Sunday, 3 January 2016

कामरेड बर्धन ने खुद को मोमबत्ती की तरह जलाकर अँधेरे के गरूर को तोड़ा है ------ बादल सरोज

कामरेड ए बी बर्धन नहीं रहे।

बादल सरोज
फ़िराक गोरखपुरी से रियायत लेते हुए यह कहने का मन है कि ;
“आने वाली नस्लें तुम से रश्क़ करेंगी हमअसरो 
जब उनको मालूम पडेगा तुमने बर्धन को देखा था “
कामरेड बर्धन भारतीय राजनीति की उस पीढ़ी की ऐसी धारा के – संभवतः आख़िरी – बुजुर्ग थे, जिसने शब्दशः खुद को मोमबत्ती की तरह जलाकर अँधेरे के गरूर को तोड़ा है, उजाले की आमद के प्रति उम्मीद बनाये रखी है। ऐसी विरली शख्सियत – फिर भले वह कितनी भी पकी उम्र में क्यों न जाए- एक बड़ी रिक्ति , महाकाय शून्य पैदा करके जाती है।
बर्धन जिस दिशा के प्रति ताउम्र समर्पित रहे, उस दिशा में कुछ और मजबूत कदम आगे बढ़के ही उन्हें सच्ची श्रद्दांजलि दी जा सकती है।
हम सीपीआई(एम) राज्य समिति की ओर से अपने इस असाधारण नेता को याद करते हुए उन्हें श्रध्दासुमन अर्पित करते हैं और उनके परिजनों तथा साथियों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं।
बर्धन साब के व्यक्तित्व में चमत्कारिक सरलता और चुम्बकीय आकर्षण दोनों थे। वे अथक प्रेरक थे। अमोघ वक्ता होना एक गुण है, मगर बोलते समय परिस्थितियों की कठिनता का हवाला देते हुए उनसे बाहर निकल आने का यकीन पैदा करना एक असाधारण योग्यता है। यह एकदम साफ़ समझ और अटूट समर्पण से पैदा होती है।
बर्धन साब के तमाम भाषण आन्दोलनकर्ता (agitator) और प्रचारकर्ता (propagandist) का मेल हुआ करते थे। वे बाँध लेने वाली शैली में बोलते थे किन्तु रिझाने या सहलाने वाली अदा से काम नहीं लेते थे। उनकी स्टाइल कुरेदने और झकझोरने वाली हुआ करती थी। मगर उसमे भी एक निराली निर्मलता होती थी।
वे उन कुछ नेताओं में से एक थे जो कम्युनिस्ट पार्टियों के विभाजन के बाद के दौर के तीखे क्लेशपूर्ण वातावरण के बावजूद दोनों ही पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच मकबूल थे। (राजेन्द्र शर्मा प्रलेस वालों से मिली कुछ आत्मकथाओं में से एक चिटनीस साब की आत्मकथा में बर्धन साब के बारे में लिखी बातों को पढ़कर महसूस हुआ कि उनकी इस स्वीकार्यता ने उन्हें डांगे साब के कुछ अति करीबियों की गुस्सा और आक्रोश तक का शिकार बना दिया था। सही रुख पर कायम रहने की जहमत जोखिम तो होती ही हैं।)
इस अवसर पर कामरेड बर्धन के साथ के दो अनुभव साझे करने के साथ उनके कुछ यादगार शिक्षाप्रद पहलू रखना उचित होगा।
एक :
2 अप्रैल 1995। चंडीगढ़ में हुयी पार्टी की 15 वीं कांग्रेस (महाधिवेशन) की शुरुआत की सुबह।
झंडारोहण की जगह पर विशिष्ट अतिथियों और वेटरन्स (वरिष्ठो) के लिए कोई एक डेढ़ दर्जन कुर्सियां रखी गयी थीं। हम लोग, अनधिकृत ही, इनकी सबसे पहली कतार में अपने दोनों बड़े वरिष्ठों -यमुना प्रसाद शास्त्री और सुधीर मुखर्जी को बिठा आये। सुधीर दादा सीपीआई के देश के प्रमुख और मप्र के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे, कुछ ही समय पहले वे सीपीआई (एम) में शामिल हुए थे। (यूं इन दोनों स्थापित नेताओं का मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होना, वह भी मध्यप्रदेश में, एक बड़ी और विरल राजनीतिक घटना थी। सुधीर दा के निर्णय के दोनों वाम पार्टियों के बीच अन्योन्यान्य असर भी हुए थे। बहरहाल यहां प्रसंग चंडीगढ़ है ।) जहां हम सुधीर दा को बिठा कर आये थे, थोड़ी ही देर में एकदम उनकी बगल की सीट पर सीपीआई के तत्कालीन राष्ट्रीय महासचिव ( जो कामरेड बर्धन थे) आकर बैठ गये। कुछ AB Bardhanही समय पहले अपनी पार्टी छोड़कर जाने वाले कामरेड के एकदम पास बैठना, दोनों ही के लिए, एक असुविधाजनक स्थिति हो सकती थी। मगर, बजाय चिड़चिड़ाने या मुंह मोड़कर बैठने के उन्होंने सुधीर दा का हाथ थामा। बोले, तबियत कैसी है ? सुधीर दा ने कहा ठीक है। वे बोले, “बहुत अच्छे और फ्रेश लग रहे हैं।” इसी के साथ जोड़ा कि “जहां मन अच्छा रहे, वहीँ रहना चाहिए।”
इस वाक्य के बाद दोनों ने इतनी जोर का ठहाका लगाया कि ज्योति बसु, सुरजीत सहित नजदीक बैठे सभी नेता उन दोनों की ओर देखने लगे। ऐसे थे कामरेड ए बी बर्धन।
बर्फ पिघली तो सुधीर दा ने कामरेड शैली को बुलाया और बर्धन साब से परिचय कराते हुए बताया कि ये हैं हमारे यंग सेक्रेटरी। बर्धन साब शैली से बोले : टेक केअर ऑफ़ दिस ओल्ड यंग मैन !!
दो :
10-15 साल पहले कभी गांधी भवन भोपाल ।
ट्रेड यूनियनो का संयुक्त सम्मेलन। हर संयुक्त सम्मेलनों की तरह साझा भी, विभाजित भी। अपने-अपने वक्ता का नाम आने पर सभागार के अलग अलग कोनो से उठती ज़िंदाबाद की पुकारें। बर्धन साब का नाम आते ही जिस हिस्से में एटक का समूह बैठा था वहां से नारे शुरू हुए। जाहिर तौर पर झुंझलाए दिख रहे बर्धन साब ने अपने संगठन के कार्यकर्ताओं को फटकारने के बहाने सभी की जोरदार खिंचाई करते हुए कहा कि इस हॉल में गला फाड़ प्रतियोगिता में जीतने में ताकत खर्च करने की बजाय उसे बाहर मध्यप्रदेश के शहरों गाँवों मे जो करोड़ों मजदूर हैं, उन्हें संगठित करने में खर्च करो। जीत हार का फैसला उसी रणक्षेत्र में होना है। उनके कहे पर फिर नारे उठे, तालियां बजीं। मगर इस बार किसी एक समूह से नहीं, समूचे हॉल से, जिसकी गूँज बाहर तक सुनाई दी।
बर्धन होना एक बहुत मुश्किल काम है। सलाम कामरेड बर्धन।
आपके बाद की पीढ़ी आपके श्रम और कुर्बानी को व्यर्थ नहीं जाने देगी।
साभार :

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बादल सरोज, लेखक माकपा की मध्य प्रदेश इकाई के सचिव हैं।

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