ऐसे दौर में, जब बाजार की शक्तियां ही नियामक की भूमिका में हों, प्रतिभाओं और परिश्रम का शोषण स्वाभाविक नियति है।
Hemant Kumar Jha
वे कहते हैं कि इस देश के 75 प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातक नौकरी पाने के काबिल नहीं।
ऐसा कह कर वे पहले बेरोजगार इंजीनियरों का मनोबल तोड़ते हैं, फिर उन्हें समाज की नजरों में शर्मसार करते हैं और परिवार के प्रति उनके मन में अपराध बोध पैदा करते हैं।
उसके बाद वे अपनी कंपनियों के लिये विज्ञापन जारी करते हैं।
इंटरव्यू में ऐसे पेश आते हैं जैसे वे स्पेसक्राफ्ट बनाने के लिए भर्त्ती कर रहे हों। पहले से ही शर्मसार और टूटे मनोबल वाले बहुत सारे अभ्यर्थी हकलाने लगते हैं, बिखरने लगते हैं।
वे अभ्यर्थियों की इस बेचारगी का फायदा उठाते हैं। उन्हें इतने कम वेतन का ऑफर देते हैं कि नौकरी के लिये विकल व्यक्ति भी सन्न रह जाता है। लेकिन, उसके पास और कोई चारा नहीं होता। वह 10 हजार, 12 हजार प्रतिमास पर भी तैयार हो जाता है।
उसके बाद शुरू होता है अंतहीन शोषण का सिलसिला। बेहद कम वेतन, बहुत अधिक काम।
इंजीनियरों की मेहनत से कंपनियां फलती हैं, फूलती हैं। मुनाफा बढ़ता जाता है, लेकिन, बढ़ते मुनाफे के अनुपात में वेतन बढ़ने का कोई सवाल नहीं। कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता।
मुक्त बाजार में भारत के सामान्य इंजीनियरिंग स्नातकों की यही नियति है।
कोई इंजीनियर या तो नौकरी के लायक है या फिर नहीं है। अगर नहीं है तो आप उसे नौकरी मत दो। लेकिन, यह कैसे हो सकता है कि कोई इंजीनियर 10-12-15 हजार के वेतन के लायक समझा जाए? आखिर, इनकी मेहनत की भी बड़ी भूमिका है कि कंपनी का उत्पादन बढ़ता गया, व्यापार बढ़ता गया, मुनाफा बढ़ता गया।
लेकिन, यह बाजार है। मुक्त बाजार...जो ही अनेक अर्थों में वास्तविक जंगल राज है।
जितने इंजीनियर्स की मांग है, उससे बहुत अधिक की आपूर्त्ति होती रही। तय मानकों की परवाह किये बिना प्राइवेट संस्थान खुलते गए। अधिकांश के शिक्षण में गुणवत्ता का नितांत अभाव।
स्नातकों की भीड़ बढ़ती गई। बेरोजगारी का आलम पसरता गया।
इंजीनियरिंग जैसा प्रतिष्ठित कोर्स समाज में सम्मान खोता गया। आखिर, हर कोई आईआईटी में तो जा नहीं सकता। इनकी संख्या कम है, सीटें सीमित हैं। कुछ खास प्राइवेट संस्थान भी गुणवत्ता के मानकों पर खरे उतरते हैं। बाकी तो...क्या सरकारी, क्या प्राइवेट, गुणवत्ता से दूर दूर तक मतलब नहीं। सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों की बदहाली के अपने कारण हैं। नियमित शिक्षकों की नितांत कमी और आधारभूत संरचना का अभाव उनके छात्रों की पढ़ाई पर बेहद बुरा असर डालता है। जैसे तैसे डिग्री लेकर निकले इनके अधिकांश स्नातक रोजगार की प्रतियोगिता में पिछड़ जाते हैं।
किसी का मनोबल तोड़ना है तो योजनाबद्ध तरीके से उसका सम्मान छीनो। भविष्य के प्रति असुरक्षा का भाव पैदा करो उसमें। वह टूटेगा...फिर वह तुम्हारे कदमों पर गिरेगा...तुम्हारी ही शर्त्तों पर। उद्योगपतियों का यह आजमाया फार्मूला है।
एसोचैम अपने सम्मेलनों में जोर-शोर से यह प्रचारित करता है कि भारत के तीन चौथाई से भी अधिक इंजीनियरिंग स्नातक किसी लायक नहीं।
'एसोचैम'...यानी "Associated Chambers of Commerce and Industry" (ASSOCHAM), यानी "भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल"। भारत की एक लाख से अधिक कम्पनियां इसकी सदस्य हैं।
इन्हीं कंपनियों का राज है देश में। इन्हें कोई यह नहीं पूछता कि जिन्हें आपने नियुक्त किया है वे अगर अयोग्य थे तो उन्हें रखा ही क्यों। अगर रखा है तो अपने काम के लायक ही समझ कर रखा। तो फिर, जिन्हें इंजीनियर माना, जिन्हें काम पर रखा, उन्हें इतना अल्प वेतन क्यों?
यह मुनाफा का शास्त्र है। इस शास्त्र में शोषण सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। शोषण का चक्र चलाते रहने के लिये मनोवैज्ञानिक असर डालना होता है, ताकि लोग इसके साथ जीने के लिये तैयार हों।
दुनिया में सबसे अधिक बेरोजगार इंजीनियर भारत में हैं। इस देश के आर्थिक और तकनीकी विकास के साथ इसके शिक्षा तंत्र का कोई तालमेल नहीं। लचर तंत्र प्रतिभाओं की कत्लगाह साबित होता है, और, अपमानित, शोषित होते हैं वे, जिन्हें सही पढ़ाई मिलती तो किसी से कम नहीं रहते।
ये किसानों के बेटे/बेटियां हैं, जिनके पिता ने उनकी पढ़ाई के लिये जमीन बेची, ये निम्न मध्यवर्गीय नौकरीपेशा वालों के बेटे/बेटियां हैं, जिन्होंने उनकी पढ़ाई के लिये लोन लिये, अपने सपने त्यागे और बच्चों के भविष्य के लिये अपनी हैसियत दांव पर लगा दी।
मुक्त बाजार में अगर नियामक तंत्र प्रभावी नहीं हो तो बाजार की शक्तियां शोषण के कीर्त्तिमान स्थापित करती हैं। 10-12 हजार पर इंजीनियरों से काम लेना ऐसा ही कीर्त्तिमान है, जिसकी मिसाल दुनिया में अन्य किसी देश में शायद ही मिले।
लेकिन, ऐसे दौर में, जब बाजार की शक्तियां ही नियामक की भूमिका में हों, प्रतिभाओं और परिश्रम का शोषण स्वाभाविक नियति है।
https://www.facebook.com/hemant.kumarjha2/posts/1533889100052331
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Hemant Kumar Jha
ऐसा कह कर वे पहले बेरोजगार इंजीनियरों का मनोबल तोड़ते हैं, फिर उन्हें समाज की नजरों में शर्मसार करते हैं और परिवार के प्रति उनके मन में अपराध बोध पैदा करते हैं।
उसके बाद वे अपनी कंपनियों के लिये विज्ञापन जारी करते हैं।
इंटरव्यू में ऐसे पेश आते हैं जैसे वे स्पेसक्राफ्ट बनाने के लिए भर्त्ती कर रहे हों। पहले से ही शर्मसार और टूटे मनोबल वाले बहुत सारे अभ्यर्थी हकलाने लगते हैं, बिखरने लगते हैं।
वे अभ्यर्थियों की इस बेचारगी का फायदा उठाते हैं। उन्हें इतने कम वेतन का ऑफर देते हैं कि नौकरी के लिये विकल व्यक्ति भी सन्न रह जाता है। लेकिन, उसके पास और कोई चारा नहीं होता। वह 10 हजार, 12 हजार प्रतिमास पर भी तैयार हो जाता है।
उसके बाद शुरू होता है अंतहीन शोषण का सिलसिला। बेहद कम वेतन, बहुत अधिक काम।
इंजीनियरों की मेहनत से कंपनियां फलती हैं, फूलती हैं। मुनाफा बढ़ता जाता है, लेकिन, बढ़ते मुनाफे के अनुपात में वेतन बढ़ने का कोई सवाल नहीं। कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता।
मुक्त बाजार में भारत के सामान्य इंजीनियरिंग स्नातकों की यही नियति है।
कोई इंजीनियर या तो नौकरी के लायक है या फिर नहीं है। अगर नहीं है तो आप उसे नौकरी मत दो। लेकिन, यह कैसे हो सकता है कि कोई इंजीनियर 10-12-15 हजार के वेतन के लायक समझा जाए? आखिर, इनकी मेहनत की भी बड़ी भूमिका है कि कंपनी का उत्पादन बढ़ता गया, व्यापार बढ़ता गया, मुनाफा बढ़ता गया।
लेकिन, यह बाजार है। मुक्त बाजार...जो ही अनेक अर्थों में वास्तविक जंगल राज है।
जितने इंजीनियर्स की मांग है, उससे बहुत अधिक की आपूर्त्ति होती रही। तय मानकों की परवाह किये बिना प्राइवेट संस्थान खुलते गए। अधिकांश के शिक्षण में गुणवत्ता का नितांत अभाव।
स्नातकों की भीड़ बढ़ती गई। बेरोजगारी का आलम पसरता गया।
इंजीनियरिंग जैसा प्रतिष्ठित कोर्स समाज में सम्मान खोता गया। आखिर, हर कोई आईआईटी में तो जा नहीं सकता। इनकी संख्या कम है, सीटें सीमित हैं। कुछ खास प्राइवेट संस्थान भी गुणवत्ता के मानकों पर खरे उतरते हैं। बाकी तो...क्या सरकारी, क्या प्राइवेट, गुणवत्ता से दूर दूर तक मतलब नहीं। सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों की बदहाली के अपने कारण हैं। नियमित शिक्षकों की नितांत कमी और आधारभूत संरचना का अभाव उनके छात्रों की पढ़ाई पर बेहद बुरा असर डालता है। जैसे तैसे डिग्री लेकर निकले इनके अधिकांश स्नातक रोजगार की प्रतियोगिता में पिछड़ जाते हैं।
किसी का मनोबल तोड़ना है तो योजनाबद्ध तरीके से उसका सम्मान छीनो। भविष्य के प्रति असुरक्षा का भाव पैदा करो उसमें। वह टूटेगा...फिर वह तुम्हारे कदमों पर गिरेगा...तुम्हारी ही शर्त्तों पर। उद्योगपतियों का यह आजमाया फार्मूला है।
एसोचैम अपने सम्मेलनों में जोर-शोर से यह प्रचारित करता है कि भारत के तीन चौथाई से भी अधिक इंजीनियरिंग स्नातक किसी लायक नहीं।
'एसोचैम'...यानी "Associated Chambers of Commerce and Industry" (ASSOCHAM), यानी "भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल"। भारत की एक लाख से अधिक कम्पनियां इसकी सदस्य हैं।
इन्हीं कंपनियों का राज है देश में। इन्हें कोई यह नहीं पूछता कि जिन्हें आपने नियुक्त किया है वे अगर अयोग्य थे तो उन्हें रखा ही क्यों। अगर रखा है तो अपने काम के लायक ही समझ कर रखा। तो फिर, जिन्हें इंजीनियर माना, जिन्हें काम पर रखा, उन्हें इतना अल्प वेतन क्यों?
यह मुनाफा का शास्त्र है। इस शास्त्र में शोषण सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। शोषण का चक्र चलाते रहने के लिये मनोवैज्ञानिक असर डालना होता है, ताकि लोग इसके साथ जीने के लिये तैयार हों।
दुनिया में सबसे अधिक बेरोजगार इंजीनियर भारत में हैं। इस देश के आर्थिक और तकनीकी विकास के साथ इसके शिक्षा तंत्र का कोई तालमेल नहीं। लचर तंत्र प्रतिभाओं की कत्लगाह साबित होता है, और, अपमानित, शोषित होते हैं वे, जिन्हें सही पढ़ाई मिलती तो किसी से कम नहीं रहते।
ये किसानों के बेटे/बेटियां हैं, जिनके पिता ने उनकी पढ़ाई के लिये जमीन बेची, ये निम्न मध्यवर्गीय नौकरीपेशा वालों के बेटे/बेटियां हैं, जिन्होंने उनकी पढ़ाई के लिये लोन लिये, अपने सपने त्यागे और बच्चों के भविष्य के लिये अपनी हैसियत दांव पर लगा दी।
मुक्त बाजार में अगर नियामक तंत्र प्रभावी नहीं हो तो बाजार की शक्तियां शोषण के कीर्त्तिमान स्थापित करती हैं। 10-12 हजार पर इंजीनियरों से काम लेना ऐसा ही कीर्त्तिमान है, जिसकी मिसाल दुनिया में अन्य किसी देश में शायद ही मिले।
लेकिन, ऐसे दौर में, जब बाजार की शक्तियां ही नियामक की भूमिका में हों, प्रतिभाओं और परिश्रम का शोषण स्वाभाविक नियति है।
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31-01-2018 |
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