Sunday 9 August 2015

इतिहास को व्याख्यापित करता मानवीय चेहरा : भीष्म साहनी - -वीर विनोद छाबड़ा

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10 अप्रैल 1986 को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के स्वर्णजयंती समारोह के अवसर पर भीष्म साहनीजी और ज्ञानरंजन जी के साथ वीरेंद्र यादव जी .

भीष्म साहनी - इतिहास को व्याख्यापित करता मानवीय चेहरा। :
-वीर विनोद छाबड़ा 

०८ अगस्त २०१५. इसी दिन सौ वर्ष पूर्व प्रख्यात कथाकार, नाट्य लेखक और अभिनेता दिवंगत भीष्म साहनी का जन्म हुआ था। इस सिलसिले में इप्टा के तत्वाधान में लखनऊ में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ - महत्व भीष्म साहनी।
अध्यक्षता दूरदर्शन के पूर्व निदेशक और नाट्य लेखन से जुड़े और भीष्म साहनी के करीबी रहे विख्यात लेखक विलायत जाफ़री ने की।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश ने याद करते हुए बताया कि भीष्म १५ अगस्त १९४७ को बड़े उत्साह से रावलपिंडी से दिल्ली आये लालकिले पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को तिरंगा फहराते देखने और उन्हें सुनने। लेकिन विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न भीषण दंगों के रहते लौट नहीं पाये। उनका परिवार ही विभाजित हो। १९७० में जब महाराष्ट्र के भिवंडी सांप्रदायिक दंगो की विभीषिका को भीष्म ने बड़े करीब से देखा तो उनकी प्रतिक्रिया थी - मैंने ये सब पहले भी देखा है। विभाजन के ज़ख्म हरे हो गए। इसकी परिणीति हुई ऐतिहासिक 'तमस' की रचना के रूप में। गोविंद निहलानी ने टीवी फ़िल्म भी बनाई।उनकी संघटन क्षमता अद्भुत थी। पूर्णतया समर्पित। उनकी कहानियों के पात्र निर्धन और निर्भीक मिलते हैं।
सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव को भीष्म साहनी में एक बहुआयामी और विरल व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। 'तमस' और भीष्म साहनी एक-दूसरे का पर्याय हैं। विभाजन पर हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में कई दस्तावेज़ी उपन्यास और कहानियां लिखी गयीं हैं लेकिन 'तमस' उपन्यास उन सब में अलग दिखता है। यह उस उस दौर के क्रूर पहलू को उजागर करता है कि उपनिवेशवादी शक्तियां समाज को बांटने और स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के लिए के सांप्रदायिकता का इस्तेमाल करती थीं। विभाजन की भयावहता आज भी मंडरा रही है। इसी को भीष्म ने भिवंडी के दंगों में देखा। वो सिर्फ लेखक नहीं थे। फ्रीडम फाईटर भी थे। उन्होंने पीड़ितों की वेदनाओं को सुना और दर्ज किया। सैकड़ों सफ़े भर गए। 'तमस' में उन्होंने इन सबका ज़िक्र करते हुए उस क्षेत्र की मिली-जुली संस्कृति को भी व्याख्यापित किया। उन्होंने 'तमस' में विभाजन की त्रासदी को सांप्रदायिकता की दृष्टि से नहीं देखा। उनके हिंदू-मुस्लिम पात्र एक-दूसरे की मदद करते हुए नज़र आते हैं। सांप्रदायिकता और विभाजनकारी शक्तियों से लड़ते हुए और मरते हुए दिखते हैं। इन घटनाओं को उन्होंने विश्वसनीय बना कर पेश किया। यह बात दूसरी है कि सांप्रदायिक शक्तियां असरदार हो गयीं। आज के समय की सांप्रदायिकता और बहुसंख्यकवाद के खतरे को समझने के लिए 'तमस. एक ज़रूरी पठनीय कथाकृति है।
युवा लेखन नलिन रंजन सिंह ने भीष्म के महत्व को उनकी कहानियां के कथानक और पात्रों में तलाश किया। 'अमृतसर आ गया' से विभाजन के दौर का पता चलता है। यह उस वक़्त की याद दिलाता है जब भीष्म आजादी का जश्न देखने रावलपिंडी से दिल्ली जा रहे होते हैं। मुस्लिम इलाकों से गुज़रते हुए डर लगना और अमृतसर आते-आते राहत की सांस का मिलना। 'चीफ़ की दावत' में मध्यवर्गीय पारिवारिक ढांचे और आडंबरों की बात करते हुए एक वृद्ध मां की मनोस्थिति का दर्शन। उस पर तंज करना। 'गंगो का दाया' में घर का खर्च चलाने के लिए छह साल का बच्चा काम पर निकलता है। वो लौट कर नहीं आता। ऐसी दुःख की घड़ी में भी पिता सोचता है अब तीन के जगह सिर्फ़ के दो के खाने का इंतज़ाम करना होगा। 'माता-विमाता' में संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। गरीब मां बच्चे का पालन-पोषण विमाता के ज़िम्मे डाल देती है। बच्चे के स्वस्थ होने पर माता उसे लेने आती है। विमाता में माता जाग उठती है। वो देने से मना करती है। लेकिन हक़ तो माता का है। बच्चा रोने लगता है। वो भूख से बिलख रहा है। माता विमाता को दूध पिलाते हुए देखती है। भीष्म की कहानियां पाठक को उस परिवेश से जोड़ देती हैं। समय को लेकर भी वो बड़े सजग रहे हैं। इसलिए भीष्म बड़े रचनाकार हैं।
वरिष्ठ कथाकार शकील सिद्दीकी ने भीष्म में शालीनता, विनम्रता और दूसरों की बात सुनने का धैर्य देखा। अपनी आलोचना को भी उन्होंने धैर्य से सुना। दूसरों को आगे आने का मौका दिया, दूसरों का दिल नहींदुखाया और खुद को कभी प्रचारित नहीं किया। प्रगतिशीलता उनके व्यक्तित्व की हिस्सा थी। जहां कहीं भी नाटक हुआ वो उससे जुड़ गए। उसकी हर गतिविधि का हिस्सा बने। दरी बिछाने से लेकर अख़बार में खबर बना कर उसे पहुंचाने तक का काम पूर्णतया समर्पित हो कर किया। प्रगतिशील लेखक आंदोलन का सर्वाधिक व्यापक प्रचार और प्रसार भीष्म के राष्ट्रीय महासचिव काल में ही हुआ। भीष्म का व्यक्तित्व इतना विशाल था कि उनके समय में प्रगतिशील लेखक आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी का हस्तक्षेप न्यूनतम रहा। उनका कथन था कि अच्छा लेखक किसी विचारधारा से प्रभावित होकर नहीं बनता, अपनी मेघा से बनता है।
युवा लेखक सूर्य बहादुर थापा ने भीष्म को उनके नाटकों के ज़रिये याद किया। भीष्म ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से लिखा लेकिन जो देखा उसे मार्क्सवादी खांचे में नहीं रखा। वो देखते हैं, आत्मसात करते हैं और फिर रचते हैं। समाज की पीड़ा और वेदना को प्राथमिकता दी। 'हानूश' का पात्र जनता को नया जीवन देने के लिए एक घड़ी का अविष्कार करने में सत्रह साल लगाता है। आर्थिक परेशानियों से जूझती उसकी पत्नी उसे कोसती है - यह कैसा आदमी है। जो दो वक़्त की रोटी नहीं कम सकता वो अविष्कार क्या करेगा? लेकिन वो दिल से उसके पीछे है। जब घड़ी का अविष्कार हो गया तो हानुश कहता है कि तुम जैसी स्त्री साथ न होती तो यह अविष्कार मुमकिन नहीं था। इस अविष्कार का ईनाम भी मिला। हानुश की आंखें निकाल दी गयीं ताकि वो दोबारा ऐसी घड़ी न बना सके। 'मुआवज़ा' भीष्म का दस्तावेज़ी नाटक है। यह उस काल में लिखा गया जब बाबरी मस्जिद का विध्वसं हो चुका था। यह दंगे की कहानी है। दंगे की पृष्ठभूमि में सफेदपोश, नेता, अफ़सर, व्यापारी, दलालों की मिली भगत और उसमें मारा जाता बेक़सूर आम आदमी। भीष्म ने इन सब पात्रों के अमानवीय चेहरे बेनकाब किये। भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का कच्चा चिट्ठा खोल दिया। 'माधवी' और 'कबीरा खड़ा बाज़ार में' में भीष्म नाटक लिखते हुए नहीं बल्कि अपना काम करते हुए दिखते हैं। लेखक की स्वीकार्यता तभी होती है जब जनता में उसे पढ़ा जाये। भीष्म जिस सहजता के साथ परिदृश्य पर छा जाते हैं वो अद्भुत है।
सुप्रसिद्ध अभिनेता और निर्देशक जुगल किशोर ने भीष्म साहनी के 'तमस' के अभिनेता भीष्म का ज़िक्र करते हुए कहते हैं भीष्म हरमिंदर सिंह के रूप में कोई पात्र नहीं और न ही अभिनेता हैं, बल्कि वो हरमिंदर को जी रहे नज़र आते हैं। सईद मिर्ज़ा ने 'मोहन जोशी हाज़िर हैं' में भीष्म का चयन इसलिए किया क्योंकि उनके चेहरे में उनको एक 'इतिहास' नज़र आया। भीष्म भीड़ में पात्र तलाशते हैं और फिर उसे गढ़ते हैं। भीष्म वो कलाकार हैं कि काम में इतना डूब जाते हैं कि अविलंब गंदे और बदबूदार पानी में पैंट ऊंची करके घुस जाते हैं और बड़ी सहजता से शॉट देकर चले आते हैं।
अंत में भीष्म और दूरदर्शन के नाट्य संसार से जुड़े और सभा के अध्यक्ष विलायत जाफ़री ने दिवंगत पंडित नेहरू को उद्धृत करते हुए बताया कि इंसान मर जाता है लेकिन किताबों में वो ज़िंदा रहता है। भीष्म भी हमेशा ज़िंदा रहेंगे। 'तमस' का असर इस मुल्क पर भी है और और उन पर भी रहेगा जिन पर और जिन के लिए लिखी गयी है। 'तमस' के टेलीकास्ट लेकर कई विवाद और टकराव हुए। सुप्रीम कोर्ट तक मामला गया। उस दिन याद है। रात आखिरी एपिसोड टेलीकास्ट होना था। माननीय जज ने उसे देखा और इज़ाज़त दे दी। कोई भी कृति ईमानदारी से बनी हो और अच्छी हो तो ज़रूर लोगों तक पहुंचती है।
और अंत में मैं। एक वक्ता के रूप में नहीं बल्कि अपने दिवंगत पिता के पुत्र के रूप में जिनके सौजन्य से मैंने भीष्म साहनी को देखा और पढ़ा ही नहीं छुआ भी। और उन्हें समझा भी। और मैं स्वयं को सौभाग्शाली समझाता हूं कि इप्टा ने मुझे आज उनके जन्मशती के प्रोग्राम की रपट लिखने का मौका दिया।
कार्यक्रम के बीच-बीच में भीष्म साहनी और कृतियों से संबंधित कुछ वीडियो क्लिपिंग भी दिखाई गयी।
सभा में सुभाष राय, केके चतुर्वेदी, राजबली माथुर, अनिल वत्स, ऋषि श्रीवास्तव, कौशल किशोर, उर्मिल कुमार थपलियाल आदि अनेक गणमान्य लोग भी उपस्थित थे।
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०९-०८-२०१५

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तीनों फोटो वीर विनोद छाबड़ा जी के सौजन्य से 
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आज साँय क़ैसर बाग स्थित राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह के जयशंकर प्रसाद सभागार में IPTA द्वारा 'महत्व  भीष्म साहनी ' विषयक एक गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता विलायत जाफरी साहब ने की व संचालन राकेश जी ने किया। मंचस्थ विद्वत जनों में वीरेंद्र यादव, शकील सिद्दीकी, नलिन रंजन सिंह, सूर्य बहादुर थापा थे। अन्य गण मान्य लोगों के अलावा सुभाष राय ( प्रधान संपादक- जन संदेश ), प्रदीप घोष, मुख्तार, ओ पी अवस्थी, रूप रेखा वर्मा, वीर विनोद छाबड़ा, कौशल किशोर, के के चतुर्वेदी आदि की उपस्थिती भी विशेष उल्लेखनीय है।

राकेश जी ने प्रारम्भ में भीष्म साहनी जी पर एक लघु वृत्त चित्र के माध्यम से विभाजन की त्रासदी और 'तमस' पर उनके विचारों का अवलोकन कराते हुये प्रकाश डाला। 08 अगस्त 1915 को  रावलपिंडी में जन्में भीष्म साहनी जी का यह शताब्दी वर्ष है और पूरे वर्ष उनकी कृतियों व साहित्य पर आधारित कार्यक्रमों का आयोजन करके उनकी यादगार मनाए जाने का ऐलान राकेश जी द्वारा किया गया।
 वीरेंद्र यादव जी ने 'तमस' की रचना से संबन्धित घटनाक्रमों का उल्लेख करते हुये बताया कि 1947 के विभाजन के समय के दंगों के बाद 1970 में भिवंडी में हुये व्यापक दंगों का इस पर प्रभाव पड़ा है। 1974-75 तक यह उपन्यास पूर्ण हुआ और 1987 में गोविंद निहलानी ने इस पर इसी नाम से एक टी वी सीरियल बनाया जिसमे एक पात्र की भूमिका का अभिनय खुद भीष्म साहनी जी ने ही किया है।
नलिन रंजन सिंह जी ने भीष्म जी की चुनिन्दा कहानियों का ज़िक्र किया जिसमें 'मुआवजे' को उन्होने तमस के बाद के प्रभाव को समाहित किए जाने की ओर इंगित किया। शकील सिद्दीकी साहब ने भीष्म जी के सांगठनिक कौशल पर प्रकाश डालते हुये बताया कि IPTA से तो वह रावलपिंडी में रहते हुये 1943 में इसकी स्थापना के समय से ही जुड़े हुये थे। 1975 में 'गया' में सम्पन्न 'प्रलेस' के अधिवेन्शन में उनको इसका राष्ट्रीय महासचिव चुना गया जिस पद पर वह 1986 तक लगातार बने रहे। उनकी विशेष खासियत छोटे से छोटे कार्यकर्ता को भी महत्व देने व आलोचकों की बातों को भी धैर्य से सुनने की थी।
सूर्य बहादुर थापा जी ने भीष्म जी के लिखे नाटकों की व्यापक चर्चा करते हुये 'हानुष' की विशेषता पर प्रकाश डाला। इसके मुख्य पात्र हानुष और उसकी पत्नी के सहयोग की भी चर्चा उन्होने की। जबकि जुगल किशोर जी ने भीष्म जी के 'अभिनय' पक्ष पर प्रकाश डाला। उन्होने बताया कि बंबई की एक चाल के पास गंदे पानी में भी खड़े रह कर उन्होने फिल्म का शाट बे हिचक दे दिया और कोई शिकवा भी न किया।
अपने अध्यक्षीय भाषण में विलायत जाफरी साहब ने अपने दूरदर्शन के कार्यकाल में 'तमस' के प्रसारण से संबन्धित घटनाक्रम का उल्लेख करते हुये बताया कि तत्कालीन  डायरेक्टर भास्कर घोष साहब ने  इसके प्रसारण के बाद होने वाली किसी भी स्थिति की ज़िम्मेदारी उन पर डालते हुये अनुमति दे दी थी। जब इसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका प्रस्तुत हुई तब संबन्धित जज साहब ने उनको अपने चैंबर में बुलाकर अंतिम कड़ी के प्रसारण की तारीख का पता किया और फिर खुद देखने के बाद फैसला देने की बात कही। जब जज साहब ने तमस को देखा तब तक प्रसारण समाप्त हो चुका था अतः प्रसारण पर रोक लगाने की बात ही खत्म हो गई थी। जाफरी साहब का कहना था कि हर समय अच्छे लोग भी रहते हैं और उनके कारण अच्छी बातों के पूरा होने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती है। धन्यवाद ज्ञापन ज्ञान शुक्ला जी ने किया। 
------ विजय राजबली माथुर 
08-08-2015 
 https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/922170021178308?pnref=story

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