Wednesday, 26 June 2019

निजी क्षेत्र की 'शिक्षा' की दास्तान ------ Tanveer Ul Hasan Faridi




अध्यापन का पेशा और मेरे तीन अपराध!

हमने एम0एड के उपरांत नई नई एम0फिल0 एजुकेशन कम्पलीट की थी। अपने शहर मेरठ के विभिन्न प्राइवेट बी0एड0, एम0एड0 कॉलेज में टीचर एडुकेटर के रूप में शिक्षण करने के उद्देश्य से एक अच्छा सा रिज्यूम बनाया और मेरठ यूनिवर्सिटी के विभिन्न प्राइवेट बीएड एमएड कॉलेजेस में अप्लाई करने की नीयत से कई प्रिंट आउट निकलवाये। एक स्कूटी उधार मांग कर उसमें पेट्रोल डलवाया और चौधरी चरण सिंह मेरठ यूनिवर्सिटी से अपनी प्रोफेसर से मिलकर निकल पड़े। सोचा तेजगढ़ी से साकेत चौराहे तक और फिर मवाना रोड के कॉलेजेस में रिज्यूम दे कैंट से होते हुए रुड़की रोड के कॉलेज कवर करते हुए मोदीपुरम तक जाएंगे वहां के कॉलेजेस में देकर दिल्ली वाला नेशनल हाईवे पकड़ेंगे और वहां स्थित विभिन्न कॉलेजेस और डीम्ड विश्वविद्यालयों में देते हुए परतापुर से वापिस मेरठ में घुस आएगे। फिर बागपत चौपले से बागपत रोड पकडूँगा और उधर के समस्त बीएड कॉलेज में दे दूंगा। कहीं से तो इंटरवियू कॉल आएगी।

जान लीजिए कि जितने प्रोफेशनल एजुकेशन के निजी कॉलेज सारे उत्तर प्रदेश में कुल मिलाकर होंगे उससे अधिक अकेले मेरठ यूनिवर्सिटी के अंतर्गत अकेले हैं।

अपनी तैयारी बढ़िया थी। ugc नेट भी क्वालीफाई हो गया था। उम्मीद थी किसी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नक्शे से पढ़ाने को जाएंगे।

मेरठ विश्विद्यालय से जैसे ही स्कूटी स्टार्ट की तो साकेत चौराहे की ओर जाते हुए बांए हाथ पर वेंकटेश्वरा ग्रुप का केंद्रीय कार्यालय का बोर्ड दिखा। सो हम सबसे पहले वहीं घुस गए।

ऑफिस रिसेप्शन पर बैठी चमकीली मोहतरमा को परिचय दे रिज्यूम थमाया और कहा कि कोई वेकैंसी हो तो बुलाइयेगा। वे बोली एक मिनट रुकिए और हमारा रिज्यूम लिए एक चैम्बर में घुस गई। मैंने गौर से name plate पढ़ी नाम कोई कर्नल डी पी सिंह, एडवाइजर, HR एंड एडमिनिस्ट्रेटर लिखा था। मुश्किल से तीस सेकंड लगे होंगे कॉल बेल बजी और चपरासी के मार्फत हमें भी अंदर बुला लिया गया।

हमारा रिज्यूम अंदर साहब के सामने टेबल पर रखा था और एक सादी वर्दी में रौबीला शख्स हमसे पूछ रहा था आपने अपने रिज्यूम में NCC 'C' सर्टिफिकेट का उल्लेख किया है। क्या आप पर अभी भी है। मेरी सर्टिफिकेट फ़ाइल मेरे साथ थी। मैने फौरन अपना 'C' सर्टिफिकेट प्रस्तुत कर दिया कर्नल साहब खुश हो गए और आर्मी रैंक, मैप रीडिंग, गन के प्रकार, कॉन्टिजेंट और क्वार्टर गार्ड के कमांड्स, ट्रूप मूवमेंट के विभिन्न फॉर्मेशन्स पर चर्चा करने के बाद बोले क्या कल सब्जेक्ट इंटरव्यू और सैलेरी फाइनल करने के लिए चेयरमैन से मिलने आ सकते हो?

हम तो फूले नहीं समा रहे थे। हमने भी हाँ कर दी। कर्नल साहब ने C प्रमाण पत्र देखते हुए हमारी फ़ाइल में ढेरों रिज्यूम की प्रतिलिपियां ताड ली थी सो बोले तनवीर घर जायो और सब्जेक्ट को कुछ पढ़ लो। ये बाकी के रिज्यूम देने कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। आप हमारे साथ काम कर रहे हैं। कल बस चेयरमैन के साथ फॉर्मेलिटी होनी है और सैलरी DECIDE होनी है।

अगले दिन यही हुया। उनके एजुकेशन विषय के एक्सपर्ट को हमने अपने जवाबों से न केवल संतृष्ट कर दिया बल्कि शिक्षा मनोविज्ञान और शिक्षा दर्शन के क्षेत्र की नई खोजों और तथ्यों पर किये डिस्कशन से आश्चर्यचकित भी कर दिया।

खैर अगले दिन हमें 15000 रुपये महावार की तनख्वाह पर बी एड लेक्चरर वेंकटेश्वरा ग्रुप के VICST कैंपस में नियुक्ति पत्र प्राप्त हो गया।

जॉइनिंग पर साथी स्टाफ, प्रिंसिपल और छात्रों से मुलाकात हुई। हमने अच्छे से पढ़ाया और जल्द ही अच्छा नाम कमा लिया। ग्रुप ने अपने TV विज्ञापन के शूट के लिए बॉम्बे से कोई विज्ञापन फ़िल्म शूटिंग यूनिट बुलायी थी। उन्होंने भी तमाम शिक्षकों में से मेरे लेक्चर को अपनी विज्ञापन फ़िल्म हेतु चुना। शायद उनके विज्ञापन में हम अब भी दिखते हों।

 पहला अपराध था ! :

शायद दो तीन महीने ही बीते थे कि प्रिंसिपल साहब ने आधे स्टाफ को प्रशिक्षु शिक्षकों की उपस्थिति शार्ट करने के काम पर लगा दिया। छात्रों की उपस्थिति को शार्ट दर्शा उनके अभिभावकों को एग्जाम में न बैठने के नोटिस भेजे जाने लगे। प्राचार्य जी, वे भी बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का प्रोडक्ट थे, हमारा कुछ ख्याल कर हमारे सामने उपस्थिति पंजिका में फेर बदल कर अधिक से अधिक छात्रों को नोटिस भेजने या क्लास लेने में से एक कार्य चुनने का विकल्प रख दिए। हमने क्लास में पढ़ाना चुन लिया।

अधिकतर शिक्षक ऐयरकंडिशन दफ्तर में बैठ कर रजिस्टर बाज़ी चुन लिए।

खैर हमने भी इस मौके का फायदा उठा दबा कर लंबी लंबी क्लासेज को अनेक पेपर पढ़ाये। बीएड के साथ बीटीसी की क्लास में भी हमारी मांग होने लगी। इससे हमें विषय को गहनता से पढ़ना पढ़ा, हमारे शिक्षण कौशल बेहतर हुए, तीन तीन क्लासेस मिला कर हॉल में लेक्चर देने से बड़ी संख्या वाले क्लासेज को टेक्नोलॉजी के मार्फत से डील करने के हम अभ्यस्त हो गए।

मेहनत और प्रयासों की सच्चाई से ये हुया कि छात्र भी हमारी क्लास अटेंड करने दौड़े चले आने लगे। उनमें से कई अपने आर्थिक हालात, प्रबंधन द्वारा विभिन उत्पीड़क तरीकों से पैसा वसूली और अपने घर के हालात भी सुनाने लगे। मैंने उनका दर्द प्राचार्य से कहा तो वे बोले तनवीर ये प्राइवेट सेक्टर का कॉलेज हैं। यहां अध्यापकों को अपनी सैलरी पढ़ा कर नहीं प्रबंधन को लाभ कमा कर देने के लिए मिलती है। आप नए हैं, आपको पढ़ाने का शौक है, अच्छा पढ़ाते है, इसलिए आपको इसकी छूट दी है। आप पढ़ाइये, बाकी अध्यापकों को सैलरी कमाने दीजिये।

 दूसरा अपराध था! :

कर्नल डी पी सिंह, HR एवं एडमिनिस्ट्रेटर जिन्होंने मेरे C प्रमाणपत्र पर फिदा होकर मुझ पर जुआ खेला था अपने चयन पर खूब गर्वित होते थे। चेयरमैन गिरी भी हमपर मेहरबान थे।

फिर एक दिन एक और कांड हुया। जिन लड़के लड़कियों की उपस्थिति जानबूझकर शार्ट की गई थी उनके घर नोटिस पहुंचे तो कई के गार्डियन आ पहुंचे। तब हमने जाना कि प्राइवेट कॉलेज में न केवल सीट, ड्रेस, बैग, नोटबुक्स, लेसन प्लान बिकते हैं बल्कि उपस्थिति भी बिकती है। अधिकतर के माँ बाप पैसे प्रबंधन को चुका गए लेकिन एक केस बिगड़ गया।

एक शादी शुदा लड़की थी, उसके ससुराल वाले उसे बी एड करा रहे थे। वह पूर्वांचल के किसी शहर की थी। जब नोटिस उसके ससुराल पहुंचा तो गज़ब हो गया। ससुर और पति मेरठ आ गए। प्रिंसिपल आफिस में उन्हीने अपनी रोती हुई बहू से पूंछा कि बहू हमने तो तुम्हें तुम्हारी रिक्वेस्ट पर पढ़ने यहां इतनी दूर भेजा तुम यहाँ कॉलेज आने की जगह कहां घूम रही हो? आप एक भारतीय बहू की स्थिति को समझिये। बहू टिसूये बहा रही थी। मामला शादी टूटने जैसा बन गया था। तभी किसी काम से प्रिंसिपल आफिस में मेरा जाना हुया। प्रिंसिपल साहेब ने मेरी ओर सहायता पाने की दृष्टि से देखा कि क्या किया जाए? मैने भी कहा कि लगता है नोटिस किसी त्रुटिवश गलत चला गया है। ये तो रेगुलर आती हैं।
खैर प्रिंसिपल कुछ बोल न पाए और नोटिस वापिस ले लिया गया। कॉलेज प्रबंधन को कुछ हज़ार रुपये का नुकसान हो गया लेकिन एक लड़की की गृहस्थी और शिक्षा दोनों बच गई।

 तीसरा अपराध था ! : 

प्रिंसिपल साहब मन में हमे ताड़ लिए थे शायद। एक दिन हम अपनी क्लास समाप्त कर छुट्टी के वक़्त अपना थंब इम्प्रैशन देने प्राचार्य के रूम में पहुंचे। तीन चार और शिक्षक भी वहीं थे।
प्राचार्य जी ने हमें भी रोक लिया। थोड़ी देर में सब ऑफिस से निकले और पार्किंग की तरफ बड़े। प्राचार्य जी आगे आगे थे और बाकी शिक्षक उनके पीछे। और हम सबसे पीछे। बेगानी बारात में अब्दुल्ला दीवाने जैसे।

प्राचार्य जी चलते चलते बोले हाँ भाई मनोज सक्सेना जी आज मैनेजमेंट का कितना फायदा किया हमने?
मनोज जी बोले सर आज बीस बाइस स्टूडेंट की अटेंडेंस शार्ट कर नोटिस भेजे हैं... करीब 4-5 लाख की उगाही मैनेजमेंट को ही जाएगी।
प्राचार्य जी बोले शाबाश ये स्ट्रेंथ गिरने नहीं देना है। इसी पैसे से हमारी सैलरी आती है। मैनेजमेंट ने मुझे जो टारगेट दिया है उसे पूरा करना है।

"अब तो हो ही गया है सर अब तो पार्टी बनती है सर!"एक और शिक्षक चहके।

सभी इस सक्सेस पार्टी ऑफर पर खिलखिलाने लगे।

मेरी कोई टिप्पणी और खिलखिलाहट न सुन प्राचार्य जी अपनी कार के दरवाजे में चाबी लगाते हुए बोले... क्या बात है आज तनवीर सर की कोई आवाज़ नहीं आ रही। आपका क्या ख्याल है?

वेंकटेश्वरा के जॉब के दौरान की सबसे बड़ी तीसरी गलती मुझ मूर्ख ने अब आकर की......

"कार्ल मार्क्स अपने कॉफिन में बेचैनी से करवट बदल रहा होगा!" ये मुझ बदज़ुबान का जवाब था । 



प्राचार्य और शिक्षक थोड़ी देर कुछ समझ न सके। शिक्षक तो बाद तक न समझ सके। मैंने तब तक अपनी स्कूटी स्टार्ट कर आगे बढ़ा ली थी। प्राचार्य जी करर में बैठ गए थे। फिर खिड़की खोल मुझे इशारा किया और मुस्कराते हुए बोले आप कम्युनिस्ट कार्ल मार्क्स की बात कर रहे थे?

मैंने कहां जी हां!

"आपका presence ऑफ माइंड बहुत सटीक है।"
बोलकर प्राचार्य जी ने कार आगे बढ़ा दी।

हम भी घर निकल गए।

और अगले दिन क्लास लेते में कर्नल साहब का बुलावा भी आ गया। फौज की डिसेंसी, जेंटलमैन कल्चर, अनुशासन, एफिशिएंसी और चरित्र की तारीफ करते न थकने वाले फौजी ने आज मुझे कुर्सी तक ऑफर न करी। घुसते ही निर्देश दे मारा।

"You are most compitent teacher of this institution. But you have to learn that this is a comercial complex. You should always agree with your employee... You should always agree with management. Otherwise...."

दो मिनट सन्न रहने के बाद हमने भी आगे पीछे के सब हिसाब लगा लिए और बड़ी थेथराई से पूछा.... कि मुझे अपना इस्तीफा चेयरमैन को एड्रेस कर लिखना चाहिए या आपको एड्रेस करूँ सर?

अब कर्नल साहेब के तेवर ढीले पढ़ने का वक़्त था। उन्होंने समझाना चाहा कि स्टूडेंट का फेवर करने से क्या फायदा? यहां बिज़नेस हो रहा है। तुम भी बिज़नेस करो। ऐसे कैसे कहीं भी प्राइवेट सेक्टर में काम कर पाओगे? तुम मार्क्स की बात करते हो?

मैंने भी कहा आप पाठ्यक्रम में तो मुझसे मार्क्स को क्लास में पढ़वाना चाहते हैं और वास्तविक जीवन मे उसके उल्लेख पर आपको आपत्ति है?

आप मुझे मोस्ट competent टीचर कहते हैं। ये competency महंगा आइटम है। attitude और शैक्षिक समझ महंगी शिक्षा से हासिल हुया है, 15000 हज़ार रुपल्ली के लिए नहीं छोड़ूंगा। आपका कमर्शियल संस्थान मेरे पढ़ाने के पैसे देता है। मेरी विचारधारा बदलने के लिए अभी वह बहुत गरीब है।

ये एजुकेशनल attitude है। आप इसे तेवर समझ सकते हैं।

मेरा अगला फायर और घातक था.... सर क्या आप मुझे एक ब्लेंक पेपर दे सकते हैं ? अगर अकॉउंट सेक्शन में एक कॉल कर मेरे due वेतन दिलवाने का कष्ट करें तो मैं दुबारा इस धंधे वाली दुकान में आने से बच जायूँगा।

खैर मैंने रिजाइन लिख दिया। उन्होंने पुनः विचार करने का कह रख लिया। मैं फिर कभी उस कैंपस में बाक़ी की तनख्वाह लेने भी नहीं गया। उन धनपशुओं ने बुला कर दी भी नहीं।

आज रविश के प्राइम टाइम में जब मध्य प्रदेश की स्मृति नामक मेडिकल छात्रा की संस्थान और प्राचार्य द्वारा आर्थिक शोषण और लूट के कारण आत्महत्या पर रिपोर्ट देखी तो अपने साथ बीता सारा वाकया याद आ गया।

इस घटना के बाद एक संस्थान में और चाकरी की उसकी कहानी फिर कभी। बाद में BHU में सेलेक्ट होने पर रिसर्च में एडमिशन ले बनारस चला गया। एक दिन अखबार में पढ़ा कि वेंकटेश्वरा समूह के मालिक गिरी साहब दिल्ली के अपने आफिस की एक महिला कर्मचारी, जो कि किसी सैनिक अधिकारी की पत्नी भी थी के बलात्कार के आरोप में कनॉट प्लेस थाने की पुलिस द्वारा एक होटल से गिरफ्तार हुए।

मैं काफी चिड़ा हुया था... मैंने मेरठ कर्नल साहब को फोन किया। उनके आफिस से पता चला कि वे ग्रुप छोड़ चुके थे। उनसे बात न हो पाई।

फिर मैंने प्राचार्य जी के मोबाइल पर फोन लगाया... और पूँछा.....

"सर जब आपके चैयरमैन उस महिला से बलात्कार कर रहे थे तो आपने उनकी सुविधा के लिए अपनी तनख्वाह को जस्टिफाई करने के लिए उस बेबस महिला के पैर पकड़े थे या हाथ?

शायद ये मेरा बदला था।

काफी देर बाद उधर से बड़ी धीमी आवाज़ आई। तनवीर मैं वहां की नौकरी छोड़ चुका हूँ।

और हाँ Sorry........ for that episode....

मेरा गुबार निकल चुका था।
मैंने भी चुपचाप फोन काट दिया। फिर कभी किसी से संपर्क न किया।

आज शैक्षिक वसूली के बदौलत वेंकटश्वरा ग्रुप की गजरौला उत्तर प्रदेश में एक प्राइवेट विश्विद्यालय भी खड़ी हो गई है।

इंदौर की स्मृति के मेडिकल कॉलेज का प्राचार्य के के खान जिसके पाप और आर्थिक लूट हेतु प्रताड़ना का उल्लेख स्मृति ने अपने सुसाइड नोट में किया है बिल्कुल मेरे इस प्रिंसिपल जैसा ही होगा।

और इंदौर के मेडिकल कॉलेज किसी शिक्षा संस्थान की जगह मुनाफा कमाने का अड्डा!

उच्च शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के ये अवश्यम्भावी नतीजे हैं।

इन संस्थानों के छात्र और शिक्षक कर्मचारी वहां रोज़ अपने ज़मीर को सूली पर लटका कर नाम मात्र की तनख्वाह पाते हैं।
कई शिक्षक तो मनरेगा के मज़दूर से भी कम तिहाड़ी पर वहां मजदूरी करने को अभिशप्त हैं।।

ये शैक्षिक जगत का काला सच है।
https://www.facebook.com/tanveerulhasan.faridi/posts/1558045830997750

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Saturday, 22 June 2019

भारतीय वांग्मय में ही कम्यूनिज्म सफल हो सकता है ------ विजय राजबली माथुर

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )
वीरेंद्र यादव जी प्रगतिशील चिंतक हैं अतः उनकी तो बात साम्यवादी दलों को ग्रहण कर ही लेनी चाहिए। उनके द्वारा रामचन्द्र गुहा साहब के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने की सलाह दी गई है। गुहा साहब प्रसिद्ध इतिहासकार हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण कम्युनिस्ट अतीत में उनके आलोचक रहे हैं। 2011 से मैं भी इसी बात को अपने शब्दों में लिखता - कहता रहा हूँ परंतु मैं किस खेत की मूली हूँ ? लेकिन परिणाम तो सबके सामने है ही। 




मेरा आज भी सुदृढ़ अभिमत है कि यदि कम्युनिस्ट -वामपंथी जनता को 'धर्म' का मर्म समझाएँ और बताएं कि जिसे धर्म कहा जा रहा है वह तो वास्तव में अधर्म है,ढोंग,पाखंड,आडंबर है जिसका उद्देश्य साधारण जनता का शोषण व उत्पीड़न करना है तो कोई कारण नहीं है कि जनता वस्तु-स्थिति को न समझे।लेकिन जब ब्राह्मणवादी-पोंगापंथी जकड़न से खुद कम्युनिस्ट-वामपंथी निकलें तभी तो जनता को समझा सकते हैं? वरना धर्म का विरोध करके व एथीस्ट होने का स्वांग करके उसी पाखंड-आडम्बर-ढोंगवाद को अपनाते रह   कर तो जनता को अपने पीछे लामबंद नहीं किया जा सकता है। 

धर्म=जो मानव जीवन व समाज को धारण करने हेतु आवश्यक हैं जैसे;'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 

अध्यात्म=अपनी 'आत्मा' का अध्यन-अपने कृत कर्मों का विश्लेषण न कि खुराफात का अनुगमन।  

भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)। 
और चूंकि प्रकृति के ये तत्व खुद ही बने हैं और इनको किसी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही खुदा हैं। 

इन तत्वों का कार्य मानव समेत समस्त प्राणियों व वनस्पतियों की उत्पत्ति,पालन,संहार -G(जेनरेट)+O(आपरेट)+D(डेसट्राय)=GOD भी यही हैं। 

परमात्मा  या प्रकृति के लिए सभी प्राणी व मनुष्य समान हैं और उसकी ओर से  सभी को जीवन धारण हेतु समान रूप से वनस्पतियाँ,औषद्धियाँ,अन्न,खनिज आदि-आदि बिना किसी भेद-भाव के  निशुल्क उपलब्ध हैं। अतः इस जगत में एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण करना परमात्मा व प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है और इसी बात को उठाने वाले दृष्टिकोण को समष्टिवाद-साम्यवाद-कम्यूनिज़्म कहा जाता है और यह पूर्णता: भारतीय अवधारणा है। आधुनिक युग में जर्मनी के महर्षि कार्ल मार्क्स ने इस दृष्टिकोण को पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से पुनः प्रस्तुत किया है। 'कृणवन्तो विश्वमार्यम' का अभिप्राय है कि समस्त विश्व को आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना है और यह तभी हो सकता है जब प्रकृति के नियमानुसार आचरण हो। कम्युनिस्ट प्रकृति के इस आदि नियम को लागू करके समाज में व्याप्त मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करने हेतु 'उत्पादन' व 'वितरण' के साधनों पर समाज का अधिकार स्थापित करना चाहते हैं। इस आर्ष व्यवस्था का विरोध शासक,व्यापारी और पुजारी वर्ग मिल कर करते हैं वे अल्पमत में होते हुये भी इसलिए कामयाब हैं कि शोषित-उत्पीड़ित वर्ग परस्परिक फूट में उलझ कर शोषकों की चालों को समझ नहीं पाता है। उसे समझाये कौन? कम्युनिस्ट तो खुद को 'एथीस्ट' और धर्म-विरोधी सिद्ध करने में लगे रहते हैं। 

काश सभी बिखरी हुई कम्युनिस्ट शक्तियाँ  दीवार पर लिखे को पढ़ें और  यथार्थ को समझें और जनता को समझाएँ तो अभी भी शोषक-उत्पीड़क-सांप्रदायिक शक्तियों को परास्त किया जा सकता है। लेकिन जब धर्म को मानेंगे नहीं अर्थात 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का पालन नहीं करेंगे 'एथीस्ट वाद' की जय बोलते हुये ढोंग-पाखंड-आडंबर को प्रोत्साहित करते रहेंगे अपने उच्च सवर्णवाद के कारण तब तो कम्यूनिज़्म को पाकर भी रूस की तरह खो देंगे या चीन की तरह स्टेट-कम्यूनिज़्म में बदल डालेंगे।
Saturday, May 14, 2011
भारत में कम्युनिज्म कैसे कामयाब हो ? ------ विजय राजबली माथुर
https://krantiswar.blogspot.com/2011/05/blog-post_14.html
वैदिक मत के अनुसार मानव कौन ?

त्याग-तपस्या से पवित्र -परिपुष्ट हुआ जिसका 'तन'है,
भद्र भावना-भरा स्नेह-संयुक्त शुद्ध जिसका 'मन'है। 
होता व्यय नित-प्रति पर -हित में,जिसका शुची संचित 'धन'है,
वही श्रेष्ठ -सच्चा 'मानव'है,धन्य उसी का 'जीवन' है। 


इसी को आधार मान कर महर्षि कार्ल मार्क्स द्वारा  साम्यवाद का वह सिद्धान्त प्रतिपादित  किया गया जिसमें मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करने का मन्त्र बताया गया है।  वस्तुतः मैक्स मूलर सा : हमारे देश से जो संस्कृत की मूल -पांडुलिपियाँ ले गए थे और उनके जर्मन अनुवाद में जिनका जिक्र था महर्षि कार्ल मार्क्स ने उनके गहन अध्ययन से जो निष्कर्ष निकाले थे उन्हें 'दास कैपिटल' में लिपिबद्ध किया था और यही ग्रन्थ सम्पूर्ण विश्व में कम्यूनिज्म  का आधिकारिक स्त्रोत है। स्वंय मार्क्स महोदय ने इन सिद्धांतों को देश-काल-परिस्थिति के अनुसार लागू करने की बात कही है ;परन्तु दुर्भाग्य से हमारे देश में इन्हें लागू करते समय इस देश की परिस्थितियों को नजर-अंदाज कर दिया गया जिसका यह दुष्परिणाम है कि हमारे देश में कम्यूनिज्म को विदेशी अवधारणा मान कर उसके सम्बन्ध में दुष्प्रचार किया गया और धर्म-भीरु जनता के बीच इसे धर्म-विरोधी सिद्ध किया जाता है। जबकि धर्म के तथा-कथित ठेकेदार खुद ही अधार्मिक हैं परन्तु हमारे कम्यूनिस्ट साथी इस बात को कहते एवं बताते नहीं हैं। नतीजतन जनता गुमराह होती एवं भटकती रहती है तथा अधार्मिक एवं शोषक-उत्पीडक लोग कामयाब हो जाते हैं। आजादी के ६३ वर्ष एवं कम्यूनिस्ट आंदोलन की स्थापना के ८६ वर्ष बाद भी सही एवं वास्तविक स्थिति जनता के समक्ष न आ सकी है.मैंने अपने इस ब्लॉग 'क्रान्तिस्वर' के माध्यम से ढोंग,पाखण्ड एवं अधार्मिकता का पर्दाफ़ाश  करने का अभियान चला रखा है जिस पर आर.एस.एस.से सम्बंधित लोग तीखा प्रहार करते हैं परन्तु एक भी बामपंथी या कम्यूनिस्ट साथी ने उसका समर्थन करना अपना कर्तव्य नहीं समझा है। 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता'  परन्तु कवीन्द्र रवीन्द्र के 'एक्ला चलो रे ' के तहत मैं लगातार लोगों के समक्ष सच्चाई लाने का प्रयास कर रहा हूँ -'दंतेवाडा त्रासदी समाधान क्या है?','क्रांतिकारी राम','रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना','सीता का विद्रोह','सीता की कूटनीति का कमाल','सर्वे भवन्तु सुखिनः','पं.बंगाल के बंधुओं से एक बे पर की उड़ान','समाजवाद और वैदिक मत','पूजा क्या?क्यों?कैसे?','प्रलय की भविष्यवाणी झूठी है -यह दुनिया अनूठी है' ,समाजवाद और महर्षि कार्लमार्क्स,१८५७ की प्रथम क्रान्ति आदि अनेक लेख मैंने वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित अभिमत के अनुसार प्रस्तुत किये हैं जो संतों एवं अनुभवी विद्वानों के वचनों पर आधारित हैं। 

मेरा विचार है कि अब समय आ गया है जब भारतीय कम्यूनिस्टों को भारतीय सन्दर्भों के साथ जनता के समक्ष आना चाहिए और बताना चाहिए कि धर्म वह नहीं है जिसमें जनता को उलझा कर उसका शोषण पुख्ता किया जाता है बल्कि वास्तविक धर्म वह है जो वैदिक मतानुसार जीवन-यापन के वही सिद्धांत बताता है जो कम्यूनिज्म का मूलाधार हैं। कविवर नन्द लाल जी यही कहते हैं :-

जिस नर में आत्मिक शक्ति है ,वह शीश झुकाना क्या जाने?
जिस दिल में ईश्वर भक्ति है वह पाप कमाना क्या जाने?
माँ -बाप की सेवा करते हैं ,उनके दुखों को हरते हैं। 
वह मथुरा,काशी,हरिद्वार,वृन्दावन जाना क्या जाने?
दो काल करें संध्या व हवन,नित सत्संग में जो जाते हैं। 
भगवान् का है विशवास जिन्हें दुःख में घबराना क्या जानें?
जो खेला है तलवारों से और अग्नि के अंगारों से । 
रण- भूमि में पीछे जा के वह कदम हटाना क्या जानें?
हो कर्मवीर और धर्मवीर वेदों का पढने वाला हो । 
वह निर्बल दुखिया बच्चों पर तलवार चलाना क्या जाने?
मन मंदिर में भगवान् बसा जो उसकी पूजा करता है। 
मंदिर के देवता पर जाकर वह फूल चढ़ाना क्या जानें?
जिसका अच्छा आचार नहीं और धर्म से जिसको प्यार नहीं। 
जिसका सच्चा व्यवहार नहीं 'नन्दलाल' का गाना क्या जानें?


संत कबीर आदि दयानंद सरस्वती,विवेकानंद आदि महा पुरुषों ने धर्म की विकृतियों तथा पाखंड का जो पर्दाफ़ाश किया है उनका सहारा लेकर भारतीय कम्यूनिस्टों को जनता के समक्ष जाना चाहिए तभी अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति और जनता का शोषण समाप्त किया जा सकता है। दरअसल भारतीय वांग्मय में ही कम्यूनिज्म सफल हो सकता है ,यूरोपीय वांग्मय में इसकी विफलता का कारण भी लागू करने की गलत पद्धतियाँ ही थीं। सम्पूर्ण वैदिक मत और हमारे अर्वाचीन पूर्वजों के इतिहास में कम्यूनिस्ट अवधारणा सहजता से देखी जा सकती है -हमें उसी का आश्रय लेना होगा तभी हम सफल हो सकते हैं -भविष्य तो उज्जवल है बस उसे सही ढंग से कहने की जरूरत भर है।   
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Wednesday, 12 June 2019

एक ही रास्ता लोकतंत्र को बचाने का ------ अनिल सिन्हा







अनिल सिन्हा
लखनऊ का लोहिया पार्क : मूर्तियों और प्रतीकों तक सिमट गई है विचारधारा
देश के अधिकतर राजनीतिक दलों ने अपने आदर्श छोड़कर पूंजीवाद के आगे घुटने टेक दिए हैं
विचारधाराओं की वापसी से ही बचेगा लोकतंत्र : 
जातियों के कई राजनीतिक समूह अब बड़ी संख्या में उस बीजेपी के साथ हैं, जिसका विरोध दबे-कुचले तबके के लोग मनुवादी के रूप में करते रहे हैं
पहली बार किसी लोकसभा चुनाव के बाद देश की मुख्यधारा की राजनीति में विचारधारा का खालीपन आया है। किसी पार्टी या व्यक्ति को स्पष्ट बहुमत मिलने के उदाहरण पहले भी मिले हैं। बुरी तरह हारने की भी मिसालें हैं। 1977 की भारी पराजय के बाद इंदिरा गांधी की वापसी की कहानी भी हम जानते हैं। उसके बाद 15 वर्षों तक, एक छोटे अंतराल को छोड़कर, उनकी पार्टी कांग्रेस ही सत्ता में रही। लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा कि देश में विचारधाराएं बेअसर हो गई हैं। 1984 में भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ दो सीटें मिलीं, मगर तब भी यह नहीं लगा कि संघ परिवार की विचारधारा खत्म हो गई है। देश में विचारधारओं का एक इंद्रधनुष खिला रहा। इस बार का चुनाव इस मायने में भिन्न है कि भारतीय राजनीति में विचारधाराओं की उपस्थिति पर प्रश्नचिह्न लग गया है।

 जातियों के समूह :

वामपंथी पार्टियों की ऐसी बुरी हालत कभी नहीं हुई थी। सामाजिक न्याय की शक्तियों के रूप में करीब चालीस साल से उत्तर भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं समाजवादी विरासत वाली पार्टियों का अस्तित्व बचा भी है तो जाति विशेष के समूहों के रूप में। जातियों के कई राजनीतिक समूह अब बड़ी संख्या में उस बीजेपी के साथ हैं जिसका विरोध दबी जातियों के लोग मनुवादी के रूप में करते रहे हैं। व्यक्तियों के इर्द-गिर्द घूमने वाली तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, टीडीपी जैसी पार्टियां, जो स्थापित केंद्रीय सत्ता के विरोध में सेक्युलर जनाधार वाली पार्टियां थीं, काफी कमजोर साबित हुई हैं। अलग-अलग पार्टियों पर नजर दौड़ाएं तो साफ दिखाई देता है कि वहां विचारधाराओं की छाया भी नहीं है। वे कल्याणकारी राज्य के सिद्धांतों का वाहक बनने की सिर्फ कोशिश करती दिखाई देती हैं। यही वजह है कि राजनीति में वे शब्द अपना लिए गए हैं जो दुनिया में पूंजी के प्रवाह को आसान बनाने वाली संस्थाओं- विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष- की पंसद के हैं। इन्हीं में से एक शब्द है विकास। हर पार्टी कहने लगी है कि विकास ही उसका अजेंडा है। विकास का मतलब है सड़क, बिजली, पानी, बांध, फ्लाईओवर, शहरों का सौंदर्यीकरण आदि। शिक्षा और स्वास्थ्य भी इसमें शामिल है। रोजगार और गरीबी हटाना इसके नतीजे हैं, लक्ष्य नहीं। पाटियों ने भी यह कहना छोड़ दिया है कि रोजगार और गरीबी हटाना उनका लक्ष्य है। लक्ष्य तो विकास ही है।

कई लोगों को इससे एतराज हो सकता है, लेकिन सचाई यही है कि अपने तमाम विरोध के बावजूद वामपंथी पार्टियों का मुख्य अजेंडा भी अब विकास ही है। यह जरूर है कि वे इस अजेंडे को पूरा करने में सरकारी क्षेत्र का योगदान महत्वपूर्ण मानती हैं और अपने राज्यों में सरकारी कंपनियों को जिंदा रखने की कोशिश करती हैं। इसे छोड़ दें तो उन्होंने वैकल्पिक आर्थिक नीतियों का मॉडल पेश नहीं किया है। यह काम वामपंथी सरकार भारी बहुमत के बाद भी पश्चिम बंगाल में नहीं कर पाई। सिंगूर और नंदीग्राम में उदारवादी आर्थिक नीतियों को अपनाना ही उनकी पराजय का कारण बना। 

विकास की इस अवधारणा में आर्थिक बराबरी कोई मूल्य नहीं है और इसमें बाजार ही अंतिम फैसला करता है। वामपंथी पार्टियां किसान और मजदूरों का संगठन बनाती हैं, लेकिन बराबरी के मुद्दे पर ढीली पड़ गई हैं। पुरानी समाजवादी पार्टियों से निकली सामाजिक न्याय की पार्टियां आरक्षण और सत्ता में दलित-पिछड़ों को प्रतिनिधित्व के सवाल को ही उठाती हैं, समता को मुख्य सवाल नहीं बतातीं। डॉ. लोहिया और बाबा साहेब आंबेडकर की राजनीति की धुरी समता थी। उनके लिए आरक्षण या सत्ता में प्रतिनिधित्व जाति के उन्मूलन और समतावादी समाज बनाने का साधन था। मगर सामाजिक न्याय की पार्टियां अपनी-अपनी जातियों की सत्ता में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी के अजेंडे में ही लगी हैं। सत्ता में प्रतिनिधित्व को लक्ष्य बनाने का नतीजा हुआ है कि पार्टियां जाति संगठन बन गई हैं और सिद्धांत से उनका कोई लेना-देना नहीं रह गया है। ऊपर से तो यही लगता है कि बीजेपी ही एकमात्र पार्टी है जो दक्षिणपंथ के अपने अजेंडे को लेकर चल रही है और हिंदू राष्ट्रवाद के सपने को सच करना चाहती है। लेकिन यह भी आंशिक सच है। गौर से देखने पर पता चलता है कि हिंदू राष्ट्र का उसका अजेंडा मुक्त बाजार और देशी-विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में चलने वाली अर्थव्यवस्था को टिकाने का एक रास्ता भर रह गया है। उसने पश्चिमी अर्थव्यवस्था के विकल्प के रूप में स्वदेशी की अवधारणा रखी थी। उसे छोड़ कर वह विदेशी कंपनियों को अपने संसाधन सौंपने में उत्साह से जुटी है। उसके राष्ट्रवाद में अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मुलम्मा भी नहीं रह गया है। इसमें अब सिर्फ मुसलमानों से नफरत ही मुख्य तत्व है। आखिर पिज्जा हट और मैकडॉनल्ड की संस्कृति में भारतीय क्या हो सकता है ?  

 उदारवादी आर्थिक नीति : 

क्या भारतीय राजनीति से विचारधाराएं सदा के लिए विदा ले चुकी हैं हरगिज नहीं। गौर से देखें तो जनता तमाम पार्टियों को नकार रही हैं क्योंकि उनके पास विकास की विचारधारा, जो वास्तव में संसाधनों पर बड़ी कंपनियों के कब्जे का प्रॉजेक्ट है, को छोड़ कर कोई विचारधारा नहीं है। बीजेपी की विजय भी उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण नहीं हुई है। लोगों ने उसे भारतीय राष्ट्र को बचाए रखने के लिए वोट दिया है जिसकी स्थापना आजादी के आंदोलन ने की है। उसने एक खास समुदाय और पड़ोसी देश को इसका विरोधी साबित किया। विपक्ष इसे गलत नहीं ठहरा पाया। यही वक्त है कि विचारधाराएं सच्चे रूप में लोगों के सामने आएं। कांग्रेस, सामाजिक न्याय की पार्टियों, क्षेत्रीय दलों और  वामपंथी  पार्टियों को विचारधाराओं की ओर लौटना होगा। लोकतंत्र को बचाने का यही एक रास्ता है।
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Sunday, 9 June 2019

कामरेड राम स्वरूप दीक्षित : एक स्मरण ------ विजय राजबली माथुर


जब 1986 में मैं भाकपा में शामिल हुआ था तब कामरेड राम स्वरूप दीक्षित AICP ,  आगरा के जिलामंत्री थे। लेकिन भाकपा के कई कार्यक्रमों में उनसे मुलाक़ात होती रहती थी। जूनियर डाक्टरों की हड़ताल के समर्थन में निकाले गए मशाल जुलूस में भी वह शामिल हुये थे और भाकपा नेताओं के साथ उनको भी जेल भेज दिया गया था। इस प्रकार डाक्टरों के आंदोलन को CPI तथा AICP के साथ देने से डाक्टरों के साथ - साथ दोनों दलों के नेता भी जेल चले गए थे , मजदूर भवन, नूनिहाई से रोजाना मजदूरों के जत्थे  जेल जा रहे थे। राजामण्डी बाजार स्थित भाकपा कार्यालय में सहायक जिलामंत्री डॉ महेश चंद्र शर्मा को कार्यालय कार्य में सहयोग देने हेतु भी पूर्ववत  मैं रोजाना जाता रहा था। बाजार के दूकानदारों की गवाही पुलिस प्रशासन के झूठे आरोप के खिलाफ कम्युनिस्ट नेताओं के पक्ष में रही और सभी नेता व कार्यकर्ता  आरोपमुक्त होकर रिहा हो गए थे। पार्टी कार्यालय में सभी गिरफ्तारी देने वालों का सम्मान किया गया था और CPI कामरेड्स के साथ - साथ AICP नेता कामरेड राम स्वरूप दीक्षित व कामरेड अब्दुल रज़्ज़ाक़ खाँ का भी सम्मान हुआ था। बाद में ये दोनों CPI में ही शामिल हो गए थे और इन दोनों से ही हमारे व्यक्तिगत संबंध उसी प्रकार हो गए थे जिस प्रकार और कुछ कामरेड्स से पहले से थे।
कामरेड राम स्वरूप दीक्षित अक्सर हमारे निवास कमला नगर भी मिलने आ जाते थे , हम तो उनके निवास पर जाते ही रहते थे। उनसे राजनीतिक और पार्टीगत चर्चा के साथ - साथ व्यक्तिगत वार्ता भी होती रहती थी।कामरेड राम स्वरूप दीक्षित इस वक्त भकपा के एक राष्ट्रीय सचिव कामरेड D Raja के साथ AISF में काम कर चुके थे इसलिए जब वह ' बचाओ भारत, बदलो भारत ' जत्थे के आगमन पर शहीद स्मारक, संजय प्लेस , आगरा आए थे तब सार्वजनिक रूप से भी उनसे आत्मीयता से मिले थे। उस समय  कामरेड D Raja के भाषण का हिन्दी अनुवाद कामरेड जितेंद्र रघुवंशी ने किया था उनसे भी हमारे व्यक्तिगत संबंध मधुर थे। 
बीच में कुछ समय जब मैं कामरेड मित्रसेन यादव और कामरेड राम चंद्र बख्श सिंह के साथ ' सपा ' में था तब भी  कामरेड राम स्वरूप दीक्षित और मेरा  एक दूसरे के घरों पर आना - जाना होता रहता था। एक बार कई दलों के संयुक्त प्रदर्शन - धरना कार्यक्रम में आगरा कलेक्टरेट पर कामरेड राम स्वरूप दीक्षित को अध्यक्ष चुना गया था उस समय सपा में होते हुये भी मुझे  उन्होने अपने साथ मंच पर बैठा लिया था। 
उनके एक पुत्र और एक पुत्री के विवाह कार्यक्रम में भी हम परिवार सहित शामिल हुये थे। पार्टी के बड़े नेताओं की गतिविधियों के संबंध में बहुत सारी जानकारी हमें उनसे ही प्राप्त होती रहती थी। जून 1992 में हम लोग उनको आगरा भाकपा का जिलामंत्री बनवाना चाहते थे किन्तु वह अपने व्यावसायिक ट्रिप पर होने के कारण सम्मेलन में उपस्थित न हो सके थे।लेकिन उसके 20 वर्ष बाद 2012 में (  मेरे लखनऊ  आने के 3 वर्ष बाद ) उनको आगरा भाकपा का जिलामंत्री चुना गया था जिस पद पर वह 2015 तक रहे। यदि 1992 में ही वह आगरा भाकपा के जिलामंत्री बन जाते तब मैं 1994 में सपा में न गया होता।बाद में उन्होने खुद ही माना भी था कि उनको सबकी बात मान लेनी चाहिए थी लेकिन मस्त स्वभाव के होने के कारण वह किसी की किसी बात का बुरा नहीं माना करते थे। उनके निधन की सूचना से मुझे निजी रूप से वेदना हुई है। उनको सादर श्रद्धांजली।