आखिर इतनी बौखलाहट क्यों?
फिर
आखिर इस आन्दोलन से आम आदमी पार्टी को इतनी बौखलाहट क्यों है कि
आन्दोलन की
अभियान टोलियों के साथ जगह-जगह उनके कार्यकर्ता उलझ रहे हैं, गाली-गलौज कर रहे हैं और पर्चे जला रहे हैं। पिछले एक हफ्ते से उत्तर-पश्चिमी दिल्ली क्षेत्र में लगभग हर रोज़ ‘आप’ के कार्यकर्ताओं ने अभियान टोली के साथ बदसलूकी की, प्रचार सभाओं में बाधा पैदा करके मज़दूरों को तितर-बितर करने की कोशिश की। एक दिन एक प्रचार टोली से पर्चे छीन कर जलाये। यहाँ तक कि शाहाबाद डेयरी स्थित जिस शहीद भगतसिंह पुस्तकालय में स्त्री और पुरुष मज़दूरों की मीटिंगें और विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते हैं, रात में उसका बोर्ड कुछ लोग उतार ले गये। फिर वहाँ पत्थरबाजी भी की गयी। कल शाम को गाड़ी में सवार पीकर धुत्त ‘आप’ पार्टी के कुछ लोगों ने बादली में प्रचार टोली की स्त्री सदस्यों के साथ गाली-गलौज की और धमकियाँ दीं, फिर मज़दूरों के इकट्ठा होने पर वे वहाँ से चले गये!पहली बात, यही वह लोकतांत्रिक संस्कृति है, जिसकी केजरीवाल, सिसोदिया और योगेन्द्र यादव दुहाई देते नहीं थकते? मज़दूरों के नितान्त शान्तिपूर्ण आन्दोलन से इतनी बौखलाहट क्यों? आखिर मज़दूर माँग ही क्या रहे हैं? उनका मात्र इतना कहना है कि केजरीवाल ने मज़दूरों से जो वायदे किये थे, उन्हें पूरा करने के बारे में कुछ तो बोलें! वे तो सत्तासीन होने के बाद साँस-डकार ही नहीं ले रहे हैं।
अभियान टोलियों के साथ जगह-जगह उनके कार्यकर्ता उलझ रहे हैं, गाली-गलौज कर रहे हैं और पर्चे जला रहे हैं। पिछले एक हफ्ते से उत्तर-पश्चिमी दिल्ली क्षेत्र में लगभग हर रोज़ ‘आप’ के कार्यकर्ताओं ने अभियान टोली के साथ बदसलूकी की, प्रचार सभाओं में बाधा पैदा करके मज़दूरों को तितर-बितर करने की कोशिश की। एक दिन एक प्रचार टोली से पर्चे छीन कर जलाये। यहाँ तक कि शाहाबाद डेयरी स्थित जिस शहीद भगतसिंह पुस्तकालय में स्त्री और पुरुष मज़दूरों की मीटिंगें और विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते हैं, रात में उसका बोर्ड कुछ लोग उतार ले गये। फिर वहाँ पत्थरबाजी भी की गयी। कल शाम को गाड़ी में सवार पीकर धुत्त ‘आप’ पार्टी के कुछ लोगों ने बादली में प्रचार टोली की स्त्री सदस्यों के साथ गाली-गलौज की और धमकियाँ दीं, फिर मज़दूरों के इकट्ठा होने पर वे वहाँ से चले गये!पहली बात, यही वह लोकतांत्रिक संस्कृति है, जिसकी केजरीवाल, सिसोदिया और योगेन्द्र यादव दुहाई देते नहीं थकते? मज़दूरों के नितान्त शान्तिपूर्ण आन्दोलन से इतनी बौखलाहट क्यों? आखिर मज़दूर माँग ही क्या रहे हैं? उनका मात्र इतना कहना है कि केजरीवाल ने मज़दूरों से जो वायदे किये थे, उन्हें पूरा करने के बारे में कुछ तो बोलें! वे तो सत्तासीन होने के बाद साँस-डकार ही नहीं ले रहे हैं।
मज़दूरों से किये गये एक भी वायदे की चर्चा भी नहीं
की!
की!
केजरीवाल
ने पूरी दिल्ली से ठेका प्रथा को खत्म करने का वायदा किया था। अब
उन्होंने इसकी तकनीकि जाँच के लिए एक समिति बना दी है, जिसकी कोई ज़रूरत
नहीं थी। उन्हें करना सिर्फ इतना था कि सिर्फ एक दिन का विधान सभा सत्र
बुलाकर इस आशय का विधेयक पारित करवा लेना था कि दिल्ली में कोई भी निजी या
सरकारी नियोक्ता नियमित प्रकृति के काम के लिए ठेका मज़दूर नहीं रह सकता।
इसके बजाये एक समिति बनाकर केजरीवाल ने मामले को टाल दिया है। समिति
रिपोर्ट देगी और उसपर सरकार विचार करेगी, तबतक लोकसभा चुनावों की आचार
संहिता लागू हो जायेगी।केजरीवाल ने कहा था कि निजी झुग्गीवासियों को
पक्के मकान दिये जायेंगे और तबतक कोई झुग्गी उजाड़ी नहीं जायेगी। अब इस
काम के लिए समय-सीमा बताना तो दूर, केजरीवाल कुछ बोल ही नहीं रहे हैं। यही
नहीं, कांग्रेस सरकार के समय जिन झुग्गी बस्तियों का नियमतिकरण हुआ था, अब
उनमें भ्रष्टाचार बताकर उस फैसले को पलटने की बात की जा रही है। यानी
लाखों मज़दूरों को पुनर्वास की व्यवस्था के बिना उजाड़ने की भूमिका तैयार
की जा रही है।केजरीवाल ने दिल्ली के सभी पटरी दुकानदारों और रेहड़ीवालों
को लाइसेंस और स्थाई स्थान देने का वायदा किया था, उसके बारे में भी वे
अब साँस-डकार नहीं ले रहे हैं।चुनाव प्रचार के दौरान मज़दूर बस्तियों में
उनके उम्मीदवार सौ अतिरिक्त सरकारी स्कूल खोलने और वर्तमान स्कूलों के
स्तर को ठीक करने का वायदा कर रहे थे। इस वायदें को भी ठण्डे बस्ते में
डाल दिया गया।
केजरीवाल का भ्रष्टाचार-विरोध मज़दूरों के लिए नहीं है!
केजरीवाल
की राजनीति की पूरी बुनियाद भ्रष्टाचार-विरोध पर टिकी है। फिलहाल हम इस
बुनियादी प्रश्न पर नहीं जाते कि पूँजीवाद को पूरी तरह भ्रष्टाचार-मुक्त
किया ही नहीं जा सकता, कि पूँजीवाद स्वयं में ही भ्रष्टाचार है और यह कि
जनता को भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद नहीं, बल्कि पूँजीवाद-मुक्त राज और
समाज चाहिए। भष्टाचार कितनी अधिक धनराशि का है, इससे अधिक अहम बात यह है
कि किस भ्रष्टाचार से व्यापक आम आबादी का जीना मुहाल है! दिल्ली की साठ
लाख मज़दूर आबादी का जीना मुहाल करने वाला भ्रष्टाचार है — श्रम विभाग का
भ्रष्टाचार। किसी भी फैक्ट्री या व्यावसायिक प्रतिष्ठान में मज़दूरों
को न्यूनतम मज़दूरी नहीं मिलती, काम के तय घण्टों से अधिक काम करना पड़ता
है, ओवरटाइम तय से आधी दर पर मिलता है, कैजुअल मज़दूरों का मस्टर रोल
नहीं मिंटेन होना, सैलरी स्लिप नहीं मिलती, पी.एफ. इ.एस.आई. की सुविधा नहीं
मिलती, फैक्ट्री इंस्पेक्टर, लेबर इंस्पेक्टर आदि दौरा नहीं करते,
कारखाने स्वास्थ्य, सुरक्षा और पर्यावरण के निर्धारित मानकों का पालन
नहीं करते! तात्पर्य यह कि किसी भी श्रम कानूनों का पालन नहीं होता। यदि
केजरीवाल वास्तव में भ्रष्टाचार से आम लोगों को होने वाली परेशानी से
परेशान हैं, तो सबसे पहले उन्हें श्रम विभाग के भ्रष्टाचार को दूर करना
चाहिए। मज़दूरों की यही माँग है।लेकिन मज़दूरों के प्रति केजरीवाल की सरकार
का रवैया क्या है? डी.टी.सी. के 20हजार ठेका कर्मचारियों और 10हजार
अस्थाई शिक्षकों के धरने और अनशन को हवाई आश्वासन की आड़ में नौकरी छीन
लेने और दमन की धमकी से समाप्त कर दिया गया। वजीरपुर कारखाना यूनियन के
मज़दूर जब अपनी माँगों को लेकर सचिवालय पहुँचे तो बैरिकेडिंग करके पुलिस
खड़ी करके उन्हें मंत्री से मिलने से रोक दिया गया और दफ्तर में केवल उनका
माँगपत्रक रिसीव कर लिया गया। केजरीवाल का जनता दरबार तो हवा हो ही गया,
अब उनके मंत्री जनता से मिलते तक नहीं।
‘आप’ के आम आदमी
ये ‘आप’ के आम आदमी हैं कौन? यूँ तो ऊपर भी विचित्र खिचड़ी है! केजरीवाल का
एन.जी.ओ. गिरोह, किशन पटनायक धारा के समाजवादी योगेन्द्र यादव, राज
नारायण धारा के समाजवादी आनंद कुमार, मंचीय नुक्कड़ कवि, घोर दखिणपंथी
विचारों वाला कुमार विश्वास, ए.बी.वी.पी. से एन.एस.यू.आई. से
भा.क.पा.(मा-ले) होते हुए यहाँ तक आये गोपाल राय तथा कमल मित्र शेनॉय,
परिमल माया सुधाकर, बली सिंह चीमा, आतिशी मारलेना आदि-आदि भाँति-भाँति के,
रंग-बिरंगे ”वामपंथियों” के साथ कैप्टन गोपी नाथ, नारायण मूर्ति और वी.
बालाकृष्णन जैसे कारपोरेट शहंशाह…। ऐसी लोकरंजक राजनीतिक खिंचड़ी का असली
रंग और स्वाद तो ग्रासरूट स्तर पर पता चलता है। केजरीवाल को मध्यवर्गीय
इलाकों में आर.डब्ल्यू.ए. खुशहाल मध्य वर्गीय जमातों, कारोबारियों और
आई.टी. – व्यापार प्रबंधन आदि पेशों में लगे उन युवाओं का समर्थन प्राप्त
है, जो पारम्परिक तौर पर दक्षिणपंथी विचारों के और प्राय: भाजपा के वोट
बैंक होते रहे हैं। लेकिन सबसे दिलचस्प दिल्ली की मज़दूर बस्तियों में
देखने को मिलता है। वहाँ सारे छोटे कारखानेदारों, दुकानदारों,
लेबर-कांट्रेक्टर के अतिरिक्त मज़दूरों को सूद पर पर पैसे देने वाले,
कमेटी डालने वाले, मज़दूरों के रिहाइश वाले लॉजों-खोलियों और घरों के मालिक
तथा प्रापर्टी डीलर और उनके चम्पुओं के गिरोह — यही आम आदमी की टोपी
पहनकर मज़दूर बस्तियों में घूम रहे हैं। पिछले एक माह के अभियान के दौरान
हमलोगों ने इस नंगी-कुरूप सच्चाई को बहुत गहराई से महसूस किया और झेला।
सिर्फ एक उदाहरण ही काफी होगा। ‘बवाना चैम्बर ऑफ इण्डस्ट्रीज’ के
चेयरमैन प्रकाशचंद जैन उत्तर-पश्चिमी दिल्ली में आम आदमी पार्टी के एक
अग्रणी नेता हैं। इनके साथ और भी कई फैक्ट्री मालिक, प्रॉपर्टी डीलर और
ठेकदार हैं। कोई प्रकाश चन्द जैन से ही पूछे क्या उनके कारखानों में
मज़दूरों को न्यूनतम वेतन, पी.एफ., ई.एस.आई. आदि दिया जाता है, क्या वहाँ
श्रम कानूनों का पालन होता है? कमोबेश यही स्थिति दिल्ली के सभी औद्योगिक
इलाकों और मज़दूर बस्तियों की है। इसके बावजूद, एन.जी.ओ.-सुधारवादियों और
भाँति-भाँति के सामाजिक जनवादियों को तो छोड़ ही दें, आम आदमी पार्टी की
झोली में यूँ ही जा टपकने वाले भावुकतावादी कम्युनिस्टों को अभी भी
केजरीवाल की राजनीति का असली रंग नहीं दिख रहा है, तो निश्चय ही राजनीतिक
काला मोतिया के चपेट में वे अंधे हो चुके हैं। या हो सकता है, वे पहले से
ही अंधे रहे हों।आम जनता स्वराज और सड़क से सत्ता चलाने की रट लगाने वाले
लोकरंजकातावादी मदारी अब सरकारी धोखाधड़ी और धमकी, पुलिसिया धौंसपट्टी और
पार्टी कार्यकर्ताओं की दादागीरी का खुलकर सहारा ले रहे हैं। मज़दूरों की
वर्ग दृष्टि एकदम साफ है। वह केजरीवाल के लोकरंजकतावाद की असलियत को अभी से
समझने लगा है। वह कुछ कुलीनतावादी दिवालिये किताबी वामपंथियों की तरह
मतिभ्रम-संभ्रम-दिग्भ्रम का शिकार नहीं है।
साभार :
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