Monday, 27 July 2015

पार्टी मेंबरों को मार्क्सवाद का न तो ज्ञान है और न वे ज्ञान पाना चाहते हैं : जगदीश्वर चतुर्वेदी ------ विजय राजबली माथुर



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स्वामी सहजानन्द सरस्वती जो किसान सभा को मजबूत करने वाले किसान नेता थे और उनका नाम लेकर मार्क्सवाद की आलोचना का अभियान चलाया जा रहा है । इस संबंध में मेरी पोस्ट पर एक दिग्गज कामरेड की टिप्पणी उनके परिचय सहित दी जा रही है। उनके अनुसार सरकारी दफ्तरों की परंपरा अब भाकपा में भी लागू हो गई है जिसके अनुसार अपने आकाओं को खुश करने के लिए रिश्वत या भेंट का चलन हो गया है। उनकी इसी टिप्पणी के मद्देनजर कल 'ईद' पर अपने जिलामंत्री कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ साहब के बुलावे पर उनको बधाई देने उनके घर नहीं गया केवल sms द्वारा बधाई दे दी थी। जबकि विगत एक वर्ष खुद गया भी था परंतु तब तक आकाओं को खुश रखने की परंपरा संग्यान में नहीं थी।

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इसी जूलाई माह में खुद -ब - खुद रिक्वेस्ट भेज कर फ्रेंड बनने वाले (क्योंकि बीच में चार दिग्गज कामरेड थे इसीलिए स्वीकार कर लिया था ) इन महान व्यक्तित्व को आज ब्लाक कर दिया है ; कारण संलग्न फोटो से सुस्पष्ट हैं।
इन महान व्यक्तित्व के पीछे ब्राह्मणवादी/केजरीवाल समर्थक बड़े कामरेड्स का हाथ है जो इनको मोहरा बना कर अपना खेल खेलते हैं। वामपंथ में शामिल ब्राह्मणवादी RSS सिक्के के दूसरे पहलू का समर्थन पहले के विरोध के नाम पर करते हैं। इस तथ्य को समझने और सतर्क रहने के बजाए यदि आगाह करने वाले पर प्रहार किया जाये तो लाभ किसको होगा ?




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इस शख्स ने निश्चित ही किसी ब्राह्मणवादी के इशारे पर शरारतन फेसबुक पर मुझे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी होगी क्योंकि एक तरफ तो पहली जुलाई 2015 को इस शख्स ने मुझको कहा कि आकाओं को खुश रखो :
इस टिप्पणी का क्या यही अर्थ है कि, लखनऊ भाकपा के जिलामंत्री, प्रदेश सचिव व अन्य पदाधिकारियों की चापलूसी की जाये अथवा उनको रिश्वत भेंट की जाये? इस शख्स के अनुसार तो सरकारी भ्रष्टाचार उत्तर-प्रदेश भाकपा में भी प्रविष्ट हो गया है और चूंकि मैं उसका पालन नहीं कर सकता इसलिए यह सलाह भिजवाई गई है। 
फिर 02 जुलाई को ही एक पोस्ट शेयर मुझसे की एवं 04 व 14 जुलाई को भी मुझसे पोस्ट्स शेयर कीं तथा आज 27 जुलाई 2015 को यह रिमार्क लिख डाला :

 यह शख्स या इसके मंत्र दाता 'क्रांति' का क्या अर्थ लेते हैं ? लगता तो यह है कि न तो इस विद्वान शख्स को न ही इसे मोहरा बनाने वाले ब्राह्मणवादी शख्स को इस बात का ज्ञान है कि, 'विद्रोह' या 'क्रांति' कोई ऐसी चीज़ नहीं होती जिसका विस्फोट एकाएक - अचानक होता है। बल्कि इसके अनंतर 'अंतर' के 'तनाव' को बल मिलता रहता है और अवसर पाकर वह प्रस्फुटित हो जाता है। तथाकथित विद्वान यह शख्स मुझे उपदेश देता है कि "समय आप क्रांति करने में लगाएँ " ----- क्या सोच कर और क्यों यह मेरे पोस्ट्स शेयर करता रहा है? 'अंतर' और 'तनाव' को निरंतर रेखांकित करते हुये ही सभी ब्लाग्स में पोस्ट्स डालता रहा हूँ। वस्तुतः वे पोस्ट्स ही ब्राह्मणवादी तत्वों को नागवार गुजरती हैं जिस कारण इस शख्स सरीखे मोहरों को उकसा कर बेहूदी टिप्पणियाँ लिखवाई जाती हैं। 

साम्यवादी पार्टियों के अंतर्गत पूर्ण रूप से हावी ब्राह्मणवादी वर्चस्व आंतरिक लोकतन्त्र की पूर्ण उपेक्षा करता है। एक ओर स्टालिन की स्तुति की जाती है दूसरी ओर स्टालिन के ही सुझाव को यह कह कर ठुकरा दिया जाता है कि केवल मार्क्स व लेनिन का लिखा मानेंगे और किसी का नहीं। 

 जब पार्टियों में आंतरिक लोकतन्त्र का आभाव होगा तो ब्राह्मणवादी वर्चस्व के चलते ऐसी ही आत्मघाती हरकतें की जाती रहेंगी जिनसे फासीवादी ताकतों को शक्ति मिलती रहेगी व वामपंथ अपने सफाये के ताने-बाने को बुनता रहेगा। 
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कमेंट्स :गूगल प्लस ---
 

Sunday, 26 July 2015

क्या वामपंथी ख़ुद विकल्प बनने को तैयार है ? --- ध्रुव गुप्त / वामपंथियों ने 'आत्म-हत्या' का मार्ग चुन रखा है --- विजय राजबली माथुर


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BMS की रण-नीति है कि निजी क्षेत्रों में मजदूर आंदोलन को तोड़ कर मालिकों को फायदा पहुंचाना तथा सरकारी क्षेत्रों में विनिवेश का माहौल तैयार करना। जब ऐसे संगठन को वामपंथी संगठनों के बीच जाकर अपना खेल खेलने का मौका खुद वामपंथी संगठन ही देंगे तब केजरीवाल को कोई मुगालता नहीं हो सकता जो कि RSS की ओर से मोदी के विकल्प के तौर पर तैयार किए जा रहे हैं। दोनों ही एक ही सिक्के (RSS ) के दो पहलू हैं जबकि एक पहलू को वामपंथी गले लगाए हुये हैं तब मुगालता कैसा? आश्वस्त हैं। यही देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि वामपंथियों ने 'आत्म- हत्या' का मार्ग चुन रखा है।
(विजय राजबली माथुर ) 

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Friday, 24 July 2015

आलोचना की संस्कृति खतरे में है : प्रो.मैनेजर पाण्डेय----- -वीर विनोद छाबड़ा/ कौशल किशोर

 
माईक पर कौशल किशोर व मंच पर प्रो .मेनेजर पाण्डेय
6 hrs ·
आलोचना की संस्कृति खतरे में है - प्रो.मैनेजर पाण्डेय।
-वीर विनोद छाबड़ा

आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति - यह विषय था, कल लखनऊ में जन संस्कृति मंच के तत्वाधान में आयोजित संगोष्ठी का।
अध्यक्षता की वरिष्ठ लेखक रवींद्र वर्मा ने। मुख्य वक्ता थे -वरिष्ठ आलोचक प्रो.मैनेजर पाण्डेय।
प्रो.पाण्डेय ने इंगित किया कि पश्चिम में डेमोस अर्थात जनसाधारण शब्द का प्रयोग होता है। अब्राहम लिंकन ने कहा था जनता का शासन, जनता द्वारा और जनता के लिए। हमारे देश में केंद्र में सरकार है और अनेक राज्यों की सरकारें हैं। मालूम नहीं चलता कि कौन सी सरकार है जनता के लिए और जनता द्वारा? यहां पूंजीतंत्र है - अंबानी और अडानी का तंत्र है। दबंगों का राज्य है। वही नेता हैं, वही विधायक हैं। वही कानून बनाते हैं और खुद को कानून से ऊपर रखते हैं।
यहां लोकतंत्र का एक ही लक्षण दिखता है - चुनाव। सुबह से शाम इसी की चर्चा होती है। विडंबना है कि दस साल तक एक ऐसा प्रधानमंत्री रहा जिसने कभी पंचायत का चुनाव तक नहीं लड़ा। तमाम एमपी-एमएलए पूंजीपति हैं। नीति वही बनाते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड में बैठ कर उपदेश दिए जाते हैं। ८०% कानून ब्रिटिेश पीरियड के हैं।
लोकतंत्र एक मानसिकता है, वैचारिक चेतना है। नैतिक, राजनैतिक और सामाजिक चेतना है। जहां असहमति और विरोध का सम्मान न हो वो लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। लोकतंत्र की मांग यही है कि विरोधी विचारों को दबायें नहीं। बहस करें। अभी एक समाज सुधारक अंधविश्वास के प्रति चेतना पैदा कर रहे थे, उनकी हत्या हो गयी। एक लेखक ने लिखा - हम लोकतांत्रिक हैं क्या? उन पर दो पुलिस केस हो गए। एक लेखक ने कई बरस पहले लेख लिखा था। आज पता चला कि किसी छोटे से समुदाय की भावनायें आहत हो गयीं। उन्हें लेख वापस लेते हुए कहना पड़ा - लेखक के रूप में आज मैं मर गया।
राजनैतिक दल और सरकारें भी लोकतंत्र की हत्या करती हैं। सरकार ने कुछ नहीं किया। पुलिस शिकारी को नहीं शिकार को पकड़ती है। इस देश के लोग इतने संवेदनशील हैं कि बात बात पर उनकी भावनायें आहत होने लगी हैं। जहां विचार की कद्र नहीं, जहां व्यंग्य बर्दाश्त नहीं, वहां लोकतंत्र कैसा?
शंकर वीकली में जवाहरलाल नेहरू पर कार्टून छपा। पैर बड़े और सर छोटा दिखाया गया। भक्त ने कहा कि नेहरू का अपमान हुआ। लेकिन नेहरू ने कहा - नहीं। ठीक है यह व्यंग्य। मैं चलता ज्यादा हूं और सोचता कम हूं।
डॉ लोहिया का भी कार्टून बना। लेकिन सर बड़ा और पैर छोटे। भक्तों को गुस्सा आया। लोहिया ने डांटा - ठीक बनाया। सर बड़ा, सोच बड़ी।
जीने की स्वतंत्रता पर वेस्ट यूपी और हरयाणा में खाप पंचायतों ने अंकुश लगा रखा है। खाप ने परंपरा की रक्षा का ठेका लिया है। प्रेम की स्वतंत्रता नहीं है। सभ्य कहना भी संकोच का मुद्दा बन जाता है। अजंता-ऐलोरा की गुफाओं में बने भित्तिचित्र देखें। खुजराओ के मंदिर में दीवारों पर बनी मूर्तियां देखें। शर्म आ जाएगी। लेकिन कलाकार प्रजापति कहलाता है, ईश्वर के सबसे करीब।
असहनशीलता लोकतंत्र की परम दुश्मन है। आलोचना की संस्कृति को बर्दाश्त न करने के कारण ही सोवियत संघ का विघटन हुआ। अमेरिका जीवित इसलिए है कि वहां असहमति को बर्दाश्त किया जाता है। सरकारी नीतियों की जम कर धज्जियां उड़ाई जाती हैं।
भारत में सिविल सोसाइटी विभाजित है। जातिवाद का बोलबाला है। लेफ्ट ने भी कोई सुसंकृतज्ञ नीति नहीं अपनायी। जब तक समाज में जातिवाद का अंत नहीं होगा, साम्यवाद नहीं लाया जा सकता। अब तक तो गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है। यह सवाल तब भी था और आज भी है। प्रेमचंद इसी वयवस्था से लड़ते रहे।
इस देश में स्त्रियों की पूजा होती है। लेकिन सत्ता देवताओं के हाथ में है। पितृ सत्ता स्थापित है। संस्कृत के नाटकों में स्त्रियां दास की भाषा बोलती थीं।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तीनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक न रहने से इनका अस्तित्व नहीं। यह लोकतंत्र के लिए अनिवार्य नारा है।
यह अतुल्य भारत है। प्रकृति का क्या होगा? पूंजीपति को इसकी चिंता नहीं है।
हिंदी साहित्य में बौद्धिकता और विवेकवाद दिखता है। यहां आलोचना को स्थान है। देखी तुम्हारी काशी। काशी की आलोचना है। निराला में आलोचनात्मक चेतना थी। रघुवीर सहाय ने 'जन गण मन.…पर ज़बरदस्त व्यंग्य लिखा। लेकिन आज आलोचना गंभीर खतरे में है।
आज कविता सर्वनाशी माहौल में खड़ी है। बहुत दूर तक जाना है। जो कविता मनुष्य के पक्ष में खड़ी होगी, वही मनुष्य की कविता होगी।
लेखक और जनसंदेश टाइम्स के संपादक सुभाष राय ने प्रश्न उठाया कि आलोचना और विचार की संस्कृति आज खतरे में है, लेकिन बाहर निकलने का रास्ता क्या है?
प्रो.पांडे ने इस पर कहा - राम के सामने भी यह संकट था। सत्य की भौतिक कल्पना करो। मार्क्स ने कहा था कि मानव समाज कोई ऐसी समस्या पैदा नहीं करता जिसका समाधान वो स्वयं न खोज सके। संकट देशव्यापी है तो समाधान भी देशव्यापी होना चाहिए। जनता को जगाने के ज़रूरत है। जो साहसी और कर्तव्यनिष्ठ है, उससे विरोध को सामने लाईये। इष्टमित्रों को खोजना होगा। मनुष्य विरोधी माहौल से तभी मुक्ति मिलेगी।
नेहरू ने कहा था कि सबसे बड़ा पाप भय है। इस भय से मुक्त होने पर ही आलोचना की संस्कृति के विरोधी को जवाब देने की क्षमता बढ़ेगी। डॉ अंबेडकर आलोचना की संस्कृति के सबसे बड़े सबूत थे। और हम हैं कि अंदर के झगड़ों और अंतर्विरोधों से नहीं निपट पा रहे हैं।
वरिष्ठ लेखक रवींद्र वर्मा ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि जिस माहौल से हम गुज़र रहे हैं ऐसे माहौल से हम गुज़र चुके हैं। लोकतंत्र की प्रक्रिया को गहरा किया जाए। हमें धर्म के प्रति दृष्टि को साफ़ करने के ज़रूरत है। अगर हम अपने आस-पास देखें तो लोकतंत्र सबसे कम ख़राब व्यवस्था है। फासीवाद से समझौता न करें। अन्य भाषाओँ का अपने समाज से गहरा रिश्ता है। हिंदी वालों में यह कमी है कि समाज से नहीं जुड़ पाये।
इस संगोष्ठी का संचालन कौशल किशोर और डॉ रविकांत ने किया।
संगोष्ठी में नरेश सक्सेना, वीरेंद्र यादव, राकेश, जुगल किशोर, रूप रेखा वर्मा, सुभाष राय, केके चतुर्वेदी, नलिन रंजन सिंह, विजयराज बली माथुर आदि अनेक गणमान्य लेखक, कवि, रंगकर्मी और समाजसेवी उपस्थित थे।
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२४-०७-२०१५


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स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर संकट : डा. मैनेजर पाण्डेय
संगोष्ठी
जन संस्कृति मंच की ओर से ‘आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति’ विषय पर चर्चा
लखनऊ। किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जरूरी होता है। एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि तीनों एक-दूसरे के पूरक भी हैं। अगर स्वतंत्रता और समानता नहीं है तो बंधुत्व और भाईचारा भी कैसे आ सकता है। जहां तक अपने देश के बात है तो इन तीनों पर संकट मंडरा रहा है। इसीलिए आलोचना की संस्कृति भी संकट में है। हिन्दी साहित्य में आलोचना की बात करें तो भारतेंदु हरिश्चंद्र, निराला, नागार्जुन, केदारनाथ, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय जैसे रचनाकारों ने सबसे ज्यादा आलोचना की है। सर्वग्रासी मनुष्य विरोधी माहौल के विरुद्ध समकालीन कविता भी खड़ी है।
यह बात प्रसिद्ध आलोचक और जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने कही। वह गुरुवार को जन संस्कृति मंच की ओर से जयशंकर प्रसाद सभागार में ‘आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में बतौर वक्ता व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने कहा कि लोक का विरोधी होता है परलोक। जिसको हम लोक कहते हैं, उसमें समाज में रहने वाला हर व्यक्ति शामिल होता है। एक संघ लोक सेवा आयोग है, जिससे प्रशासनिक अधिकारी निकलते हैं, लेकिन वे क्या करते हैं, सब जानते हैं। दूसरा लोक निर्माण विभाग है, लेकिन निर्माण के बारे में भी सब जानते हैं। इसलिए लोकतंत्र को सरकारी शब्द कहना उचित होगा, आम लोगों के लिए लोकतंत्र को जनतंत्र कहना ज्यादा उचित होगा। इसे स्पष्ट करते हुए डा. पांडेय ने बताया कि अब्राहम लिंकन ने कहा था, ‘लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा चुना गया शासन है।’ इस देश में दो तरह की सरकारें चलती हैं, पहली केंद्र सरकार और दूसरी राज्य सरकारें। कौन सी सरकार जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा चलती हैं। इसलिए लोकतंत्र नहीं, जनतंत्र कहना उचित है।
डा. पांडेय ने लोकतंत्र को पूंजीतंत्र भी बताया। उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र किसकी राय और सलाह से चल रहा है। अंबानी, टाटा, अडानी जैसे लोगों से। इसलिए लोकतंत्र को पूंजीतंत्र कहना ज्यादा बेहतर होगा। लोकतंत्र का भारत में एक लक्षण है चुनाव का, सुबह से शाम तक इसकी चर्चा भी होती है, लेकिन बहुतों को वोट तक नहीं देने दिया जाता है। देश में 10 वर्षों तक ऐसा प्रधानमंत्री रहा, जो पंचायत का चुनाव तक नहीं लड़ा। विधानसभाओं, राज्यसभा, लोकसभा में कितने एमपी, एमएलए पूंजीपति हैं, इसकी गणना भी सामने आती रहती है। नीतियां बनाने का काम भी वही करते हैं। इसीलिए मैंने लोकतंत्र और जनतंत्र की जगह पूंजीतंत्र कहा है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में एक बात कही गई है कि भारतीय जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलना चाहिए। अंग्रेजों के दो सौ साल के शासन में पुलिस की गोलियों से कितने लोग मारे गए और आजादी मिलने के बाद सरकार की गोलियों से कितने लोग मारे गए, हिसाब लगाकर देख लें। हर तरफ जन्मजात बर्बरता और अथाह पाखंड दिखाई देता है, फिर भी लोग छाती फुलाकर भारत तो जगतगुरु कहते हैं।
उन्होंने कहा कि लोकतंत्र एक मानसिकता के साथ ही वैचारिक चेतना, नैतिक चेतना, सामाजिक चेतना और राजनीतिक चेतना भी है। जिस शासन-सत्ता में असहमति और विरोध का सम्मान न हो, वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। थोड़ी आलोचना की संस्कृति भी आनी चाहिए। लोकतंत्र की मांग यही है कि विरोधी विचारों से विवाद कीजिये, सहमति बने तो संवाद कीजिये, बहस कीजिये। विरोध को दबाना लोकतंत्र नहीं है। उन्होंने महराष्ट्र में लोकतांत्रिक ढंग से जनता को जगाने का काम करने वाले दो लोगों की हत्याओं का जिक्र भी किया। उन्होंने कहा कि परंपराओं पर विचार होते रहना चाहिए। परंपराएं रुढ़िवाद को भी बढ़ावा देती हैं। अपना समाज भी विचित्र समाज है। जिस समाज में लिखने और सोचने की स्वतंत्रता न हो, वहां कैसा लोकतंत्र? प्रेमचंद ने कहा था, ‘ऐसा साहित्य चाहिए, जो जगाए, सुलाये नहीं।’ अब कहा जा रहा है कि ऐसा साहित्य चाहिए, जो सुलाये। धार्मिक भावनाएं हिन्दुओं और मुस्लिमों में पुराने घाव जैसी हैं। जहां आम जनता का कोई पक्ष ही न हो, वहां कैसा जनतंत्र? उन्होंने नेहरू और लोहिया के उदाहरण का जिक्र करते हुए कहा कि अब तो समाज में व्यंग्य विरोध की भी कोई जगह नहीं है।
डा. पांडेय ने कहा कि इस देश में स्वतंत्र रूप से जीतने की भी स्वतंत्रता नहीं है। खाप पंचायतें भी एक संस्था की तरह है। उसने परंपरा की रक्षा का ठेका ले रखा है। प्रेम करने और सोच-विचार की स्वतंत्रता नहीं है। अलोचना की संस्कृति को बर्दाश्त न करने के दुष्परिणा भी दुनिया में दिखाई पड़ते हैं। सोवियत संघ का विघटन इसका प्रमाण है। सारी बदमाशियों के बावजूद अमेरिका जीवित क्यों है, वजह यह कि वहां असहमति को बर्दाश्त किया जाता है। भारत की सिविल सोसाइटी विभाजित है। इसका पहला प्रमुख कारण मुख्य धारा बनाम हाशिये का समाज है। दूसरा सबसे बड़ा कारण जातिवाद, तीसरा पितृसत्ता और चौथा धर्म है। कम्युनिस्टों ने भी जाति को लेकर सुसंगत रवैया नहीं अपनाया। जाति के नाम पर दलितों के दमन पहले से अब तक चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा। इस देश में धर्मों की बहुलता है। अगर कोई बात कही जाएगी तो उससे कोई न कोई नाराज जरूर होगा। बात किसी एक वर्ग को नहीं पचेगी। अंग्रेजों ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट बनाया, जिसने बर्बरता की हद पार कर दी। घुमंतू जातियों के लोग आज भी भारत के वासी नहीं कहलाते हैं। उनके नाम वोटरलिस्टों में नहीं होते हैं।
इनसेट
मनुष्य विरोधी माहौल से मुक्ति के लिए एक होकर लड़ें
व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब का एक सत्र भी चला, जिसमें बुद्धिजीवियों ने डा. पांडेय से कुछ सवाल भी पूछे। संवाद के क्रम की शुरुआत वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने की। उन्होंने कहा कि इतना विस्तृत व्याख्यान हुआ कि कोई प्रश्न ही नहीं निकल रहा है। जहां तक आलोचना की बात है तो इसके लिए सौंदर्यबोध, संवेदना और सृजनात्मकता जैसे तत्व चाहिए। अब ये सब गायब हैं। जब संवेदना, मनुष्यता, सद्भाव नहीं होगा तो लोकतंत्र कैसा? पहला सवाल उठाते हुए सुभाष राय ने पूछा कि विषय पर विस्तार से व्याख्यान दिाय और यह बात सामने आई कि चारो ओर अंधकार है, लेकिन इसमें रास्ता कैसे सूझे? खतरों को कैसे तोड़ा जाए? डा. पांडेय ने जवाब देते हुए कहा कि अंधकार तो है, बस मनुष्य को इस अंधकार के विरुद्ध लड़ने का तौर-तरीका खोजना होगा। मार्क्स ने इतना बताया था कि मानव समाज कोई ऐसी समस्या नहीं पैदा करता, जिसका समाधान न हो। साहस और कर्तव्यनिष्ठा है तो आलोचना की संस्कृति सामने लाएं। मनुष्य विरोधी माहौल से मुक्ति पाने के लिए मिलकर लड़ें। एक अन्य सवाल पर डा. पांडेय ने नेहरू के एक कथन का हवाला देते हुए कहा कि भय ही सबसे बड़ा पाप है। भय से मुक्त होंगे तो संकट का सामना कर सकेंगे। उन्होंने डा. अंबेडकर को आलोचना का संस्कृति का सबूत बताया। यह भी कहा कि जायज हक पाने के लिए खुद लड़ना होगा, कोई दूसरा लड़ने नहीं आएगा। सच बोलने के खतरे हैं, गालियां भी सुनी पड़ती हैं। हिन्दू धर्म के लोग अपनी कमजोरी पर बात करे और मुस्लिम धर्म के लोग अपनी कमजोरी पर बात करें, फिर दोनों धर्मों के बुद्धिजीवी मिलकर बात करें तो समाधान भी निकलेगा। संगोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार व उपन्यासकार रवीन्द्र वर्मा ने की। उन्होंने कहा कि बुद्धिजीवियों ने धर्म और जाति की ठीक से चर्चा नहीं की। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को और मजबूत बनाकर लोकतंत्र को अच्छा बनाया जा सकता है। संचालन की जिम्मेदारी लखनऊ विश्वविद्यालय के अध्यापक व युवा कवि-आलोचक रविकान्त ने निभाई। संगोष्ठी के शुभारंभ पर जन संस्कृति मंच के प्रदेश अध्यक्ष कौशल किशोर ने आगंतुकों का स्वागत किया। उन्होंने यह भी बताया कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ इस कार्यक्रम का आयोजन जन संस्कृति मंच के 31 जुलाई व 1 अगस्त को दिल्ली में होने वाले 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। राष्ट्रीय सम्मेलन ‘फूट, लूट और झूठ की संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की संस्कृति’ पर केन्द्रित है। धन्यवाद ज्ञापन कवि -आलोचक चंद्रेश्वर ने किया . संवाद सत्र में नरेश सक्सेना , सुभाष राय , अनिल मिश्र , नैयाश हसन आदि ने अपने विचार रखे. इस अवसर पर वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव, शिवमूर्ति, नसीम साकेती, जुगुल किशोर, राकेश, रूपरेखा वर्मा, चंद्रेश्वर, भगवान स्वरूप कटियार, शीला रोहेकर, अनीता श्रीवास्तव, ताहिरा हसन, प्रज्ञा पांडेय, नलिन रंजन सिंह, डा. हरिओम, राजेश कुमार, कल्पना पांडेय, केके वत्स, श्याम कुमार, महेश चंद्र देवा, अनिल त्रिपाठी आदि उपस्थित रहे।
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Tuesday, 21 July 2015

डा० बशेषर प्रदीप : IPTA की स्मरण सभा

लखनऊ, 21 जूलाई 2015 --- आज साँय इप्टा कार्यालय, 22- क़ैसर बाग में एक सभा द्वारा 19 जूलाई को दिवंगत हुये  डा० बशेषर प्रदीप साहब को भावभीनी श्रद्धांजली दी गई। राकेश जी द्वारा प्रारम्भिक परिचय दिये जाने के बाद शकील सिद्दीकी साहब ने बताया कि उनकी पहली कहानी 1949 में छ्पी थी। वह 'भूगर्भ विज्ञानी' थे और पी डब्लू डी के निदेशक रहे थे। उनका सारा लेखन तरक्की पसंद लेखन रहा है भले ही वह सांगठनिक रूप से जुड़े नहीं थे। लेकिन इप्टा के साथ उनका लगाव रहा था और इसके कार्यक्रमों में शरीक भी हुये थे। रूपरेखा वर्मा जी, वीरेंद्र यादव साहब भी अन्य लोगों के साथ वक्ताओं में शामिल थे। रूपरेखा जी ने 1980 में सांप्रदायिक गतिविधियों के उभार के समय उनके व रामलाल जी के साथ बशेषर प्रदीप साहब के सक्रिय योगदान का उल्लेख किया। सभापति  महोदय ने भी उनकी सक्रियता का समर्थन अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में किया। सभापति महोदय ने यह भी सूचित किया कि उनका जन्म सात जूलाई 1925 को हुआ था और निधन 19 जूलाई 2015 को हुआ।उनके पिताजी का निधन 17 जूलाई को और माताजी  का निधन 18 जूलाई को हुआ था। जूलाई का महीना उनके लिए वियोग का रहा हालांकि उनके बड़े बेटे का निधन जून 2014 को हुआ था तभी से उन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा लेकिन फिर भी उनकी लेखनी अनवरत चलती रही। उन्होने यह भी कहा कि जब आर के धवन साहब का इंदिरा जी पर गहरा प्रभाव था तब खानदानी प्रभाव का उपयोग करके  डॉ बी एल धवन  उर्फ बशेशर प्रदीप साहब अपने लिए लाभ उठा सकते थे, राज्यसभा सदस्य भी बन सकते थे। लेकिन उन्होने अपने लेखन को सिर्फ कर्म तक सीमित रखा फल की इच्छा नहीं की। 1996 में उनको 'उर्दू हिन्दी साहित्य एकेडमी अवार्ड' से नवाजा गया था। बच्चों पर आधारित 'सुखं गुलाल' के लिए भी उनको नेशनल अवार्ड मिला था।
सभापति महोदय से पूर्व राकेश जी ने बताया कि उनसे बशेशर जी की मुलाक़ात 20-25 दिनों के अंतराल में होती रहती थी। जब राकेश जी ने वीरेंद्र यादव जी के साथ त्रैमासिक पत्रिका 'प्रयोजन' निकाली थी तब बशेशर जी की एक कहानी उसमें छ्पी थी। उर्दू-हिन्दी के लेखकों की एक मासिक बैठक दिवतीय शनिवार को नियमतः किए जाने का सुझाव राकेश जी ने दिया जिसे उपस्थित लोगों ने स्वीकार कर लिया। 
अंत में खड़े होकर दो मिनट का मौन रख कर उनको श्रद्धांजली दी गई। 

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बशेशर जी पर वीर विनोद छाबड़ा साहब का यह लेख भी पठनीय है ---


और अब ब्रह्मलीन हुए डा० बशेषर प्रदीप भी।
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बड़े दुःख के साथ इत्तला दे रहा हूं उर्दू इल्मो-अदब की दुनिया के मशहूर अफ़सानानिगार डा० बशेषर प्रदीप अब इस दुनिया में नहीं हैं। आज तड़के चार बजे नींद में ही वो ब्रह्मलीन हो गए।
प्रदीप साहब उर्दू अदब की दुनिया में किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं। उर्दू में १४ और हिंदी में ०३ कहानी संग्रह अब तक छप चुके हैं। आत्मकथा 'चनाब से गोमती तक' का पहला हिस्सा आ चुका और दूसरा हिस्सा बस आने को तैयार है। आध्यात्म की दुनिया के परमहंस श्री श्री योगानंद जी की अंग्रेज़ी में प्रकाशित ऑटोबायोग्राफी का उर्दू अनुवाद (५६६ सफ़े) भी किया। उनके अफ़साने भारत के अनेक ज़बानों में ट्रांसलेट हुए हैं, देश-विदेश की अनेक सरकारों और अकादमियों ने कई बार उन्हें पुरुस्कृत किया है।
उत्तर प्रदेश उर्दू अकादेमी कौंसिल और एक्सिक्यूटिव कमेटी के मेंबर रहे हैं। प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन यूपी (उर्दू सेक्शन) के प्रेजिडेंट भी रहे हैं। डायरेक्टर, रिसर्च डेवलपमेंट, यूपी पीडब्लूडी की पोस्ट से रिटायर हुए मुद्दत गुज़र चुकी है।
अभी पिछली ०६ जुलाई को नब्बे साल के हुए थे प्रदीप साहब। दिली ख्वाईश कि उन्हें रूबरू होकर ज़िंदगी के इस अहम पड़ाव को पार करने की मुबारक़ दूं। लेकिन मैं आज-कल करता रह गया। वक़्त किसी का इंतज़ार नहीं करता। हसरत दिल में ही रह गयी।
आज सुबह उनके इंतकाल की ख़बर मिली तो बड़ी तक़लीफ़ हुई। फौरन उनके घर पहुंचा। प्रदीप साहब के दर्शन तो हुए, मगर सिर्फ़ जिस्म के। आत्मा तो ब्रह्मलीन हो चुकी थी।
सन १९२५ को चिन्योट (अब पाकिस्तान) में जन्मे प्रदीप साहब कल तक ज़िंदगी की सबसे लंबी पारी खेल रहे एकलौते गैर-मुस्लिम उर्दू अफ़सानानिगार थे।
मैं प्रदीप साहब को प्रदीप चाचाजी कहता था। जबसे मैंने होश संभाला है तब से मैं उनको जानता हूं । वो मेरे पिताजी (स्वर्गीय रामलाल) के अज़ीज़ दोस्तों में थे। पिछले एक साल में उनसे कई बार मिला।
वो बहुत इमोशनल शख़्स थे। बात करते-करते वो सालों पीछे की दुनिया में खो जाते। उन पलों को याद करते, जिनमे सुख और दुःख दोनों होते। उनकी आंख से बरबस आंसू टपकने लगते। ज़िंदगी में कई कठिन दौर से गुज़रे। ज़िंदगी के आख़िर में भी बेहद कठिन दौर देखा जब पिछले साल जून में उनका बड़ा बेटा भुकेश उर्फ़ टोनी गुज़र गया। वो बताते थे - मैंने उसे हर चरण में बड़ा होते देखा।
मुझे याद है जब मैं अफ़सोस करने गया था तो उन्हें बिलकुल टूटा हुआ पाया। मुझे फटी-फटी आंखों से देखते हुए बोले थे - अब तो जिस्म के साथ-साथ आंसू भी सूख चुके हैं।
मैं खामोश था। सिर्फ़ उनको देख और सुन रहा था।
वो बता रहे थे - उस दिन मुझे सुबह-सुबह छोटे बेटे ने बताया कि टोनी की डेथ हो गयी है। मैं बहुत देर तक उसका मुंह देखता रहा था। जड़ हो गया था। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि डेथ का मतलब क्या होता है.…मुझे झिंझोड़ कर ज़िंदगी में वापस लाया गया था। तुम अंदाज़ा लगा सकते हो उस बाप के दिल पर क्या गुज़री होगी जिसके सामने उसके बेटे की लाश पड़ी हो। इन बूढ़े कंधों ने कैसे कंधा दिया होगा। मेरी आध्यात्मिक शक्ति ने मुझे हिम्मत दी। वरना… ईश्वर किसी बाप को ऐसा दिन न दिखाए…
मैं जब उनसे मिलता था तो मुझे लगता था वो उस ट्रॉमा से कभी बाहर नहीं आ पाये।
वो अक़्सर बड़ी तक़लीफ़ से शिक़ायत करते थे - अब कोई अदीब नहीं आता यहां। तुम भी कभी-कभी ही आते हो.…और हां, तुमने मेरी आत्मकथा 'चनाब से गोमती तक' पढ़ी कि नहीं?
मैं उन्हें बताता था - जी, दो बार पढ़ चुका हूं। अब दूसरे पार्ट का इंतज़ार है। कहानी संग्रह 'जलती बुझती आंखें' भी तकरीबन पूरा पढ़ चुका हूं।
फिर वो पूछते थे - यह उर्दू की दुनिया वाले क्या कर रहे हैं? न ख़ैर और न ख़बर। हिंदी वाले तो कभी कभार ख़बर ले लेते हैं। अभी कुछ दिन पहले वीरेंद्र यादव और राकेश आये थे। मेरी किताब 'चनाब से गोमती तक' वीरेंद्र को दे थी न।
मुझे लगता था कि उर्दू की दुनिया को उन्होंने जितना दिया, उर्दू की दुनिया ने उतना नहीं दिया। उन्हें मलाल रहा कि आख़िरी सफ़र के दौरान, चंद लोगो को छोड़ कर, कोई कोई पूछने वाला नहीं रहा। सबने उन्हें भुला दिया।
मुझे देख कर उन्हें तसल्ली मिलती थी। उन्हें मेरे पिता की और उनके साथ गुज़ारे लाखों पल याद आते थे। वो बताते थे - रामलाल साहब से मैं १५ अक्टूबर की शाम को मिला था। चलने लगा तो मेरे मना करने के बावजूद वो मुझे थोड़ी दूर तक छोड़ने भी आये। उसी रात मैं बाहर चला गया। अगले दिन सुबह मुझे ख़बर मिली कि रामलाल साहब नहीं रहे। वो मेरे आदर्श थे। मलाल रहा कि उन्हें कंधा नहीं दे पाया। मेरी जगह टोनी गया था।
यह कहते हुए उनकी आंखों से टप-टप आंसू टपकने लगते।
याद है मुझे, कुछ महीने पहले आख़िरी बार मिला था। ढेर बातें की। रुखसत होते हुए एक पलट कर उन्हें देखा था। वो मुझे बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहे थे।
मैं सोच रहा था मुझे अब जल्दी-जल्दी आना पड़ेगा। चाचाजी अभी बहुत कुछ कहना चाहते हैं। उनका मन अभी भरा नहीं है। इल्मो-अदब पर चर्चा से उनको बड़ी तसल्ली मिलती है। और ज़िंदा रहने का टॉनिक भी।
अपने पिता की भी याद आ रही है। पिताजी को करीब से जानने बहुत कम लोग बचे हैं। अब वो छोटी सी फ़ेहरिस्त और छोटी हो गयी है।

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Monday, 20 July 2015

लखनऊ में भ्रष्टाचार और अपराधी पुलिस राज के खिलाफ मार्च

लखनऊ, 20 जुलाई 2015 --- आज पूर्वान्ह 22, क़ैसर बाग से कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ , जिलामंत्री, भाकपा के नेतृत्व में कार्यकर्ताओं, किसानों, मजदूरों का एक जुलूस परिवर्तन चौक पर अन्य वामपंथी साथियों के साथ संयुक्त होकर लाल बाग, महापालिका कार्यालय, दारुलशफा होते हुये जी पी ओ स्थित महात्मा गांधी की प्रतिमा पर धरना, सभा में परिवर्तित हो गया।
सभाध्यक्ष सर्व-सम्मति से भाकपा जिलामंत्री कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ को चुना गया और संचालन किया माकपा के जिलमंत्री डॉ शर्मा ने। सभा को  संबोधित करते हुये वरिष्ठ माकपा नेता डॉ श्री प्रकाश कश्यप ने आज के इस आंदोलन व धरने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। NFIW की आशा मिश्रा, AIDWA की मधु गर्ग, AIPWA की ताहिरा हसन, AIFB के रवि शंकर और भाकपा के वरिष्ठ नेता फूल चंद यादव आदि अन्य वक्ताओं ने सभा को संबोधित किया और मोदी व अखिलेश सरकार के घोटालों -भ्रष्टाचार पर व्यापक प्रकाश डाला तथा कार्यकर्ताओं व जनता से संघर्ष के लिए आगे आने का आह्वान किया।
कामरेड फूल चंद यादव ने भूमि अधिग्रहण विधेयक के माध्यम से किसानों की ज़मीन छीन कर उद्योगपतियों को मुफ्त बराबर कीमत पर सौपने के षड्यंत्र की विस्तृत चर्चा करते हुये आंकड़े देकर बताया कि तमाम खाली पड़ी ज़मीन को कृषि योग्य घोषित करके गरीब  भूमिहीन किसानों को बांटे जाने की बेहद ज़रूरत है न कि किसानों की ज़मीन छीनने की। 
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में भाकपा के जिलामंत्री कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ ने कार्यकर्ताओं और जनता का संघर्ष में शामिल होने के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया। उन्होने साथ-साथ यह भी आह्वान किया कि और बड़े आंदोलन भी चलाने पड़ सकते हैं अतः उनमें प्रत्येक कार्यकर्ता अपने साथ अधिक से अधिक  जनता को भी साथ लाये। 
प्रदर्शन व सभा में भाकपा की ओर से सर्व कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़, फूल चंद यादव, कल्पना पांडे, कान्ति मिश्रा , आशा मिश्रा, परमानंद दिवेदी, विजय माथुर आदि शामिल थे। जसम के प्रदेश अध्यक्ष कौशल किशोर तथा रिहाई मंच के राजीव यादव आदि  भी समर्थन देने हेतु उपस्थित थे।

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Wednesday, 15 July 2015

जिसके बाद वाम ने कभी सर नहीं उठाया....... Rajneesh K Jha












15-07-2015 



बिहार में वाम के पराभव काल की शुरुआत ......

1996 लोकसभा चुनाव और बिहार के लेनिनग्राद मधुबनी के तीन बार के सांसद भोगेन्द्र झा जिनका मुखर हो कर लालू यादव का विरोध...... इस चुनाव में वाम के टिकट का निर्धारण लालू के गठबंधन और जनता दल के प्रभुत्व के कारण वाम पार्टी द्वारा नहीं लालू यादव द्वारा किया गया और मधुबनी से लगातार सांसद रहे स्थानीय कद्दावर वाम नेता जिनकी पहचान मजदूर किसान और गरीबों के नेता के रूप में रही का टिकट काट कर पंडित चतुरानन मिश्र को टिकट देना.......

भोगेन्द्र झा और चतुरानन मिश्र दोनों मधुबनी के स्थानीय रहे मगर चतुरा बाबु की राजनीति और मधुबनी का सम्बन्ध कभी रहा ही नहीं बावजूद इसके दोनों के व्यक्तित्व में आसमान और धरातल का अंतर था, एक जमीनी वाम दुसरा सोफेसटिकेटेड वाम....... दोनों के चरित्र व्यवहार और वाम विचार में इस अंतर को हटा दें तो दोनों ही मुद्दा आधारित राजनीति करने वाले मुखर वक्ता रहे मगर...........

लालू के इस एक निर्णय ने चतुरानन मिश्र को संसद पहुंचा दिया, पहली बार वाम से मंत्री बनने वालों में चतुरा बाबु भी रहे मगर ये वो निर्णय साबित हुआ जिसके बाद बिहार का लेनिनग्राद खंडहर में तब्दील हो गया.....

मधुबनी से भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी को समाप्त करने का श्रेय लालू यादव के हस्तक्षेप से अधिक वाम का लालू के आगे नतमस्तक होना रहा जिसके बाद वाम ने कभी सर नहीं उठाया.......

जी हाँ मधुबनी के गरीब आवाम से उसका नेता छीन लेने का श्रेय लालू प्रसाद यादव को ही जाता है !!!

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Monday, 13 July 2015

सभी अभियानों को व्यापक और सफल बनाएं ------ अतुल कुमार अंजान


CPI Uttar Pradesh State Council 

Attachments6:09 PM (1 hour ago)




लखनऊ 13 जुलाई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य काउंसिल की दो दिवसीय बैठक यहां प्रो. सुहेव शेरवानी एवं का. मोतीलाल ऐडवोकेट की अध्यक्षता में संपन्न हुयी। बैठक में आंदोलन और संगठन संबंधी कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गये।
बैठक में लिये गये निर्णयों की जानकारी देते हुये भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि केंद्र सरकार को सत्ता में आये अभी 14 महीने पूरे नहीं हुये लेकिन इसके और भाजपा की सारी राज्य सरकारों के तमाम घोटाले सामने आ चुके हैं। मोदीगेट में जहां केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया पर गंभीर आरोप हैं तो मानव संसाधन मन्त्री स्मृति ईरानी अपनी योग्यता के फर्जी प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के आरोपों में घिरी हैं। मध्यप्रदेश में इसके मुख्यमंत्री व्यापमं घोटाले और उसके सबूत मिटाने के आरोपों में लिप्त हैं और प्रकरण की सीबीआई जांच घोषित हो जाने के बावजूद इस्तीफा नहीं दे रहे हैं। महाराष्ट्र के दो-दो मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप हैं तो छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री भी सार्वजनिक धन के गोलमाल के आरोपों का सामना कर रहे हैं। लगता है भाजपा सत्ता में आने के बाद कांग्रेस की पचास साल की लूट को पांच सालों में पीछे छोड देने की योजना पर काम कर रही है।
भाकपा का आरोप है कि तमाम मोर्चाें पर विफल हो चुकी उत्तर प्रदेश की सरकार भ्रष्टाचार में अन्य सरकारों से एक कदम भी पीछे नहीं है। भ्रष्टाचार राज्य में अघोषित वैधता हासिल कर चुका है। सिविल सेवा, पुलिस और अन्य भर्तियों में मनमाना कदाचार चल रहा है। राज्य में अवैध खनन अवैध कमाई का जरिया बन चुका है। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे जनोपयोगी कार्य भी भ्रष्टाचार की जकड में हैं। सरकार के कई मंत्रियो पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के बावजूद उन्हें पदों से हटाया नहीं गया। शासन-प्रशासन में ऊपर से नीचे तक फैला भ्रष्टाचार आम जनता की लूट का औजार बना हुआ है।
भाकपा राज्य काउंसिल ने केंद्र और राज्य सरकार के घपले-घोटालों और भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्य वामदलों के साथ मिल कर 20 जुलाई को राज्य के सभी मुख्यालयों पर धरने प्रदर्शन आयोजित कर संघर्षों की शुरूआत करने का फैसला लिया है।
भाकपा  राज्य सचिव डा. गिरीश ने बताया कि किसानों को तबाह करने के लिये केंद्र सरकार जमीन अधिग्रहण संबंधी कानून को पलटने जा रही है। वह किसानों की जमीनों को कारोबारियों को दे देना चाहती है। उत्तर प्रदेश में तो जमीन हड़पने का काम बडे पैमाने पर शुरु हो गया है। जमुना एक्स्प्रेस वे प्राधिकरण ने हाथरस जनपद के 421 गांवों को अपने अधीन लेने की अधिसूचना जारी की है। मौसम की मार से तबाह किसानों को पर्याप्त राहत नहीं प्रदान नहीं की गयी। गन्ना किसानों की भारी राशि आज भी उन्हें अदा नहीं की गयी। उनकी उपजों के लागत मूल्य भी उन्हें मिल नहीं पा रहे। वे गंभीर आर्थिक संकटों से जूझ रहे हैं। अतएव भाकपा ने किसान संगठनों द्वारा 1 सितंबर को प्रस्तावित आंदोलन को पूरी तरह समर्थन प्रदान करने का संकल्प लिया है।
इसी तरह भारत के श्रमिक वर्ग को कानूनी तौर पर असहाय बनाने और उद्योगपति-कारोबारियों को उनको हर तरह से शोषण करने में सक्षम बनाने को केंद्रीय श्रम कानूनों में परिवर्तन किया जा रहा है जिसके विरुद्ध देश के लगभग सभी श्रमिक संगठन 2 सितंबर को हड़ताल करने जा रहे हैं। भाकपा ने इस हड़ताल को संपूर्ण समर्थन प्रदान करने का निर्णय भी लिया है। इसके अलावा सांप्रदायिकता के खतरों से जनता को आगाह करने और महंगाई जैसे सवालों को लेकर पार्टी निरंतर अभियान चलाती रहेगी।
बैठक में भाकपा के सचिव का. अतुल कुमार अंजान खास तौर पर मौजूद थे। काउंसिल बैठक को संबोधित करते हुये उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होने उपर्युक्त सभी अभियानों को व्यापक और सफल बनाने की अपील की।

Saturday, 4 July 2015

साम्यवादी : सामाजिक आदर्श --- Ranjana Mahajan Kale





** 9 the Jully 2000 me Hmare Marriage Reseption me Com.A.B.Bardhan ke hathose 15 Intercast Couples Ka Satkar huwa.
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1606253839631336&set=a.1452309358359119.1073741831.100007402052877&type=1&theater 

****Marriage me Haldi, Bandbaja, lakho rupye kharch kro tabhi Shadi hoti hai::::::: Lekin Humne apna " Sahjeevan prarambh" kiya. 28th June 2000 Me AISF AIYF ke Rajyshibir me sirf mala pehnar ki....aaj hmari Shadi ko15 years huye.
https://www.facebook.com/ranjana.kale.90/posts/1606253149631405



*** जिस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया की भव्य बारात डॉ कर्ण सिंह के यहाँ उनकी पुत्री से विवाह हेतु पहुंची थी और दोनों ओर से शाही खर्च किया गया था। उन दिनों ही हरियाणा में दो  शिक्षक कामरेड्स ने अपने CPM कार्यालय में 'मार्क्स' व 'एंजिल्स' के चित्रों के समक्ष पाँच फल व पाँच फूल के लेन-देन  से सादगीपूर्ण विवाह किया था । 

लेकिन कामरेड रंजना महाजन  जी व कामरेड श्याम काले जी ने CPI के वरिष्ठ नेता कामरेड ए बी बर्द्धन की उपस्थिति में अपने विवाह का रिसेप्शन सादगीपूर्ण ढंग से सम्पन्न किया। उन दोनों कामरेड्स ने विवाह AISF व AIYF के राज्य शिविर के मध्य ही केवल एक-एक माला के आदान-प्रदान करके एक प्रेरक ही नहीं वरन अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है । इन दोनों कामरेड्स का प्रयास सराहनीय व प्रशंसा का हकदार है, इनका वैवाहिक व पारिवारिक जीवन सदैव सुखी व समृद्ध रहे और ये सभी कामरेड्स के प्रेरणा -स्त्रोत बने रहें । इनसे प्रेरणा लेकर कामरेड्स को सादगीपूर्ण विवाह -प्रथा को परंपरागत रूप से स्थापित करना चाहिए।
------(विजय राजबली माथुर )









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Posted by Ranjana Mahajan Kale on Friday, July 10, 2015

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