आलोचना की संस्कृति खतरे में है - प्रो.मैनेजर पाण्डेय।
-वीर विनोद छाबड़ा
आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति - यह विषय था, कल लखनऊ में जन संस्कृति मंच के तत्वाधान में आयोजित संगोष्ठी का।
अध्यक्षता की वरिष्ठ लेखक रवींद्र वर्मा ने। मुख्य वक्ता थे -वरिष्ठ आलोचक प्रो.मैनेजर पाण्डेय।
प्रो.पाण्डेय ने इंगित किया कि पश्चिम में डेमोस अर्थात जनसाधारण शब्द का प्रयोग होता है। अब्राहम लिंकन ने कहा था जनता का शासन, जनता द्वारा और जनता के लिए। हमारे देश में केंद्र में सरकार है और अनेक राज्यों की सरकारें हैं। मालूम नहीं चलता कि कौन सी सरकार है जनता के लिए और जनता द्वारा? यहां पूंजीतंत्र है - अंबानी और अडानी का तंत्र है। दबंगों का राज्य है। वही नेता हैं, वही विधायक हैं। वही कानून बनाते हैं और खुद को कानून से ऊपर रखते हैं।
यहां लोकतंत्र का एक ही लक्षण दिखता है - चुनाव। सुबह से शाम इसी की चर्चा होती है। विडंबना है कि दस साल तक एक ऐसा प्रधानमंत्री रहा जिसने कभी पंचायत का चुनाव तक नहीं लड़ा। तमाम एमपी-एमएलए पूंजीपति हैं। नीति वही बनाते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड में बैठ कर उपदेश दिए जाते हैं। ८०% कानून ब्रिटिेश पीरियड के हैं।
लोकतंत्र एक मानसिकता है, वैचारिक चेतना है। नैतिक, राजनैतिक और सामाजिक चेतना है। जहां असहमति और विरोध का सम्मान न हो वो लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। लोकतंत्र की मांग यही है कि विरोधी विचारों को दबायें नहीं। बहस करें। अभी एक समाज सुधारक अंधविश्वास के प्रति चेतना पैदा कर रहे थे, उनकी हत्या हो गयी। एक लेखक ने लिखा - हम लोकतांत्रिक हैं क्या? उन पर दो पुलिस केस हो गए। एक लेखक ने कई बरस पहले लेख लिखा था। आज पता चला कि किसी छोटे से समुदाय की भावनायें आहत हो गयीं। उन्हें लेख वापस लेते हुए कहना पड़ा - लेखक के रूप में आज मैं मर गया।
राजनैतिक दल और सरकारें भी लोकतंत्र की हत्या करती हैं। सरकार ने कुछ नहीं किया। पुलिस शिकारी को नहीं शिकार को पकड़ती है। इस देश के लोग इतने संवेदनशील हैं कि बात बात पर उनकी भावनायें आहत होने लगी हैं। जहां विचार की कद्र नहीं, जहां व्यंग्य बर्दाश्त नहीं, वहां लोकतंत्र कैसा?
शंकर वीकली में जवाहरलाल नेहरू पर कार्टून छपा। पैर बड़े और सर छोटा दिखाया गया। भक्त ने कहा कि नेहरू का अपमान हुआ। लेकिन नेहरू ने कहा - नहीं। ठीक है यह व्यंग्य। मैं चलता ज्यादा हूं और सोचता कम हूं।
डॉ लोहिया का भी कार्टून बना। लेकिन सर बड़ा और पैर छोटे। भक्तों को गुस्सा आया। लोहिया ने डांटा - ठीक बनाया। सर बड़ा, सोच बड़ी।
जीने की स्वतंत्रता पर वेस्ट यूपी और हरयाणा में खाप पंचायतों ने अंकुश लगा रखा है। खाप ने परंपरा की रक्षा का ठेका लिया है। प्रेम की स्वतंत्रता नहीं है। सभ्य कहना भी संकोच का मुद्दा बन जाता है। अजंता-ऐलोरा की गुफाओं में बने भित्तिचित्र देखें। खुजराओ के मंदिर में दीवारों पर बनी मूर्तियां देखें। शर्म आ जाएगी। लेकिन कलाकार प्रजापति कहलाता है, ईश्वर के सबसे करीब।
असहनशीलता लोकतंत्र की परम दुश्मन है। आलोचना की संस्कृति को बर्दाश्त न करने के कारण ही सोवियत संघ का विघटन हुआ। अमेरिका जीवित इसलिए है कि वहां असहमति को बर्दाश्त किया जाता है। सरकारी नीतियों की जम कर धज्जियां उड़ाई जाती हैं।
भारत में सिविल सोसाइटी विभाजित है। जातिवाद का बोलबाला है। लेफ्ट ने भी कोई सुसंकृतज्ञ नीति नहीं अपनायी। जब तक समाज में जातिवाद का अंत नहीं होगा, साम्यवाद नहीं लाया जा सकता। अब तक तो गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है। यह सवाल तब भी था और आज भी है। प्रेमचंद इसी वयवस्था से लड़ते रहे।
इस देश में स्त्रियों की पूजा होती है। लेकिन सत्ता देवताओं के हाथ में है। पितृ सत्ता स्थापित है। संस्कृत के नाटकों में स्त्रियां दास की भाषा बोलती थीं।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तीनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक न रहने से इनका अस्तित्व नहीं। यह लोकतंत्र के लिए अनिवार्य नारा है।
यह अतुल्य भारत है। प्रकृति का क्या होगा? पूंजीपति को इसकी चिंता नहीं है।
हिंदी साहित्य में बौद्धिकता और विवेकवाद दिखता है। यहां आलोचना को स्थान है। देखी तुम्हारी काशी। काशी की आलोचना है। निराला में आलोचनात्मक चेतना थी। रघुवीर सहाय ने 'जन गण मन.…पर ज़बरदस्त व्यंग्य लिखा। लेकिन आज आलोचना गंभीर खतरे में है।
आज कविता सर्वनाशी माहौल में खड़ी है। बहुत दूर तक जाना है। जो कविता मनुष्य के पक्ष में खड़ी होगी, वही मनुष्य की कविता होगी।
लेखक और जनसंदेश टाइम्स के संपादक सुभाष राय ने प्रश्न उठाया कि आलोचना और विचार की संस्कृति आज खतरे में है, लेकिन बाहर निकलने का रास्ता क्या है?
प्रो.पांडे ने इस पर कहा - राम के सामने भी यह संकट था। सत्य की भौतिक कल्पना करो। मार्क्स ने कहा था कि मानव समाज कोई ऐसी समस्या पैदा नहीं करता जिसका समाधान वो स्वयं न खोज सके। संकट देशव्यापी है तो समाधान भी देशव्यापी होना चाहिए। जनता को जगाने के ज़रूरत है। जो साहसी और कर्तव्यनिष्ठ है, उससे विरोध को सामने लाईये। इष्टमित्रों को खोजना होगा। मनुष्य विरोधी माहौल से तभी मुक्ति मिलेगी।
नेहरू ने कहा था कि सबसे बड़ा पाप भय है। इस भय से मुक्त होने पर ही आलोचना की संस्कृति के विरोधी को जवाब देने की क्षमता बढ़ेगी। डॉ अंबेडकर आलोचना की संस्कृति के सबसे बड़े सबूत थे। और हम हैं कि अंदर के झगड़ों और अंतर्विरोधों से नहीं निपट पा रहे हैं।
वरिष्ठ लेखक रवींद्र वर्मा ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि जिस माहौल से हम गुज़र रहे हैं ऐसे माहौल से हम गुज़र चुके हैं। लोकतंत्र की प्रक्रिया को गहरा किया जाए। हमें धर्म के प्रति दृष्टि को साफ़ करने के ज़रूरत है। अगर हम अपने आस-पास देखें तो लोकतंत्र सबसे कम ख़राब व्यवस्था है। फासीवाद से समझौता न करें। अन्य भाषाओँ का अपने समाज से गहरा रिश्ता है। हिंदी वालों में यह कमी है कि समाज से नहीं जुड़ पाये।
इस संगोष्ठी का संचालन कौशल किशोर और डॉ रविकांत ने किया।
संगोष्ठी में नरेश सक्सेना, वीरेंद्र यादव, राकेश, जुगल किशोर, रूप रेखा वर्मा, सुभाष राय, केके चतुर्वेदी, नलिन रंजन सिंह, विजयराज बली माथुर आदि अनेक गणमान्य लेखक, कवि, रंगकर्मी और समाजसेवी उपस्थित थे।
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२४-०७-२०१५
https://www.facebook.com/virvinod.chhabra/posts/1658951594338463?comment_id=1659013057665650&offset=0&total_comments=7&ref=notif¬if_t=mentions_comment
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-वीर विनोद छाबड़ा
आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति - यह विषय था, कल लखनऊ में जन संस्कृति मंच के तत्वाधान में आयोजित संगोष्ठी का।
अध्यक्षता की वरिष्ठ लेखक रवींद्र वर्मा ने। मुख्य वक्ता थे -वरिष्ठ आलोचक प्रो.मैनेजर पाण्डेय।
प्रो.पाण्डेय ने इंगित किया कि पश्चिम में डेमोस अर्थात जनसाधारण शब्द का प्रयोग होता है। अब्राहम लिंकन ने कहा था जनता का शासन, जनता द्वारा और जनता के लिए। हमारे देश में केंद्र में सरकार है और अनेक राज्यों की सरकारें हैं। मालूम नहीं चलता कि कौन सी सरकार है जनता के लिए और जनता द्वारा? यहां पूंजीतंत्र है - अंबानी और अडानी का तंत्र है। दबंगों का राज्य है। वही नेता हैं, वही विधायक हैं। वही कानून बनाते हैं और खुद को कानून से ऊपर रखते हैं।
यहां लोकतंत्र का एक ही लक्षण दिखता है - चुनाव। सुबह से शाम इसी की चर्चा होती है। विडंबना है कि दस साल तक एक ऐसा प्रधानमंत्री रहा जिसने कभी पंचायत का चुनाव तक नहीं लड़ा। तमाम एमपी-एमएलए पूंजीपति हैं। नीति वही बनाते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड में बैठ कर उपदेश दिए जाते हैं। ८०% कानून ब्रिटिेश पीरियड के हैं।
लोकतंत्र एक मानसिकता है, वैचारिक चेतना है। नैतिक, राजनैतिक और सामाजिक चेतना है। जहां असहमति और विरोध का सम्मान न हो वो लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। लोकतंत्र की मांग यही है कि विरोधी विचारों को दबायें नहीं। बहस करें। अभी एक समाज सुधारक अंधविश्वास के प्रति चेतना पैदा कर रहे थे, उनकी हत्या हो गयी। एक लेखक ने लिखा - हम लोकतांत्रिक हैं क्या? उन पर दो पुलिस केस हो गए। एक लेखक ने कई बरस पहले लेख लिखा था। आज पता चला कि किसी छोटे से समुदाय की भावनायें आहत हो गयीं। उन्हें लेख वापस लेते हुए कहना पड़ा - लेखक के रूप में आज मैं मर गया।
राजनैतिक दल और सरकारें भी लोकतंत्र की हत्या करती हैं। सरकार ने कुछ नहीं किया। पुलिस शिकारी को नहीं शिकार को पकड़ती है। इस देश के लोग इतने संवेदनशील हैं कि बात बात पर उनकी भावनायें आहत होने लगी हैं। जहां विचार की कद्र नहीं, जहां व्यंग्य बर्दाश्त नहीं, वहां लोकतंत्र कैसा?
शंकर वीकली में जवाहरलाल नेहरू पर कार्टून छपा। पैर बड़े और सर छोटा दिखाया गया। भक्त ने कहा कि नेहरू का अपमान हुआ। लेकिन नेहरू ने कहा - नहीं। ठीक है यह व्यंग्य। मैं चलता ज्यादा हूं और सोचता कम हूं।
डॉ लोहिया का भी कार्टून बना। लेकिन सर बड़ा और पैर छोटे। भक्तों को गुस्सा आया। लोहिया ने डांटा - ठीक बनाया। सर बड़ा, सोच बड़ी।
जीने की स्वतंत्रता पर वेस्ट यूपी और हरयाणा में खाप पंचायतों ने अंकुश लगा रखा है। खाप ने परंपरा की रक्षा का ठेका लिया है। प्रेम की स्वतंत्रता नहीं है। सभ्य कहना भी संकोच का मुद्दा बन जाता है। अजंता-ऐलोरा की गुफाओं में बने भित्तिचित्र देखें। खुजराओ के मंदिर में दीवारों पर बनी मूर्तियां देखें। शर्म आ जाएगी। लेकिन कलाकार प्रजापति कहलाता है, ईश्वर के सबसे करीब।
असहनशीलता लोकतंत्र की परम दुश्मन है। आलोचना की संस्कृति को बर्दाश्त न करने के कारण ही सोवियत संघ का विघटन हुआ। अमेरिका जीवित इसलिए है कि वहां असहमति को बर्दाश्त किया जाता है। सरकारी नीतियों की जम कर धज्जियां उड़ाई जाती हैं।
भारत में सिविल सोसाइटी विभाजित है। जातिवाद का बोलबाला है। लेफ्ट ने भी कोई सुसंकृतज्ञ नीति नहीं अपनायी। जब तक समाज में जातिवाद का अंत नहीं होगा, साम्यवाद नहीं लाया जा सकता। अब तक तो गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है। यह सवाल तब भी था और आज भी है। प्रेमचंद इसी वयवस्था से लड़ते रहे।
इस देश में स्त्रियों की पूजा होती है। लेकिन सत्ता देवताओं के हाथ में है। पितृ सत्ता स्थापित है। संस्कृत के नाटकों में स्त्रियां दास की भाषा बोलती थीं।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तीनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक न रहने से इनका अस्तित्व नहीं। यह लोकतंत्र के लिए अनिवार्य नारा है।
यह अतुल्य भारत है। प्रकृति का क्या होगा? पूंजीपति को इसकी चिंता नहीं है।
हिंदी साहित्य में बौद्धिकता और विवेकवाद दिखता है। यहां आलोचना को स्थान है। देखी तुम्हारी काशी। काशी की आलोचना है। निराला में आलोचनात्मक चेतना थी। रघुवीर सहाय ने 'जन गण मन.…पर ज़बरदस्त व्यंग्य लिखा। लेकिन आज आलोचना गंभीर खतरे में है।
आज कविता सर्वनाशी माहौल में खड़ी है। बहुत दूर तक जाना है। जो कविता मनुष्य के पक्ष में खड़ी होगी, वही मनुष्य की कविता होगी।
लेखक और जनसंदेश टाइम्स के संपादक सुभाष राय ने प्रश्न उठाया कि आलोचना और विचार की संस्कृति आज खतरे में है, लेकिन बाहर निकलने का रास्ता क्या है?
प्रो.पांडे ने इस पर कहा - राम के सामने भी यह संकट था। सत्य की भौतिक कल्पना करो। मार्क्स ने कहा था कि मानव समाज कोई ऐसी समस्या पैदा नहीं करता जिसका समाधान वो स्वयं न खोज सके। संकट देशव्यापी है तो समाधान भी देशव्यापी होना चाहिए। जनता को जगाने के ज़रूरत है। जो साहसी और कर्तव्यनिष्ठ है, उससे विरोध को सामने लाईये। इष्टमित्रों को खोजना होगा। मनुष्य विरोधी माहौल से तभी मुक्ति मिलेगी।
नेहरू ने कहा था कि सबसे बड़ा पाप भय है। इस भय से मुक्त होने पर ही आलोचना की संस्कृति के विरोधी को जवाब देने की क्षमता बढ़ेगी। डॉ अंबेडकर आलोचना की संस्कृति के सबसे बड़े सबूत थे। और हम हैं कि अंदर के झगड़ों और अंतर्विरोधों से नहीं निपट पा रहे हैं।
वरिष्ठ लेखक रवींद्र वर्मा ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि जिस माहौल से हम गुज़र रहे हैं ऐसे माहौल से हम गुज़र चुके हैं। लोकतंत्र की प्रक्रिया को गहरा किया जाए। हमें धर्म के प्रति दृष्टि को साफ़ करने के ज़रूरत है। अगर हम अपने आस-पास देखें तो लोकतंत्र सबसे कम ख़राब व्यवस्था है। फासीवाद से समझौता न करें। अन्य भाषाओँ का अपने समाज से गहरा रिश्ता है। हिंदी वालों में यह कमी है कि समाज से नहीं जुड़ पाये।
इस संगोष्ठी का संचालन कौशल किशोर और डॉ रविकांत ने किया।
संगोष्ठी में नरेश सक्सेना, वीरेंद्र यादव, राकेश, जुगल किशोर, रूप रेखा वर्मा, सुभाष राय, केके चतुर्वेदी, नलिन रंजन सिंह, विजयराज बली माथुर आदि अनेक गणमान्य लेखक, कवि, रंगकर्मी और समाजसेवी उपस्थित थे।
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२४-०७-२०१५
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स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर संकट : डा. मैनेजर पाण्डेय
संगोष्ठी
जन संस्कृति मंच की ओर से ‘आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति’ विषय पर चर्चा
लखनऊ। किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जरूरी होता है। एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि तीनों एक-दूसरे के पूरक भी हैं। अगर स्वतंत्रता और समानता नहीं है तो बंधुत्व और भाईचारा भी कैसे आ सकता है। जहां तक अपने देश के बात है तो इन तीनों पर संकट मंडरा रहा है। इसीलिए आलोचना की संस्कृति भी संकट में है। हिन्दी साहित्य में आलोचना की बात करें तो भारतेंदु हरिश्चंद्र, निराला, नागार्जुन, केदारनाथ, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय जैसे रचनाकारों ने सबसे ज्यादा आलोचना की है। सर्वग्रासी मनुष्य विरोधी माहौल के विरुद्ध समकालीन कविता भी खड़ी है।
यह बात प्रसिद्ध आलोचक और जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने कही। वह गुरुवार को जन संस्कृति मंच की ओर से जयशंकर प्रसाद सभागार में ‘आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में बतौर वक्ता व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने कहा कि लोक का विरोधी होता है परलोक। जिसको हम लोक कहते हैं, उसमें समाज में रहने वाला हर व्यक्ति शामिल होता है। एक संघ लोक सेवा आयोग है, जिससे प्रशासनिक अधिकारी निकलते हैं, लेकिन वे क्या करते हैं, सब जानते हैं। दूसरा लोक निर्माण विभाग है, लेकिन निर्माण के बारे में भी सब जानते हैं। इसलिए लोकतंत्र को सरकारी शब्द कहना उचित होगा, आम लोगों के लिए लोकतंत्र को जनतंत्र कहना ज्यादा उचित होगा। इसे स्पष्ट करते हुए डा. पांडेय ने बताया कि अब्राहम लिंकन ने कहा था, ‘लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा चुना गया शासन है।’ इस देश में दो तरह की सरकारें चलती हैं, पहली केंद्र सरकार और दूसरी राज्य सरकारें। कौन सी सरकार जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा चलती हैं। इसलिए लोकतंत्र नहीं, जनतंत्र कहना उचित है।
डा. पांडेय ने लोकतंत्र को पूंजीतंत्र भी बताया। उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र किसकी राय और सलाह से चल रहा है। अंबानी, टाटा, अडानी जैसे लोगों से। इसलिए लोकतंत्र को पूंजीतंत्र कहना ज्यादा बेहतर होगा। लोकतंत्र का भारत में एक लक्षण है चुनाव का, सुबह से शाम तक इसकी चर्चा भी होती है, लेकिन बहुतों को वोट तक नहीं देने दिया जाता है। देश में 10 वर्षों तक ऐसा प्रधानमंत्री रहा, जो पंचायत का चुनाव तक नहीं लड़ा। विधानसभाओं, राज्यसभा, लोकसभा में कितने एमपी, एमएलए पूंजीपति हैं, इसकी गणना भी सामने आती रहती है। नीतियां बनाने का काम भी वही करते हैं। इसीलिए मैंने लोकतंत्र और जनतंत्र की जगह पूंजीतंत्र कहा है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में एक बात कही गई है कि भारतीय जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलना चाहिए। अंग्रेजों के दो सौ साल के शासन में पुलिस की गोलियों से कितने लोग मारे गए और आजादी मिलने के बाद सरकार की गोलियों से कितने लोग मारे गए, हिसाब लगाकर देख लें। हर तरफ जन्मजात बर्बरता और अथाह पाखंड दिखाई देता है, फिर भी लोग छाती फुलाकर भारत तो जगतगुरु कहते हैं।
उन्होंने कहा कि लोकतंत्र एक मानसिकता के साथ ही वैचारिक चेतना, नैतिक चेतना, सामाजिक चेतना और राजनीतिक चेतना भी है। जिस शासन-सत्ता में असहमति और विरोध का सम्मान न हो, वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। थोड़ी आलोचना की संस्कृति भी आनी चाहिए। लोकतंत्र की मांग यही है कि विरोधी विचारों से विवाद कीजिये, सहमति बने तो संवाद कीजिये, बहस कीजिये। विरोध को दबाना लोकतंत्र नहीं है। उन्होंने महराष्ट्र में लोकतांत्रिक ढंग से जनता को जगाने का काम करने वाले दो लोगों की हत्याओं का जिक्र भी किया। उन्होंने कहा कि परंपराओं पर विचार होते रहना चाहिए। परंपराएं रुढ़िवाद को भी बढ़ावा देती हैं। अपना समाज भी विचित्र समाज है। जिस समाज में लिखने और सोचने की स्वतंत्रता न हो, वहां कैसा लोकतंत्र? प्रेमचंद ने कहा था, ‘ऐसा साहित्य चाहिए, जो जगाए, सुलाये नहीं।’ अब कहा जा रहा है कि ऐसा साहित्य चाहिए, जो सुलाये। धार्मिक भावनाएं हिन्दुओं और मुस्लिमों में पुराने घाव जैसी हैं। जहां आम जनता का कोई पक्ष ही न हो, वहां कैसा जनतंत्र? उन्होंने नेहरू और लोहिया के उदाहरण का जिक्र करते हुए कहा कि अब तो समाज में व्यंग्य विरोध की भी कोई जगह नहीं है।
डा. पांडेय ने कहा कि इस देश में स्वतंत्र रूप से जीतने की भी स्वतंत्रता नहीं है। खाप पंचायतें भी एक संस्था की तरह है। उसने परंपरा की रक्षा का ठेका ले रखा है। प्रेम करने और सोच-विचार की स्वतंत्रता नहीं है। अलोचना की संस्कृति को बर्दाश्त न करने के दुष्परिणा भी दुनिया में दिखाई पड़ते हैं। सोवियत संघ का विघटन इसका प्रमाण है। सारी बदमाशियों के बावजूद अमेरिका जीवित क्यों है, वजह यह कि वहां असहमति को बर्दाश्त किया जाता है। भारत की सिविल सोसाइटी विभाजित है। इसका पहला प्रमुख कारण मुख्य धारा बनाम हाशिये का समाज है। दूसरा सबसे बड़ा कारण जातिवाद, तीसरा पितृसत्ता और चौथा धर्म है। कम्युनिस्टों ने भी जाति को लेकर सुसंगत रवैया नहीं अपनाया। जाति के नाम पर दलितों के दमन पहले से अब तक चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा। इस देश में धर्मों की बहुलता है। अगर कोई बात कही जाएगी तो उससे कोई न कोई नाराज जरूर होगा। बात किसी एक वर्ग को नहीं पचेगी। अंग्रेजों ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट बनाया, जिसने बर्बरता की हद पार कर दी। घुमंतू जातियों के लोग आज भी भारत के वासी नहीं कहलाते हैं। उनके नाम वोटरलिस्टों में नहीं होते हैं।
इनसेट
मनुष्य विरोधी माहौल से मुक्ति के लिए एक होकर लड़ें
व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब का एक सत्र भी चला, जिसमें बुद्धिजीवियों ने डा. पांडेय से कुछ सवाल भी पूछे। संवाद के क्रम की शुरुआत वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने की। उन्होंने कहा कि इतना विस्तृत व्याख्यान हुआ कि कोई प्रश्न ही नहीं निकल रहा है। जहां तक आलोचना की बात है तो इसके लिए सौंदर्यबोध, संवेदना और सृजनात्मकता जैसे तत्व चाहिए। अब ये सब गायब हैं। जब संवेदना, मनुष्यता, सद्भाव नहीं होगा तो लोकतंत्र कैसा? पहला सवाल उठाते हुए सुभाष राय ने पूछा कि विषय पर विस्तार से व्याख्यान दिाय और यह बात सामने आई कि चारो ओर अंधकार है, लेकिन इसमें रास्ता कैसे सूझे? खतरों को कैसे तोड़ा जाए? डा. पांडेय ने जवाब देते हुए कहा कि अंधकार तो है, बस मनुष्य को इस अंधकार के विरुद्ध लड़ने का तौर-तरीका खोजना होगा। मार्क्स ने इतना बताया था कि मानव समाज कोई ऐसी समस्या नहीं पैदा करता, जिसका समाधान न हो। साहस और कर्तव्यनिष्ठा है तो आलोचना की संस्कृति सामने लाएं। मनुष्य विरोधी माहौल से मुक्ति पाने के लिए मिलकर लड़ें। एक अन्य सवाल पर डा. पांडेय ने नेहरू के एक कथन का हवाला देते हुए कहा कि भय ही सबसे बड़ा पाप है। भय से मुक्त होंगे तो संकट का सामना कर सकेंगे। उन्होंने डा. अंबेडकर को आलोचना का संस्कृति का सबूत बताया। यह भी कहा कि जायज हक पाने के लिए खुद लड़ना होगा, कोई दूसरा लड़ने नहीं आएगा। सच बोलने के खतरे हैं, गालियां भी सुनी पड़ती हैं। हिन्दू धर्म के लोग अपनी कमजोरी पर बात करे और मुस्लिम धर्म के लोग अपनी कमजोरी पर बात करें, फिर दोनों धर्मों के बुद्धिजीवी मिलकर बात करें तो समाधान भी निकलेगा। संगोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार व उपन्यासकार रवीन्द्र वर्मा ने की। उन्होंने कहा कि बुद्धिजीवियों ने धर्म और जाति की ठीक से चर्चा नहीं की। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को और मजबूत बनाकर लोकतंत्र को अच्छा बनाया जा सकता है। संचालन की जिम्मेदारी लखनऊ विश्वविद्यालय के अध्यापक व युवा कवि-आलोचक रविकान्त ने निभाई। संगोष्ठी के शुभारंभ पर जन संस्कृति मंच के प्रदेश अध्यक्ष कौशल किशोर ने आगंतुकों का स्वागत किया। उन्होंने यह भी बताया कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ इस कार्यक्रम का आयोजन जन संस्कृति मंच के 31 जुलाई व 1 अगस्त को दिल्ली में होने वाले 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। राष्ट्रीय सम्मेलन ‘फूट, लूट और झूठ की संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की संस्कृति’ पर केन्द्रित है। धन्यवाद ज्ञापन कवि -आलोचक चंद्रेश्वर ने किया . संवाद सत्र में नरेश सक्सेना , सुभाष राय , अनिल मिश्र , नैयाश हसन आदि ने अपने विचार रखे. इस अवसर पर वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव, शिवमूर्ति, नसीम साकेती, जुगुल किशोर, राकेश, रूपरेखा वर्मा, चंद्रेश्वर, भगवान स्वरूप कटियार, शीला रोहेकर, अनीता श्रीवास्तव, ताहिरा हसन, प्रज्ञा पांडेय, नलिन रंजन सिंह, डा. हरिओम, राजेश कुमार, कल्पना पांडेय, केके वत्स, श्याम कुमार, महेश चंद्र देवा, अनिल त्रिपाठी आदि उपस्थित रहे।
https://www.facebook.com/kaushal.kishor.1401/posts/911538115578144संगोष्ठी
जन संस्कृति मंच की ओर से ‘आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति’ विषय पर चर्चा
लखनऊ। किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जरूरी होता है। एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि तीनों एक-दूसरे के पूरक भी हैं। अगर स्वतंत्रता और समानता नहीं है तो बंधुत्व और भाईचारा भी कैसे आ सकता है। जहां तक अपने देश के बात है तो इन तीनों पर संकट मंडरा रहा है। इसीलिए आलोचना की संस्कृति भी संकट में है। हिन्दी साहित्य में आलोचना की बात करें तो भारतेंदु हरिश्चंद्र, निराला, नागार्जुन, केदारनाथ, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय जैसे रचनाकारों ने सबसे ज्यादा आलोचना की है। सर्वग्रासी मनुष्य विरोधी माहौल के विरुद्ध समकालीन कविता भी खड़ी है।
यह बात प्रसिद्ध आलोचक और जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने कही। वह गुरुवार को जन संस्कृति मंच की ओर से जयशंकर प्रसाद सभागार में ‘आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में बतौर वक्ता व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने कहा कि लोक का विरोधी होता है परलोक। जिसको हम लोक कहते हैं, उसमें समाज में रहने वाला हर व्यक्ति शामिल होता है। एक संघ लोक सेवा आयोग है, जिससे प्रशासनिक अधिकारी निकलते हैं, लेकिन वे क्या करते हैं, सब जानते हैं। दूसरा लोक निर्माण विभाग है, लेकिन निर्माण के बारे में भी सब जानते हैं। इसलिए लोकतंत्र को सरकारी शब्द कहना उचित होगा, आम लोगों के लिए लोकतंत्र को जनतंत्र कहना ज्यादा उचित होगा। इसे स्पष्ट करते हुए डा. पांडेय ने बताया कि अब्राहम लिंकन ने कहा था, ‘लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा चुना गया शासन है।’ इस देश में दो तरह की सरकारें चलती हैं, पहली केंद्र सरकार और दूसरी राज्य सरकारें। कौन सी सरकार जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा चलती हैं। इसलिए लोकतंत्र नहीं, जनतंत्र कहना उचित है।
डा. पांडेय ने लोकतंत्र को पूंजीतंत्र भी बताया। उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र किसकी राय और सलाह से चल रहा है। अंबानी, टाटा, अडानी जैसे लोगों से। इसलिए लोकतंत्र को पूंजीतंत्र कहना ज्यादा बेहतर होगा। लोकतंत्र का भारत में एक लक्षण है चुनाव का, सुबह से शाम तक इसकी चर्चा भी होती है, लेकिन बहुतों को वोट तक नहीं देने दिया जाता है। देश में 10 वर्षों तक ऐसा प्रधानमंत्री रहा, जो पंचायत का चुनाव तक नहीं लड़ा। विधानसभाओं, राज्यसभा, लोकसभा में कितने एमपी, एमएलए पूंजीपति हैं, इसकी गणना भी सामने आती रहती है। नीतियां बनाने का काम भी वही करते हैं। इसीलिए मैंने लोकतंत्र और जनतंत्र की जगह पूंजीतंत्र कहा है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में एक बात कही गई है कि भारतीय जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलना चाहिए। अंग्रेजों के दो सौ साल के शासन में पुलिस की गोलियों से कितने लोग मारे गए और आजादी मिलने के बाद सरकार की गोलियों से कितने लोग मारे गए, हिसाब लगाकर देख लें। हर तरफ जन्मजात बर्बरता और अथाह पाखंड दिखाई देता है, फिर भी लोग छाती फुलाकर भारत तो जगतगुरु कहते हैं।
उन्होंने कहा कि लोकतंत्र एक मानसिकता के साथ ही वैचारिक चेतना, नैतिक चेतना, सामाजिक चेतना और राजनीतिक चेतना भी है। जिस शासन-सत्ता में असहमति और विरोध का सम्मान न हो, वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। थोड़ी आलोचना की संस्कृति भी आनी चाहिए। लोकतंत्र की मांग यही है कि विरोधी विचारों से विवाद कीजिये, सहमति बने तो संवाद कीजिये, बहस कीजिये। विरोध को दबाना लोकतंत्र नहीं है। उन्होंने महराष्ट्र में लोकतांत्रिक ढंग से जनता को जगाने का काम करने वाले दो लोगों की हत्याओं का जिक्र भी किया। उन्होंने कहा कि परंपराओं पर विचार होते रहना चाहिए। परंपराएं रुढ़िवाद को भी बढ़ावा देती हैं। अपना समाज भी विचित्र समाज है। जिस समाज में लिखने और सोचने की स्वतंत्रता न हो, वहां कैसा लोकतंत्र? प्रेमचंद ने कहा था, ‘ऐसा साहित्य चाहिए, जो जगाए, सुलाये नहीं।’ अब कहा जा रहा है कि ऐसा साहित्य चाहिए, जो सुलाये। धार्मिक भावनाएं हिन्दुओं और मुस्लिमों में पुराने घाव जैसी हैं। जहां आम जनता का कोई पक्ष ही न हो, वहां कैसा जनतंत्र? उन्होंने नेहरू और लोहिया के उदाहरण का जिक्र करते हुए कहा कि अब तो समाज में व्यंग्य विरोध की भी कोई जगह नहीं है।
डा. पांडेय ने कहा कि इस देश में स्वतंत्र रूप से जीतने की भी स्वतंत्रता नहीं है। खाप पंचायतें भी एक संस्था की तरह है। उसने परंपरा की रक्षा का ठेका ले रखा है। प्रेम करने और सोच-विचार की स्वतंत्रता नहीं है। अलोचना की संस्कृति को बर्दाश्त न करने के दुष्परिणा भी दुनिया में दिखाई पड़ते हैं। सोवियत संघ का विघटन इसका प्रमाण है। सारी बदमाशियों के बावजूद अमेरिका जीवित क्यों है, वजह यह कि वहां असहमति को बर्दाश्त किया जाता है। भारत की सिविल सोसाइटी विभाजित है। इसका पहला प्रमुख कारण मुख्य धारा बनाम हाशिये का समाज है। दूसरा सबसे बड़ा कारण जातिवाद, तीसरा पितृसत्ता और चौथा धर्म है। कम्युनिस्टों ने भी जाति को लेकर सुसंगत रवैया नहीं अपनाया। जाति के नाम पर दलितों के दमन पहले से अब तक चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा। इस देश में धर्मों की बहुलता है। अगर कोई बात कही जाएगी तो उससे कोई न कोई नाराज जरूर होगा। बात किसी एक वर्ग को नहीं पचेगी। अंग्रेजों ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट बनाया, जिसने बर्बरता की हद पार कर दी। घुमंतू जातियों के लोग आज भी भारत के वासी नहीं कहलाते हैं। उनके नाम वोटरलिस्टों में नहीं होते हैं।
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मनुष्य विरोधी माहौल से मुक्ति के लिए एक होकर लड़ें
व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब का एक सत्र भी चला, जिसमें बुद्धिजीवियों ने डा. पांडेय से कुछ सवाल भी पूछे। संवाद के क्रम की शुरुआत वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने की। उन्होंने कहा कि इतना विस्तृत व्याख्यान हुआ कि कोई प्रश्न ही नहीं निकल रहा है। जहां तक आलोचना की बात है तो इसके लिए सौंदर्यबोध, संवेदना और सृजनात्मकता जैसे तत्व चाहिए। अब ये सब गायब हैं। जब संवेदना, मनुष्यता, सद्भाव नहीं होगा तो लोकतंत्र कैसा? पहला सवाल उठाते हुए सुभाष राय ने पूछा कि विषय पर विस्तार से व्याख्यान दिाय और यह बात सामने आई कि चारो ओर अंधकार है, लेकिन इसमें रास्ता कैसे सूझे? खतरों को कैसे तोड़ा जाए? डा. पांडेय ने जवाब देते हुए कहा कि अंधकार तो है, बस मनुष्य को इस अंधकार के विरुद्ध लड़ने का तौर-तरीका खोजना होगा। मार्क्स ने इतना बताया था कि मानव समाज कोई ऐसी समस्या नहीं पैदा करता, जिसका समाधान न हो। साहस और कर्तव्यनिष्ठा है तो आलोचना की संस्कृति सामने लाएं। मनुष्य विरोधी माहौल से मुक्ति पाने के लिए मिलकर लड़ें। एक अन्य सवाल पर डा. पांडेय ने नेहरू के एक कथन का हवाला देते हुए कहा कि भय ही सबसे बड़ा पाप है। भय से मुक्त होंगे तो संकट का सामना कर सकेंगे। उन्होंने डा. अंबेडकर को आलोचना का संस्कृति का सबूत बताया। यह भी कहा कि जायज हक पाने के लिए खुद लड़ना होगा, कोई दूसरा लड़ने नहीं आएगा। सच बोलने के खतरे हैं, गालियां भी सुनी पड़ती हैं। हिन्दू धर्म के लोग अपनी कमजोरी पर बात करे और मुस्लिम धर्म के लोग अपनी कमजोरी पर बात करें, फिर दोनों धर्मों के बुद्धिजीवी मिलकर बात करें तो समाधान भी निकलेगा। संगोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार व उपन्यासकार रवीन्द्र वर्मा ने की। उन्होंने कहा कि बुद्धिजीवियों ने धर्म और जाति की ठीक से चर्चा नहीं की। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को और मजबूत बनाकर लोकतंत्र को अच्छा बनाया जा सकता है। संचालन की जिम्मेदारी लखनऊ विश्वविद्यालय के अध्यापक व युवा कवि-आलोचक रविकान्त ने निभाई। संगोष्ठी के शुभारंभ पर जन संस्कृति मंच के प्रदेश अध्यक्ष कौशल किशोर ने आगंतुकों का स्वागत किया। उन्होंने यह भी बताया कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ इस कार्यक्रम का आयोजन जन संस्कृति मंच के 31 जुलाई व 1 अगस्त को दिल्ली में होने वाले 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। राष्ट्रीय सम्मेलन ‘फूट, लूट और झूठ की संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की संस्कृति’ पर केन्द्रित है। धन्यवाद ज्ञापन कवि -आलोचक चंद्रेश्वर ने किया . संवाद सत्र में नरेश सक्सेना , सुभाष राय , अनिल मिश्र , नैयाश हसन आदि ने अपने विचार रखे. इस अवसर पर वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव, शिवमूर्ति, नसीम साकेती, जुगुल किशोर, राकेश, रूपरेखा वर्मा, चंद्रेश्वर, भगवान स्वरूप कटियार, शीला रोहेकर, अनीता श्रीवास्तव, ताहिरा हसन, प्रज्ञा पांडेय, नलिन रंजन सिंह, डा. हरिओम, राजेश कुमार, कल्पना पांडेय, केके वत्स, श्याम कुमार, महेश चंद्र देवा, अनिल त्रिपाठी आदि उपस्थित रहे।
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