इप्टा के महासचिव
जितेन्द्र रघुवंशी का यह साक्षात्कार ‘परिकथा’ के लिए सचिन श्रीवास्तव ने लिया था।
रंगकर्म के साथ जितेन्द्र जी को लंबा सांगठनिक अनुभव भी है। यह
साक्षात्कार नाट्य -लेखन से लेकर नाट्य-प्रस्तुति और अंततः दर्शक-संवाद तक
रंगकर्म की विभिन्न प्रक्रियाओं तथा उसके सामाजिक सरोकारों की बारीक पड़ताल
करता है। एक प्रतिबद्ध रंगकर्मी के लिए नाट्य-चिंतन के जितने पहलू हो सकते
हैं, कमोबेश वे सारे आयाम इस साक्षात्कार में देखे जा सकते हैं:
0जितेन्द्र जी, शुरुआत बिल्कुल प्रारंभिक दौर से करते है। पहले थियेटर के प्रति अपने झुकाव- लगाव के बारे में बताइए।
00
हमारा परिवार शुरू से ही इप्टा से जुड़ा रहा। पिताजी राजेन्द्र रघुवंशी
इप्टा के संस्थापक सदस्यों में रहे थे। आगरा में उन्होंने बिशन खन्ना जी के
साथ मिलकर 1 मई 1942 को आगरा कल्चरल स्क्वाड की स्थापना की। इन्हें
प्रेरणा मिली थी बंगाल कल्चरल स्क्वाड से । इसके बाद 1943 में बंबई में
इप्टा के पहले सम्मेलन में वे गये थे। सम्मेलन के बाद आगरा में यह संस्था
इप्टा की इकाई के रूप में कार्य करने लगी। हमारी माताजी अरुणा रघुवंशी भी
रंगमंच से जुड़ी थीं। वे आगरा में थियेटर से जुड़ने वाली पहली महिला थीं।
उन्होंने प्रेमचंद की कृति ’गोदान’ पर आधारित नाटक में धनिया की भूमिका
निभायी थी। कलकत्ता में 1952 में इसका एक शानदार प्रदर्शन हुआ था। करीब एक
लाख लोगों के सामने इस नाटक का मंचन हुआ था। बताते हैं कि उस वक्त मैं
डेढ़ साल का था और माँ का रोल आता था तो मुझे किसी और की गोद में दे दिया
जाता था। अपना सीन करने के बाद मां फिर गोद में ले लेती थीं। इस तरह
पलना-बढ़ना ही रंगमंच पर हुआ। 1957 के दिल्ली सम्मेलन की कुछ धुँधली यादें
हैं मुझे । यहाँ नटराज नगरी बसायी गई थी। बचपन तो इसी तरह बीता, रंग
संस्कारों के साथ।
0 इस तरह आपका बचपन ही नाटकों गीतों और इप्टा के साथ बीता लेकिन सघन जुड़ाव कब हुआ? कब तय किया कि इसी तरह से दुनिया में रहना है ?
00 सजग रूप से नाटक से जुड़ाव 1968 में इप्टा की 25वीं सालगिरह पर हुआ।
इस मौके पर आगरा में एक बड़ा समारोह आयोजित किया गया था। साथ ही कॉलेज के
दिनों में नाटक से लगाव गहरा होता गया। चूंकि हमारा पूरा परिवार ही इप्टा
से जुड़ा था, छोटे भाई शैलेन्द्र, दिलीप रघुवंशी और बहन ज्योत्स्ना, परिवार
की वधुएँ भावना, कुमकुम एवं दामाद कुं. अजीत कुमार सिंह और हम सभी के
बच्चे भी इप्टा और रंगकर्म से जुडे़ हैं , इसके अलावा कुछ और सोचना न तो
जरूरी था और न हो सका।
0 वह जो दौर था, जिसे पढ़ते, याद करते हुए हम सभी उत्साह से भर जाते हैं। उस दौर के कौन से चेहरे आपको याद आते हैं? वह याद कैसी है?
00 वास्तव में उन लोगों की याद बहुत वेदनादायक है। वे सभी लोग आज भी याद
आते ही हैं। मान लीजिए, उस वक्त कोई गीत या नाटक याद आता था तो किसी को भी
फोन करके पूछ लेते थे कि फलाँ गीत किसने लिखा है, या फलाँ नाटक किसका है।
आज यह स्थिति नहीं है।
जो पहला दौर था इप्टा का या यूँ कहें कि रंग आंदोलन
का, उसमें विभिन्न टीमों के लोग कला में तो पारंगत थे ही, वे स्पष्ट
राजनीतिक समझ भी रखते थे।
0 किस तरह काम करते थे तब?
00 उस वक्त उन लोगों ने आशु नाटक काफी किये। किसी भी जगह जाते थे तो वहाँ
की समस्या देखी और बातचीत करके नाटक की स्क्रिप्ट फाइनल की और पात्र बाँट
लिये। इसकी शुरुआत तो 43 में ही हो गई थी, लेकिन 50 के दशक में यह उरूज पर
था। अन्य इकाइयों ने भी आशु नाटक किये। इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए। आज नये
प्रयोग हो रहे हैं। डायलॉग थियेटर, इनविजिबल थियेटर का भी दौर है। तो इन
सबके बीच वे लोग याद आते हैं, जो अपने आप में एक संस्था थे और ऐसे लोग
एक-दो नहीं थे । हर इकाई में दर्जनों ऐसे लोग थे।
0 उस दौर में तो इप्टा ही रंग आंदोलन का पर्याय था, तो रंगकर्म से कौन से लोग जुड़ रहे थे तब ? उनके बारे में कुछ बताइये।
00 जहाँ तक आगरा का मामला है, तो यहाँ कुछ परिवार थे। वैसे तो पूरे भारत
में ही नाट्यकर्म से जुड़े कुछ परिवार रहे हैं। रंगकर्म है भी सामूहिक
कार्य, सो सबसे पहले परिवार को ही जोड़ लिया जाता है। तब बिशन खन्ना जी का
परिवार था। वह पिताजी के बहुत अच्छे मित्र थे। बाद में वे फिल्मों में भी
गये और खूब नाम कमाया। ’गांधी’ फिल्म में भी उन्होंने काम किया। उनके
बड़े भाई श्रीकृष्णचंद्र खन्ना भी अच्छे कलाकार थे। इनके पुत्र अजय खन्ना
जी (बाद में सितारवादक के रूप में ख्यात) ने 1950 में लिटिल इप्टा की पहली
प्रस्तुति ‘डाकघर’ में काम किया। तब आगरा में इप्टा के साथ बच्चों का
संगठन लिटिल इप्टा और महिलाओं का संगठन विप्टा ( वीमेन्स इप्टा ) भी कार्य
करते थे। रमा जी, श्यामा जी, चंद्रलेखा जी ने विप्टा की पहली प्रस्तुति जो
अमृता प्रीतम की कृति ’पांच बहनें’ पर थीं, में काम किया। इसमें सभी
स्त्री पात्र थे। मदनसूदन जी का पूरा परिवार ही इप्टा के साथ जुड़ा हुआ था।
उन्होंने ‘अदाकार ’ (कलकत्ता), सत्यजित राय के टीवी सीरियलों व रेडियो में
भी काम किया, उनका जल्दी निधन हो गया। उनकी माँ व भाई ओम प्रकाश सूदन भी
सहयोग करते थे। बहन डॉ निर्मल चोपड़ा थी। सांरगीवादक इस्माइल बेचैन थे।
उनके भाई तबला वादक फैयाज खाँ थे। सितारवादक फड़के जी थे। नृत्य में डी.के.
राय व बाबूलाल श्रीवास्तव थे। डॉ. सी. बी. सूद का परिवार था। उनकी बेटी भी
रंगकर्म से जुड़ी थीं। डॉत्र रामगोपाल सिंह का परिवार भी था। इसके अलावा
जसूजा परिवार था। कुमार जसूजा और उनके भाई स्वदेश जसूजा इप्टा के शुरुआती
दिनो में काफी सक्रिय रहे थे। इप्टा का जो आठवाँ सम्मेलन दिल्ली में हुआ
था, उसमें उनका बडा योगदान था। स्वदेश जी तैयारी के लिए काफी पहले दिल्ली
पहुँच गये थे। वे अच्छे अभिनेता तो थे ही, मंच के पीछे के कार्यों में भी
पारंगत थे। अमृतलाल नागर जी का परिवार भी था। वे उत्तरप्रदेश इप्टा के
अध्यक्ष भी रहे। उनकी बेटी अचला नागर और बेटे शरद नागर ने भी लंबे समय तक
काम किया। इसके अलावा लंबी फेहरिस्त है, विभिन्न विधाओं से जुड़े लोगांे
की । ये सभी लोग रंगमंच की शास्त्रीय समझ तो रखते ही थे, उसकी कलात्मक
अभिव्यक्ति में भी माहिर थे। उस दौर में ’चौपाल’ नृत्य नाटिका तैयार की गई
थी, उसकी प्रस्तुतियों की तो गिनती ही नहीं है। बाहर जाकर भी कई पीढ़ियों
ने वह नाटक किया। ‘गठबंधन’ को तो विश्व शांति परिषद को जूलियो क्यूरी पदक
मिला। ये सभी अग्रज हमारे विनम्र प्रणाम के हकदार हैं।
0 आज क्या फर्क देखते हैं, उस दौर में जो
रंगकर्म हो रहा था और आज का जो रंगकर्म का परिदृश्य है, उसके बीच कौन- सा
साम्य या दूरी है ?
00 हम दो दौरों की तुलना करें तो इप्टा की बहुत बड़ी भूमिका देश के
सांस्कृतिक परिदृश्य में है, लेकिन इधर मुझे यह देखकर अचंभा होता है कि
इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ -दोनों की भूमिका को 50 और 60 के दौर तक ही
समाप्त मान लिया जाता है। अभी दिल्ली में एक बड़ा सेमीनार हुआ, उसमें भी
चर्चा का केन्द्र यही था। दूरदर्शन पर चर्चाएँ होती हैं, तो विषय होता है
कि इप्टा के समाप्त होने के क्या कारण हैं? देखिये, यह एक अणु की तरह है।
एटम कभी खत्म नहीं होता। इप्टा के पिछले दौर में जो लोग जुडे़ थे, वे बहुत
बडे नाम हैं। उनमें से बहुत से कलाकार महान हैं। उस दौर में संस्कृतिकर्म
का एक ही आंदोलन था। उस समय के सभी सोचने-समझने वाले कलाकार इसमें शामिल
थे। बाद में आजादी के बाद नये बदलाव आए और कुछ राजनीतिक भटकाव भी आये तो
लोगों ने नई राहें चुनीं। उत्पल दत्त जी, शंभू मित्रा जी, हबीब तनवीर साहब
जैसे बड़े लोग इनमें शामिल थे।
0 लेकिन ये लोग अलग हुए तो इप्टा पर नकारात्मक फर्क पडा? क्या इससे आंदोलन कमजोर हुआ ?
00 देखिए, ये सभी उसी परंपरा को आगे बढा रहे थे, उनकी राजनीतिक और
सामाजिक भूमि घुमा-फिरा कर वही थी। उनकी कला की जो वैचारिक और
सौदर्यशास्त्रीय पंरपरा है, वह एक ही है। बाद में इप्टा से अलग होकर जो काम
करने लगे, ये सभी उसी धारा के थे। जैसा कि मैंने पहले कहा कि पहले एक ही
आंदोलन था, तो सब उसमें शरीक थे,
बाद में कुछ अलग राह पर चल पडे़, लेकिन वे
सब उसी धारा के हैं। पानी वही है सभी में। एक -दूसरे को वे प्रभावित भी
करते हैं। कुल मिलाकर इप्टा का जो आंदोलन था, उसके अकेले हम ही वारिस नहीं
हैं, जो इप्टा के नाम से काम कर रहे हैं। आज ‘जन नाट्य मंच’, ‘जन संस्कृति
मंच’, ‘नया थियेटर’, ‘एक्ट वन’, ‘एकजुट’, ‘निशान्त’, ‘सहमत’, ‘समुदाय’,
‘रंगकर्मी’ सहित और भी कई समूह हैं, जो वही काम कर रहे हैं।
0 यह जो 60-70 का दौर था, उसमें वैचारिकता
ज्यादा थी। नाट्य दल भी थे और उनका समाज और राजनीति में हस्तक्षेप भी
अधिक था। आज तक आते -आते यह बदलाव कैसे आया ?
00 इप्टा ने लगभग 60 के दशक तक एक आंदोलन की तरह काम किया। राष्ट्रीय स्तर पर वह एक नहीं रहा, लेकिन अलग-अलग इकाइयां काम
करती
रहीं। फिर एक लंबा गैप आता है और 1985 में फिर इप्टा नये सिरे से
परिदृश्य में आता है। साठोत्तरी मोहभंग के बाद हताशा, मूल्यों का विघटन,
एकाकीपन, संत्रास, ऊब जैसे शब्द खूब चर्चा में हैं, लेकिन यह जो 70 का दशक
है, यह नई चेतना का समय है। दुनिया भर में नये आंदोलनों का उभार हुआ।
फ्रांस से लेकर भारत तक। भारत में नक्सलबाड़ी चेतना आयी। इस नयी चेतना ने
इप्टा के पुनर्निर्माण में भूमिका अदा की। इस तरह इप्टा की भूमिका इस दौर
में भी रही। 90- 91 के बाद वाम राजनीति पर आघात भी लगा। बाबरी-ध्वंस और
सोवियत- संघ का विघटन इसी दौर में हुआ लेकिन इप्टा इस दौर में भी अपना काम
करती रही और बेहतर ढंग से कर रही थी। प्रतीक रूप से इप्टा पर डाक टिकट का
जारी होना इसका उदाहरण है। इस दौर में सांस्कृतिक यात्राएं निकाली गईं।
आगरा से दिल्ली तक, लखनऊ से अयोध्या तक, काशी से मगहर तक। स्वर्ण-जयंती भी
मनाई गयी। याद कीजिए कि इस दौर में जो राष्ट्रीय नाट्य उत्सव हुआ उसमें छह
में से तीन नाटक इप्टा के थे। तो रचनात्मक ऊर्जा तो इस दौर में भी रही है।
1985 से आज तक इप्टा का राष्ट्रीय संगठन निरंतर सक्रिय है। उसका विस्तार हो
रहा है। 24 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में इप्टा की 600 से ज्यादा
इकाइयाँ हैं।
0 तब फिर इस तरह के सवाल क्यों खडे हुए हैं, क्या खामी है?
00 देखिए, यह कह सकते हैं कि पुराने दौर में बड़े कलाकार थे, जो अब नहीं
हैं। लेकिन संख्यात्मक रूप से आज ज्यादा अच्छी स्थिति है। इसे आप
रंग-आंदोलन की तरह देखिए। पहले इप्टा अकेला संगठन था। आज रंग-आंदोलन में कई
रंगमंडलों-संगठनों की भूमिका है। हमारे मित्र राकेश कहते हैं कि हबीब जी
की जो एक यूनिट थी, उसने अपनी अलग पहचान बनाई और हम इतनी यूनिटों के बावजूद
क्या कर रहें हैं, पहचान नहीं बना पा रहे हैं तो मेरा कहना है कि सही नहीं
है कि पहचान नहीं बना पा रहे, ऊँचाई पर नहीं पहुँच रहे लेकिन ज्यादा जरूरी
है कि जमीन पर ही विस्तार हो रहा है, यह बड़ी बात है -आज बहुत से युवा और
बच्चे रंग आंदोलन में शरीक हो रहे हैं।
0 लेकिन वह युवा फिर चला भी जाता है, दूसरी राह पकड लेता है ?
00 देखिए, युवाओं की भागीदारी के कई स्तर हैं। एक तो वह युवा है, जो ग्लैमर
के लिए थियेटर में आता है। उसे कहीं और पहुँचना होता है, सो वह ज्यादा दिन
तक टिक नहीं पाता है। यह एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा उन युवाओं का है, जो
आत्माभिव्यक्ति के लिए थियेटर की तरफ आते हैं।
0यह तो हुई युवाओं की बात । बच्चों पर जो काम हो रहा है अलग-अलग राज्यों में, उसे आप कैसे देखते हैं ?
00 हिन्दुस्तान के अलग-अलग राज्यों में इप्टा का कलात्मक स्तर अलग है। काम
करने का ढंग और हस्तक्षेप का तरीका भी अलग है। यह हालिया दृश्य में पूरे
रंग-आंदोलन में है। अशोक नगर, आगरा, भिलाई, रायगढ़ इंदौर, रायबरेली आदि
इप्टा की यूनिट में बच्चों पर काम हो रहा है। यह बच्चों की नर्सरी है। यहां
बच्चों को सिर्फ नाच-गाना ही नहीं सिखाया जा रहा है, बल्कि उन्हें पूरा
रचनात्मक संस्कार दिया जा रहा है। देखिए, अगर एक बच्चा थियेटर से जुड़ता
है, तो एक पूरा परिवार रंगमंच से जुड़ जाता है। यह महत्वपूर्ण बात है। एक
सिलसिला बनता है, जो जारी रहता है। आज आगरा में लिटिल इप्टा की तीसरी
पीढ़ी काम कर रही है। इसमें समर्पण है। वे चाहते हैं कि रोज नाटक हो, कोई
बातचीत हो, कोई कहानी ही पढ़ी जाय, लेकिन हम नहीं कर पाते । युवाओं का बड़ा
हिस्सा थियेटर को व्यक्तित्व निर्माण का अहम हिस्सा मानता है। अब तो
मैनेजमेंट के बड़े कॉलेज भी नुक्कड़ नाटक को अपने वार्षिक समारोह का हिस्सा
बनाने लगे हैं।
0 लेकिन उसमें से वैचारिक पक्ष तो लगभग गायब ही रहता है?
00 देखिए, प्रसन्ना जी ने इस संदर्भ में बडी अच्छी बात कही है। इससे पहले
बिहार के राष्ट्रीय सम्मेलन में भी उन्होंने यह कहा था कि पहले हम
क्रांतिकारी नाटक करते थे, अब नाटक करना ही क्रांतिकारी कार्य है। इसी तरह
कविता, पेंटिंग, अच्छी किताब की तलाश, यह सब सकारात्मक है। नाटक से व्यक्ति
क्रांतिकारी कार्यों में पांरगत होता है, यह ठीक है। यह करना ही बड़ी बात
है। आज के दौर में युवा यहाँ अनुशासन देखता है, सामूहिकता देखता है। जब वह
अन्य जगहों से थियेटर की तुलना करता है, तो उसका दृष्टिकोण बनता है। आज
आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और पूरी हिन्दी पट्टी में ग्रामीण इकाइयां
गठित की जा रही हैं, इनमें लोक कलाकारों को जोड़ा जाना बहुत जरूरी है।
युवाओं की भागीदारी भी है। अनुभव बताता है कि शहरों में जो युवा निम्न
मध्यवर्गीय घरों से आ रहे हैं, वे थियेटर के लिए ज्यादा टिकाऊ हैं कोई
कारीगर है, कोई दर्जी है, कम्प्यूटर हार्डवेयर के काम के जानकार हैं। इस
तरह के युवाओं की भी इच्छाएं हैं कि टी.वी. और फिल्मी परदे पर आयें, लेकिन
वे अपने भीतर कला को जीवित रखते हैं, क्योकि उनके कार्यों में ही कला की
परंपरा है।
0 ऐसे युवा तो कस्बों में होंगे, लेकिन
वहां उनके सामने आजीवका का संकट है। अगर उसे कोई राह मिलती है, तो वह बड़े
शहरों की तरफ भागता है।
00 हमारे पिताजी कहते थे कि थियेटर करना ज्यादा मुश्किल होता जायेगा।
रंगकर्मी को अपनी आजीविका के प्रति सावधान रहना होगा। आप देखिए कि पहले एक
आदमी घर में कमाने वाला होता था, जरूरतें कम थीं और बाकी लोग अपनी रुचि के
अन्य कार्यो को करते रहते थे। आजीविका का संकट नहीं था, आज है, बहुत बडा
संकट है, यह व्यावहारिक दिक्कत है। आजीविका के लिए छोटे शहरों से पलायन हो
रहा है, इसका अभी कोई इलाज हमारे पास नहीं है। लेकिन अच्छी बात यह है कि
इसमें भी कई शहरों की कला बाहर जा रही है, इसे पॉजिटिव ढंग से देखें।
0 तो क्या अभी जो आप कह रहे थे, कस्बों के मध्यवर्गीय युवा कला सहेजने के लिए बेहतर है?
00 बिल्कुल । दर्शक संख्या के उदाहरण से इसे देखिए। शहर में करीब 1000
निमंत्रण पत्र तो आमतौर पर छपाये ही जाते हैं। वे बँटते भी हैं। एस.एम.एस.
का जमाना है, तो वह भी सूचना का साधन है और अखबारो में भी नाटक की सूचना छप
ही जाती है। इन सबके बावजूद 1000 की क्षमता वाले हॉल में 700-800 दर्शक
पहुचते हैं। दिल्ली, आगरा, लखनऊ, मुंबई, पटना, भोपाल जबलपुर जैसे शहरों में
यह हालत है, जो सांस्कृतिक रूप से सचेत शहर माने जाते हैं। अन्य शहरों में
तो हालत और भी खराब है। छोटे शहरों में यह संख्या बढ जाती है, वहाँ
ज्यादा दर्शक पहुचते हैं। गाँवों में नाटक करने पर तो पूरा ग्रामीण समाज ही
दर्शक होता है। तो रास्ता तो यही है। कितने रंगमंडल बनेंगे और वे किस तरह
से ग्रामीण समाज से, कस्बाई समाज से अपना लगाव बरकरार रखंेगे, यह जरूरी है।
वे ही सर्वाइव करेंगे।
0 बाल इप्टा आगरा में लंबे समय से काम कर
रही है, इसके अनुभव को ध्यान में रखते हुऐ क्या देश के स्तर पर बाल रंगमंच
के लिए कोई योजना है ?
00 भिलाई में 2006 में एक राष्ट्रीय बाल एवं तरुण नाट्य कार्यशाला का
आयोजन किया गया था, जिसमें इप्टा और अन्य संगठनों के लोग भी जुटे थे असम
से, दक्षिण भारत से भी लोग आये थे। बच्चों का थियेटर अधिक संभावनापूर्ण है।
यह दो तरह का है। स्कूलो में भी अब तो थियेटर को पढ़ाया जा रहा है। दो तरह
की प्रस्तुतियां हो रहीं हैं। एक तो रिकार्डेड है, जिसमें संवाद, संगीत
रिकार्ड कर अभिनय किया जाता ह,ै दूसरे सीधी प्रस्तुतियां है मंच की। अभी
हाल ही में भिलाई सम्मेलन में भी इस पर अलग से एक सत्र रखा गया था। योजना
है कि इस साल अंतर्राष्ट्रीय बाल रंगमंच दिवस को पूरे देश में मनाया जाय।
अलग-अलग इकाइयाँ बच्चों पर काम कर रही हैं। इनके बीच समन्वय का काम भी है।
कई इकाइयाँ बच्चों का मेला आयोजित करती हैं। दक्षिण भारत में बाल रंग मेलों
की लंबी परंपरा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का जो पाठयक्रम है, संस्कार
रंग टोली का वह अच्छा पाठयक्रम है। एन.सी.ई.आर.टी में भी एक पाठ्यक्रम
तैयार हुआ है, कोशिश है कि इसे स्कूली शिक्षा का हिस्सा बनाया जाए जिससे
युवाओं के रोजगार के रास्ते भी खुलेंगे और थियेटर भी सम्पन्न होगा।
0 आज नाटक लिखने वालों की कमी है। हाल ही
में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में भी आपने यह सवाल उठाया था। इस कमी
को पूरा करने के लिए कोई कार्य योजना ?
00 हिन्दी में नाटक लिखने वालों की कमी है। असल में नाटक किसी रचनाकार की
प्राथमिकता में नहीं है । हिन्दी के एक बडे़ कवि ने मुझसे पूछा कि इप्टा के
गीतों की परंपरा रही है लेकिन अब गीत नहीं आ रहे हैं नाटकों में ? मैं
कहता हूं कि आज हमारे कितने कवि हैं, जो गीत लिख रहे हैं? इकाइयाँ अपनी
जरूरत के हिसाब से खुद ही गीत तैयार करती हैं और उनकी चलताऊ-सी धुन बनाकर
नाटक में इस्तेमाल कर लेती हैं। नाटक के लिए सजग रूप से काम करने की जरूरत
है, नाट्य लेखन में भी और गीत लेखन में भी। हमारी कोशिश है कि कोई
कार्यशाला की जाय जिसमें लेखक और निर्देशक साथ -साथ हों। इस संबंध में
देखते हैं कि कब कोई कार्य योजना बन पाती है। जयपुर में एक नाट्यशाला का
प्रस्ताव है। नामवर जी और हंगल साहब ने इस बारे में पहल भी की थी। एक
पुरस्कार भी घोषित किया गया था, लेकिन हिन्दी में कम नाटक आये और जो आये
वे स्तरीय नहीं थे। दक्षिण की भाषाओं में कुछ अच्छे नाटक तैयार हुए हैं।
हमें अनुवाद का भी काम करने की जरूरत है। अच्छी कृतियाँ देशकाल की सीमा से
परे होती हैं, यह बात कहने की जरूरत ही नहीं है।
0 पिछला पूरा साल देश और विदेश में राजनीतिक
और सामाजिक उथल - पुथल से भरा रहा। इस पर कोई महत्वपूर्ण नाटक दिखाई नहीं
दिया। अच्छा और लंबे समय तक याद रहने लायक तो बिल्कुल भी नहीं ?
00 करीब तीन-चार दशक नुक्कड़ नाटक खूब चलन में रहा। यह तुरंत हुई घटनाओं पर
प्रतिक्रिया की तरह ही था। अब इसे सरकार और कारपोरेट हाउस ने हथिया लिया
है। वे अपने प्रोपेगैंडा में नुक्कड़ का इस्तेमाल करते हैं, तो हमारी
दिक्कत यह है कि हमारा नुक्कड़ कैसे इनसे अलग हो ? आज नुक्कड़ नाटको पर नए
ढंग से बात करने की जरूरत है। नुक्कड़ का मुहावरा बेहद रटा-रटाया हो गया
है। एक रात मैंने 25 नुक्कड नाटक देखे और (कहना नहीं चाहिए लेकिन) तकरीबन
मेरी तबियत खराब होने की स्थिति में पहुंच गयी। हमारे नुक्कड़ नाटकों में
सत्ता का प्रतीक एक दीन -हीन सा पुलिसवाला होता है या जनता होगी तो गरीब
है, गिड़गिड़ा रही है या पिट रही है। तो यह स्टीरियो टाइप है, जो शोषण का
स्रोत है, जो पूंजीपति हैं, वह नुक्कड़ नाटक में गायब है।
0 तो दिक्कत कहां है?
00 यह बड़े लेखकों का काम है कि वे लिखें, अच्छे नाटक लिखें। आज के रंग
आंदोलन को तो पापुलर कल्चर में भी हस्तक्षेप करना चाहिए, कुछ लोग कर रहे
हैं यह अच्छी बात है। हमारे जो नजदीकी लेखक हैं, उनसे हम कहते भी हैं कि
हमारे लिए कोई नाटक लिखिए। जावेद सिद्दीकी से, अतुल तिवारी से हमने अनुरोध
किया है। जावेद अख्तर साहब ने तो एक बार मंच से नाटक लिखने की घोषणा भी की
थी। उन्हें वक्त मिलेगा तो लिखेंगे। इनके पास अलग मुहावरा है, जो नाटक के
लिए ताजगी देगा। हम तो चाहते हैं कि मिल जुलकर एक नाटक लिखा जाए, जिसकी एक
ही दिन पूरे देश में प्रस्तुति भी हो।
0 नाटको के लिए पूंजी की समस्या हमेशा रही
है। हमारे देश में कारपोरेट सत्ता और अन्य संस्थान हैं, जो पूंजी उपलब्ध भी
कराते हैं लेकिन गंभीर थियेटर करने वाले समूहों को चाहे वह इप्टा हो जसम
हो जनम या अन्य समूह, कहाँ तक कदम बढाने चाहिए? खासकर कारपोरेट पूंजी के
सवाल पर आप क्या सोचते हैं ?
00 बहुलवाद भारत जैसे देश में हर स्तर पर है। सब काम कर रहे हैं और करते
रहें। महिद्रा थियेटर फेस्टिवल हो रहा है। उसकी भी अपनी तरह की जरूरत है।
अकादमी से अगर कोई मदद मिलती है और रंगमंडलों को यह ठीक लगे तो वे लें,
लेकिन मेरा तो अनुभव यह है कि अकादमियों की खुद की हालत बहुत अच्छी नहीं
है। इन्हें जो फंड मिलता है, वह तो तनख्वाह में ही चला जाता है। संगीत नाटक
अकादमी अब तो राष्ट्रीय नाट्योत्सव भी नहीं करती, वह तो नेशनल स्कूल आफ
ड्रामा करता है। यह बुनियादी तौर पर अकादमी का काम है। राज्यों में हो या
राष्ट्रीय स्तर पर, यह अकादमी को ही करना चाहिए। हालांकि इसे सरलीकृत भी
नहीं किया जाना चाहिए। महाराष्ट्र में अकादमी की हालत बहुत अच्छी है। जो
पैसा देगा वह अपने शर्तें भी रखेगा। मेरा व्यक्तिगत मत है कि रंग आंदोलन
संस्थाओं में ज्यादा पैसा नहीं होना चाहिए। व्यवस्था चलती रहे, यही बहुत
है। हाँ, बड़े काम करने हैं, जैसे पीपुल्स थियेटर अकादमी या कोई रंगमंडल
बनाना है, तो सहयोग लिया जा सकता है। इन मदो में भी संस्कृति मंत्रालय के
पैसे का कुछ ही लोग सही इस्तेमाल कर पाते हैं। कभी इस पर भी कैग की रिपोर्ट
आये तो पता चलेगा कि क्या काम हुआ है। बड़ी योजनाओं में पैसा लेना कोई
बुरा नहीं है, लेकिन सिर्फ इसी का रोना रोते रहना गलत है। नाट्य प्रस्तुति
के लिए पैसे की कमी नहीं है, इसके लिए संस्थाओं पर निर्भर भी नहीं रहना
चाहिए। यह सामूहिक ढंग से ही हो, तभी अच्छा है।
0 नाटकों की कार्यशालायें उत्साह बढाती हैं। इन्हें आप किस तरह देखते हैं?
00 कार्यशालायें तो जितनी हों उतना अच्छा। प्रशिक्षण और प्रस्तुति, दोनों
तरह की कार्यशालाओं की सख्त जरूरत है। यह एक स्वाभाविक मांग होती है कि
किसी कार्यशाला का समापन प्रस्तुति से हो। कई बार प्रस्तुति का दबाव
कार्यशाला के प्रशिक्षण को प्रभावित करता है। मेरा मानना है कि दोनों
पक्षों को एक साथ करना अनिवार्य नहीं होना चाहिए। अमूमन कार्यशालाओं के
समापन में नाटकों की ही प्रस्तुतियां होती हैं। जरूरत है कि कविता, कहानी
यहां तक कि निबंध की भी एकल या सामूहिक प्रस्तुतियों को तैयार किया जाए,
चूंकि हमारा जोर नाटक की सामाजिक भूमिका पर ज्यादा है, जो होना भी चाहिए,
इसलिए विचार और कला दोनों का प्रशिक्षण जरूरी है।
0 कार्यशालाओं की रूपरेखा कैसी होनी चाहिए?
00 एक तो हमारे यहाँ कार्यशालाओं की ही कमी है। उस कार्यशाला के लिए जरूरी
पाठयक्रम की भी कमी है। आज थियेटर मैनेजमेंट की सख्त जरूरत है। एक
प्रोफेशनल थियेटर को कैसे संचालित किया जाए, इसका प्रबंध कोर्स तो फिर भी
उपलब्ध है, लेकिन शौकिया और नुक्कड़ के प्रबंधन पर कोई कोर्स नहीं है।
इसकी
भी
जरूरत है। कोई टीम क्यों नये सिरे से सारी परशानियों से निपटे। उसे पुराने
सदस्य अपने अनुभव से पहले ही तैयार कर सकते है। इसे मौखिक के बजाय लिखित
ढंग से बताया जाए, तो बेहतर होगा।
0 मौजूदा राजनीति और सामाजिक परिदृश्य बहुत
उत्साहित करने वाला नहीं है। ऐसे में नाटक करना और फिर समाज और राजनीति में
हस्तक्षेप मुश्किल काम है, तो इस लगभग संस्कृति -विरोधी समय में आप सबसे
बड़ी चुनौती क्या मानते है।
00 मेरी नजर में आज के समय और समाज में प्रतिरोध की आवाज की कलात्मक
अभिव्यक्ति की समस्या है। वह एक बड़ी दिक्कत है। सबसे बड़ी दिक्कत-आज मसलों
की वैचारिक पहचान तो सही होती है, लेकिन चीजें इतनी जटिल हैं कि जब उनकी
कलात्मक अभिव्यक्ति की बात आती है तो इन दोनों में साम्य दिखायी नहीं
देता। एक ही मुद्दे पर प्रेक्षागृहों में सुबह और दोपहर के सत्रों में जो
बातचीत होती है, उसमें लगता है कि हम एक सिरे पर पहँुच गये हैं और समस्या
की बारीक पड़ताल कर ली है। बात शाम को ठहर जाती है, जब उन्हंी चिंताओं की
कलात्मक अभिव्यक्ति सामने आती है। हमारी वैचारिक चिंताओं का कलात्मक
रुपांतरण नहीं हो पाता। मैं मानता हूँ कि अगर हमारी प्रस्तुति प्रभावशाली
है तो लोग आयेंगे और नाटक देखेगें। तब न तो धन की समस्या होगी और न ही
दर्शकों का रोना होगा। कलात्मक अभिव्यक्ति को हम अपनी परंपरा से भी सीख
सकते है। पापुलर कल्चर में हस्तक्षेप और उसके टूल के इस्तेमाल की तरफ भी
ध्यान देना ही होगा। आज पापुलर कल्चर में जो दिखाया जा रहा है, वह दिखावटी
या यूँ कहें कि संग्रहालय की वस्तु सरीखा है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए हमें
लोक की ओर जाना पडे़गा। रंग आंदोलन के पिछले दौर में वैचारिक और कलात्मक
अभिव्यक्ति में समानता थी, जिसके कारण थियेटर लोक तक पहुँच पाया और ज्यादा
हस्तक्षेप कर पाया।
0 तो इसका विकल्प क्या है? यह जो वैचारिकी और कला के बीच की दूरी है, इसके बीच क्या कोई सिरा है, जो दोनों को करीब ला सकता है?
00 मुझे आंध्रप्रदेश की याद आती है। वहाँ लोक में थियेटर घुला हुआ है।
आन्ध्रप्रदेश की इप्टा की इकाई के कई गीत वहाँ प्रचलित हैं। ‘नामपल्ली
स्टेशन गाड़ी’ गाने का तो बाद में फिल्म में भी इस्तेमाल हुआ। एक गायक हैं,
आंध्रप्रदेश के बड़े संगीतकार हैं वंदेमातरम श्रीनिवासन। उनका नाम तो
श्रीनिवासन है, लेकिन उनका गीत वंदेमातरम इतना प्रचलित हुआ कि उनका नाम ही
वंदेमातरम श्रीनिवासन हो गया। तो इन अनुभवों से, एक-दूसरे के काम से हम
सीख सकते हैं। केरल पीपुल्स आर्ट क्लब का सबसे चर्चित नाटक है ‘तुमने मुझे
कम्युनिस्ट बनाया’ और यह किसी शौकिया समूह ने नहीं किया है। यह एक
प्रोफशलन गु्रप का नाटक है। उनके गीतों के कैसेट वहाँ आम दुकानों पर बिकते
हैं, जिस तरह हमारे यहाँ देशी-विदेशी सीडी बिकती हैं।
0हिन्दुस्तानी थियेटर और वर्ल्ड थियेटर के बीच आप कैसे समानताऐं देखते है?
00 मैं रंगमंच को मूलतः तीन भाषाओं हिन्दी, रूसी और अंग्रेजी के माध्यम से
जानता हूँ। हिन्दी के रंगकर्मी विश्व रंगमच में जो कुछ घटित हो रहा है ,
उससे प्रभावित हुए हैं, हालाँकि हमारे थियेटर का मुहावरा विश्व रंगमंच से
भिन्न है। हमने देखा है कि विश्व रंगमंच के बहुत से श्रेष्ठ निर्देशक
समकालीन भारतीय
नाट्य
पंरपरा की ओर मुखातिब हुए हैं। इधर यह भी हुआ है कि दुनिया के श्रेष्ठ
निर्देशकों की पुस्तकें हिन्दी में आई हैं। जहाँ तक तुलना की बात है तो यह
एक जटिल काम है। इसमें गुणवत्ता की कसौटी शामिल होती है। इस लिहाज से हमारा
रंगमंच ज्यादा शौकिया है और दुनिया का प्रोफेशनल। इसलिए तुलना तो बनती
नहीं है। बाकी दुनिया में भी शौकिया थियेटर हैं, लेकिन उसमें भी फर्क है।
जैसे पेरिस में दोनों तरह के गु्रप हैं, एक बिल्कुल प्रोफशनल है और कुछ
जेनुइन थियेटर समूह हैं। फ्रांस की सरकार वहाँ जेनुइन ग्रुप्स को कुछ
सहायता उपलब्ध कराती है। इस तरह हर जगह अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं और इसी से
काम का ढंग भी भिन्नता लिये हुए है। इस दौर में हमारा जो रंगमंच छोटी जगह
पर ,छोटी संस्थाओं के माध्यम से निरंतरता को बचाये रख पायेगा, वही
हस्तक्षेप कर पाएगा और बचा भी रह पाएगा । ब्रेख्त की एक कविता के माध्यम से
इसे समझा जा सकता है कि हाथी उँचाई से गिरेगा तो मर जायेगा, कुत्ता गिरेगा
तो उसे चोट लगेगी और चींटी गिरेगी तो उसे कुछ नहीं होगा। इसे भी
प्रसन्नाजी ने हाल के इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में उदधृत किया था, तो
हमें तो थियेटर में चीटियों पर ज्यादा भरोसा है।
0 नाटक मंडली नाटक और दर्शक के बीच के
रिश्ते के आप कैसे देखते है? इनके बीच संवाद की प्रक्रिया सघन हो या फिर
नाटक करने के बाद दर्शक को अपने विवेक पर छोड दिया जाए।
00 नाटक और दर्शक के बीच संवाद की कई शैलियां हैं। नाटक के साथ दर्शको का
संवाद तो जरूरी है ही। शुद्व मनोरंजन तक हम नाटक को सीमित नहीं कर सकते।
ब्रेख्त कहते हैं कि मनोरंजन की सीमा क्या हो, जरा ध्यान कर लीजिए। हमें
तो समाज को वैचारिक रूप से जागृत बनाना है। आज थियेटर का काम लोगों के
विवेक को जाग्रत करना है और महज विवेक से भी काम नहीं चलेगा। विवेक के साथ
संवेदना भी जरूरी है क्योंकि यदि संवेदना ही नहीं होगी तो कोरा विवेक जड़
बना देगा। नाटक की प्रस्तुति के बाद अंतःक्रिया किस रूप में हो, संवाद कैसा
हो, यह सवाल महत्वपूर्ण है। नाटक देखने के बाद तो वहाँ अच्छा कहा ही जाता
है। शौकिया थियेटर के लिए यह जरूरी भी है। पहली प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ाने
वाली होती है, लेकिन रंगमंडलों के एक दो साथियों को जिम्मेदारी के साथ यह
ध्यान रखना चाहिए कि उनकी प्रस्तुति कैसी थी। देखिए, कलाकार और प्रस्तुति
से जुड़े
अन्य
साथियों को पता होता है कि उसने क्या किया है। वह खुद ही बता सकता है,
लेकिन यह जरूरी नहीं है कि शुरुआत में ही टूट पड़ा जाए। मैं खुद भी सजग रूप
से अपने नाटकांे के बाद प्रस्तुति पर टिप्पणी करता हूँ, चाहे वह टुकडो में
ही आये क्योंकि एक डेढ़- महीने की मेहनत से कोई नाटक किया जाता है तो उस
पर सीधा हमला ठीक नहीं। अगर पोस्टमार्टम करना ही हो तो किसी लेख, कविता,
नाटक को लेकर चार लोग बैठ जाइए, थोडी देर बाद इसमें कुछ नहीं बचेगा। हाँ,
बात होनी चाहिए, इसमें इनकार नहीं है, लेकिन देखना चाहिए कि कलाकार की सीमा
क्या है। शौकिया तौर पर काम करने वाले ने रंगमंच की व्यवस्थित पढाई या
प्रशिक्षण तो लिया नहीं होता है तो थोड़ा ठहर कर और आराम से बात करनी
चाहिए। दर्शकों के साथ भी यही बात लागू होती है। यह ऑब्जेक्टिविटी जीवन के
हर क्षेत्र में जरूरी है।
0 अभी आपने कहा कि नाटकों की कमी है और बड़े
लेखको को इस ओर आना होगा। क्या यह सभंव है कि जो रंगकर्म कर रहा है, उससे
सीधा जुड़ा है, कलाकार या निर्देशक या दीगर काम करने वाले साथी हैं, वे ही
नाटक लिखें। उन्हें नाटक की जरूरत और मंच की क्षमता का भी अंदाजा अधिक होता
है।
00 मुझे ऐसा लगता है कि हमारे युवा साथी लिखने-पढ़ने के मामले में बडे आलसी
हैं। इप्टा के साथी जो प्रशिक्षण के लिए विभिन्न संस्थानों में जा रहे हैं
उनसे मैं यही कहता हूं कि प्रशिक्षण तो मिलेगा ही लेकिन जितना भी समय मिले
तो कुछ न कुछ पढ़ो और लिखो। कुछ नहीं तो अपने नाट्यानुभव ही लिखो।
हांलांकि सामान्यतः कोई लिखता नहीं है। कार्यशालाओं की बात अलग है, जहां
प्रकाशन की व्यवस्था होती है। देखिए, दिमाग तो पढ़ने से ही बनेगा और
साहित्य की इसमें भूमिका है। अगर कोई यह सोचे की फिल्म या कोई अच्छे टी.वी
सीरियल देखकर वह अपनी समझ विकसित कर कर लेगा, तो यह गलत है। एक कलाकार को
चीजें अमूर्तन में समझनी होती हैं। टी.वी. फिल्म में अच्छी से अच्छी कृति
एक तय फारमेट में सामने आती है, लेकिन किताब से उसके पात्र अमूर्त ढंग से
सामने आते हैं। वे सोचने के लिए जरूरी ईंधन मुहैया कराते हैं। हम उनकी
विशेषता, रहन-सहन, कपड़े, कद -आदि की सोचते हैं और उन्हें मूर्त रूप देते
हैं, तो यह एक कलाकर को परिष्कृत करता है। इसलिए पढ़ने का, साहित्य का कोई
विकल्प नहीं है। अब लिखने की ऐसी स्थिति हो, जहां सामान्य लेखन ही नहीं हो
रहा है तो नाटक लिखना तो दुष्कर है। हमने कोशिश की थी कि हमारे कुछ साथी
नाटक लिखें। और कुछ नहीं तो अपने- अपने काम-धंधे से जुड़ी बातों को ही
तरतीब से लिखें। इस तरह चार-पाँच स्क्रिप्ट सामने आयी थीं। उनमें स्थानीय
बोली और काम से संबंधित शब्दावली और वस्तुएं भी आयीं जो सामान्य नाटकों में
संभव नहीं थे। कुछ की प्रस्तुति भी हुई। लेकिन उसमें दूसरी प्रस्तुति के
लिए जरूरी बदलाव मुश्किल काम है।
0 तो नाट्य लेखन के लिए किस पर निर्भर रहा जाए?
00 नाट्य लेखन वही कर पायेगा जिसके पास लेखन के जरूरी औजार होंगे। बिना
औजार के कोई रचना अच्छी कैसे हो सकती है। लेखन के औजारों की गैर मौजूदगी
में नाट्य गढना संभव नहीं है। यह शिल्पगत कौशल है। प्रेरणा- प्रतिभा अपनी
जगह है, लेकिन जरूरी चीज है, लेखन के औजार।
0 आज नाटक अगर लिखा भी जाता है तो वह तेजी
से सामने नहीं आ पाता। अखबारों में तो नाटक छापने लायक स्पेस ही नहीं है।
थियेटर पर जो पत्रिकाएं हैं, उनमें आप किस तरह की उम्मीद देखते है ?
00 थियेटर की जो पत्रिकाएं निकल रहीं हैं, उनमें नियमितता और निरंतरता की
कमी है। यह जरूर है कि इधर कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं ने रंगमंच पर कॉलम शुरू
किये हैं। कई अन्य पत्रिकायें भी निकल रहीं हैं, लेकिन उनका वितरण और
विपणन कमजोर है। रंगकर्म पर कई अच्छी पत्रिकाएं हैं, जिनके बारे में अन्य
क्षेत्रो में पता ही नहीं चल पाता। कई बार तो जिस शहर या कस्बे से
पत्रिकाएं निकलती हैं, वहीं के लोगों को जानकारी नहीं होती। मेरा मत है कि
नाटक की पत्रिकाएं चल सकती हैं, इसकी बहुत ज्यादा जरूरत है। उसके बेचने या
चलाने में भी दिक्कत नहीं आयेगी। बस कमर कसने की जरूरत है। एक और पक्ष है,
इप्टा की ही कई पत्रिकाएं निकलती और बंद होती रही हैं। 85 के बाद सुब्रतो
बनर्जी के संपादन में इप्टा ने ’जननाट्य’ नामक एक पत्रिका निकाली थी, जो
बाद में बंद करनी पड़ी। उन्होंने बताया था कि पत्रिका के लिए रिपोर्ट नहीं
मिलती थीं। यह बड़ी दिक्कत है। इकाइयों के जो लिखने-पढ़ने वाले लोग हैं, वे
प्रस्तुति से भी जुड़े होते हैं, लेकिन रिपोर्ट के मामले में वे गंभीर
नहीं है। अमूमन अखबार की कटिंग आदि ही भेज दी जाती है। नाटकों के विश्लेषण
की रिपोर्ट में कमी है। पुराने दौर में इप्टा की प्रस्तुतियों का वर्णन ही
नहीं होता था, बल्कि एनालिसिस भी होता था।
0 नए माध्यमों जैसे इंटरनेट और उसी के भीतर फेसबुक ब्लॉग आदि पर आप क्या सोचते हैं?
00 इस बीच वेब पर कुछ काम हुआ है। इप्टा की वेबसाईट भी जल्द ही लांच करने
की तैयारी है, हो भी जायेगी ( इप्टा की वेबसाइट इस बीच लांच हो चुकी
है-सं.)। लेकिन यह हाथी पालने के समान है। उसे खुराक चाहिए जो कंटेंट पर ही
निर्भर है। उनका विश्लेषण भी हो, यह भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। आज मैं
युवाओं को देखता हूँ। फेसबुक जैसे साधनों पर अभी अल्पज्ञान, आत्ममुग्धता
है, कुछ अराजकता भी है। इप्टा की ही करीब 20 कम्युनिटी हैं इंटरनेट पर। मैं
मान लेता हूँ कि अभी चलने दिया जाए, कभी जरूरत पडी तो फिर बात की जायेगी।
इस अराजकता के बीच भी लोग रिएक्ट कर रहे हैं। बात कर रहे हैं,
प्रतिक्रियाऐं आ रही हैं। फिल्म और टी.वी. ने समाज और राजनीति पर कई
दुष्प्रभाव डाले हैं, लेकिन एक अच्छी बात हुई है कि इसने दर्शक की रुचि को
परिष्कृत किया है। अब देखिए कि सीरियल्स में सास-बहू का दौर बीत गया है।
0 आने वाले समय के प्रति आप आशावान हैं, यह
हम सभी जानते हैं । आप अपनी पूरी ऊर्जा के साथ रंग-आंदोलन में सक्रिय हैं ,
ऐसे में आने वाले वक्त को आप कैसे देखते हैं, किस तरफ जाना ठीक होगा?
00 मैं सचमुच आशावादी हूँ। मित्र कहते हैं कि निराशावाद जिस तरह से बीमारी
है, उसी तरह अतिरिक्त आशावाद भी एक बीमारी है। हर तरह की कला और साहित्य का
स्वर्णकाल होता है, थियेटर का भी बताया जाता है। जो भी हो, हम तो उसमें
नहीं थे, हमारा स्वर्णकाल तो यही है। आज हम चुनौतियों को देख रहे हैं,
हस्तक्षेप कर रहे हैं। मुश्किलों से जूझ रहे हैं और सपने देख रहे हैं। ये
सपने भी अनंत हैं। भविष्य का जो रास्ता है, वह एक नहीं है। सारा थियेटर
क्रांतिकारी या सामाजिक हो जायेगा, इसकी उम्मीद बेमानी है। सभी तरह के फूल
खिलें, यह हमारी इच्छा है, लेकिन देश की बहुसंख्यक गरीब जनता को संबोधित
रंगमंच विकसित करना जरूरी है। हमें थोडे़ लोगों का विशिष्ट रंगमंच नहीं
चाहिए। हमें तो ज्यादा न हो, लेकिन अच्छा हो, सुरुचिपूर्ण हो, सार्थक हो
ऐसा थियेटर चाहिए। वह थियेटर जो मुश्किल समय में सिर्फ आनंद ही न दे, बल्कि
झकझोरे और सोचने के लिए बाध्य करे। यह अकेले रंगमंच का सवाल नहीं है, सभी
कलाओं की सामूहिक चिंता यही है।
0 तो क्या कला के माध्यम से ही बदलाव की दिशा तय की जा सकती है?
00 परिवर्तन में कला की एक सीमित भूमिका ही होती है। बड़ी भूमिका तो
सामाजिक और राजनीतिक समूहों की है। अगर सामाजिक संगठन कला को, संस्कृति को
अपने एजेंडे पर रखते हैं, तभी व्यापक बदलाव आ सकते हैं।
संस्कृतिविहीन
राजनीति भी बेहतरी का रास्ता तय नहीं कर सकती है। इसी तरह संस्कृति को अपनी
राजनीति तय करनी पड़ेगी। यह दोतरफा है। राजनीति से निरपेक्ष संस्कृति या
तो अराजकता लायेगी या फिर फासिज्म और अंधविश्वास बढ़ाने वाले बाबा पैदा
करेगी। संस्कृतिकर्मी किसी दल से जुडे़ या नहीं, यह उसकी व्यक्तिगत
स्वतंत्रता है, लेकिन राजनीतिक समझ होना जरूरी है। राजनीति का भी यह रवैया
कि लिखना-पढ़ना, नाटक आदि कार्य गैरजरूरी हैं, गलत है। स्वतंत्रता संग्राम
और उसके बाद के काल में हमारे नेता अच्छे लेखक भी थे। वे संस्कृति की समझ
भी रखते थे । राजनीति को एक संस्कृति देना ही असल में आज एक मुश्किल काम
है। हालांकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में आसानी से कुछ मिलता नहीं
है।
जे.एन.यू.
में एक सेमिनार के दौरान मैंने अपने वक्तव्य में कहा था कि क्या आइत्मातोव
की कृतियों से यह दुनिया बेहतर हुई? शायद हां, शायद नहीं? लेकिन इतना तय
है कि आइत्मातोव की कृतियाँ न होतीं, तो दुनिया आज से बदतर जरूर होती।
अगर
कृतियां -कलाऐं नहीं होंगी तो हम हताशा के दौर में चले जायेंगे। इससे बचने
के लिए साझा प्रयास की जरूरत है।