* नतीजों में
अंधेरगर्दी साफ़ नज़र आयेगी और तब, जनता बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतर सकती है !
इससे सामाजिक अराजकता फ़ैल जायेगी जो अभी भारत का शासक पूँजीपति वर्ग कत्तई
नहीं चाहता है I
**हाल के दिनों में गोदरेज, बजाज, महिन्द्रा आदि कई बड़े पूँजीपतियों के रुख में अहम बदलाव देखने को मिले हैं ! कुल मिलाकर देखें, तो ये फासिस्ट खुदमुख्तार नहीं हैं ।
***किसी भी सूरत में भाजपा के हिन्दुत्ववादी फासिस्ट अगर फिर से सत्ता में आते हैं तो यह न सिर्फ़ देश के इतिहास में, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल के विश्व-इतिहास में एक खूँख्वार फासिस्ट सत्ता के सबसे आततायी दौर की शुरुआत होगी ! रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद की सारी संस्थाएँ नेस्तनाबूद कर दी जायेंगी और दमन का पाटा पूरे देश को रौंदता हुआ चलेगा I
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1139705419542536&id=100005092666366
यह अगर फासिस्ट हत्यारों का एक सरगना नहीं होता तो गाँव के भकचोन्हर गपोड़ियों-गंजेड़ियों और कूपमंडूकों जैसा मनोरंजक प्राणी होता I लेकिन मत भूलिए कि इस भांड के चेहरे के पीछे एक ख़तरनाक षड्यंत्रकर्ता और ठंडा हत्यारा छिपा बैठा है जो पूँजी की सत्ता का एक मोहरा है ! यह भी मत भूलिए कि लोकतांत्रिक लबादा पहने इस महामूर्ख, लम्पट और स्वेच्छाचारी तानाशाह की आर्थिक नीतियाँ वे "सम्मानित" थिंक टैंक बनाते हैं जो पूँजीपतियों के भाड़े के टट्टू हैं, और यह भी मत भूलिए कि यह हत्यारा मंच पर जो राजनीतिक नाटक करता है उसका पटकथा-लेखन और निर्देशन नागपुर के संघ- शकुनियों की शीर्ष मंडली करती है ! अतिपतनशील पूँजीवाद की राजनीतिक संस्कृति के इस विदूषक प्रतीक-पुरुष का और इक्कीसवीं सदी के फासिज्म के इस सबसे प्रतिनिधि-चरित्र की खूब खिल्ली उड़ाइए, लेकिन इसके खतरनाक इरादों और खूँख्वार मंसूबों के कभी भी कम करके मत आँकिये !
**हाल के दिनों में गोदरेज, बजाज, महिन्द्रा आदि कई बड़े पूँजीपतियों के रुख में अहम बदलाव देखने को मिले हैं ! कुल मिलाकर देखें, तो ये फासिस्ट खुदमुख्तार नहीं हैं ।
***किसी भी सूरत में भाजपा के हिन्दुत्ववादी फासिस्ट अगर फिर से सत्ता में आते हैं तो यह न सिर्फ़ देश के इतिहास में, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल के विश्व-इतिहास में एक खूँख्वार फासिस्ट सत्ता के सबसे आततायी दौर की शुरुआत होगी ! रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद की सारी संस्थाएँ नेस्तनाबूद कर दी जायेंगी और दमन का पाटा पूरे देश को रौंदता हुआ चलेगा I
Kavita Krishnapallavi New Id
तीन दिनों बाद आम चुनावों के जो भी नतीजे आयेंगे, उनके बाद एक नाटकीय घटना-क्रम की शुरुआत होगी I
अगर कोई बड़े पैमाने का घपला नहीं होगा तो भाजपा और एन.डी.ए. गठबंधन की करारी हार तय है ! पर ई.वी.एम. में अबतक पायी गयी गड़बड़ी की दर्ज़नों खबरों और 20 लाख ई.वी.एम. मशीनों के ग़ायब होने की खबर तथा चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के अबतक के प्रदर्शित रुख के बाद ई.वी.एम. घपला की प्रचुर संभावना है ! गोदी मीडिया के सभी चैनलों ने एग्जिट पोल्स में एन.डी.ए. गठबंधन की जो भारी जीत दिखाई है, वह एक बहुत बड़े कपट-प्रबंध का ही हिस्सा मालूम पड़ता है I
एक ही बात से फासिस्टों के सरगना घबराये हुए हैं ! अगर घपला कुछ कांटे की टक्कर वाली सीटों पर न होकर अधिकांश सीटों पर होगा तो नतीजों में अंधेरगर्दी साफ़ नज़र आयेगी और तब, जनता बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतर सकती है ! इससे सामाजिक अराजकता फ़ैल जायेगी जो अभी भारत का शासक पूँजीपति वर्ग कत्तई नहीं चाहता है I हाल के दिनों में गोदरेज, बजाज, महिन्द्रा आदि कई बड़े पूँजीपतियों के रुख में अहम बदलाव देखने को मिले हैं ! कुल मिलाकर देखें, तो ये फासिस्ट खुदमुख्तार नहीं हैं, बल्कि इनकी स्थिति जंज़ीर से बंधे कुत्ते जैसी है और उस जंज़ीर को पूँजीपति वर्ग थाम्हे हुए है I यह शासक वर्ग नव-उदारवाद की नीतियों पर बेधड़क अमल के लिए फासिस्टों को चाहता है, पर देश में ऐसी विस्फोटक अराजकता की स्थिति भी नहीं चाहता कि पूँजी-निवेश के लिए ही संकट पैदा हो जाए, या व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो जाए ! लेकिन इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि विशेष स्थितियों में जंज़ीर से बंधा कुत्ता जंज़ीर छुड़ाकर सड़कों पर खूनी उत्पात मचा दे I
बहरहाल, किसी भी सूरत में भाजपा के हिन्दुत्ववादी फासिस्ट अगर फिर से सत्ता में आते हैं तो यह न सिर्फ़ देश के इतिहास में, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल के विश्व-इतिहास में एक खूँख्वार फासिस्ट सत्ता के सबसे आततायी दौर की शुरुआत होगी ! रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद की सारी संस्थाएँ नेस्तनाबूद कर दी जायेंगी और दमन का पाटा पूरे देश को रौंदता हुआ चलेगा I यह समय होगा जब असली-नकली प्रगतिशीलता की पहचान दिन के उजाले की तरह साफ़ हो जायेगी ! सरे सूफियाना मिजाज़ वाले शांतिप्रेमी, बुर्जुआ लिबरल और सोशल डेमोक्रेट बिलों में घुस जायेंगे I चूँकि फासिस्टों के विरुद्ध व्यापक जुझारू सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने में पहले ही क्रांतिकारी शक्तियाँ अपनी कमजोरी, नासमझी और बेपरवाही के चलते काफ़ी देर कर चुकी हैं, अतः उन्हें भारी कुर्बानियाँ देकर और अकूत कीमत चुकाकर फासिस्टों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए जनता को संगठित करना होगा !
अगर हिन्दुत्ववादी गिरोह इसबार सत्ता में नहीं आ पाता है, तो याद रखिये, मोदी चाहे जहाँ भी रहे, इनका उन्मादी-खूनी उत्पात सड़कों पर जारी रहेगा, जैसा कि ये 1986-87 के बाद से लगातार करते रहे हैं ! अब वैसा उत्पात और ज़मीनी षडयंत्र वे और बड़े पैमाने पर करेंगे, क्योंकि 2014 से लेकर अबतक के बीच राज्य-मशीनरी का भरपूर लाभ उठाकर इन्होने अपने ज़मीनी नेटवर्क को बहुत व्यापक और मज़बूत बनाया है !
अगर कांग्रेस-नीत या कांग्रेस-समर्थित क्षेत्रीय पार्टियों और संसदीय वाम का कोई गठबंधन सत्ता में आयेगा भी तो वह नव-उदारवाद के फ्रेमवर्क में ही कुछ कीन्सियाई नुस्खों को लागू करेगा और तात्कालिक राहत और सुधार के कुछ कामों को अंजाम देकर यह दिखलाने की कोशिश करेगा कि वह अपने चुनावी वायदों को पूरा कर रहा है I पर भारत की और पूरी दुनिया की पूँजीवादी व्यवस्था जिस दीर्घ, ढांचागत आर्थिक संकट के दौर से गुज़र रही है (और भविष्य में जिसके और गहराने की संभावना है), उसे देखते हुए अब बुर्जुआ "कल्याणकारी राज्य" की ओर वापसी असंभव है I नवउदारवादी नीतियों का दौर जारी रहेगा और कुछ विराम और मंथर गति के बाद फिर और अधिक रफ़्तार से आगे बढ़ेगा I यह सही है कि कांग्रेस एक फासिस्ट पार्टी नहीं है, वह एक पुरानी, क्लासिक बुर्जुआ पार्टी है, लेकिन नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए सीमित बुर्जुआ जनवाद को भी ताक पर रखकर उसे भी बोनापार्टवादी किस्म की निरंकुश स्वेच्छाचारी और दमनकारी सत्ता चलाने से कोई परहेज़ नहीं होगा ! जो लोग फासिस्टों के विकल्प के रूप में कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों को देख रहे हैं, उनके हवाई किले भी चन्द वर्षों में ही ज़मींदोज़ हो जायेंगे और वे फिर रुदालियों के काले कपड़े पहनकर छाती पीटते नज़र आयेंगे !
फासिस्टों को चुनावों में हराकर पीछे नहीं धकेला जा सकता I हर किस्म का फासिज्म निम्न-बुर्जुआ वर्ग का धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है और समाज में, सड़कों पर, तृणमूल स्तर से मेहनतक़शों का जुझारू प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके ही उसे पीछे धकेला जा सकता है और पूँजीवाद के विरुद्ध आर-पार की लड़ाई लड़ते हुए ही उसे निर्णायक शिकस्त दी जा सकेगी !
अगर कोई बड़े पैमाने का घपला नहीं होगा तो भाजपा और एन.डी.ए. गठबंधन की करारी हार तय है ! पर ई.वी.एम. में अबतक पायी गयी गड़बड़ी की दर्ज़नों खबरों और 20 लाख ई.वी.एम. मशीनों के ग़ायब होने की खबर तथा चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के अबतक के प्रदर्शित रुख के बाद ई.वी.एम. घपला की प्रचुर संभावना है ! गोदी मीडिया के सभी चैनलों ने एग्जिट पोल्स में एन.डी.ए. गठबंधन की जो भारी जीत दिखाई है, वह एक बहुत बड़े कपट-प्रबंध का ही हिस्सा मालूम पड़ता है I
एक ही बात से फासिस्टों के सरगना घबराये हुए हैं ! अगर घपला कुछ कांटे की टक्कर वाली सीटों पर न होकर अधिकांश सीटों पर होगा तो नतीजों में अंधेरगर्दी साफ़ नज़र आयेगी और तब, जनता बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतर सकती है ! इससे सामाजिक अराजकता फ़ैल जायेगी जो अभी भारत का शासक पूँजीपति वर्ग कत्तई नहीं चाहता है I हाल के दिनों में गोदरेज, बजाज, महिन्द्रा आदि कई बड़े पूँजीपतियों के रुख में अहम बदलाव देखने को मिले हैं ! कुल मिलाकर देखें, तो ये फासिस्ट खुदमुख्तार नहीं हैं, बल्कि इनकी स्थिति जंज़ीर से बंधे कुत्ते जैसी है और उस जंज़ीर को पूँजीपति वर्ग थाम्हे हुए है I यह शासक वर्ग नव-उदारवाद की नीतियों पर बेधड़क अमल के लिए फासिस्टों को चाहता है, पर देश में ऐसी विस्फोटक अराजकता की स्थिति भी नहीं चाहता कि पूँजी-निवेश के लिए ही संकट पैदा हो जाए, या व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो जाए ! लेकिन इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि विशेष स्थितियों में जंज़ीर से बंधा कुत्ता जंज़ीर छुड़ाकर सड़कों पर खूनी उत्पात मचा दे I
बहरहाल, किसी भी सूरत में भाजपा के हिन्दुत्ववादी फासिस्ट अगर फिर से सत्ता में आते हैं तो यह न सिर्फ़ देश के इतिहास में, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल के विश्व-इतिहास में एक खूँख्वार फासिस्ट सत्ता के सबसे आततायी दौर की शुरुआत होगी ! रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद की सारी संस्थाएँ नेस्तनाबूद कर दी जायेंगी और दमन का पाटा पूरे देश को रौंदता हुआ चलेगा I यह समय होगा जब असली-नकली प्रगतिशीलता की पहचान दिन के उजाले की तरह साफ़ हो जायेगी ! सरे सूफियाना मिजाज़ वाले शांतिप्रेमी, बुर्जुआ लिबरल और सोशल डेमोक्रेट बिलों में घुस जायेंगे I चूँकि फासिस्टों के विरुद्ध व्यापक जुझारू सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने में पहले ही क्रांतिकारी शक्तियाँ अपनी कमजोरी, नासमझी और बेपरवाही के चलते काफ़ी देर कर चुकी हैं, अतः उन्हें भारी कुर्बानियाँ देकर और अकूत कीमत चुकाकर फासिस्टों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए जनता को संगठित करना होगा !
अगर हिन्दुत्ववादी गिरोह इसबार सत्ता में नहीं आ पाता है, तो याद रखिये, मोदी चाहे जहाँ भी रहे, इनका उन्मादी-खूनी उत्पात सड़कों पर जारी रहेगा, जैसा कि ये 1986-87 के बाद से लगातार करते रहे हैं ! अब वैसा उत्पात और ज़मीनी षडयंत्र वे और बड़े पैमाने पर करेंगे, क्योंकि 2014 से लेकर अबतक के बीच राज्य-मशीनरी का भरपूर लाभ उठाकर इन्होने अपने ज़मीनी नेटवर्क को बहुत व्यापक और मज़बूत बनाया है !
अगर कांग्रेस-नीत या कांग्रेस-समर्थित क्षेत्रीय पार्टियों और संसदीय वाम का कोई गठबंधन सत्ता में आयेगा भी तो वह नव-उदारवाद के फ्रेमवर्क में ही कुछ कीन्सियाई नुस्खों को लागू करेगा और तात्कालिक राहत और सुधार के कुछ कामों को अंजाम देकर यह दिखलाने की कोशिश करेगा कि वह अपने चुनावी वायदों को पूरा कर रहा है I पर भारत की और पूरी दुनिया की पूँजीवादी व्यवस्था जिस दीर्घ, ढांचागत आर्थिक संकट के दौर से गुज़र रही है (और भविष्य में जिसके और गहराने की संभावना है), उसे देखते हुए अब बुर्जुआ "कल्याणकारी राज्य" की ओर वापसी असंभव है I नवउदारवादी नीतियों का दौर जारी रहेगा और कुछ विराम और मंथर गति के बाद फिर और अधिक रफ़्तार से आगे बढ़ेगा I यह सही है कि कांग्रेस एक फासिस्ट पार्टी नहीं है, वह एक पुरानी, क्लासिक बुर्जुआ पार्टी है, लेकिन नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए सीमित बुर्जुआ जनवाद को भी ताक पर रखकर उसे भी बोनापार्टवादी किस्म की निरंकुश स्वेच्छाचारी और दमनकारी सत्ता चलाने से कोई परहेज़ नहीं होगा ! जो लोग फासिस्टों के विकल्प के रूप में कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों को देख रहे हैं, उनके हवाई किले भी चन्द वर्षों में ही ज़मींदोज़ हो जायेंगे और वे फिर रुदालियों के काले कपड़े पहनकर छाती पीटते नज़र आयेंगे !
फासिस्टों को चुनावों में हराकर पीछे नहीं धकेला जा सकता I हर किस्म का फासिज्म निम्न-बुर्जुआ वर्ग का धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है और समाज में, सड़कों पर, तृणमूल स्तर से मेहनतक़शों का जुझारू प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके ही उसे पीछे धकेला जा सकता है और पूँजीवाद के विरुद्ध आर-पार की लड़ाई लड़ते हुए ही उसे निर्णायक शिकस्त दी जा सकेगी !
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Kavita Krishnapallavi New Id
यह अगर फासिस्ट हत्यारों का एक सरगना नहीं होता तो गाँव के भकचोन्हर गपोड़ियों-गंजेड़ियों और कूपमंडूकों जैसा मनोरंजक प्राणी होता I लेकिन मत भूलिए कि इस भांड के चेहरे के पीछे एक ख़तरनाक षड्यंत्रकर्ता और ठंडा हत्यारा छिपा बैठा है जो पूँजी की सत्ता का एक मोहरा है ! यह भी मत भूलिए कि लोकतांत्रिक लबादा पहने इस महामूर्ख, लम्पट और स्वेच्छाचारी तानाशाह की आर्थिक नीतियाँ वे "सम्मानित" थिंक टैंक बनाते हैं जो पूँजीपतियों के भाड़े के टट्टू हैं, और यह भी मत भूलिए कि यह हत्यारा मंच पर जो राजनीतिक नाटक करता है उसका पटकथा-लेखन और निर्देशन नागपुर के संघ- शकुनियों की शीर्ष मंडली करती है ! अतिपतनशील पूँजीवाद की राजनीतिक संस्कृति के इस विदूषक प्रतीक-पुरुष का और इक्कीसवीं सदी के फासिज्म के इस सबसे प्रतिनिधि-चरित्र की खूब खिल्ली उड़ाइए, लेकिन इसके खतरनाक इरादों और खूँख्वार मंसूबों के कभी भी कम करके मत आँकिये !
चुनाव हारने के बाद, हो सकता है कि फासिस्ट रणनीतिकारों का शीर्ष गिरोह
गुजरात के इस कसाई और तड़ीपार की जोड़ी की जगह कोई और चेहरा आगे करें, पर वे
अपनी खूनी, विभाजनकारी, साज़िशाना कार्रवाइयाँ जारी रखेंगे I राजनीतिक पटल
पर फासीवाद अपनी पूरी ताक़त के साथ मौजूद रहेगा क्योंकि नवउदारवादी नीतियों
और असाध्य ढाँचाग़त आर्थिक संकट के अनुत्क्रमणीय दौर में पूँजीपति वर्ग
ज़ंजीर से बंधे कुत्ते की तरह फासिस्ट विकल्प को हमेशा अपने पास बनाए रखेगा !
फासिज्म को चुनावों में हराकर शिकस्त नहीं दिया जा सकता I उसे सड़कों की
जुझारू लड़ाई में पीछे धकेलना होगा और फिर अंतिम तौर पर ठिकाने लगाना होगा !
जो लोग फासिज्म-विरोधी संघर्ष को पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष के अविभाज्य अंग
के रूप में नहीं देखते और सारे संघर्ष को बुर्जुआ लोकतंत्र और संविधान
बचाने की रट लगाते हुए, तथा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों के
साथ किसिम-किसिम के चुनावी मोर्चा बनाने में "चाणक्य" की भूमिका निभाते हुए
बुर्जुआ जनवाद के दायरे तक ही सीमित कर देते हैं वे सभी या तो कायर और
पराजितमना, या निहायत शातिर क़िस्म के बुर्जुआ लिबरल और सोशल डेमोक्रेट्स
हैं जो इस व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा-पंक्ति का काम करते हैं I ये
लोग जन-समुदाय की क्रांतिकारी चौकसी को कमज़ोर करते हैं, फासिज्म-विरोधी
दीर्घकालिक संघर्ष की चुनौतीपूर्ण तैयारियों के प्रति उसे लापरवाह और अनमना
बनाते हैं, तथा, उसकी क्रांतिकारी संकल्प-शक्ति को ढीला करते हैं ! ये
संसदमार्गी छद्म-वामपंथी जड़वामन अपनी पुछल्लापंथी नीतियों की कीमत बंगाल
में चुका रहे हैं I देश के स्तर पर तो मेहनतक़शों ने इन्हें एक विकल्प के
रूप में देखना दशकों पहले बंद कर दिया था ! अब इनसे यह उम्मीद करना व्यर्थ
है कि ये हिटलर-मुसोलिनी-तोजो के वंशजों से उसीतरह आर-पार की लड़ाई लड़ सकते
हैं जैसे बीसवीं सदी के सर्वहारा योद्धाओं और कम्युनिस्टों ने लड़ी थी !
हाँ, ये हँसिया-हथौड़े वाला झंडा फिर भी उड़ाते रहेंगे और अपने घरों और
ऑफिसों की दीवारों पर मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन के चित्र लटकाते
रहेंगे क्योंकि वही तो इनकी वह पहचान है जिसके बूते इनकी झोली में मज़दूरों
के भी कुछ वोट पड़ जाते हैं और यूनियनों की इनकी दूकानदारी भी चलती रहती है
Iअन्यथा इनका मार्क्सवाद, इनकी प्रतिबद्धता, इनकी कुर्बानियों का जज़्बा और
लड़ने की संकल्प-शक्ति तो ज़माने पहले तेल लेने चली गयी थी !
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