बचपन
में मैं तीन तरह के संगियों से घिरा था। पहले मेरे जैसे थे- तकरीबन सभी
सवर्ण, निम्न-मध्यवर्गीय और कस्बाई- जो स्कूली पढ़ाई को आजीविका की
सीढ़ी मानते थे। इनमें से अधिकतर आज नौकरीपेशा हैं। दूसरे किस्म के संगी
मिश्रित जातियों से थे, पढ़ाई उनके लिए बोझ थी। इनमें से अधिकतर डिप्लोमा
या तकनीकी प्रशिक्षण लेकर छोटे-मोटे कारोबारों में घुस गए। तीसरे थे यादव
और मुसहर। ये सब सवेरे नियम से दौड़ते थे। इनमें अधिकतर फौजी हो गए। अब
फर्ज कीजिए कि तीनों श्रेणियों में पहला मैं यानी पत्रकार कोई खबर करते हुए
मारा जाऊं। दूसरा यानी मेरा बिजली मिस्त्री दोस्त ट्रांसफॉर्मर से जलकर
मर जाए। तीसरा यानी मेरा फौजी दोस्त पठानकोट जैसे किसी कांड में मारा जाए।
तीनों नौकरी के दौरान मारे गए हैं। तीनों परिवार चलाने के लिए अपना-अपना
काम कर रहे थे।
चौथा उदाहरण लीजिए कॉमरेड ए.बी. बर्द्धन का। वे
आजीवन कम्युनिस्ट रहे। ईमानदार रहे। सादा जीवन बिताए। अजय भवन में रहे।
हमेशा दूसरे दरजे से चले। लोगों को शिक्षित करते रहे। चले गए। समाज में
योगदान और निजी ईमानदारी को कसौटी रखें, तो एक अदद कम्युनिस्ट कार्यकर्ता
का जीवन हर श्रेणी के आदमी से कहीं ज्यादा बड़ा होता है। वह संपत्ति नहीं
बनाता, परिवार को सेटल नहीं करवाता, महत्वाकांक्षा नहीं पालता, लोगों के
बीच लगा रहता है और एक दिन मर जाता है। आज अजय भवन के सामने से गुज़रने
वाला आम आदमी ठहर कर देख भी नहीं रहा था कि वहां क्या हो रहा है जबकि
नौकरी पर मारे गए फौजी को सब बराबर श्रद्धांजलि दे रहे हैं। कामरेड बर्द्धन
को सिर्फ वे ही श्रद्धांजलि दे रहे हैं जो उन्हें जानते हैं। ऐसा क्यों
है? आखिर फौजी को ही शहीद क्यों कहा जाए? पूरा राष्ट्र उस पर आंसू क्यों
बहाए? बाकी लोग उससे क्यों अलग हैं? कामरेड बर्द्धन सिर्फ कम्युनिस्टों
के शहीद क्यों हों? उन्हें तो समाज का शहीद होना चाहिए था।
ये
शहीद वाले कंसेप्ट में भारी दिक्कत है। इस व्यवस्था में जिंदगी की
जद्दोजेहद करने वाला हर आदमी या तो शहीद है या फिर कोई नहीं। मौत को मौत की
तरह सहज रूप से लें, तो लफड़ा ही न हो। दिक्कत है कि मौत में भी हम लोगों
ने हाइरार्की बना दी है। पायदान बना दिया है। यहां नागरिकों की जिंदगी को
'राष्ट्रीय सुरक्षा' कर रहे फौजियों के अधीन बताकर अंडरएस्टिमेट किया जाता
है और फौजियों की मौत को सबके मुकाबले ओवरएस्टिमेट किया जाता है। यानी
जिंदगी और मौत के महत्व का पैमाना इस देश में फौज है। जिंदगी और मौत की
अहमियत यहां फौज में होने से तय हो रही है। भारत को MILITARY STATE कहने
में फिर क्या दिक्कत है? कोई शक?
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