Hemant Kumar Jha
09-02-2020
यह कैसा वैचारिक द्वैध या विभ्रम है जिसमें भारत का मध्य वर्ग उसी व्यवस्था को अपने कंधे पर उठाए है जो एक-एक कर उसका बहुत कुछ छीनती जा रही है और तय है कि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन इंसान होने का उसका हक भी छीन लिया जाएगा।
पारंपरिक अवधारणाओं के अनुसार मध्य वर्ग की जो छवि उकेरी जाती रही है उसमें इतना भी झोल नहीं है जैसा अब का मध्य वर्ग नजर आ रहा है। समाजशास्त्र की किताबों में इसे अपने हितों के प्रति सचेत वर्ग बताया गया है लेकिन इस दौर की अंधी गतिशीलता में अब इस अवधारणा पर गहरे सवाल उठ रहे हैं। यह उदारीकरण की कोख से उपजा मध्य वर्ग है जिनमें से बहुतों ने समृद्धि और सुविधाओं के अकल्पित स्तरों को छुआ है। उदारवादी-उपभोक्तावादी संस्कृति ने उन्हें पहले से अधिक खुदगर्ज बनाया है। इतना कि उनकी सचेतनता प्रभावित हुई है। इसलिये, अब 'सचेत' शब्द की जगह खुदगर्ज और आत्महंता कहना अधिक उपयुक्त लगता है।
इसमें संदेह नहीं कि आने वाली पीढियां भी इस पीढ़ी को अपराधी ठहराएंगी क्योंकि इतिहास उन्हें बताएगा कि किस दौर में इंसानियत से क्या-क्या छीना गया और प्रतिरोध के बदले उनके बाप-दादे उसी लुटेरी व्यवस्था की न सिर्फ जय जय कार करते रहे बल्कि उसके सबसे मजबूत समर्थक आधार भी बने रहे।
यह भी विश्लेषण का विषय होगा कि आखिर ऐसा क्या था कि नई सदी का दूसरा दशक बीतते-बीतते जब दुनिया के अनेक जागरूक देशों में मध्य वर्ग नवउदारवादी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होने लगा था तो भारतीय जन मानस में ऐसी कोई सुगबुगाहट भी नहीं थी। यह भी रेखांकित किया जाएगा कि व्यवस्था की दुरभिसंधियों के खिलाफ सचेत करने वाली बातों को बौद्धिक प्रलाप की संज्ञा देने में अगर कोई सबसे आगे था तो वह मध्य वर्ग ही था।
इसका कोई मतलब नहीं है कि रेलवे के निजीकरण के खिलाफ ट्रैक जाम करते बाबू लोगों की तस्वीरें आने वाली पीढ़ियों के सामने होंगी या क्वालिटी एडुकेशन को कुछ खास वर्गों तक सीमित करने की साजिशों के खिलाफ नारे लगाते छात्रों के कुछ समूहों के वीडियो उपलब्ध होंगे। इतिहास बताएगा कि ऐसे तमाम आंदोलन इसलिये असरहीन साबित हुए क्योंकि तस्वीरों में नजर आ रहे इन आंदोलित समूहों के पास ऐसा चरित्र बल ही नहीं था जो उनके आंदोलनों को धार दे सकता। यह महज़ एक रस्मी चीख-पुकार भर थी जो सुविधाओं से महरूम किये जाते वक्त की स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी।
बीते महीनों में जमाने ने देखा कि एयरपोर्ट कर्मी धरती पर लोट रहे हैं और रेल कर्मी चलती ट्रेन के आगे कटने को तैयार हैं क्योंकि उनके संस्थानों को बेचा जा रहा है। इधर, पुलिस की लाठियां खा कर अपनी कमर सहलाते बिजली इंजीनियरों की तस्वीरें अखबारों में नजर आई तो सरकारी आयुध निर्माण संस्थानों के कर्मचारियों के धरना-प्रदर्शन से तमाम निर्माण इकाइयों में काम ठप रहा। नाराज बैंक कर्मियों के साथ ही विनिवेश की आहट सुन कर अब तो एलआईसी का बाबू वर्ग भी सदमें में है।
लेकिन...इनमें से किसी भी आंदोलन में ऐसी प्रभावी शक्ति नहीं है जो सरकार को थोड़ी भी चिंता में डाल सके। आखिर, आंदोलनकारियों के चरित्र बल से ही आंदोलन का चरित्र निर्धारित होता है जो उसे प्रभावी या निष्प्रभावी बनाता है। नियामकों को पता है कि दिन में सड़कों पर व्यवस्था विरोधी नारे लगाते इन तमाम बाबुओं में अधिकतर ऐसे ही हैं जो रात में टीवी पर प्राइम टाइम में विशिष्ट किस्म के राष्ट्रवाद की मनोवैज्ञानिक खुराक लेते हैं और यह देख सुन कर मुदित होते हैं कि पाकिस्तान औकात में आ रहा है...कि देश में रहने वाले देश के गद्दारों को सबक सिखाने का असल वक्त आ गया है...कि पाकिस्तान और देश के गद्दारों को सबक सिखाने वाली सरकार की जयजयकार होनी ही चाहिये।
यही वह वर्ग है जो इतिहास को विकृत कर राष्ट्रवाद की प्रायोजित लहर पैदा करने वाली फूहड़ फिल्मों को देखने मल्टीप्लेक्स में भीड़ लगा देता है और अनपढ़ जमातों में भी इतिहास के प्रति एक बेहद गलत नजरिया विकसित करने के लिये टुच्चे फिल्मकारों को प्रोत्साहित करता है।
इक्कीसवीं सदी का राष्ट्रवाद मूलतः कारपोरेट संपोषित राजनीति के छल-छद्म का आवरण है और ऐसी लुटेरी व्यवस्था का संवाहक है जो तमाम संसाधनों और संस्थानों पर कुछ खास शक्तियों के आधिपत्य की साजिशें रचती है। राजनीति की इस धारा को मध्यवर्ग का समर्थन उसे आत्महंता रास्तों पर धकेल रहा है और यही वह मनोविज्ञान है जिसकी पड़ताल भावी इतिहास करेगा।
जिनसे पेंशन छीन लिया गया, जिनकी सेवाओं के स्थायित्व पर सवालिया निशान लगाए जाने लगे, जिनकी सेवा शर्त्तों से मानवीयता का लोप होने लगा...वे इन विसंगतियों से आंखें मूंद व्यवस्था के प्रायोजित प्रहसनों में उत्साह और समर्थन के साथ भाग लेते रहे। पढ़े-लिखे आदमियों का समूह मनोवैज्ञानिक स्तरों पर कैसे भेड़ों के समूह में बदला जा सकता है, यह दौर इसका नायाब उदाहरण प्रस्तुत करता है।
जैसे पेंशन खत्म होना ही काफी नहीं था, सेवा के स्थायित्व पर सवालिया निशान ही काफी नहीं थे, सेवा शर्त्तों में मानवीयता का ह्रास ही काफी नहीं था...भविष्य की सुरक्षा के लिये मध्य वर्ग की प्रिय बचत योजनाओं को हतोत्साहित करने के कदम भी उठाए जाने लगे। हालिया बजट में आयकर से बचत योजनाओं को अलग करने की घोषणा इसी कड़ी में एक निर्णायक कदम है।
दरअसल, लंबे समय से कारपोरेट प्रभुओं की यह मंशा रही है कि बैंकों की ब्याज दरों को न्यूनतम स्तरों पर लाया जाए ताकि उन्हें अति सस्ती दरों पर कर्ज मिल सकें और वे अपना व्यापार बढ़ा सकें। इसमें दोहरा फायदा यह होगा कि आम लोग भी कम ब्याज दरों के कारण बैंकों में पैसा रखने से कतराएंगे जिससे उनमें खर्च करने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। बाजार को यही तो चाहिये। आप अपनी जमा राशि निकाल कर कूलर और फ्रिज खरीद लें तो बाजार भी खुश, ठंडी हवा पा कर आप भी खुश और टैक्स पा कर सरकार भी खुश। भविष्य की सुरक्षा, जो मध्यवर्ग की पहली और सबसे बड़ी चिंता है, उससे वह महरूम हो जाए तो उसकी बला से।
तभी...बजट के बाद वित्त मंत्री ने साफ लहजों में बता दिया कि समय के साथ आयकर से बचत संबंधी तमाम योजनाओं को अलग कर दिया जाएगा। जाहिर है, आय कर बचाने की गरज से पेट काट कर विभिन्न योजनाओं में बचत के नाम पर पैसा जमा करने वाला वर्ग हतोत्साहित होगा। यह उसके भविष्य की सुरक्षा पर भी प्रतिकूल असर डालने वाला होगा।
यह तब है, जब वर्त्तमान में आयकर की दरें आनुपातिक रूप से उच्चतम स्तरों पर हैं, जब अन्य टैक्सों की दरें उच्चतम स्तरों पर हैं। इतनी...कि अर्थशास्त्रियों को ही नहीं, देश के मुख्य न्यायाधीश को भी टैक्स के दुर्वह बोझ पर टिप्पणी करनी पड़ी।
मध्यवर्ग के आर्थिक सम्बल के रूप में जारी बचत योजनाओं को हतोत्साहित करने का कदम एक अलग त्रासदी बन कर सामने आने वाला है।
कामगारों को पेंशन तो नहीं ही मिलेगा, उनके पब्लिक प्रोविडेंट फंड, इम्प्लाइज प्रोविडेंट फंड, फिक्स डिपॉजिट, सुकन्या समृद्धि योजना आदि बचत की लोकप्रिय योजनाओं में भी ब्याज दरों को कम किया जाएगा। यह सब इसलिये ताकि बैंक जमा पर कम ब्याज देंगे तो कर्ज पर भी कम ब्याज लेंगे और इसके असल लाभार्थी बनेंगे कारपोरेट प्रभु। वे तो हजारों करोड़ रुपये ऋण लेते हैं और कम ब्याज दर उनके लिये मौजां ही मौजां का माहौल बनाएगा। पब्लिक को भी कम ब्याज पर उपभोक्ता ऋण मिलेंगे जो बाजार को गतिशील बनाएंगे और अंततः कारपोरेट के हितों का ही संवर्द्धन करेंगे।
यह पूरी प्रक्रिया अंततः मध्य वर्ग को आर्थिक रूप से खोखला कर देने वाली होगी और उनका भविष्य निरन्तर अनिश्चितताओं के भंवर में गोते लगाता रहेगा।
लेकिन...जब मन, बुद्धि और आंखों पर तरह-तरह के आवरण ओढ़ाए जाते रहेंगे और इन आवरणों के पार सत्य कहीं अंधेरे में खोया रहेगा तो नजर तो कुछ आएगा ही नहीं। अगर कुछ नजर आएगा भी तो वह कृत्रिम आवरणों पर उकेरी भ्रामक छवियां ही होंगी...जो सिवाय भ्रम के, और कुछ अहसास नहीं होने देंगी।
तभी तो, जब बहस इस पर होनी चाहिये कि शेयरों के लाभांश पर जो कर कंपनियां देती थीं उससे उन्हें मुक्त कर उन करों को आम शेयर धारकों पर क्यों मढ़ दिया गया, तो बहसें इस पर हो रही हैं कि शाहीन बाग में बिरयानी की फंडिंग कौन कर रहा है।
अजीब है यह दौर...जब मनुष्य से मनुष्यता के नैसर्गिक अधिकार तक छीने जाने की साजिशें परवान चढ़ती जा रही हैं और जिन्हें प्रतिरोध की मुद्रा में होना चाहिये था वे जयकारे लगा रहे हैं।
चाहे रेलवे के बाबू हों या एयरपोर्ट के, बैंक के साहेबान हों या इंश्योरेंस कंपनियों के... या चाहे किसी भी पब्लिक सेक्टर कम्पनी के हाकिम-कर्मचारी हों, उन्हें यह मान कर चलना चाहिये कि जिस व्यवस्था में विश्वविद्यालयों और अस्पतालों तक के निजीकरण की नीतियों पर काम हो रहा हो, उस अंध निजीकरण की आंधी में उनके संस्थानों की तो तिनके की तरह उड़ जाना ही नियति है।
सबने अपनी नियति स्वयं निर्धारित की है। ऊंची पगार के बल पर अपनी औसत प्रतिभा वाली संतानों को महंगी शिक्षा दिला कर सेट कर देने की जुगत में जिन्होंने शिक्षा के निजीकरण से आंखें मोड़ ली, मेडिकल बीमा के बल पर महंगे निजी अस्पतालों में इलाज करवा लेने की निश्चिंतता पा कर जिन्होंने सार्वजनिक चिकित्सा तंत्र को बदतर हो जाने दिया, व्यवस्था आज उनकी कुर्सियों के नीचे पटाखों की लड़ियों में माचिस सुलगा रही है तो उछलने से कुछ हासिल होने वाला नहीं।
मध्य वर्ग की यह पीढ़ी तो अपनी लड़ाई लड़ने के पहले ही हार चुकी है क्योंकि अपनी हार की पटकथा इसने स्वयं लिखी है। उम्मीद अगर है तो आने वाली पीढ़ियों से ही है जिन्हें विरासत में अमानुषिक व्यवस्था मिलने वाली है। अमानुषिकता के खिलाफ मनुष्यता के संघर्ष की मशाल आने वाली पीढियां ही थामेंगी, क्योंकि मनुष्य बन कर जीने के लिये इसके सिवा और कोई रास्ता भी नहीं रह जाएगा उनके पास।
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