Thursday, 30 August 2018

दक्षिण पंथी तानाशाही स्थापित करने का कुचक्र है अर्बन नक्सल का शिगूफ़ा ------ विजय राजबली माथुर










सिद्धार्थ शंकर रे जब बंगाल के मुख्यमंत्री बने तब उन्होने बर्बरतापूर्वक नक्सल आंदोलन के कार्यकर्ताओं को कुचल डाला था।छिट - पुट यह आंदोलन विभक्त होते हुये भी चलता ही रहा है क्योंकि, सैद्धान्तिक रूप से यह जायज मांगों पर आधारित है इसलिए पीड़ित जनता इनका साथ देती है। किन्तु सरकारें पूँजीपतियों और विशेषकर कारपोरेट घरानों के हितार्थ इनका दमन  अमानवीयता के साथ क्रूरतापूर्वक करती हैं। 
किन्तु इस बार जून 2018 से इनके नाम पर मानवाधिकार के लिए संघर्ष करने वाले बुद्धिजीवियों को शिकार बनाया जा रहा है। दक्षिण पंथी तानाशाही स्थापित करने के लिए विवेकशील बुद्धिजीवियों पर मोदी सरकार का यह हमला गृह युद्ध की दिशा में एक और बढ़ा हुआ कदम है।  
लगभग 39   वर्ष पूर्व सहारनपुर के 'नया जमाना'के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1951  - 52 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि, कम्युनिस्टों  और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई  दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।


आज संघ और उसके सहायक संगठनों ने सड़कों पर लड़ाई का बिगुल बजा दिया है, वामपंथी अभी तक कागजी तोपें दाग कर सांप्रदायिकता का मुक़ाबला कर रहे हैं;  प्रश्न यह है कि, व्यापक जन-समर्थन और प्रचार के बगैर क्या वे संघियों के सांप्रदायिक राक्षस का संहार कर सकेंगे? सर्वोच्च न्यायालय के सहारे लोकतन्त्र की रक्षा कब तक की जा सकती है ? ऐसे में सशस्त्र संघर्ष के हामी युवक ही संघ का मुक़ाबला करने को डटेंगे लेकिन बिना जन - समर्थन के 1857 की क्रांति की पुनरावृति होगी या वे कामयाब होंगे ? 
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31-08-2018 : 
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