Wednesday, 12 June 2019

एक ही रास्ता लोकतंत्र को बचाने का ------ अनिल सिन्हा







अनिल सिन्हा
लखनऊ का लोहिया पार्क : मूर्तियों और प्रतीकों तक सिमट गई है विचारधारा
देश के अधिकतर राजनीतिक दलों ने अपने आदर्श छोड़कर पूंजीवाद के आगे घुटने टेक दिए हैं
विचारधाराओं की वापसी से ही बचेगा लोकतंत्र : 
जातियों के कई राजनीतिक समूह अब बड़ी संख्या में उस बीजेपी के साथ हैं, जिसका विरोध दबे-कुचले तबके के लोग मनुवादी के रूप में करते रहे हैं
पहली बार किसी लोकसभा चुनाव के बाद देश की मुख्यधारा की राजनीति में विचारधारा का खालीपन आया है। किसी पार्टी या व्यक्ति को स्पष्ट बहुमत मिलने के उदाहरण पहले भी मिले हैं। बुरी तरह हारने की भी मिसालें हैं। 1977 की भारी पराजय के बाद इंदिरा गांधी की वापसी की कहानी भी हम जानते हैं। उसके बाद 15 वर्षों तक, एक छोटे अंतराल को छोड़कर, उनकी पार्टी कांग्रेस ही सत्ता में रही। लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा कि देश में विचारधाराएं बेअसर हो गई हैं। 1984 में भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ दो सीटें मिलीं, मगर तब भी यह नहीं लगा कि संघ परिवार की विचारधारा खत्म हो गई है। देश में विचारधारओं का एक इंद्रधनुष खिला रहा। इस बार का चुनाव इस मायने में भिन्न है कि भारतीय राजनीति में विचारधाराओं की उपस्थिति पर प्रश्नचिह्न लग गया है।

 जातियों के समूह :

वामपंथी पार्टियों की ऐसी बुरी हालत कभी नहीं हुई थी। सामाजिक न्याय की शक्तियों के रूप में करीब चालीस साल से उत्तर भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं समाजवादी विरासत वाली पार्टियों का अस्तित्व बचा भी है तो जाति विशेष के समूहों के रूप में। जातियों के कई राजनीतिक समूह अब बड़ी संख्या में उस बीजेपी के साथ हैं जिसका विरोध दबी जातियों के लोग मनुवादी के रूप में करते रहे हैं। व्यक्तियों के इर्द-गिर्द घूमने वाली तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, टीडीपी जैसी पार्टियां, जो स्थापित केंद्रीय सत्ता के विरोध में सेक्युलर जनाधार वाली पार्टियां थीं, काफी कमजोर साबित हुई हैं। अलग-अलग पार्टियों पर नजर दौड़ाएं तो साफ दिखाई देता है कि वहां विचारधाराओं की छाया भी नहीं है। वे कल्याणकारी राज्य के सिद्धांतों का वाहक बनने की सिर्फ कोशिश करती दिखाई देती हैं। यही वजह है कि राजनीति में वे शब्द अपना लिए गए हैं जो दुनिया में पूंजी के प्रवाह को आसान बनाने वाली संस्थाओं- विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष- की पंसद के हैं। इन्हीं में से एक शब्द है विकास। हर पार्टी कहने लगी है कि विकास ही उसका अजेंडा है। विकास का मतलब है सड़क, बिजली, पानी, बांध, फ्लाईओवर, शहरों का सौंदर्यीकरण आदि। शिक्षा और स्वास्थ्य भी इसमें शामिल है। रोजगार और गरीबी हटाना इसके नतीजे हैं, लक्ष्य नहीं। पाटियों ने भी यह कहना छोड़ दिया है कि रोजगार और गरीबी हटाना उनका लक्ष्य है। लक्ष्य तो विकास ही है।

कई लोगों को इससे एतराज हो सकता है, लेकिन सचाई यही है कि अपने तमाम विरोध के बावजूद वामपंथी पार्टियों का मुख्य अजेंडा भी अब विकास ही है। यह जरूर है कि वे इस अजेंडे को पूरा करने में सरकारी क्षेत्र का योगदान महत्वपूर्ण मानती हैं और अपने राज्यों में सरकारी कंपनियों को जिंदा रखने की कोशिश करती हैं। इसे छोड़ दें तो उन्होंने वैकल्पिक आर्थिक नीतियों का मॉडल पेश नहीं किया है। यह काम वामपंथी सरकार भारी बहुमत के बाद भी पश्चिम बंगाल में नहीं कर पाई। सिंगूर और नंदीग्राम में उदारवादी आर्थिक नीतियों को अपनाना ही उनकी पराजय का कारण बना। 

विकास की इस अवधारणा में आर्थिक बराबरी कोई मूल्य नहीं है और इसमें बाजार ही अंतिम फैसला करता है। वामपंथी पार्टियां किसान और मजदूरों का संगठन बनाती हैं, लेकिन बराबरी के मुद्दे पर ढीली पड़ गई हैं। पुरानी समाजवादी पार्टियों से निकली सामाजिक न्याय की पार्टियां आरक्षण और सत्ता में दलित-पिछड़ों को प्रतिनिधित्व के सवाल को ही उठाती हैं, समता को मुख्य सवाल नहीं बतातीं। डॉ. लोहिया और बाबा साहेब आंबेडकर की राजनीति की धुरी समता थी। उनके लिए आरक्षण या सत्ता में प्रतिनिधित्व जाति के उन्मूलन और समतावादी समाज बनाने का साधन था। मगर सामाजिक न्याय की पार्टियां अपनी-अपनी जातियों की सत्ता में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी के अजेंडे में ही लगी हैं। सत्ता में प्रतिनिधित्व को लक्ष्य बनाने का नतीजा हुआ है कि पार्टियां जाति संगठन बन गई हैं और सिद्धांत से उनका कोई लेना-देना नहीं रह गया है। ऊपर से तो यही लगता है कि बीजेपी ही एकमात्र पार्टी है जो दक्षिणपंथ के अपने अजेंडे को लेकर चल रही है और हिंदू राष्ट्रवाद के सपने को सच करना चाहती है। लेकिन यह भी आंशिक सच है। गौर से देखने पर पता चलता है कि हिंदू राष्ट्र का उसका अजेंडा मुक्त बाजार और देशी-विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में चलने वाली अर्थव्यवस्था को टिकाने का एक रास्ता भर रह गया है। उसने पश्चिमी अर्थव्यवस्था के विकल्प के रूप में स्वदेशी की अवधारणा रखी थी। उसे छोड़ कर वह विदेशी कंपनियों को अपने संसाधन सौंपने में उत्साह से जुटी है। उसके राष्ट्रवाद में अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मुलम्मा भी नहीं रह गया है। इसमें अब सिर्फ मुसलमानों से नफरत ही मुख्य तत्व है। आखिर पिज्जा हट और मैकडॉनल्ड की संस्कृति में भारतीय क्या हो सकता है ?  

 उदारवादी आर्थिक नीति : 

क्या भारतीय राजनीति से विचारधाराएं सदा के लिए विदा ले चुकी हैं हरगिज नहीं। गौर से देखें तो जनता तमाम पार्टियों को नकार रही हैं क्योंकि उनके पास विकास की विचारधारा, जो वास्तव में संसाधनों पर बड़ी कंपनियों के कब्जे का प्रॉजेक्ट है, को छोड़ कर कोई विचारधारा नहीं है। बीजेपी की विजय भी उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण नहीं हुई है। लोगों ने उसे भारतीय राष्ट्र को बचाए रखने के लिए वोट दिया है जिसकी स्थापना आजादी के आंदोलन ने की है। उसने एक खास समुदाय और पड़ोसी देश को इसका विरोधी साबित किया। विपक्ष इसे गलत नहीं ठहरा पाया। यही वक्त है कि विचारधाराएं सच्चे रूप में लोगों के सामने आएं। कांग्रेस, सामाजिक न्याय की पार्टियों, क्षेत्रीय दलों और  वामपंथी  पार्टियों को विचारधाराओं की ओर लौटना होगा। लोकतंत्र को बचाने का यही एक रास्ता है।
http://epaper.navbharattimes.com/details/38964-76896-2.html

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