E_NY8PoiVqu9X4eHXw&__tn__=%2CO%2CP-R

Thursday, 3 September 2020

ब्रिटिश राज में कम्युनिस्टों पर् जुल्म ------ गिरिधर पंडित

 ब्रिटिश राज में कम्युनिस्टों पर् जुल्म(28,अगस्त की पोस्ट से आगे)
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साथियों पिछली पोस्ट में हमने कॉमिन्टर्न की 7 वीं कांग्रेस में व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे पर ज्योर्जी दिमित्रोंव और वांग मिंग की रिपोर्ट का हवाला दिया था उसी कर्म में कॉंग्रेस में भारतीय मूल के ब्रिटिश कम्युनिस्टनेता और1929 के मेरठ षड्यंत्र केस के अभियुक्त ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बेन ब्रेडले  ने भारत सम्वन्धी रिपोर्टप्रस्तुत की जी इतिहास "दत्तब्रेडलेथीसिस",नाम से जानताहै। पाठक सवाल करेंगे कि क्यो इन्होंने भारत की तरफ से यह थीसिस प्रस्तुत की।जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से भाग लेने का,एस वी देश पांडे और एस एस मिराजकर रवाना हुए थे लेकिन उन्हें सिंगापुर में गिरफ्तार कर लिया गया इसलिये भारत का प्रतिनिधित्व बेन ब्रेडले ने किया रजनी पामदत्त पहले से ही कॉमिन्टर्न के सदस्य थे।29 फरवरी1936 में यह थीसिस  इम्प्रेकोर में प्रकाशित हुई।
   "दत्त ब्रेडले थीसिस"का सम्वन्ध भारत में व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी जन मोर्चे के निर्माण से है।यह वह ऐतिहासिक समय था जब  भारत के विषय में कॉमिन्टर्न को अपनी  6टी कांग्रेस के फैसले में परिवर्तन करना पड़ा। थीसिस का सार संक्षेप इस प्रकार है,:--1-इस समय जो जरूरी है वह यह कि कांग्रेस, टॉड यूनियन, किसान औरयुवा संगठनों में एक सामान्य मंच के रूप में एकता कायम की जाय। इस एकता/समूह बद्धता के लिए  न्यूनतम आधार होगा(1)साम्राज्यवाद के विरुद्ध निरंतर सँघर्ष का गतिपथ(लाइन)और पूर्ण आजादी के लिए एक संविधान(2)जनता की आवश्यक आवश्यकताओं के लिए सक्रिय संघर्ष।
2-साम्राज्यवाद विरोधीजन मोर्चेकि आवश्यकता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।इस बात की भी गुंजाइश है कि  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने संगठन और कार्यक्रम में बदलवाकर  एक मंच/मोर्चे की जरूरत बन सकती है।
      3-लेकिन यह भी मानना जरूरी है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपनी वर्तमान स्थिति में राष्ट्रीय संघर्ष हेतु भारतीय जनता का एक संयुक्त  मोर्चा नही है।इसके संविधान में अभी  भी  जनता के व्यापक हिस्सों की भागीदारी/भूमिका का उल्लेख नही है।इसका राष्ट्रीय सँघर्ष का कार्यक्रम सभी भी पूर्णतः स्पष्ट नही है।इसके नेतृत्व को अभी राष्ट्रीय संघर्ष के नेता के रूप में मान्य नही किया जा सकता।
   4-अभी भी मजदूर ,किसा ,ट्रेड्यूनियनें और किसान यूनियने कांग्रेस के संविधान से बाहर हैं।सिर्फ जब तमाम शक्तियां-मजदूर किसानों के जन संगठन चाहे संयुक्त मोर्चे  के रूप में,अथवा सामूहिक संबद्धताके जरिये कांग्रेस जुड़ें तभी  हम एक ऐसे राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे को प्राप्त कर सकते हैं जो एक साम्राज्यवाद विरोध जन मोर्चे को विकसित करने में सक्षम होगा।
     5,-यह जरूरी है कि आजादी और साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई के कार्यक्रम के साथ साथ मजदूर और किसानों की तात्कालिक आवश्यक आवश्यकताओं को भी शामिल किया जाय।"आगे कहा गया," ऐसे कार्यक्रम में निम्न बातें शामिल की जा सकतीहैं:--"( अ)-पूर्ण आजादी का लक्ष्यऔर जनतांत्रिक सरकार की स्थापना
(ब)-भाषण देने,संगठन बनाने,प्रेस,एकत्रित होने,हड़ताल, और धरने की आजादी।
( स)-तमाम मजदूर विरोधी अपवाद स्वरूप और दमनकारी कानूनों,अध्यादेशों की समाप्ति।
   (द)-तमाम राजवंदियों की रिहाई।
(य)-बेतन कटौती,बरख़्वास्तगी का विरोध।सही न्यूनतम वेतन,8 घण्टे का काम,किराए में 50%कटौती, की मांग और ऋण न चुका पाने की स्थिति में किसानों की जमीनों की जब्ती का विरोध। "
 यह भी कहा गया कि संघर्ष का केन्द्रीय नारा होगाकि:-बालिग मताधिकार ,सीधे गुप्त मतदान के आधार पर संविधान सभा  गंठित की जाय।"
    कुल मिला कर" दत्त ब्रेडले थीसिस"में  भारतीय कम्युनिस्टों को"  भारतीय राष्ट्रीयकांग्रेस को रूपांतरित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसके अनुसार इस रूपान्तरण के लिए चार सुधारों की जरूरत होगी:-1-कांग्रेस को जन संगठनों को  अपने संगठन में सामूहिक प्रवेश देना चाहिए  और उनकी सामूहिक संबद्धता  स्वीकार कने चाहिए। 2-कांग्रेस को अपने संविधान का प्रजातांत्रिककी करण करना चाहिए।-इसे अपने संविधान से केंद्रीकृत नियंत्रण समाप्त करना चाहिए  3-इसे एक स्पष्ट साम्राज्यवाद विरोधी कार्यक्रम स्वीकार करना चाहिए और्वपूर्ण आजादी और जनतांत्रिक सरकार की मांग करनी चाहिए।और4-इसे अहिंसा का उपदेश/मत  खत्म कर देना चाहिए।,"यह भी कहा गया कि इनमें पहला सुधार बाकी की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैताकि इन जन संगठनों के कांग्रेस में प्रवेश से वाम पन्थी धड़े को मजबूती मिल सके परन्तु इससे पहले वामपंथ को अद्वितीय एकता हासिल करनी होगी,इसलिए भारतीय कम्युनिस्टों को प्रतिद्वंदी क्रन्तिकारी समूहों के साथ शांति कायम करनी चाहिए।" दत्त ब्रेडलेथीसिस" में स्पष्ट रूप से कहा गया कि कांग्रेस के  भीतर वाम एकता कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।"
     ज्योर्जी दिमित्रोंव के निर्देश का अनुगमन करते हुए" दत्त ब्रेडले थीसिस "ने भरतीय कम्युनिस्टपार्टी का आह्वान किया कि वह  दक्षिणपंथी नेतृत्व के खिलाफ कांग्रेस के वाम धड़ेको तैयार करे। अर्थात कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ गंठजोड़ करे। भारतीय कम्युनिस्टों को  राष्ट्रीय नेतृत्व को कार्यकर्ताओं से अलग थलग करके कांग्रेस का अधिकाधिक साम्राज्यवाद विरोधी ताकत के रूप में रूपांतरण करना चाहिए।" इस दस्तावेज के बाद भारत के कम्युनिस्टों को खुद को सुधारने का रास्ता मिलगया।(  क्रमशःशेष अगले अंक में)
https://www.facebook.com/giridhar.pandit.12/posts/500898474079235

Thursday, 27 August 2020

"भूपेश गुप्त की सिंहगर्जना से जिसको सुनने से हर्दय, शरीर और रोम में कंपन होता था." : अतुल कुमार अंजान ------ जया सिंह

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साठ और सत्तर के दशक में भारतीय संसद में हीरेन मुखर्जी, नाथ पाई, ज्योतिर्मय बसु और अटल बिहारी वाजपेई के साथ साथ जिस वक्ता की सबसे ज़्यादा धाक होती थी वो थे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भूपेश गुप्त.
एक बार मशहूर रंगमंच आलोचक केनेथ टिनेन ने कहा था, "अंग्रेज़ कंजूसों की तरह लफ़्ज़ों की जमाखोरी करते हैं, जबकि आयरिश एक शराबी की तरह उन्हें बाहर निकाल देते हैं."
भूपेश गुप्त ने अपने जीवन में कभी शराब नहीं पी, लेकिन राज्यसभा में जब भी वो बोलने के लिए खड़े हुए, उनके मुंह से लफ़्ज एक आयरिश मैन की तरह ही निकले.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अंजान की भूपेश गुप्त से पहली मुलाकात जब हुई जब वो सिर्फ़ 16-17 साल के हुआ करते थे.
अंजान बताते हैं, "मैं आल इंडिया स्टूडेंट फ़ेडेरेशन के एक प्रदर्शन में दिल्ली आया था 1972 में. बोट क्लब पर हुए उस प्रदर्शन में मैंने भूपेश गुप्त को पहली बार बोलते हुए सुना. वहीं मैंने मधु लिमये, अमृतपद डाँगे और नाथ पाईजी को सुना. मैं इन सबसे प्रभावित हुआ. लेकिन सबसे अधिक प्रभावित हुआ भूपेश गुप्त की सिंहगर्जना से जिसको सुनने से हर्दय, शरीर और रोम में कंपन होता था."
अंजान आगे बताते हैं, "क्या शब्द थे उनके! क्या था उनका उच्चारण ! उस ज़माने में उतनी अंग्रेज़ी नहीं जानता था लेकिन तब भी लगता था कि वो हमारी ही बात कर रहे हैं.जब वो उठ कर जाने लगे तो मैं उनके पास जा कर खड़ा हो गया. उनसे बातचीत की. हाथ मिलाया. उन्होंने अंग्रेज़ी में पूछा कहाँ से? मैंने कहा लखनऊ से. ये मेरी उनकी पहली मुलाकात थी.''
बाद में तो अतुल अंजान का भूपेश गुप्त के साथ काफ़ी साथ रहा. जब भी वो लखनऊ से दिल्ली आते, उन्हीं के घर ठहरते थे. सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाते थे भूपेश गुप्त. तभी अख़बार वाला धड़ाप की आवाज़ के साथ अख़बार का बंडल फेंक जाता था.
दैनिक कार्य से निवृत्त होने के बाद वो चार बजे से अख़बार पढ़ना शुरू कर देते थे. पाँच बजे से वो राज्यसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए तैयारी शुरू कर देते थे. एक ही उंगली से अपने पुराने टाइप राइटर पर टाइप करना शुरू कर देते थे. सात-साढ़े सात बजे तक उनका काम रोको प्रस्ताव और ज़ीरो आवर में कौन सा सवाल पूछेंगे- इन सब की तैयारी हो जाती थी.
आठ सवा आठ बजे राज्यसभा के सचिवालय में उनका प्रश्न पहुंच जाता था और ठीक दस बजे वो संसद पहुंच जाते थे. कुल मिलाकर उन्होंने राज्यसभा में 1500 से 2000 के बीच भाषण दिए हैं.
जब भूपेश बोलते थे तो सभापति तक के बूते की बात नहीं होती थी कि वो उनके भाषण में व्यवधान डाले या उनसे कहे, "योर टाइम इज़ अप मिस्टर भूपेश गुप्त."
जब वो खड़े होते थे तो लोग अपनी कुर्सी से चिपक कर बैठ जाते थे. सुमित चक्रवर्ती मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक और जानेमाने पत्रकार निखिल चक्रवर्ती के बेटे हैं.
वो बताते हैं, "अबू अब्राहम ने एक बार लिखा था कि जब वो राज्यसभा में पहली बार एक सदस्य की हैसियत से घुसे तो उन्होंने देखा कि भूपेश गुप्त सदन में कोई मामला उठा रहे थे. उनका भाषण कुछ लंबा हो चला था. सभापति ने उनसे गुज़ारिश की कि मुद्दे पर आइए."
"भूपेश ने जवाब दिया मैं धीरे धीरे वही कर रहा हूँ. एक मोती से माला नहीं बन जाती. उनको एक एक कर पिरोने से ही माला बनती है. उनकी एक और अदा होती थी कि अपना भाषण देने के बाद वो अपना हियरिंग एड उतार देते थे. लोग मज़ाक में कहते थे कि वो ऐसा इसलिए करते थे ताकि उनके भाषण की आलोचना उनके कानों तक न पहुंच सके. एक बार नेहरू के भाषण के दौरान ही उन्होंने अपना हियरिंग एड उतार दिया था. जब नेहरू ने कहा था कि हममें से बहुतों को ये सौभाग्य नहीं प्राप्त है कि हम वो न सुनें जो हम सुनना नहीं चाहते."
हिरण्मय कार्लेकर हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रह चुके हैं. उन्होंने भूपेश गुप्त के राजनीतिक जीवन को बहुत नज़दीक से देखा है. वे बताते हैं, "अगर आपको उनसे बात करनी होती थी तो आपको बहुत ज़ोर से बोलना पड़ता था, क्योंकि वो ऊंचा सुनते थे. दूसरा वो खुले इंसान थे. जो कुछ कहना होता था साफ़ बोलते थे. तीसरे विवादास्पद बात करने में उन्हें बहुत मज़ा आता था. एक बात करके वो छोड़ देते थे और फिर देखते थे कि उसका उन लोगों पर क्या असर पड़ रहा है जिनके लिए वो बात कही गई थी."
भूपेश शराब को हाथ नहीं लगाते थे. सुमित चक्रवर्ती एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार नववर्ष के मौके पर एक महिला ने उनसे कहा कि आज तो कम से कम आप शैरी पी सकते हैं. भूपेश ने ज़ोर से ठहाका लगाते हुए कहा था कि तुम मुझसे वो काम करने के लिए कह रही हो जो मुझसे माओ त्से तुंग और निकिता ख्रुशचेव भी नहीं करवा पाए. उन्होंने कितनी बार मुझसे शराब पीने का इसरार किया लेकिन मैंने कभी उनकी बात नहीं मानी."
मेनस्ट्रीम के पूर्व संपादक निखिल चक्रवर्ती भूपेश गुप्त को उनके लंदन के दिनों से जानते थे. उनकी मौत के बाद उन्होंने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, "भूपेश संसदीय बहस के लिए बहुत तैयारी करते थे. वो अपने निजी सचिव खुद थे. उनका कमरा हमेशा बेतरतीब रहता था लेकिन वो मेज़ जिस पर वो काम करते थे, हमेशा साफ़ सुथरी होती थी."
"उस ज़माने में संसद में ध्यान आकर्षित करने के कई तरीके हुआ करते थे. एक था राजनारायण स्टाइल जहाँ आप मसखरापन कर सांसदों का ध्यान खींचते थे और दूसरा था संजय गांधी स्टाइल जहां आप ताक़त और ऊँची आवाज़ के ज़ोर पर अपनी बात मनवाते थे. भूपेश इन दोनों से अलग थे. उन्हें इसलिए सुना जाता था क्योंकि वो हमेशा नाइंसाफ़ी और असमानता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते थे."
भूपेश गुप्त की अकेली संपत्ति उनकी किताबें थी. उनके पास बहुत कम कपड़े होते थे. अगर कोई उन्हें कोई कपड़ा देता भी तो वो उसे किसी ज़रूरतमंद को बांट देते थे. कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व नेता मोहित सेन उनके बहुत करीबी थे.
उन्होंने अपनी आत्मकथा 'द ट्रैवलर एंड द रोड' में लिखा है, "जब वो मरे तो उनके बैंक अकाउंट में बहुत कम पैसे थे. उनके पास किताबों, नोटबुक्स और बहुत मामूली वार्डरोब के अलावा कुछ भी नहीं था. मुझे वो बहुत पसंद करते थे और अक्सर हम उनके फ़िरोज़ शाह रोड वाले घर से बंगाली मार्केट पैदल जाया करते थे जहाँ वो गोलगप्पे और मिठाइयां खाते थे."
"तीस के दशक से ही वो इंदिरा गाँधी से बहुत जुड़े हुए थे और उनके और फ़िरोज़ गाँधी के बीच संदेशवाहक का काम करते थे. लेकिन 1977 के बाद से वो उनके सख़्त ख़िलाफ़ हो गए थे, हालांकि उन्होंने इमरजेंसी का समर्थन किया था. उसके बाद वो उनसे निजी तौर पर कभी नहीं मिले."
भूपेश गुप्त और इंदिरा गांधी की दोस्ती के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है. इंदिरा गांधी, उनके होने वाले पति फ़िरोज़ गाँधी और भूपेश गुप्त ब्रिटेन से एक ही पानी के जहाज़ से भारत वापस लौटे थे.
इंदिरा गांधी की नज़दीकी दोस्त पुपुल जयकर ने उनपर लिखी जीवनी में लिखा है, "जब इंदिरा गांधी फ़िरोज़ गाँधी से शादी के मुद्दे पर अपने पिता जवाहरलाल नेहरू को नहीं मना पाईं तो वो और फ़िरोज़, कम्युनिस्ट नेता और अपने बहुत अच्छे दोस्त भूपेश गुप्त के पास गए."
"जब भूपेश ने ये सुना तो वो फ़िरोज़ की तरफ़ मुड़ कर बहुत गंभीरता से बोले, 'क्या तुम वफ़ादार रह पाओगे?' फ़िरोज़ ज़ोर से हंसे और घुटनों के बल बैठ कर बोले, 'क्या तुम चाहते हो कि मैं वफ़ादारी का प्रण लूँ?'
भूपेश गुप्ता ने फ़िरोज़ गांधी को कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि इंदिरा गांधी की तरफ़ मुड़कर पूछा, 'क्या तुम वास्तव में फ़िरोज़ से शादी करना चाहती हो?' उनको पता था कि इंदिरा ज़िद्दी है और उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ जब इंदिरा ने कहा कि उनका यही इरादा है. भूपेश ने तब दोनों से कहा कि वो महात्मा गांधी से सलाह लें."
इंदिरा गांधी से इतनी निकटता होने के बावजूद उनकी दोस्ती कभी भी उनके राजनीतिक विचारों के आड़े नहीं आई. जब वक्त का तकाज़ा हुआ तो उन्होंने इंदिरा गाँधी पर राजनीतिक हमलों से परहेज़ नहीं किया.
अतुल कुमार अंजान बताते हैं, "इंदिरा गांधी के साथ उनके संबंध नीतियों के सवाल पर कठोर होते थे. मुझे लगता है कि लंदन के अध्ययन काल में दोनों के संबंधों के बीच बहुत जीवंतता और आत्मीयता थी. एक बार मैं उनके निवास स्थान से संसद भवन पैदल जा रहा था."
"अचानक उनके सामने एक एंबेसडर कार आ कर रुकी. शीशा उतार कर एक महिला बोल रही थी भूपेश... भूपेश. मैंने देखा वो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. उन्होंने अपनी कार का दरवाज़ा खोला और उनसे अपनी कार में बैठने का आग्रह करने लगीं. लेकिन भूपेश कार में बैठने में झिझक रहे थे. अंतत: वो कार में नहीं बैठे. तब मुझे लगा कि ये सिर्फ़ एक अद्वितीय सांसद और प्रधानमंत्री के बीच का मामला नहीं है, बल्कि यह बहुत गहरा आत्मीय संबंध है."
जब 1980 में अचानक इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गाँधी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हो गया, तो घोर राजनीतिक विरोधी होते हुए भी भूपेश गुप्त ने संजय गाँधी को जिस तरह की भावभीनी श्रंद्धांजलि दी, वैसी शायद किसी ने भी नहीं दी.
भूपेश गुप्त बोले, "कई मौके ऐसे आते हैं जब नियमों को ताक पर रख दिया जाता है. अगर नियमों को ताक पर नहीं रखा गया होता तो 23 जून को हुई दुर्घटना नहीं हुई होती, तो प्रधानमंत्री के बेटे, सत्ताधारी पार्टी के महासचिव और 25 सालों तक मेरे दोस्त रहे फ़िरोज़ गांधी के छोटे बेटे और अगर मुझ पर चापलूसी का इल्ज़ाम न लगाया जाए, तो मेरी दोस्त इंदिरा गांधी के बेटे के प्राण नहीं जाते. मैं बहुत भरे दिल से यह सब कह रहा हूँ."
1981 में जब भूपेश गुप्त का निधन हुआ और उनके पार्थिव शरीर को अजय भवन लाया गया, तो इंदिरा गांधी स्वयं उन्हें श्रद्धांजलि देने कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन पहुंची. उस समय अतुल अंजान भी अजय भवन में मौजूद थे.
अतुल बताते हैं, "मैंने देखा कि इंदिरा जी आईं थी. एकदम श्वेत परिधान में थीं...एकदम सफ़ेद. काला चश्मा लगाए हुए थीं."
"जब वो भूपेश के पार्थिव शरीर के पास आईं तो बहुत देर तक खड़ी रहीं. उनका शरीर शीशे के कास्केड में रखा गया था, जिसमें उनका चेहरा दिखाई दे रहा था. वो अपनी लंबी गर्दन निकाल कर बहुत ग़ौर से भूपेश के चेहरे को देखती रहीं. मैं उनकी बगल में खड़ा था. मैंने देखा कि उनके काले चश्मे के नीचे से टप-टप आँसू बह रहे थे."
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1002714700168011&id=100012884707896

Friday, 7 August 2020

भारतीय संस्कृति के विषय में पं॰ जवाहर लाल नेहरू का द्रष्टिकोण ------ डा॰ गिरीश





[ अपने निहित राजनैतिक स्वार्थों के लिये दक्षिणपंथियों द्वारा आज भारतीय संस्क्रति पर जो तीखे हमले बोले जारहे हैं और उसे धर्म विशेष से जोड़ कर संकुचित, कुंठित और पथभ्रष्ट करने के भयानक प्रयास किये जा रहे हैं, तब भारतीय संस्क्रति के बारे में पं॰ जवाहर लाल नेहरू के सुष्पष्ट विचार हमें उसकी व्यापकता का दिग्दर्शन कराते हैं। आज के संगीन हालातों में यह और अधिक प्रासंगिक होगये हैं। श्री रामधारीसिंह दिनकर की पुस्तक “ संस्कृति  के  चार अध्याय ” की भूमिका के रूप में यह आलेख 30 सितंबर 1955 को पूरा किया गया था। अंतिम ढाई पंक्तियों को छोड़ यह आलेख अक्षरशः प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका शीर्षक भी मेरे द्वारा दिया गया है- डा॰ गिरीश ]


 मेरे मित्र और साथी दिनकर ने, अपनी पुस्तक के लिये जो विषय चुना है, वह बहुत ही मोहक और दिलचस्प है। यह ऐसा विषय है जिससे, अक्सर, मेरा अपना मन भी ओत- प्रोत रहा है और मैंने जो कुछ लिखा है, उस पर इस विषय की छाप आप से आप पड़ गयी है। अक्सर मैं अपने आप से सवाल करता हूँ, भारत है क्या? उसका तत्व या सार क्या है? वे शक्तियां कौन-सी हैं जिनसे भारत का निर्माण हुआ है तथा अतीत और वर्तमान विश्व को प्रभावित करने वाली प्रमुख प्रव्रत्तियों के साथ उनका क्या संबंध है? यह विषय अत्यंत विशाल है, और उसके दायरे में भारत और भारत के बाहर के तमाम मानवीय व्यापार आ जाते हैं। और मेरा ख्याल है कि किसी भी व्यक्ति के लिये यह संभव नहीं है कि वह इस संपूर्ण विषय के साथ अकेला ही न्याय कर सके। फिर भी, इसके कुछ खास पहलुओं को लेकर उन्हें समझने की कोशिश की जा सकती है। कम से कम, यह तो संभव है ही कि हम अपने भारत को समझने का प्रयास करें, यद्यपि, सारे संसार को अपने सामने न रखने पर भारत-विषयक जो ज्ञान हम प्राप्त करेंगे, वह अधूरा होगा।

संस्कृति  है क्या? शब्दकोश उलटने पर इसकी अनेक परिभाषायें मिलती हैं। एक बड़े लेखक का कहना है कि “संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गयी हैं, उनसे अपने आपको परिचित करना संस्कृति  है।“ एक दूसरी परिभाषा में यह कहा गया है कि “संस्कृति  शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण द्रढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है।“ यह “मन आचार या रुचियों की परिष्क्रति या शुद्धि” है। यह “सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना” है। इस अर्थ में, संस्कृति  कुछ ऐसी चीज का नाम हो जाता है जो बुनियादी और अंतर्राष्ट्रीय है। फिर, संस्कृति  के कुछ राष्ट्रीय पहलू भी होते हैं। और इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेक राष्ट्रों में अपना कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व तथा अपने भीतर कुछ खास ढंग के मौलिक गुण विकसित कर लिये हैं।

इस नक्शे में भारत का स्थान कहाँ पर है? कुछ लोगों ने हिन्दू-संस्कृति , मुस्लिम-संस्कृति  और ईसाई-संस्कृति  की चर्चा की है। ये नाम मेरी समझ में नहीं आते, यद्यपि, यह सच है कि जातियों और राष्ट्रों की संस्कृतियों  पर बड़े-बड़े धार्मिक आंदोलनों का असर पड़ा है। भारत की ओर देखने पर मुझे लगता है, जैसा कि दिनकर ने भी ज़ोर देकर दिखलाया है, कि भारतीय जनता की संस्कृति  का रूप सामासिक है और उसका विकास धीरे धीरे हुआ है। एक ओर तो इस संस्कृति  का मूल आर्यों से पूर्व, मोहनजोदड़ों आदि की सभ्यता तथा द्रविड़ों की महान सभ्यता तक पहुंचता है। दूसरी ओर, इस संस्कृति  पर आर्यों की बहुत ही गहरी छाप है जो भारत में मध्य एशिया से आये थे। पीछे चल कर, यह संस्कृति  उत्तर-पश्चिम से आने वाले तथा फिर समुद्र की राह से पश्चिम से आने वाले लोगों से बार-बार प्रभावित हुयी। इस प्रकार, हमारी राष्ट्रीय संस्कृति  ने धीरे धीरे बढ़ कर अपना आकार ग्रहण किया। इस संस्क्रति में समन्वयन तथा नये उपकरणों को पचा कर आत्मसात करने की अद्भुत योग्यता थी। जब तक इसका यह गुण शेष रहा, यह संस्कृति  जीवित और गतिशील रही। लेकिन, बाद को आकर उसकी गतिशीलता जाती रही जिससे यह संस्कृति  जड़ होगयी और उसके सारे पहलू कमजोर पड़ गये। भारत के इतिहास में हम दो परस्पर विरोधी और प्रतिद्वंदी शक्तियों को काम करते देखते हैं। एक तो वह शक्ति है जो बाहरी उपकरणों को पचा कर समन्वय और सामंजस्य पैदा करने की कोशिश करती है, और दूसरी वह जो विभाजन को प्रोत्साहन देती है; जो एक बात को दूसरी से अलग करने की प्रवृति  को बढ़ाती है। इसी समस्या का, एक भिन्न प्रसंग में, हम आज भी मुक़ाबला कर रहे हैं। आज भी कितनी ही बलिष्ठ शक्तियां हैं जो केवल राजनीतिक ही नहीं, सांस्कृतिक एकता के लिये भी प्रयास कर रही हैं। लेकिन, ऐसी ताक़तें भी हैं जो जीवन में विच्छेद डालती हैं, जो मनुष्य- मनुष्य के बीच भेद-भाव को बढ़ावा देती हैं।

अतएव आज हमारे सामने जो प्रश्न है वह केवल सैद्धान्तिक नहीं है उसका संबंध हमारे जीवन की सारी प्रक्रिया से है और उसके समुचित निदान और समाधान पर ही हमारा भविष्य निर्भर करता है। साधारणतः, ऐसी समस्याओं को सुलझाने में नेत्रत्व देने का काम मनीषी करते हैं। किन्तु, वे हमारे काम नहीं आये। उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो इस समस्या के स्वरूप को ही नहीं समझते। बाकी लोग हार मान बैठे हैं। वे विफलता-बोध से पीड़ित तथा आत्मा के संकट में ग्रस्त हैं और वे जानते ही नहीं कि जिंदगी को किस दिशा की ओर मोड़ना ठीक होगा।

बहुत से मनीषी मार्क्सवाद और उसकी शाखाओं की ओर आक्रष्ट हुये और इसमें कोई सन्देह नहीं कि मार्क्सवाद ने ऐतिहासिक विकास का विश्लेषण उपस्थित करके समस्याओं पर सोचने और उन्हें समझने के काम में हमारी सहायता की। लेकिन आखिर को, वह भी संकीर्ण मतवाद बन गया और, जीवन की आर्थिक पध्दति के रूप में उसका चाहे जो भी महत्व हो, हमारी बुनियादी शंकाओं का समाधान निकालने में वह भी नाकामयाब है। यह मानना तो ठीक है कि आर्थिक उन्नति जीवन और प्रगति का बुनियादी आधार है; लेकिन जिंदगी यहीं तक खत्म नहीं होती। यह आर्थिक विकास से भी ऊंची चीज है। इतिहास के अंदर हम दो सिद्धांतों को काम करते देखते हैं। एक तो सातत्य का सिद्धान्त है और दूसरा परिवर्तन का। ये दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी लगते हैं, परन्तु, ये विरोधी हैं नहीं। सातत्य के भीतर भी परिवर्तन का अंश है। इसी प्रकार, परिवर्तन भी अपने भीतर सातत्य का कुछ अंश लिये रहता है। असल में, हमारा ध्यान उन्हीं परिवर्तनों पर जाता है जो हिंसक क्रांतियों या भूकंप के रूप में अचानक फट पड़ते हैं। फिर भी, प्रत्येक भूगर्भ-शास्त्री यह जानता है कि धरती की सतह में जो बड़े-बड़े परिवर्तन होते हैं, उनकी चाल बहुत धीमी होती है और भूकंप से होने वाले परिवर्तन उनकी तुलना में अत्यंत तुच्छ समझे जाते हैं। इसी तरह, क्रान्तियाँ भी धीरे धीरे होने वाले परिवर्तन और सूक्ष्म रूपान्तरण की बहुत लंबी प्रक्रिया का बाहरी प्रमाण मात्र होती है। इस द्रष्टि से देखने पर, स्वयं परिवर्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जो परंपरा के आवरण में लगातार चलता रहता है। बाहर से अचल दीखने वाली परंपरा भी, यदि जड़ता और मृत्यु  का पूरा शिकार नहीं बन गयी है, तो धीरे धीरे वह भी परिवर्तित हो जाती है।

इतिहास में कभी कभी ऐसा भी समय आता है जब परिवर्तन की प्रक्रिया और तेजी कुछ अधिक प्रत्यक्ष हो जाती है। लेकिन, साधारणतः, बाहर से उसकी गति दिखाई नहीं देती। परिवर्तन का बाहरी रूप, प्रायः, निस्पंद ही दीखता है। जातियाँ जब अगति की अवस्था में रहती हैं, तब उनकी शक्ति दिनोंदिन छीजती जाती है, उनकी कमज़ोरियाँ बढ़ती जाती हैं। परिणाम यह होता है कि उनकी रचनात्मक कलाओं और प्रव्रत्तियों का क्षय हो जाता है। तथा, अक्सर वे राजनीतिक रूप में गुलाम भी हो जाती हैं।

संभावना यह है कि भारत में संस्कृति  के सबसे प्रबल उपकरण आर्यों और आर्यों से पहले के भारतवासियों, खास कर, द्रविड़ों के मिलन से उत्पन्न हुये। इस मिलन, मिश्रण या समन्वय से एक बहुत बड़ी संस्कृति  उत्पन्न हुयी जिसका प्रतिनिधित्व हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत  करती है। संस्कृत  और प्राचीन पहलवी, ये दोनों भाषायें एक ही माँ से मध्य एशिया में जन्मी  थीं, किन्तु, भारत में आकर संस्कृत  ही यहाँ की राष्ट्रभाषा हो गयी। यहाँ संस्कृत  के विकास में उत्तर और दक्षिण, दोनों ने योगदान दिया। सच तो यह है कि आगे चल कर संस्कृत  के उत्थान में दक्षिण वालों का अंशदान अत्यंत प्रमुख रहा। संस्कृत  हमारी जनता के विचार और धर्म का ही प्रतीक नहीं बनी, वरन भारत की सांस्कृतिक एकता भी उसी भाषा में साकार हुयी। बुद्ध के समय से लेकर अब तक संस्कृत  यहाँ की जनता की बोले जाने वाली भाषा कभी नहीं रही है, फिर भी, सारे भारतवर्ष पर वह अपना प्रचुर प्रभाव डालती ही आयी है। कुछ दूसरे प्रभाव भी भारत पहुंचे और उनसे भी विचारों और अभिव्यक्तियों को नयी दिशाएं प्राप्त हुयीं।

काफी लंबे इतिहास के अन्दर, भूगोल ने भारत को जो रूप दिया, उससे वह एक ऐसा देश बन गया जिसके दरवाजे बाहर की ओर बन्द थे। समुद्र और महाशैल हिमालय से घिरा होने के कारण, बाहर से किसी का इस देश में आना आसान नहीं था। कई सहस्राब्दियों के भीतर, बाहर से लोगों के बड़े बड़े झुंड भारत आये, किन्तु, आर्यों के आगमन के बाद से कभी ऐसा नहीं हुआ, जबकि बाहरी लोग बहुत बड़ी संख्या में भारत आये हों। ठीक इसके विपरीत, एशिया और यूरोप के आर-पार मनुष्यों के अपार आगमन और निष्क्रमण होते रहे; एक जाति दूसरी जाति को खदेड़ कर वहाँ खुद बसती रही और इस प्रकार, जनसंख्या की बुनावट में बहुत बड़ा परिवर्तन होता रहा। भारत में, आर्यों के आगमन के बाद, बाहरी लोगों के जो आगमन हुये, उनके दायरे बहुत ही सीमित थे। उनका कुछ-न-कुछ प्रभाव तो पड़ा, किन्तु, उससे यहाँ की जनसंख्या के स्वरूप में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। लेकिन, फिर भी, याद रखना चाहिये कि ऐसे कुछ परिवर्तन भारत में भी हुये हैं। सीथियन और हूण लोग तथा उनके बाद भारत आने वाली कुछ अन्य जातियों के लोग यहाँ आकर राजपूतों की शाखाओं में शामिल होगये और यह दावा करने लगे कि हम भी प्राचीन भारतवासियों की संतान हैं। बहुत दिनों तक बाहरी दुनियाँ से अलग रहने के कारण, भारत का स्वभाव भी अन्य देशों से भिन्न  हो गया। हम ऐसी जाति बन गये जो अपने आप में घिरी रहती है। हमारे भीतर कुछ ऐसे रिवाजों का चलन होगया जिन्हें बाहर के लोग न तो जानते हैं और न ही समझ पाते हैं। जाति-प्रथा के असंख्य रूप भारत के इसी विचित्र स्वभाव के उदाहरण हैं। किसी भी दूसरे देश के लोग यह नहीं जानते कि छुआछूत क्या चीज है तथा दूसरों के साथ खाने-पीने या विवाह करने में, जाति को ले कर, किसी को क्या उज्र होना चाहिये। इन सब बातों को लेकर हमारी द्रष्टि संकुचित होगयी। आज भी भारतवासियों को दूसरे लोगों से खुल कर मिलने में कठिनाई महसूस होती है। यही नहीं, जब भारतवासी भारत से बाहर जाते हैं, तब वहाँ भी एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से अलग रहना चाहते हैं। हममें से बहुत लोग इन सारी बातों कों स्वयंसिद्ध मानते हैं और हम यह समझ ही नहीं पाते कि इन बातों से दूसरे देश वालों को कितना आश्चर्य होता है, उनकी भावना को कैसी ठेस पहुंचती है।

भारत में दोनों बातें एक साथ बढ़ीं। एक ओर तो विचारों और सिद्धांतों में हमने अधिक-से-अधिक उदार और सहिष्णु होने का दावा किया। दूसरी ओर, हमारे सामाजिक आचार अत्यंत संकीर्ण होते गये। यह विभक्त व्यक्तित्व, सिध्दांत और आचरण का यह विरोध, आज तक हमारे साथ है और आज भी हम उसके विरुध्द संघर्ष कर रहे हैं। कितनी विचित्र बात है कि अपनी द्रष्टि की संकीर्णता, आदतों और रिवाजों की कमजोरियों को हम यह कर नजर-अंदाज कर देना चाहते हैं कि हमारे पूर्वज बड़े लोग थे और उनके बड़े बड़े विचार हमें विरासत में मिले हैं। लेकिन, पूर्वजों से मिले हुये ज्ञान और हमारे आचरण में भारी विरोध है और जब तक हम इस विरोध की स्थिति को दूर नहीं करते, हमारा व्यक्तित्व विभक्त का विभक्त रह जायगा।

जिन दिनों जीवन अपेक्षाक्रत अधिक गतिहीन था, उन दिनों सिध्दान्त और आचरण का यह विरोध इतना उग्र दिखायी नहीं देता था। लेकिन, ज्यों-ज्यों राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों की रफ्तार तेज होती गयी, इस विरोध की उग्रता भी अधिक से अधिक प्रत्यक्ष होती आयी है। आज तो हम आणविक युग के दरवाजे पर खड़े हैं। इस युग की परिस्थितियाँ इतनी प्रबल हैं कि हमें अपने इस आंतरिक विरोध का शमन करना ही पड़ेगा और इस काम में हम कहीं असफल होगये तो यह असफलता सारे राष्ट्र की पराजय होगी और हम उन अच्छाइयों को भी खो बैठेंगे जिन पर हम आज तक अभिमान करते आये हैं।

जैसे हम बड़ी-बड़ी राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं का मुकाबला कर रहे हैं वैसे ही, हमें भारत के इस आध्यात्मिक संकट का भी सामना करना चाहिये। भारत में औद्योगिक क्रान्ति बड़ी तेजी से आ रही है और हम नाना रूपों में बदलते जा रहे हैं। राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का यह अनिवार्य परिणाम है कि उससे सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होते हैं; अन्यथा न तो हमारे वैयक्तिक जीवन में समन्वय रह सकता है, न राष्ट्रीय जीवन में। ऐसा नहीं हो सकता कि राजनीतिक परिवर्तन और औद्योगिक प्रगति तो हो, किन्तु, हम यह मान कर बैठें रह जायें कि सामाजिक क्षेत्र में हमें कोई परिवर्तन लाने की आवश्यकता नहीं है। राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के अनुसार समाज को परिवर्तित नहीं करने से हम पर जो बोझ पड़ेगा, उसे हम बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे, उसके नीचे हम दब जाएँगे।

ईसा के जन्म के बाद की पहली सहस्राब्दी और उससे पहले के भारत की जो तस्वीर हमारे सामने आती है वह उस तस्वीर से भिन्न है, जो बाद को मिलती है। उन दिनों के भारतवासी बड़े मस्त, बड़े जीवन्त, बड़े साहसी और जीवन के प्रति अद्भुत उत्साह से युक्त थे तथा अपना संदेश वे विदेशों में दूर दूर तक ले जाते थे। विचारों के क्षेत्र में तो उन्होने ऊंची से ऊंची चोटियों पर अपने कदम रखे और आकाश को चीर डाला। उन्होने अत्यंत गौरवमयी भाषा की रचना की और कला के क्षेत्र में उन्होने अत्यंत उच्च कोटी की कारयित्री प्रतिभा का परिचय दिया। उन दिनों का भारतीय जीवन घेरों में बंद नहीं था, न तत्कालीन समाज में ही जड़ता या गतिहीनता की कोई बात थी। उस समय एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक, समग्र भारत में सांस्कृतिक  उत्साह भी लहरें ले रहा था। इसी समय, दक्षिण भारतवर्ष के लोग दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर गये और वहाँ उन्होने अपना उपनिवेश स्थापित किया। दक्षिण से ही बौध्द मत का संदेश लेकर बोधि-धर्म चीन पहुंचा। इस साहसिक जीवन की अभिव्यक्ति में उत्तर और दक्षिण दोनों एक थे और वे परस्पर एक दूसरे का पोषण भी करते थे।

इसके बाद, पिछली शताब्दियों का समय आता है, जब पतन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भाषा में कृत्रिमता  और स्थापत्य में सजावट की भरमार इसी पतनशीलता के प्रमाण हैं। यहाँ आकर हमारे विचार पुराने विचारों की आव्रत्ति बन जाते हैं और कारयित्री शक्ति दिनोंदिन क्षीण होने लगती है। शरीर और मन, दोनों की साहसिकता से हम भय खाने लगते हैं तथा जाति-प्रथा का और भी विकास होता है एवं समाज के दरवाजे चारों ओर से बन्द हो जाते हैं। पहले की तरह बातें तो हम अब भी ऊंची-ऊंची करते हैं, लेकिन, हमारा आचरण हमारे विश्वास से भिन्न हो जाता है।

हमारे आचरण की तुलना में हमारे विचार और उद्गार इतने ऊंचे हैं कि उन्हें देख कर आश्चर्य होता है। बातें तो हम शान्ति और अहिंसा की करते हैं, मगर, काम हमारे कुछ और होते हैं। सिध्दांत तो हम सहिष्णुता का बघारते हैं, लेकिन, भाव हमारा यह होता है कि सब लोग वैसे ही सोचें, जैसे हम सोचते हैं, और जब भी कोई हम से भिन्न प्रकार से सोचता है, तब हम उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। घोषणा तो हमारी यह है कि स्थितप्रज्ञ बनना अर्थात कर्मों के प्रति अनासक्त रहना हमारा आदर्श है, लेकिन, काम हमारे बहुत नीचे के धरातल पर चलते हैं और बढ़ती हुयी अनुशासनहीनता हमें वैयक्तिक और सामाजिक, दोनों ही क्षेत्रों में नीचे ले जाती है।

जब पश्चिम के लोग समुद्र के पार से यहाँ आये, तब भारत के दरवाजे एक खास दिशा की ओर से खुल गये। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता बिना किसी शोर-गुल के धीरे-धीरे इस देश में प्रविष्ट होगयी। नये भावों और नये विचारों ने हम पर हमला किया और हमारे बुध्दिजीवी अंग्रेज़ बुध्दिजीवियों की तरह सोचने की आदत डालने लगे। यह मानसिक आंदोलन, बाहर की ओर वातायन खोलने का यह भाव, अपने ढंग पर अच्छा रहा, क्योंकि इससे हम आधुनिक जगत को थोड़ा-बहुत समझने लगे। मगर, इससे एक दोष भी निकला कि हमारे ये बुध्दिजीवी जनता से विच्छिन्न हो गये क्योंकि जनता विचारों की इस नयी लहर से अप्रभावित थी। परंपरा से भारत में चिंतन की जो पध्दति चली आ रही थी, वह टूट गयी। फिर भी कुछ लोग उससे इस ढंग से चिपके रहे, जिसमें न तो प्रगति थी, न रचना की नयी उद्भावना और जो पूर्ण रूप से नयी परिस्थितियों से असंबध्द थी।

पाश्चात्य विचारों में भारत का जो विश्वास जगा था, अब तो वह भी हिल रहा है। नतीजा यह है कि हमारे पास न तो पुराने आदर्श हैं, न नवीन, और हम बिना यह जाने हुये बहते जा रहे हैं कि हम किधर को या कहाँ जा रहे हैं। नयी पीढ़ी के पास न तो कोई मानदंड है, न कोई दूसरी ऐसी चीज, जिससे वह अपने चिंतन या कर्म को नियंत्रित कर सके।

यह खतरे की स्थिति है। अगर इसका अवरोध और सुधार नहीं हुआ तो इससे भयानक परिणाम निकल सकते हैं। हम आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में संक्रान्ति की अवस्था से गुजर रहे हैं। संभव है, यह उसी स्थिति का अनिवार्य परिणाम हो। लेकिन आणविक युग में किसी देश को अपना सुधार करने के लिए ज्यादा मौके नहीं दिये जायेंगे। और इस युग में मौका चूकने का अर्थ सर्वनाश भी हो सकता है।

यह संभव है कि संसार में जो बड़ी बड़ी ताक़तें काम कर रही हैं, उन्हें हम पूरी तरह न समझ सकें, लेकिन, इतना तो हमें समझना ही चाहिये कि भारत क्या है और कैसे इस राष्ट्र ने अपने सामासिक व्यक्तित्व का विकास किया है। उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू कौन-से हैं और उसकी सुद्रढ़ एकता कहाँ छिपी हुयी है। भारत में बसने वाली कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के समस्त मन और विचारों पर उसी का एकाधिकार है। भारत, आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते तो हम भारत को भी समझने में असमर्थ रहेंगे और यदि भारत को नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार और काम, सब के सब अधूरे रह जायेंगे और हम देश की कोई ऐसी सेवा नहीं कर सकेंगे जो प्रभावपूर्ण और ठोस हो।

 (जवाहर लाल नेहरू)

नई दिल्ली,

30 सितंबर 1955

 डा॰ गिरीश  द्वारा पुनर्प्रकाशित  और जारी

Thursday, 4 June 2020

अमेरिका में तानाशाही के खिलाफ विद्रोह से सबक ले सरकार ------ डा॰ गिरीश, भाकपा

कोविड-19 की आड़ में लोकतन्त्र की हत्या करने पर आमादा है राज्य सरकार

भाकपा ने कांग्रेस अध्यक्ष व अन्य की गिरफ्तारी की कड़े शब्दों में निन्दा की

अमेरिका में तानाशाही के खिलाफ विद्रोह से सबक ले सरकार: भाकपा

लखनऊ- 4 जून 2020, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने उत्तर प्रदेश सरकार पर आरोप लगाया है कि वह कोविड- 19 की आड़ में लोकतन्त्र की हत्या करने पर पर आमादा है। इस नापाक उद्देश्य से वह मजदूरों, किसानो और आम लोगों की आवाज को कुचल रही है। सरकार के इन क्रत्यों का विरोध करने पर विपक्ष के नेताओं को जबरिया गिरफ्तार करा रही है।

यहां जारी एक प्रैस बयान में भाकपा राज्य सचिव मंडल ने कहा कि राज्य सरकार ने विपक्ष को कुचलने के अपने राजनैतिक एजेंडे के तहत कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष श्री अजय कुमार लल्लू को गत दिनों आगरा में गिरफ्तार कर लिया। वहां जमानत मिल जाने पर मनमाने तरीके से नये केस गढ़ कर उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया। इसी तरह यूपी पुलिस ने 11 मई को बस्ती में वामपंथी दलों के कार्यकर्ताओं को उस समय गिरफ्तार कर लिया जब वे मजदूरों- किसानों की समस्याओं को लेकर जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंपने जारहे थे।

अब कल मथुरा में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की रिहाई की मांग को लेकर जिलाधिकारी को ज्ञापन देने पहुंचे कांग्रेस के लगभग दर्जन भर कार्यकर्ताओं को जबरिया गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।

भाकपा इन गिरफ्तारियों की कठोर शब्दों में निन्दा करती है और मांग करती है कि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सहित सभी को तत्काल रिहा किया जाये।

उन्होने कहाकि भाजपा सरकारें कोविड- 19 से निपटने में बुरी तरह विफल होचुकी हैं और संक्रमितों की संख्या 1 लाख से ऊपर पहुँच चुकी है। वह जनता की समस्याओं के समाधान में बुरी तरह विफल होचुकी हैं। ऐसी स्थितियों में भी शासक दल अपने जनविरोधी एजेंडे को धड़ल्ले से चला रहा है और विपक्ष को जनता की समस्याएं उठाने से बाधित कर रहा है। वह कोविड-19 को अपने जनविरोधी कार्यों के कवच के रूप में स्तेमाल कर रहा है।

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष को इस खुन्नस के कारण गिरफ्तार किया गया कि परदेशी मजदूरों को लाने के लिए कांग्रेस ने बसें यूपी बार्डर पर लगा दीं। इससे भाजपा सरकार की किरकिरी हुयी जिसका बदला उन्होने कांग्रेस अध्यक्ष की गिरफ्तारी करके लिया। जब उन बसों को यूपी में घुसने ही नहीं दिया गया तो उनकी कथित सूची को गिरफ्तारी का आधार बनाना कोरा ढकोसला है। सरकार को इससे बाज आना चाहिए।

भाकपा ने कहा कि कोविड-19 के आने से पहले भी सरकार ने सीएए का विरोध कर रहे कई आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया और अन्य कई को गिरफ्तार करने का षडयंत्र रचा। अब वही कार्यवाही वह कोरोना महामारी की आड़ में कर रही है। सरकार लगातार लोकतान्त्रिक कार्यवाहियों को बाधित कर रही है और लोकतन्त्र को कुचल रही है। अमेरिका की घटनाओं से भी सरकार ने कोई सबक नहीं लिया जहां तानाशाही के खिलाफ करोड़ों लोग सड़क पर आगये है।

जारी द्वारा

डा॰ गिरीश, राज्य सचिव

भाकपा, उत्तर प्रदेश

Tuesday, 26 May 2020

नहीं मिला लाक डाउन का लाभ ------ डा॰ गिरीश



नहीं मिला लाक डाउन का लाभ
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लाक डाउन के औचित्य- अनौचित्य पर दुनियां में गंभीर बहस छिड़ी हुयी है। यह बहस भारत में अभी भले ही शैशवकाल में हो पर दुनियां अन्य हिस्सों में काफी ज़ोर पकड़ चुकी है।

अब ब्रिटेन की स्टैनफोर्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और नोवेल पुरूस्कार विजेता माइकल लेविट ने लाक डाउन के औचित्य पर कई सवाल खड़े कर दिये हैं।

उन्होने दावा किया है कि महामारी के रोकने में लाक डाउन का कोई फायदा नहीं हुआ है। उन्होने कहा कि लोगों को घरों के अन्दर रखने का फैसला विज्ञान के आधार पर नहीं घवराहट के आधार पर लिया गया।

ब्रिटेन में लगाये गए लाक डाउन के बारे में प्रोफेसर माइकल लेविट ने कहा कि सरकार ने प्रोफेसर नील फ्रेग्यूसन की जिस माडलिंग के आधार पर लाक डाउन का फैसला लिया है, उसमें मौत के आंकड़ों को वेवजह 10 से 12 गुना तक ज्यादा बढ़ा कर दिखाया गया है।

उन्होने प्रतिष्ठित अमेरिकी वित्तीय कंपनी जेपी मॉर्गन की रिपोर्ट को आधार बनाते हुये कहा है कि लाक डाउन न सिर्फ महामारी के प्रसार को कम करने में असफल रहा बल्कि, उसकी वजह से करोड़ों लोगों की नौकरी भी छिन गयी।

प्रोफेसर लेविट ने कहा, मुझे लगता है लाक डाउन से जिंदगियां बची नहीं हैं, उलटे उससे कई जिंदगियां गयी जरूर हैं। इससे कुछ सड़क दुर्घटनायें जरूर रुकी होंगी ( भारत में तो सड़क दुर्घटनाओं में ही हजारों की मौत हो गयी ), लेकिन घरेलू हिंसा, तलाक और शराब पीने की आदत चरम पर पहुंच गयी हैं। साथ ही अन्य बीमारियों से जूझ रहे लोगों को भी इलाज नहीं मिला है।

जेपी मॉर्गन के शोधकर्ता मार्को कोलानोविक ने कहा कि सरकारों को गलत वैज्ञानिक दस्तावेजों के आधार पर लाक डाउन लगाने के लिये भ्रमित किया गया। लाक डाउन या तो अक्षम पाया गया या कम प्रभावी पाया गया। लाक डाउन हटाये जाने के बाद से संक्रमण की दर में गिरावट आयी है।

यह संकेत देता है कि वायरस की अपनी गतिशीलता है, जिस पर लाक डाउन का असर नहीं हुआ।

प्रस्तुति-

डा॰ गिरीश 
राज्यसचिव , उत्तर प्रदेश ,
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 

Monday, 4 May 2020

कोरोना काल और मार्क्सवाद की प्रासंगिकता ------ डा॰ गिरीश



कार्ल मार्क्स की 202 वीं जयंती ( 5 मई ) पर-
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कोरोना काल में समूचे विश्व और भारत में मेहनतकशों पर बरपी मुसीबतों ने उन्हें सारी दुनियां के ध्यान के केन्द्र में ला दिया है। इसके साथ ही उनकी किस्मत के कायापलट के उद्देश्य से रचे गए सिध्दांत और उसके स्रजेता – कार्ल मार्क्स को भी विमर्श के सघन केन्द्र में ला दिया है। यद्यपि वे बौध्दिक और व्यावहारिक विमर्श से कभी बाहर नहीं हुये थे।

5 मई 1818 को जन्मे कार्ल हेनरिक मार्क्स का नाम इतिहास के सर्वाधिक अनुयायित महापुरुषों में विशिष्ट स्थान रखता है। उन्होने अपने मित्र और सहयोगी फ़्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिल कर साम्यवाद की विजय के लिये, सर्वहारा के वर्ग- संघर्ष के सिध्दांत की विजय के लिये सर्वहारा वर्ग- संघर्ष के सिध्दांत तथा कार्यनीति की रचना की थी। यह दोनों ही व्यक्ति इतिहास में विश्व के मेहनतकश वर्ग के विलक्षण शिक्षकों, उनके हितों के महान पक्षधरों, मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन के सिध्दांतकारों और संगठनकर्ताओं के रूप में सदैव अमर रहेंगे।

मार्क्स ने विश्व को सही ढंग से समझने तथा उसे बदलने के लिये मानव जाति और उसके सबसे ज्यादा क्रांतिकारी वर्ग, सर्वहारा वर्ग को एक महान अस्त्र का काम करने वाले अत्यंत विकसित एवं वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से लैस किया था, जिसका नामकरण बाद में उन्हीं के नाम पर- मार्क्सवाद किया गया। उसके बाद महान लेनिन ने उसे अपनी सामयिक परिस्थितियों के अनुकूल व्याख्यायित और विकसित कर सर्वहारा के स्वप्नों को अमलीभूत करने वाले राज्य – सोवियत संघ की स्थापना कर डाली। तदुपरान्त यह सिध्दांत मार्क्सवाद- लेनिनवाद कहलाया।

महर्षि मार्क्स ने ही समाजवाद को काल्पनिकता के स्थान पर वैज्ञानिक रूप प्रदान किया तथा पूंजीवाद के अवश्यंभावी पतन व साम्यवाद की विजय के लिये एक विशद एवं सर्वांगीण सैध्दांतिक विश्लेषण प्रस्तुत किया।

उन्होने ही अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन तथा मजदूर वर्ग की प्रारंभिक क्रांतिकारी पार्टियों का गठन किया था। इन पार्टियों ने वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा को स्वीकार किया।

उन्होने ही पूंजीवाद को नेस्तनाबूद करने और समाजवादी ढंग पर समाज के क्रांतिकारी रूपान्तरण के लिये पूंजीवादी उत्पीड़न के विरूध्द उठाने वाले मजदूरों के स्वतःस्फूर्त आंदोलनों को सचेत वर्ग- संघर्ष का रूप प्रदान किया।

मार्क्स प्रथम व्यक्ति थे जिनहोने सामाजिक विकास का नियंत्रण करने वाले नियमों की खोज के बल पर मानव कल्याण और प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति के सर्वांगीण विकास तथा सामाजिक उत्पीड़न को समाप्त करके सम्मानजनक जीवन- पध्दति के अनुरूप आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण करने के लिये मेहनतकशों को सही रास्ता और उपाय समझाया था।

मार्क्स के पहले के सामाजिक सिध्दांत नियमतः धनिक वर्ग का पक्ष- पोषण करते थे। उनसे गरीबों की बेहतरी की कोई आशा नहीं की जा सकती थी। वर्गीय समाज के संपूर्ण इतिहास में शासक और शोषक वर्ग शिक्षा, वैज्ञानिक उपलब्धियों, कलाओं और राजनीति पर एकाधिकार जमाये हुये थे जबकि मेहनतकश लोगों को अपने मालिकों के फायदे के लिये मेहनत करते हुये अपना पसीना बहाना पड़ता था। यद्यपि समय समय पर दलितों के प्रवक्ताओं ने अपने सामाजिक विचारों को परिभाषित किया था, पर वे विचार अवैज्ञानिक थे। उनमें अधिक से अधिक चमक मात्र थी, पर समग्र रूप से ऐतिहासिक विकास के नियमों की समझदारी का उनमें अभाव था। वे स्वाभाविक विरोध और स्वतःस्फूर्त आंदोलन की एक अभिव्यक्ति ही कहे जा सकते थे।

इसी दौर में आगे बढ़ रहे मुक्ति आंदोलनों को वैज्ञानिक विचारधारा की नितांत आवश्यकता थी, जिसकी भौतिक और सैद्धांतिक पूर्व शर्तें कालक्रम से परिपक्व हो चुकी थीं।

औद्योगिक क्रान्ति के दौरान उत्पादक शक्तियों के तीव्र गति से होने वाले विकास ने मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की समाप्ति और मजदूर वर्ग की मुक्ति  के ऐतिहासिक कार्य के प्रतिपादन के लिये वास्तविक आधार तैयार कर दिया था। पूंजीवाद के विकास के साथ ही एक ऐसी सक्षम सामाजिक शक्ति का उदय होगया था जो इस कार्य को पूरा कर सकती थी। उस शक्ति का नाम था- मजदूर वर्ग।

मजदूर वर्ग के हितों की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के रूप में मार्क्सवाद सर्वहारा के वर्ग संघर्ष के साथ निखरा और विकसित हुआ। पूंजीवाद के आंतरिक अंतर्विरोधों के प्रकाश में आने से यह निष्कर्ष सामने आया कि पूंजीवादी समाज का विध्वंस अवश्यंभावी है। साथ ही मजदूर वर्ग के आंदोलन के विकास से यह निष्कर्ष उजागर हुआ कि सर्वहारा ही आगे चल कर पूंजीवादी पध्दति की कब्र खोदेगा तथा नए समाजवादी समाज का निर्माण करेगा।

इस संबन्ध में लेनिन ने एक बहुत ही सुस्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होने लिखा, “ एकमात्र, मार्क्स के दार्शनिक भौतिकवाद ने ही सर्वहारा को ऐसी आध्यात्मिक गुलामी से निकालने का रास्ता सुझाया जिसमें संपूर्ण दलित वर्ग अभी तक पीसे जा रहे थे। एकमात्र, मार्क्स के आर्थिक सिध्दांत ने ही पूंजीवादी व्यवस्था के दौरान सर्वहारा वर्ग की सही नीति की व्याख्या की थी।“

सामाजिक संबंधों के विकास संबंधी विशद विश्लेषण से मार्क्स और एंगेल्स की यह समझदारी पक्की हुयी कि इन संबंधों में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त करने और समाजवादी समाज के निर्माण के लिये एक सक्षम शक्ति के रूप में सर्वहारा को महान ऐतिहासिक भूमिका निभानी होगी। सर्वहारा वर्ग की वर्तमान स्थिति से ही उसकी युग परिवर्तनकारी भूमिका निःस्रत होगी। पूंजीवादी शोषण के जुए से समस्त मेहनतकशों को मुक्त कराये बिना वह खुद भी मुक्त नहीं हो सकता। मार्क्स ने इस काम को सर्वहारा के वर्ग- संघर्ष का उच्च मानवीय उद्देश्य माना था, जिसका लक्ष्य मेहनतकश इंसान को पूंजीवादी समाज की अमानवीय स्थिति से मुक्ति दिलाना था।

मार्क्सवाद हमें यह भी सिखाता है कि विशुध्द वैज्ञानिक क्रान्तिकारी सिध्दांत और क्रांतिकारी व्यवहार की एकता कम्युनिज़्म की मुख्यधारा है।  क्रान्तिकारी व्यवहार के बिना, और मार्क्सवादी विचारधारा को जीवन में अपनाए वगैर, यह सिद्धान्त महज ऊपरी लफ्फाजी तथा सुधारवाद व अवसरवाद के लिये एक आवरण मात्र बन कर रह जाता है। विज्ञान और सामाजिक विकास के बारे में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण के बिना क्रान्तिकारी कार्यवाही का पतन दुस्साहसवाद के रूप में हो जाता है जो अराजकता की ओर लेजाता है।

मजदूरवर्ग के हितों का वाहक कौन बनेगा इस पर भी मार्क्स का सुस्पष्ट द्रष्टिकोण है-

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग के आंदोलनों के संपूर्ण इतिहास, विश्व की क्रांतिकारी प्रक्रिया तथा विभिन्न देशों में होने वाले क्रान्तिकारी संघर्षों के उतार- चढ़ाव ने अकाट्य रूप से यह साबित कर दिया है कि केवल मार्क्सवाद- लेनिनवाद के क्रान्तिकारी सिध्दांतों से निर्देशित पार्टी ही एक लड़ाकू अगुवा दस्ते का काम कर सकती है।

लेनिन ने रूस के मजदूर वर्ग के आंदोलन के शुरू में ही मार्क्स के सिध्दांतों का क्रान्तिकारी निचोड़ प्रस्तुत करते हुये लिखा था, “इस सिध्दांत का, जिसको समस्त देशों के समाजवादियों ने अपनाया है, अपरिहार्य आकर्षण इस तथ्य में निहित है कि इससे सही अर्थों में, सर्वोपरि रूप से वैज्ञानिकता और क्रान्तिकारिता का अपूर्व सामंजस्य है। इसमें उन गुणों का आकस्मिक सामंजस्य केवल इसलिए नहीं है कि उस सिध्दांत के प्रणेता के व्यक्तित्व में एक वैज्ञानिक और क्रान्तिकारी के गुणों का समावेश है, अपितु उनमें एक स्वाभाविक और अटूट समंजस्य है।“

आज कोविड- 19 के आक्रमण ने विश्व पूंजीवादी व्यवस्था की निरीहता की कलई खोल के रख दी है। यह व्यवस्था अपने नागरिकों और समाज को बीमारी के प्रकोप से बचाने के बजाय विधवा प्रलाप कर रही है। पूंजीवाद ने बड़ी ध्रष्टता से संकट का भार सर्वहारा के कंधों पर लाद दिया है। दौलत पैदा करने वालों को कोरोना और भूख के हाथों मरने को छोड़ दिया है। आज अपने ही वतन में वे बेघर और बेगाने नजर आरहे हैं। शारीरिक, मानसिक और आर्थिक आघात झेल रहे हैं। उनके अनुभवों ने सिध्द कर दिया है कि मौजूदा व्यवस्था में उनका वाजिब स्थान नहीं है। उन्हें इस व्यवस्था से मुक्ति हासिल करनी ही होगी। उनके मुक्तियुध्द में मार्क्सवाद ही पथ- प्रदर्शक की भूमिका निभा सकता है। यह भूमिका यह पहले भी निभाता आया है। अब यह संगठित- असंगठित मार्क्सवादियों का दायित्व है कि वे सर्वहाराओं की मुक्ति के काम को आगे बढ़ाएं। मार्ग कठिन भी है और मौजूदा दौर में खतरनाक भी। घबराइए नहीं, मार्क्स यहाँ भी आपका मार्गदर्शन करते नजर आते हैं। वे कहते हैं-

“यदि हमने अपने जीवन में वह रास्ता अख़्तियार किया है जिसमें हम मानव जाति के लिये अधिकाधिक कार्य कर सकते हैं तो कोई भी ताकत हमें झुका नहीं सकती”



दिनांक- 4॰ 5॰ 2020 

Thursday, 30 April 2020

घर वापसी के आईने में- सरकार और उसके निर्णय ------ डा॰ गिरीश




आपरेशन पहले  एनेस्थिया बाद में :  आखिर प्रवासी मजदूरों, छात्रों और जहां तहां फंसे तीर्थ यात्रियों की घर वापसी का फैसला सरकार द्वारा ले लिया गया जिसका बेसब्री से इंतज़ार किया जा रहा था। दिग्भ्रमित शासन ने जो कदम अब उठाया है वह 40 दिन पहले उठाया जाना चाहिये था। पर यह सरकार आपरेशन पहले करती है एनेस्थिया बाद में देती है। इससे मरीज का जो हाल होना है, आसानी से समझा जा सकता है। नोटबंदी सहित सरकार के इसी तरह के कई फैसले अवाम के लिये बेहद पीड़ा दायक रहे हैं, ये आज सभी जानते हैं।

ऐसा नहीं है कि यह बात आज पहली बार कही जा रही है। ऐसे लोगों की कमी न थी जो पहले ही दिन से बिना तैयारी के किये गये लाक डाउन की आलोचना कर रहे थे। खासतौर से इसलिये कि अचानक और पूर्व तैयारी के लिये गये इस तुगलकी निर्णय ने करोड़ों- करोड़ मेहनतकशों, उनके परिवार और रिशतेदारों, लाखों प्रवासी छात्रों और असंख्य पर्यटकों/ श्रध्दालुओं को पलक झपकते ही जीवन के सबसे बड़े संकट में डाल दिया था।

कोई शायद ही भूला हो कि चीन के बुहान से उद्भूत कोविड- 19 ने जनवरी के अंत तक यूरोप अमेरिका और अन्य अनेक देशों में दस्तक दे दी थी। भारत में भी यह फरबरी के शुरू में ही प्रकट हो चुका था। लेकिन यह भी कोई शायद ही भूला हो कि जिस वक्त कोरोना भारत में अपने कदम बड़ा रहा था, भारत के मगरूर शासक श्री ट्रंप की मेहमाननवाजी में जुटे थे जो खुद अपने देश की जनता को कोरोना के हाथों मरता छोड़ भारत में घूम रहे थे। कोरोना से निपटने की तैयारी करने के वक्त हमारे शासक मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार  को अपदस्थ करने में जुटे थे। अल्पसंख्यकों से सीएए- एनपीआर- एनआरसी विरोधी आंदोलन का बदला चुकाने को दिल्ली के दंगों में हाथ आज़मा रहे थे।
खुली जेलों में बंद प्रवासी मजदूर :  यह तब भी मालूम था और आज भी कि कोविड- 2019 का आयात हवा- पानी से नहीं अपितु विदेशों से लौट रहे कुलीन वर्ग के माध्यम से हो रहा है। लेकिन तब यह सरकार क्यों नहीं चेती और क्यों विदेशों से लौट रहे संप्रभुओं को क्वारंटाइन नहीं किया, यह आज कोई अबूझ पहेली नहीं है। लोग व्योम मार्ग से आते रहे, लाये जाते रहे है और मामूली खाना- पूरी करके घरों को भेजे जाते रहे। इनमें से अधिकतर उद्योगपति, व्यापारी, डाक्टर्स, इंजीनियर्स और अधिकारी थे। अगले ही दिन से ही ये महानुभाव अपने कार्यस्थलों पर सक्रिय होगये और बड़े पैमाने पर वायरस को इन्हीं ने फैलाया। याद करिये कि लाक डाउन लागू होने के प्रारंभ के तीन दिनों तक तबलीगी जमात कोई मुद्दा नहीं था। सोची समझी रणनीति के तहत यह मुद्दा तब उछाला गया जब खुली जेलों में बंद प्रवासी मजदूर सड़कों पर उतर आए।

फरवरी के प्रारंभ में जिस तरह से विदेशों में फंसे कुलीनों को घर पहुंचाने की तत्परता दिखाई गयी, ऐसी ही तत्परता इस मामले में भी दिखाई गयी होती तो मजदूरों कर्मचारियों, छात्रों, पर्यटकों और जहां तहां फंसे अन्य लोगों की यह दर्दनाक दशा न होती। स्पेशल ट्रेन चला कर बसों के द्वारा अथवा अन्य साधनों से उन्हें फरबरी के मध्य तक घरों को भेजा जा सकता था। हम बार बार कहते आए हैं कि उन्हें उनके घर पहुंचने पर क्वारंटाइन किया जा सकता था। इससे प्रवास में फंसे करोड़ों प्रवासी अंडमान जेल जैसे काले पानी की सजा से बच जाते। उनके परिवारी भी उस यातना से बच जाते जो उन्होने संकट की इस घड़ी में अपनों के बिना और अर्थभाव में झेली है।
भूख, भय, उपेक्षा, यातना और कैद :  बंबई, हैदराबाद, सूरत, चेन्नई, दिल्ली, नोएडा, बनारस, हरिद्वार और देश के कोने कोने में फंसे प्रवासीजन भूख, भय, उपेक्षा, यातना और कैद की जिन्दगी जीने को अभिशप्त थे। जब भी वे यातनाओं की जंजीरों को तोड़ कर सड़कों पर उतरे उन्हें लाठियों से पीटा गया, खदेड़ा गया और जेलों में डाल दिया गया। उसके बावजूद उनमें से अनेक- स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग पैदल, साइकिल, रिक्शों से हजारों किलो मीटर की दूरी पार कर घरों को निकल लिये। उनमें से अनेक ने भूख, प्यास और बीमारी के चलते घर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया। असंख्य थे जिन्हें राज्यों की सीमाओं पर रोक दिया गया। अथवा जहां पुलिस के हत्थे चढ़े , बीच मार्ग में क्वारंटाइन कर दिया गया। लग ही नहीं रहा था कि वे इसी देश के वही मजदूर हैं जो इस देश के लिये दौलत पैदा करते हैं और उनकी दुर्गति बनाने वाली सरकार वही है जिसे बनाने को उन्होने भी मतदान किया है।

इस बीच हरिद्वार से गुजराती पर्यटकों, वाराणसी से दक्षिण भारतीय पर्यटकों और कोटा से छात्रों को घर पहुंचाने की खबरें गरीब और साधारण प्रवासियों को उनकी बेबसी की याद दिलाती रहीं। अनेक थे जो अलग अलग कारणो से प्रवास में फंसे थे। झारखंड से आयी एक बारात पूरे एक माह तक अलीगढ़ जनपद के एक गाँव में फंसी रही। कोई नहीं समझ पारहा था कि जिस तालाबंदी की घोषणा 22 फरबरी को की गयी, उसकी पूर्व सूचना एक माह पूर्व क्यों नहीं दे दी गयी।

यदि लोगों को सप्ताह भर पहले आगाह किया गया होता और अतिरिक्त रेल गाडियाँ चला दी गईं होतीं तो निश्चय ही लोग सकुशल घरों तक पहुँच गये होते। हमें मालूम है कि बंगला देश और कई अन्य देशों ने ऐसा ही किया था। अगर ऐसा हुआ होता तो पहले ही घर पहुँच कर ग्रामीण मजदूर फसल कटाई करके जीवनयापन हेतु कुछ कमाई तो कर ही सकते थे बार बार बदल रहे मौसम से फसलों की हानि को उसकी कटाई कम कर सकते थे। आज वे जब घर पहुंचेंगे उन्हें लंबे समय तक बेरोजगारी और भूख के दंश को झेलना पड़ेगा।
आक्रोश का परिणाम :  बेहद देर से लिया गया यह फैसला प्रवासियों के उस आक्रोश का परिणाम है जो अनेक रूपों में प्रकट होरहा था। उन्हें वापस लाने के लिये तमाम सांसदों, विधायकों और अन्य जन प्रतिनिधियों पर उनके क्षेत्र की जनता का दबाव लगातार बढ़ रहा था। थाली, ताली और आतिशबाजियों के माध्यम से रचा कुहासा जीवन की बढ़ती कठिनाइयों से छंटने लगा था। कोरोना फैलाने की जमातियों के ऊपर मढ़ी गयी तोहमत भी कालक्रम से धूमिल होने लगी थी।

इतना ही नहीं बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूर और छात्र सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करने लगे थे। विपक्षी दल खास कर वामपंथी दल प्रवासियों को उनके घरों को पहुंचाने के लिये लगातार मुखरित होरहे थे। अतएव जनाक्रोश से बचने को कई मुख्यमंत्री अपने यहाँ के प्रवासियों को वापस लाने की योजना बनाने में जुट गये थे। सतह के नीचे ही सही शासक दल में दो फाड़ नजर आने लगे थे।
भूख, अभाव और बेकारी :  अब इन्हें घरों तक पहुंचाने/ लाने की कठिन चुनौती दरपेश है। उन्हें मानवीय हालातों में क्वारंटाइन में रखे जाने की चुनौती है। उनके इलाज और उनके परिवारों के भरण- पोषण की चुनौती है। उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने की चुनौती है। कोविड 2019 का वायरस आया है और चला जायेगा, पर भूख, अभाव और बेकारी का यह वायरस लंबे समय तक हमें चुनौती देता रहेगा। हम देख रहे हैं कि शासन और शासक वर्ग की नीतियाँ और कारगुजारियाँ लगातार बेनकाव होरही हैं। अतएव हमें एक न्यायसंगत सामाजिक- आर्थिक प्रणाली के निर्माण पर ज़ोर देना होगा। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस- मई दिवस पर हमें एक विश्वसनीय और सर्वग्राही आर्थिक- सामाजिक प्रणाली को विकसित करने के संकल्प को दृढ़  करना होगा।

दिनांक- 30- 4 2020

Monday, 20 April 2020

कॉमरेड लेनिन की 150 वीं जयंती पर कॉमरेड डी राजा का संदेश ------ अरविन्द राजस्वरूप



कॉमरेड लेनिन की 150 वीं जयंती पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महामंत्री कॉमरेड डी राजा का कार्यकर्ताओं/ काडर के नाम संदेश।
कामरेड वी आई लेनिन को लाल सलाम और समस्त कामरेडों को क्रांतिकारी अभिवादन।
प्रिय कामरेड,

22 अप्रैल को कामरेड वीआई लेनिन की 150 वी जयंती हम लोग मना रहे होंगे। कार्ल मार्क्स की मृत्यु के पश्चात वो सबसे प्रमुख सिद्धांत कार और विचारक थे तथा एक अत्यंत कुशल रणनीतिज्ञ एवं कार्यनीति में माहिर व्यक्ति थे। उन्होंने 1917 की समाजवादी क्रांति का नेतृत्व किया जिसको आमतौर से लोग महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति के नाम की जानते हैं। उस क्रांति नें विश्व में पहली बार मजदूर वर्ग की
राज व्यवस्था और देश की स्थापना की , जिसका नाम यूएसएसआर पड़ा । बावजूद इसके कि वह पहली कम्युनिस्ट सरकार समाप्त हो चुकी है और सोवियत यूनियन बिखर गया है पर महान कामरेड लेनिन आज भी ना सिर्फ रूस के लिए बल्कि पूरे विश्व के लोगों के लिए उत्साह का स्रोत है।

कार्ल मार्क्स के बाद उनोहने मार्क्स के सिद्धांत- दर्शन ( द्वंदात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद), राजनीतिक अर्थशास्त्र एवं वैज्ञानिक समाजवाद- को विकसित किया। लेनिन ने पूंजीवाद के विकास की नई मंजिल का विश्लेषण किया। लेनिन की रचना 'साम्राज्यवाद पूंजीवाद का अंतिम चरण' में उन्होंने पूंजीवाद की परजीवी एवं मरणासन्न प्रवृत्ति का उल्लेख किया और यह भी बताया कि किस तरीके से पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण होगा। महा मंदी के शुरू में और उसके दौरान उन्होंने साम्राज्यवाद का विश्लेषण करते हुए उस रास्ते का उल्लेख किया जो एक वैकल्पिक मजदूर वर्ग के राज की स्थापना और समाजवाद की तामीर करने के लिए खुलता था तथा समस्त शोषण और गैर बराबरी से मुक्ति का रास्ता दिखाता था।

लेनिन मजदूर वर्ग की एक नई प्रकार की पार्टी की स्थापना करने वाले व्यक्ति भी थे और वह नई पार्टी बोल्शेविक पार्टी थी , जो बाद में परिवर्तित होकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ सोवियत यूनियन कहलाई ।(सीपीएसयू) लेनिन की ' हम क्या करें ' नामक पुस्तक इस प्रकार की पार्टी बनाने के लिए मार्गदर्शक बनी।

लेनिन अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के उत्कृष्टतम नेता थे। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय भाईचारा मजबूत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने तीसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को स्थापित करने में भी अपना बहुमूल्य योगदान प्रदान किया।

कोविड-19 की महामारी ने भारत समेत समूचे विश्व में लाकडाउन की स्थिति पैदा कर दी है। इस कारण लेनिन की जयंती की प्रससन्ता के उल्लास को आम जनता के बीच मनाने में एक सीमा रेखा खिंच गई है। लेकिन कम्युनिस्ट होने के नाते दरवेश परिस्थितियों में हमको निर्धनों और गरीबों, प्रवासी मजदूरों , समाज में भेदभाव से ग्रसित जनता के हिस्सों की समस्याओं से मुखातिब होना है। कम्युनिस्टों को अपनी प्रतिबद्धता और अपना मजबूत इरादा उत्पीड़ित जनता से अपने को आत्मसात करते हुए अभिव्यक्त करना है।

मजदूर वर्ग के मनीषी पुत्र के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हुए हमको समाजवाद के सिद्धांत को देश की स्थानीय एवं ठोस सामयिक परिस्थितियों में लागू करना पड़ेगा। लॉक डाउन एक ऐसी बाधा नहीं बननी चाहिए कि हम उत्पीड़ित जनता तक पहुंच ही न पाएं और राज्य सरकारों तथा केंद्रीय सरकार को समुचित कार्य करने के लिए बाध्य न कर पाए।

सरकारों को यह समझ लेना चाहिए कि उनका साबका अपने नागरिकों से है ,उनसे है जो राष्ट्र की संपत्ति के निर्माता है ।सरकारें इसलिए सत्ता में नहीं है कि वह नागरिकों को अपनी ऐसी रियाया समझें जो उनकी कृपा पर निर्भर हों।

मैं पार्टी के हर स्तर के काडर से यह अपील करता हूं कि वह जरूरत मंद जनता की मदद करने की चुनौती को स्वीकार करें।

आइए हम कामरेड लेनिन को अपनी श्रधांजलि सम्मान पूर्वक अर्पित करें।

मैं पार्टी नेतृत्व की जानिब से आप सब लोगों को और जनता को अपना क्रांतिकारी अभिवादन भी प्रेषित करता हूँ।

आपका साथी।

डी राजा


महामंत्री
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Saturday, 18 April 2020

लाकडाउन से भी ज्यादा जरूरी है जांच और भोजन ------ वामपंथी दल




कोरोना से पैदा हुये हालातों पर उत्तर प्रदेश के वामपंथी दलों का बयान : 
लखनऊ- 18 अप्रेल 2020, कोरोना वायरस की महामारी को पराजित करने के लिये लाकडाउन से भी ज्यादा जरूरी है कि बड़े पैमाने पर जांच कराई जाये, संक्रमित पाये गये  लोगों का समुचित इलाज कराया जाये और उन्हे दरम्याने इलाज शेष जनमानस से अलग थलग रखा जाये। परन्तु खेद की बात है कि उत्तर प्रदेश में इस प्रक्रिया को ठीक से अंजाम नहीं दिया जारहा। यहाँ तक कि कोरोना से जूझ रहे योद्धाओं- डाक्टर, नर्स, पेरामेडिकल स्टाफ आदि के पास जरूरी उपकरण- पीपीई किट आदि उपलब्ध नहीं हैं।

इस महामारी को पराजित करने को हम सब अपने स्तर से जीजान से जुटे हैं, पर उत्तर प्रदेश सरकार इस लड़ाई को साझा लड़ाई बनाने को तैयार नहीं है। इस नाजुक दौर में भी सांप्रदायिक नफरत की मुहिम चलाई जारही है। लोकतान्त्रिक तौर तरीकों पर कुठाराघात करते हुये आलोचना और असहमति को तानाशाही तरीकों से कुचलने की कोशिश की जारही है। सामाजिक एकता, जनता का सहयोग और विश्वास हासिल करने की जगह उत्तर प्रदेश सरकार केवल जनता को भयभीत कर, दंडित कर और धमकियाँ देकर इस लड़ाई को लड़ना चाहती है। शासन- प्रशासन के जरिये भाजपा और संघ परिवार की गतिविधियों को जारी रखते हुये विपक्ष की गतिविधियों को पंगु बनाए रखना चाहती है।

अतएव वामदल मांग करते हैं कि जनता की आजीविका और जीवनयापन के उपादानों की भरपाई प्राथमिकता के आधार पर की जाये-

सभी को बीमा संरक्षण की व्यवस्था की जाये।

सभी को कम से कम 35 किलो राशन और अन्य जरूरी चीजें निशुल्क तत्काल उपलब्ध कराया जाये। जिनके पास राशंकार्ड नहीं हैं उन्हें भी राशन दिया जाये। ऐसे गरीबों की कुछ क्षेत्रों में सूचियाँ बनाई गयी हैं किन्तु उन्हें राशन अभी तक उपलब्ध नहीं कराया गया। तुरंत कराया जाये।

सभी गरीबों, पंजीक्रत, अपंजीक्रत दिहाड़ी मजदूरों, खेत मजदूरों, मनरेगा मजदूरों आदि के खाते में कम से कम 5,000 रुपये तत्काल ट्रांसफर किए जायें। मनरेगा का भुगतान कराया जाये और काम को चालू कराया जाये।

संगठित- असंगठित सभी क्षेत्र के मजदूरों की नौकरियों और वेतन की सुरक्षा कीजिये।

गेहूं की सरकारी खरीद देर से शुरू किए जाने के कारण बहुत से किसानों को समर्थन मूल्य से कम कीमतें मिली हैं। अभी भी सरकारी क्रय केन्द्र समुचित रूप से काम नहीं कर रहे हैं। लाकडाउन में अवाम की क्रय क्षमता के घटने के कारण किसानों को फल- सब्जियाँ सस्ती बेचनी पड़ रही हैं। किसानों के सभी उत्पादों को समुचित मूल्यों पर खरीदे जाने की व्यवस्था करें।

प्राक्रतिक और कोरोना की आपदाओं को देखते हुये किसान सम्मान निधि रु॰ 12 हजार वार्षिक की जाये, किसान क्रेडिट कार्ड की लिमिट बड़ाई जाये, ब्याज दर 1 प्रतिशत की जाये  और किसानों के सभी प्रकार के कर्जों की वसूली 1 साल के लिये स्थगित की जाये।

छोटे व्यापारियों, लघु उद्यमियों और फुटकर व्यापार करने वालों का जीवन बचाने को राहत की घोषणा कीजिये।

दूसरे प्रदेशों व जनपदों में फंसे उत्तर प्रदेश के मजदूरों और उत्तर प्रदेश में फंसे अन्य प्रदेशों के मजदूरों को सरकारी खर्चे पर उनके घरों को जल्द से जल्द पहुंचाया जाये। वहां उन्हें कोरोंटाइन में रखा जा सकता है।

वरिष्ठ नागरिकों की देखरेख के लिये विशेष रक्षा दल  गठित कीजिये।

बिजली , फोन, गृह कर और जल कर के बिल फिलहाल स्थगित रखे जायें।

सभी राजनैतिक दलों के पदाधिकारियों के साथ परामर्श हेतु राज्य स्तरीय बैठक बुलाई जाये।

जिलों के स्तर पर राजनैतिक दलों के नुमाइंदों के साथ प्रशासन के अधिकारी समन्वय बनायेँ।

सरकार, प्रशासन, भाजपा और मीडिया द्वारा कोरोना को मुस्लिमों से जोड़ कर चलाई जारही मुहिम फौरन बन्द की जाये। मुहिम चलाने वालों के विरूध्द कड़ी से कड़ी कार्यवाही की जाये। या फिर किसको कहाँ से संक्रमण लगा, इसकी  व्यापक जानकारी सार्वजनिक की जाये।

डा॰ गिरीश, सचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश।  

हीरालाल यादव, सचिव, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी), उत्तर प्रदेश।

सुधाकर यादव, सचिव, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-माले- लिबरेशन, उत्तर प्रदेश।  

अभिनव कुशवाहा, महासचिव, फारवर्ड ब्लाक ,उत्तर प्रदेश ।