Hemant Kumar Jha
12 -08-2018
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जिन संस्थाओं पर देश को नाज था उनकी दीवारें दरक रही हैं। इनसे जुड़े लोग आशंकित और आंदोलित हैं। बदलती अवधारणाओं के इस दौर में संरचनाएं पुनर्परिभाषित हो रही हैं और संस्थाओं से जुड़ी जन आस्थाओं का कोई मूल्य नहीं रह गया है।
रेलवे हो या पब्लिक सेक्टर के बैंक और बीमा कंपनियां, यूजीसी हो या बौद्धिक उत्कर्ष के केंद्र हमारे विश्वविद्यालय, सरकारी हथियार कंपनियां हों या सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की श्रृंखलाएं...इन तमाम संस्थाओं की स्थापना के वैचारिक आधारों को बदल डालने पर सरकारें आमादा हैं।
आशंकाएं आंदोलन का रूप लेती जा रही हैं और सर्वत्र कोलाहल का माहौल है। देश भर के 35 हजार रेलवे स्टेशन मास्टर 24 घण्टे की भूख हड़ताल पर रहे, रेल कर्मचारियों के तमाम संगठन उग्र आंदोलन की चेतावनी दे रहे हैं, अभी कल-परसों आईडीबीआई के सारे अधिकारी-कर्मचारी दो दिनों की हड़ताल पर रहे। स्टेट बैंक, पीएनबी और बैंक ऑफ इंडिया जैसे अग्रणी बैंकों की निरन्तर बिगड़ती माली हालत से उनके कर्मचारी हलकान हैं जबकि एलआईसी जैसी सफल और सशक्त कंपनी में सरकार के अनावश्यक हस्तक्षेप से उससे जुड़े लोग आक्रोशित हैं।
इधर, देश भर के विश्वविद्यालय शिक्षक सड़क पर उतर रहे हैं तो उधर सरकारी स्कूलों के लाखों शिक्षक अपने अस्तित्व और सम्मान के लिये सड़कों से लेकर न्यायालय तक जूझ रहे हैं। सरकार के स्वामित्व वाले अन्य दर्जनों संस्थानों के लोग अलग-अलग स्तरों पर अपनी-अपनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं।
ये सब लोग किसके विरुद्ध संघर्षरत हैं?
कौन इनके अस्तित्व और सम्मान के सामने सवाल बन कर खड़ा है? कौन है जो जनाकांक्षाओं के खिलाफ जाकर मुट्ठी भर, लेकिन अतिशक्तिशाली कारपोरेट समूहों के हितों की खातिर नीतियों की दिशा बदल रहा है? आम भारतीयों के सपनों और आकांक्षाओं को रौंदते हुए 'न्यू इंडिया' के भ्रामक जाल को कौन बुन रहा है?
यह कारपोरेट संपोषित सत्ता-संरचना है जिसे पता है कि उसके खिलाफ अपने-अपने दायरों में खड़े हो रहे शिक्षकों, अधिकारियों और कर्मचारियों का कोई वैचारिक आधार नहीं है और उनकी लड़ाई से सत्ता का कुछ नहीं बिगड़ने वाला। उसे पता है कि उसके द्वारा बुने जा रहे जाल में फंस कर फड़फड़ाने के अलावा इन लोगों के सामने अन्य कोई विकल्प नहीं।
क्योंकि...सत्ता-संरचना जानती है कि जितनी जनविरोधी वह स्वयं है, ये तमाम लोग भी उतने ही जन निरपेक्ष हैं। उदारवाद के नाम पर स्वार्थी और शोषक कारपोरेटवाद, निजीकरणवाद के आगे बढ़ते रथों के सारथी यही लोग बने थे और अब जब अपनी जान पर बन आ रही है तो ये लोग चिल्ल पों मचा रहे हैं।
सत्ता को संघर्ष से डर लगता है, चिल्ल पों से नहीं।
संघर्ष के लिये मजबूत वैचारिक आधारों की जरूरत होती है और सत्ता को पता है कि इन तमाम पढ़े-लिखे अधिकारियों-कर्मचारियों का वैचारिक आधार कितना खोखला है। आप अपने सीमित वर्गीय स्वार्थों के लिये चिल्ल पों तो मचा सकते हैं लेकिन बिना किसी वैचारिक ऊर्जा के आप सत्ता के विरुद्ध कोई भी प्रभावी संघर्ष नहीं छेड़ सकते।
आप 'सोशलिज्म' के नाम पर नाक भौं सिकोड़ेंगे और यह भी चाहेंगे कि पब्लिक सेक्टर के जिस संस्थान में आप काम करते हैं उसमें निजी पूंजी का हस्तक्षेप न बढ़े। आप तर्क देंगे कि हमारा संस्थान सफल और लाभकारी है तो फिर विनिवेश क्यों, लेकिन आप वोट की राजनीति में उन शक्तियों के हाथ मजबूत करेंगे जो देश का सबकुछ बेच डालने पर आमादा हैं।
आप एक साथ दो व्यक्तित्वों को जीते हैं। एक तरफ आप किसी संस्थान के अधिकारी या कर्मचारी हैं, दूसरी तरफ आप ब्राह्मण, यादव, भूमिहार या कुशवाहा जैसे भी कुछ हैं। दोनों के अपने अंतर्विरोध हैं और इस पर आपका वश नहीं। इसलिये आप सत्ता-संरचना के बुने हुए जाल में फड़फड़ाने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते।
सड़कों पर उतर कारपोरेट हितैषी और कर्मचारी विरोधी नीतियों की खिलाफत कर रहे लाखों कर्मचारियों में 90 प्रतिशत ऐसे हैं जिन्होंने मार्क्सवाद नहीं पढ़ा। बिल्कुल नहीं पढ़ा। लेकिन, मार्क्सवाद के खिलाफ बोलने के लिये उनके पास बहुत कुछ है। उनके लिये मार्क्सवाद का सीधा मतलब है स्तालिन का दमन, चौशेस्क्यू का भ्रष्टाचार और बर्लिन की दीवार। सोवियत विघटन को वे मार्क्सवाद की विफलता का पर्याय मानते हैं।
1980-90 के दशक में जवान हो रही पीढ़ी की 'मेन्टल कंडीशनिंग' ही ऐसी की गई है कि वे बिना कुछ पढ़े, बिना किसी तर्क के वामपंथ या समाजवाद की बखिया उधेड़ना शुरू कर देते हैं। वे इस तथ्य पर अधिक गौर नहीं करते कि साम्राज्यवादी पूंजीवाद के अंधेरे से त्रस्त मानवता को बाहर निकालने में वामपंथ की कितनी बड़ी भूमिका है, कि श्रमिकों के अधिकारों, कर्मचारियों के हितों और काम के घण्टों के तर्कपूर्ण निर्धारण में वामपंथ की कितनी निर्णायक भूमिका है, कि मनुष्य को मनुष्य के रूप में परिभाषित करने में किन वैचारिक आधारों पर संघर्ष किया जाता रहा है, कि आज भारतीय संसद में वामपंथ की कमजोर उपस्थिति का कितना नकारात्मक असर हो रहा है। इस मेंटल कंडीशनिंग के लिये सुनियोजित और दीर्घकालीन प्रयास किये जाते रहे हैं। जाहिर है, ऐसे प्रयास बहुत हद तक सफल भी रहे हैं जिसके नतीजे भी सामने हैं।
आपको हक है, आप बिना कुछ पढ़े भी मार्क्सवाद की विफलताओं का मर्सिया पढ़ सकते हैं, आप सोशलिज्म की बातें करते किसी विचारक का मजाक उड़ा सकते हैं, आप श्रमिक अधिकारों की बातें करते किसी सोशल एक्टिविस्ट को बेवकूफ और पागल घोषित कर सकते हैं, लेकिन, तब... जब आप रेलवे प्लेटफार्मों, बैंकों से लेकर विश्वविद्यालयों के निजीकरण पर, पेंशन बंद होने से लेकर कर्मचारी विरोधी सत्ता की अन्य अनेक साजिशों के खिलाफ खड़े होने का प्रयास करते हैं तो सबसे अधिक बेवकूफ और पागल आप ही नजर आते हैं।
अपने-अपने दायरों में आप लड़ते रहिये लेकिन आप पराजित होने के लिये अभिशप्त हैं क्योंकि इस पराजय की पटकथा आपने ही लिखी है। आपने न सिर्फ इस सत्ता-संरचना को मजबूती दी है, बल्कि आज भी आप ही इसके मजबूत आधार हैं। आप दोगली लड़ाई कभी जीत नहीं सकते और सत्ता-संरचना इससे वाकिफ है। इसलिये, बेफिक्र होकर वह राफेल का कांट्रेक्ट HAL से छीन कर अंबानी की नवजात कम्पनी को दे देती है, निर्लज्ज तरीके अपना कर अडानी को कोयला खदानों का पट्टा दे देती है, गैस का सारा व्यवसाय किसी एक घराने की पूंजी बढाने को सुपुर्द कर देती है, बीएसएनएल को साजिशन बर्बाद कर जियो को सम्राट बनने का अवसर दे देती है, बैंकों के माध्यम से करदाताओं के पैसों को कारपोरेट पर लुटाती है और गरीबों से 'मिनिमम बैलेंस' के जुर्माने के बतौर महज एक वर्ष में 5000 करोड़ रुपये वसूल लेती है।
वंचितों के संघर्षों से निरपेक्ष रह कर कारपोरेटवाद की आरती उतारने वाला वर्ग कारपोरेट संचालित सत्ता से कैसे लड़ सकता है? इस में वह दम ही नहीं। आपकी सांसें उखड़ जाएंगी और आपके देखते-देखते तमाम बैंक, रेलवे, हथियार कम्पनियों आदि की तो बात ही क्या, अधिकांश विश्वविद्यालय और अस्पताल तक निजी पूंजी के अधीन हो जाएंगे।
भारत के राष्ट्रपति के अधीन आपने नौकरी शुरू की थी, किसी अडानी, मित्तल के अधीन रिटायर होने के लिये तैयार रहिये। और आपके बच्चे...? यकीन मानिये, वे आपकी हमारी पीढ़ी को कोसेंगे।
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