Wednesday, 1 July 2015

समाजवाद और साम्यवाद में क्या अंतर है ? --- विजय राजबली माथुर

आज एक साहब ने फेसबुक मेसेज के जरिये यह सवाल पूछा है-
"Sir what is the main difference between socialism and communism---"
उनको जो उत्तर मैंने प्रेषित किया वह यह है ------

'समाजवाद ' वह 'आर्थिक प्रणाली' है जिसमें 'उत्पादन' व 'वितरण' के साधनों पर समाज ( सरकार के माध्यम से ) का आधिपत्य होता है और सबके लिए समान अवसर उपलब्ध करवाए जाते हैं।
'साम्यवाद' वह सामाजिक अवस्था है जिसमें 'प्रत्येक से उसकी क्षमतानुसार व प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार' कार्य व उसका प्रतिफल उपलब्ध करवाया जाता है। 'आदिम-अवस्था' साम्यवाद की ही अवस्था थी।
मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से समाज में विषमता व असमानता उत्पन्न हो गई है । इस अप्राकृतिक लूट व अमानवीय शोषण को समाप्त करने के लिए पहले 'समाजवाद' की स्थापाना करनी होगी जिसे बाद में धीरे-धीरे साम्यवाद में परिवर्तित किया जाएगा।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/904395446289099?pnref=story

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हमारे वरिष्ठ नेता गण सोशल मीडिया पर जिस तरह आपस में अनावश्यक उलझते रहते हैं उससे न तो कोई 'क्रान्ति' हो सकती है न ही लोगों को शोषक सत्ता के विरुद्ध 'विद्रोह' के लिए लामबंद किया जा सकता है। पहले साम्यवादी दलों में सक्रिय रहे विद्वान अब क्यों साथ नहीं हैं और वे क्या सोचते हैं इस पर भी चिंतन-मनन किए जाने की  महती आवश्यकता है।
**जिन दलों से अक्सर हम लोग सहयोग करते हैं और जिनका हम लोगों को कमजोर करने में भारी योगदान है ज़रा उनके भी विचारों पर गौर कर लेना चाहिए --- वे तो cpi को ही संघ का रास्ता आसान करने वाला प्रचारित कर रहे हैं। सिर्फ यह कहने भर से काम नहीं चलेगा कि वे सिर फिरे लोग हैं और जनता उनकी बात नहीं मानेगी क्योंकि खुद वामपंथी रहे विद्वान भी कह रहे हैं कि 'दोनों पार्टियों (cpi -cpm ) ने भारत की आम जनता को दिग्भ्रमित किया है।
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'विद्रोह' या 'क्रान्ति' कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि जिसका विस्फोट एकाएक -अचानक हो जाता है। बल्कि इसके अनंतर 'अंतर' के तनाव को 'बल' मिलता रहता है जो अवसर पाकर प्रस्फुटित हो जाता है।

वस्तुतः समस्त वामपंथी -साम्यवादी दलों ने 'संकीर्ण रूढ़ीवाद' के रूप में 'नास्तिकता'-एथीस्टवाद' को उसी प्रकार गले लगा रखा है जिस प्रकार बंदरिया अपने मरे बच्चे को भी गले से चिपकाए रहती है। जिनका खुद अपने ऊपर विश्वास नहीं होता है वे ही खुद को नास्तिक कहते हैं। वैसे चार्वाक ऋषि भी खुद को नास्तिक कहते थे और उनका मूल मंत्र था- 'जब तक जियो मौज से जियो , घी पियो चाहें उधार ले के पियो'। यह 'नास्तिक संप्रदाय ' पोंगापंथ-शोषण-लूट-ब्राह्मणवाद जैसी कुरीतियों को मजबूत करने व जनता को भटकाने का एक अहम शस्त्र है। जब आप मौज-मस्ती में तल्लीन रहेंगे तब तो कर चुके जन-कल्याण ! और यही तो हो ही रहा है पार्टी कार्यालयों  तक का प्रयोग 'मदिरालय' के रूप में किया जाता है ; क्या इसी जन-सेवा के भरोसे 'क्रांति' व 'विद्रोह' का आह्वान किया जाता है?
'धर्म' के संबंध में भी साम्यवादी-वामपंथी दलों ने घोर प्रतिगामी रुख अख़्तियार किया हुआ है इस संबंध में वास्तविकता यह है :
  • मजहबों व संप्रदायों को 'धर्म' कहना व मानना ही सर्व-विवाद का हेतु है। धर्म सिर्फ वह होता है जो व्यक्ति तथा समाज को धारण करने हेतु आवश्यक हो। उदाहरणार्थ एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए मूली व दही का सेवन करना तो धर्म है लेकिन जुकाम से पीड़ित रोगी के लिए इंनका सेवन करना अधर्म होगा। इसी प्रकार देश,काल,पर्यावरण आदि के अनुसार आचरण करके जीवन को धारित बनाना ही धर्म है न कि मंदिर,मस्जिद,मज़ार,गुरुद्वारा,चर्च आदि-आदि जाना। सड़कों पर ऊधम मचाना व सार्वजनिक जीवन बाधित करना तो घोर अधर्म है ।
    https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/903737333021577?pnref=story 
  • Narendra Parihar jeewan ki samajik seekh va raah ko dharam maan lena moorakhta hai ....... khud me hi bhagwaan kee theory maane ya fir adharmee bane yane dharam ko maane ......dharam ko moortiyo ya disha me baandhna hi adharam hai

  • Anita Gautam Exactly

  • Jeevan Yadav पथ्य व आचार को धर्म का नाम ही क्यों दिया जाए!धर्म को जिस रूप में अपनाए आज की तारीख में इंसानियत से परे शोषको का औजार

  • Satyanarayn Tirpathi सच लगता है

 काश अपने परिसरों से क्रांति का आह्वान करने की अपेक्षा जनता को 'सामाजिक- विषमता' और उसके कारक 'ब्राह्मणवाद' के विरुद्ध जाग्रत करके उसे 'वास्तविक-धर्म' समझाया जाये तब निश्चय ही समग्र जनता हमारे साथ होगी और हम जनवाद के जरिये अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकेंगे । अन्यथा तो बढ़ते 'दक्षिण पंथी- असैनिक तानाशाही' के  खतरे के अपना खुद का अस्तित्व भी बचाना मुश्किल हो जाएगा। जीवन नष्ट करके भी दुश्मन को मजबूत करना कौन सी क्रान्ति होगी?

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