Monday, 30 September 2013

राजनीतिक सन्नाटे को तोड़ने वाली रैली---अतुल कुमार अंजान





लखनऊ 30 सितम्बर। साम्प्रदायिकता, महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ 21 अक्टूबर को जेल भरो आन्दोलन आयोजित करने के फैसले के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आज लखनऊ के ज्योतिबा फूले पार्क में रैली एवं विशाल जनसभा का समापन हुआ। जनसभा में उपस्थित हजारों की भीड़ ने प्रदेश में साम्प्रदायिक तथा अन्य विभाजनकारी ताकतों की काली करतूतों का मुंहतोड़ जवाब देने और शांति, सद्भाव एवं भाई चारा बनाये रखने के लिए हर संभव कोशिश करने का संकल्प लिया। जनसभा के पूर्व जिलों-जिलों से आये लगभग बीस हजार पार्टी कार्यकर्ताओं ने चारबाग रेलवे स्टेशन से एक जुलूस निकाला जो बर्लिंग्टन चौराहा, कैसरबाग, परिवर्तन चौक, स्वास्थ्य भवन, रूमी दरवाजा होते हुए ज्योतिबा फूले पार्क पहुंच कर जनसभा में परिवर्तित हो गया। जूलूस में प्रदर्शनकारी केन्द्र एवं राज्य सरकारों के खिलाफ गगनभेदी नारे लगा रहे थे।
जनसभा की शुरूआत में ही एक प्रस्ताव पेश किया गया जिसमें मुजफ्फरनगर और उसके समीपवर्ती स्थानों पर हाल में हुए दंगों के लिए जहां एक ओर साम्प्रदायिक भाजपा और उसके सभी संगठनों को दोषी ठहराया गया वहीं साम्प्रदायिकता एवं दंगों का इस्तेमाल वोट की राजनीति करने के लिए समाजवादी पार्टी को भी कठघरे में खड़ा किया गया। विभिन्न पूंजीवादी दलों के नेताओं की दंगों में संलिप्तता को रेखांकित करते हुए समस्त घटनाक्रमों की सर्वोच्च न्यायालय के परिवेक्षण में सीबीआई से जांच कराने की मांग की गई।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एवं पूर्व सांसद एस. सुधाकर रेड्डी ने अपने सम्बोधन में कहा कि लगातार बढ़ती चली जा रही महंगाई के कारण आम आदमी की जिन्दगी दुश्वार हो गयी है। रूपये की कोई कीमत रह ही नहीं गयी है। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों देश की सम्पत्ति बढ़ने की बात करते हैं लेकिन कुछ ही लोगों की सम्पत्ति बढ़ रही है जबकि अमीर-गरीब के बीच की खाई दिनों-दिन गहरी होती चली जा रही है। संप्रग-2 सरकार के सात मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देना पड़ा परन्तु राजा को छोड़कर कोई भी मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल नहीं गया। प्रधानमंत्री कार्यालय पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। उन्होंने कहा कि सरकार में होने के कारण संप्रग-2 के मंत्रियों को अदालत से सजा मिले या न मिल परन्तु कांग्रेस को जनता की अदालत में जरूर सजा मिलेगी।

भाजपा द्वारा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किये जाने पर टिप्पणी करते हुए एस. सुधाकर रेड्डी ने कहा कि भाजपा के सत्ता में आने से नीतियां नहीं बदलने वाली और नीतियों को बदले बिना महंगाई नहीं रोकी जा सकती,  भ्रष्टाचार नहीं रोका जा सकता और साम्प्रदायिकता पर अंकुश भी नहीं लगाया जा सकता। उन्होंने कहा कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र को बचाना है, सभी के लिए खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करनी है, सभी को इलाज मुहैया कराना है, सभी को शिक्षा मुहैया करानी है तो वैकल्पिक नीतियों के लिए प्रतिबद्ध विकल्प का निर्माण करना होगा जो बिना वामपंथ और विशेष कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत किये हासिल नहीं किया जा सकता। उन्होंने जनता का आह्वान किया कि वे आसन्न लोकसभा चुनावों में भाकपा के अधिक से अधिक प्रत्याशियों को विजयी बनायें।

एस. सुधाकर रेड्डी ने उत्तर प्रदेष की स्थिति पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश  देश  का हृदयस्थल है और यह प्रदेश  दुर्भाग्य से आर्थिक दृष्टि से भी पिछड़ा है। यहां विकास के लिए वैकल्पिक नीतियों की आवश्यकता  है। उन्होंने कहा कि मुजफ्फरनगर के दंगों से देश  का सिर शर्म से झुक गया है। हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों के साथ-साथ सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने खुल कर घृणित साम्प्रदायिक नफरत का खेल खेला है। शासक दल भी वोट बटोरने की राजनीति में जुटा रहा और इतना बड़ा जघन्य काण्ड हो गया। राज्य प्रषासन ने स्थिति को नियंत्रण में रखने में ढीढता एवं निष्क्रियता का परिचय दिया। समाजवादी पार्टी की सरकार ने साम्प्रदायिक शक्तियों को समय से रोकने में लापरवाही बरती है जिसको बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा खड़ी की गई बाधाओं के बावजूद लखनऊ में एक मजबूत दस्तक देने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं का अभिवादन करते हुए कहा कि डेढ़ साल पहले बसपा के कुशासन से परेशान हाल जनता ने सपा को वोट देकर यह उम्मीद की थी कि वह जिन्दगी में कुछ उजाला लायेगी परन्तु 16 माह में 1600 किसान आत्महत्या कर चुके हैं क्योंकि चुनाव घोषणापत्र में किये गये वायदे के बावजूद किसानों के कर्जे माफ नहीं किये गये। प्रदेश में श्रम कानूनों का पालन नहीं किया जा रहा है और मुख्यमंत्री उद्योगपतियों से मशविरा करने में ही मशगूल रहते हैं। कन्या विद्या धन का वायदा भी अधूरा रह गया। बेरोजगारी भत्ता भी कुछ हजार लोगों को ही मिला बाकी अभी भी रास्ता देख रहे हैं। जितना लैपटॉप खरीदने में पैसा खर्च नहीं अटल किया गया उससे ज्यादा उसके वितरण के कार्यक्रमों में खर्च हुआ।

भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने मुजफ्फरनगर और उसके आस-पास की घटनाओं का जिक्र करते हुए कहा कि आजादी के बाद यह पहला मौका है जब एक लाख लोगों को पलायन कर शिविरों में रहने को मजबूर होना पड़ा है। उन्होंने प्रदेश सरकार से सवाल किया कि कौन है इसका जिम्मेदार? उन्होंने कहा कि मोदी को प्रधानमंत्री का प्रत्याशी भाजपा ने दंगे करवाने के लिए ही घोषित किया है लेकिन 27 अगस्त से 7 सितम्बर तक सपा सरकार कर क्या रही थी? उन्होंने कहा कि मुलायम परिवार अपने राजकुमार को मुख्यमंत्री की ट्रेनिंग दे रहा है और उत्तर प्रदेश की 20 करोड़ जनता उसका खामियाजा भुगत रही है। उन्होंने कहा कि आज तक जो चला है वह आगे नहीं चलेगा, सरकार रहे या जाये, साम्प्रदायिकता को हम चलने नहीं देंगे। उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि संसद में वामपंथ का प्रतिनिधित्व पहुंचाना सुनिश्चित करें। उन्होंने 21 अक्टूबर को जनता के सुलगते सवालों पर जिलों-जिलों में सफल सत्याग्रह करने का आह्वान भी किया।

भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के सचिव एवं अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव अतुल कुमार अंजान ने आज की रैली को उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सन्नाटे को तोड़ने वाली रैली बताते हुए कहा कि कुछ लोग लोकतांत्रिक परम्पराओं को खत्म कर देना चाहते हैं। किसानों-मजदूरों के वोटों को छीनने की तैयारियां की जा रही हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस कहती है ”मीलों हम आ गये, मीलों हमें जाना है।“ परन्तु वह आम जनता को खाक में मिलाने की ओर बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि जब अटल प्रधानमंत्री बने थे तो आटा 5 रूपये किलो था, जब गये तो 12 रूपये किलो पहुंच गया था। इसी तरह हर जिन्स के दाम दो-तीन गुने बढ़ गये थे। मोदी द्वारा लाल किला और लोकसभा का मॉडेल बनाकर भाषण करने के अंदाज पर कटाक्ष करते हुए कहा कि व्याकुल मोदी न तो लाल किले की प्राचीर से भाषण दे सकेंगे और न ही लोकसभा में अपनी बात रख सकेंगे। उन्होंने कहा कि मुलायम सिंह जी संसद में बताते रहे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक शक्तियां काम कर रही हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में उनकी गतिविधियों को रोकने के लिये उनकी सरकार ने कुछ भी नहीं किया।

भारतीय खेत मजदूर यूनियन के महामंत्री नागेन्द्र नाथ ओझा ने जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि खेती, व्यापार, उद्योग, शिक्षा को जनोन्मुखी बनाने के लिए नीतियां बदली जायें और वैकल्पिक नीतियों को लागू किया जाये। उन्होंने कहा कि केवल किसान ही आत्म हत्या नहीं कर रहे हैं बल्कि ग्रामीण मजदूर बड़ी संख्या में या तो भूखों मर रहे हैं या फिर आत्महत्या कर रहे हैं।  मनरेगा में काम नहीं मिलता। 12 करोड़ से ज्यादा के पास जॉब कार्ड हैं। उनमें से केवल 4 करोड़ को ही मनरेगा में काम मिला, उसमें भी केवल 13 लाख को ही साल भर में 100 दिन का काम मिला। उत्तर प्रदेश में तो हालात और ज्यादा खराब रहे हैं - चाहे बसपा की सरकार रही हो या वर्तमान सपा की सरकार हो। अनाज घोटाले में सैकड़ों मुकदमें न्यायालयों में विचाराधीन हैं। उन्होंने कहा कि देश में सब कुछ संकट में है। व्यक्ति बदलने से काम नहीं चलेगा। नीतियां बदली जायें। मोदी के नाम पर साम्प्रदायिकता भड़काई जा रही है। तालाब में मछली पालने के बजाय लाश पालने वाले राजनीतिज्ञों से जनता का भला नहीं होने वाला है। उन्होंने उपस्थित जन समुदाय से साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम करने का आह्वान किया।

रैली को सम्बोधित करने वाले अन्य प्रमुख वक्ता थे - माकपा के राज्य सचिव डा. एस. पी. कश्य, फारवर्ड ब्लाक के राम दुलारे,  एटक के राष्ट्रीय सचिव सदरूद्दीन राना, अखिल भारतीय नौजवान सभा के अध्यक्ष आफताब आलम, अखिल भारतीय स्टूडेन्ट्स फेडरेशन के अध्यक्ष परमजीत ढांबा। सभा का संचालन भाकपा के राज्य सह सचिव अरविन्द राज स्वरूप ने किया। सभा की अध्यक्षता श्रीमती हरजीत कौर, सुरेन्द्र राम, विश्वनाथ शास्त्री, अशोक मिश्र, इम्तियाज बेग, विनय पाठक के अध्यक्षमंडल ने की।

Sunday, 29 September 2013

MERA LAL ZULMO KA KATIL BANEGA---Anand Prakash Tiwari

AAP SUB PAHUCH RAHE HAIN N ???


MERA LAL ZULMO KA KATIL BANEGA

LUCKNOW 30 Sep.2013, UP ki Rajnitik darwaze par Dustuk dene za raha hai.Yahi se Bampanthi Dilly ka rasta bhi napenge. Lambe urse ke bad CPI Lucknow me rally kar rahi hai.Maksad sust pare sangthan ko utsahit kar Kendra aur Pradesh sarkar ki galat niteeyo aur Brashtachar ke khilaf jung ka elan karna hai .Satta pakchh ke sath hi Vipakchh bhi aam zan ke pakchh me zimmedari nhi nibha raha hai.koi Farzi Lalkile se sombodhan karke santusht hai to koi apna hi Addhyadeh far kar.Desh me iss arazakata ke mahaul ko niyozit Karen ke liye LEFT, ko chintanshil logo ke saith ekzoot hokar Netritwa ke lite samne Alana hi hoga.
Vaikulpik Rajnitik Manch ko mazboot aadhar Dena hi hoga .is me kewal sahyog nahi varan Sahbhagita bhi karni hogi..
Rally subah 10 baze Charbag Railway station se shuroo hokar, Varlington chauraha, Quisarbag chauraha, Parivartan chauk hotel huye Jyotiba foole Park pahunchegi.waha Jansabhame LEFT POLITICS ka UDGHOSH hoga.
AAP SUB PAHUCH RAHE HAIN N ???

JPC report biased to favour Manmohan and Chidambaram----- Gurudas Gupta.



JPC report draws flood of dissent from members

Facts suppressed, report biased to favour Manmohan and Chidambaram, alleges Gurudas Gupta.

In his dissent note, CPI Lok Sabha member Gurudas Dasgupta blamed Prime Minister Manmohan Singh and Finance Minister P. Chidambaram and said they were “morally and legally” responsible for causing enormous losses to the exchequer.

Terming the report, adopted with a voting pattern of 16:11, a “cover-up” operation, Mr. Dasgupta said “a fraud has been played, facts have been suppressed and it is biased to favour them [PM and FM]. Parliament’s mandate has also been violated”.

Mr. Dasgupta alleged that Dr. Singh “chose to stay silent” on a note prepared by his Cabinet Secretary and “took no action on it”. The Cabinet Secretary had said that the actions of the Telecom Department (DoT) were illegal and would cause a loss of over Rs.30,000 crore to the exchequer.

Mr. Chidambaram too, he alleged, chose not to act on the feedback given by his ministry officials, first interacting with then Communications Minister A. Raja on January 30, 2008, to discuss the issue of pricing.

“… Mr. Raja [was] of course the villain of the piece, but he certainly would not have been able to do it had he not got the tacit support of the entire government machinery,” Mr. Dasgupta said.

“[The] nation suffered a loss because of the government’s failure to act. It was not just the DoT which executed the illegalities and perpetrated losses, it was also tacit support from the other wings of the government which allowed the DoT to perpetuate its illegalities,” he said.

“Raja could not have carried out illegalities without tacit support of the government”

PM, FM chose

Saturday, 28 September 2013

उत्तर प्रदेश की राजनीति का एजेंडा बदल देगी भाकपा की 30 सितम्बर को लखनऊ में होने वाली विशाल रैली

Press conference of CPI State Secretary Dr Girish
लखनऊ,27 सितम्बर 2013

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य एवं राज्य काउंसिल के सचिव डा. गिरीश ने आज यहां पार्टी के राज्य कार्यालय पर एक प्रेस वार्ता को सम्बोधित किया। प्रेस वार्ता का सारांश प्रस्तुत है।

उत्तर प्रदेश की राजनीति का एजेंडा बदल देगी भाकपा की 30 सितम्बर को लखनऊ में होने वाली विशाल रैली :


आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों ने समूचे देश और उत्तर प्रदेश को आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक हर तरह से जकड़ रखा है। देश और प्रदेश हर क्षेत्र में गिरावट के संकट से जूझ रहा है। औद्योगिक, कृषि और सेवा क्षेत्र प्रत्येक में उत्पादन में भारी गिरावट आई है। जीडीपी हो या विकास दर सभी में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की जा रही है। डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में भी अभूतपूर्व गिरावट हुई है। परिणामस्वरूप आयात महंगा हुआ है और निर्यात सस्ता। निर्यात कम हुआ है और आयात बढ़ा है। इससे अर्थव्यवस्था का संतुलन बिगड़ा है, बेरोजगारी बढ़ी है, महंगाई बढ़ी है और भ्रष्टाचार ने भी सारी सीमाएं लांघ दी हैं। आम आदमी का जीवन कठिन से कठिनतर हो चुका है। गत दो दशकों में संप्रग की सरकारें हो या राजग की सरकारें - दोनों ने आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों को लागू किया है और देश संकट के मौजूदा दौर में प्रवेश कर गया। सपा, बसपा तथा अन्य क्षेत्रीय दलों ने भी अपने शासन में इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाया है। उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार आज भी खुले तौर पर इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ा रही है। यही वजह है कि आज उत्तर प्रदेश चहुंतरफा संकट का सामना कर रहा है।
इस संकट के चलते आम जनता - खासकर किसानों, कामगारों, नवजवानों और मध्यम वर्ग सभी में भारी आक्रोश व्याप्त है, जिसका सामना पूंजीवादी पार्टियां और उनकी सरकारें कर नहीं पा रहीं हैं। उनके पास इस संकट से निजात दिलाने वाली नीतियां और कार्यक्रम भी नहीं हैं।
अतएव इस जनाक्रोश को विभाजित करके ही वे सत्ता में बने रहना चाहती हैं। भाजपा और संघ परिवार इसके लिए घृणा और नफरत फैला कर साम्प्रदायिक हिंसा को भड़का रहे हैं तो कांग्रेस इस विभाजन के विरोध के नाम पर वोट की राजनीति कर रही है। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा और संघ परिवार ने गत एक साल में छोटे बड़े लगभग 100 दंगे कराये और सपा की सरकार ने इन दंगों की आड़ में अल्पसंख्यक वोट समेटने की ओछी राजनीति की। बसपा और लोक दल जैसी पार्टियां भी वोटों के ध्रुवीकरण की आस में विभाजन की इस राजनीति को आगे बढ़ाने में जुटी रहीं। राजनैतिक दलों की इस आंख मिचौली ने मुजफ्फरनगर की घृणित त्रासदी को अंजाम दिया जिसकी बड़ी कीमत देश, समाज और आम जन को चुकानी पड़ रही है।
सत्ताधारी और विपक्षी दलों द्वारा पैदा की गई इस राजनैतिक जकड़बंदी को आज तोड़े जाने की जरूरत है। इसे आन्दोलनों और संघर्षों के जरिये ही तोड़ा जा सकता है। भाकपा लगातार इस दिशा में प्रयासरत है और स्थानीय से लेकर राज्य एवं देश स्तर तक के एक के बाद एक आन्दोलन चलाती रही है।
इसी उद्देश्य से भाकपा ने ”महंगाई, अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ, सद्भाव, विकास और कानून के राज के लिए“ 30 सितम्बर को राजधानी लखनऊ में एक विशाल रैली का आयोजन करने का निश्चय किया है। इस रैली के जरिये केन्द्र एवं राज्य सरकार की जनविरोधी नीतियों का पर्दाफाश किया जायेगा तथा साम्प्रदायिकता और जातिवाद के जरिये जनता को विभाजित करने की कोशिशों को भी उजागर किया जायेगा। आम जनता के सवालों पर राष्ट्रपति और राज्यपाल को सम्बोधित एक ज्ञापन जिलाधिकारी के माध्यम से भेजा जायेगा। यह ज्ञापन ही आने वाले दिनों में भाकपा द्वारा छेड़े जाने वाले आन्दोलनो ंका आधार बनेगा और वामपंथी जनवादी ताकतों की एकता की धुरी बनेगा। भाकपा को उम्मीद है कि यह रैली उत्तर प्रदेश की राजनीति को नई दिशा देने में कामयाबी हासिल करेगी।
प्रेस वार्ता में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश के साथ सह सचिव अरविन्द राज स्वरूप एवं राज्य मंत्रिपरिषद के सदस्य अशोक मिश्रा भी उपस्थित थे।
(डा. गिरीश)
राज्य सचिव

Friday, 27 September 2013

नेतृत्व बदलें वाम दल ---सोमनाथ चटर्जी


somnath chatterjee
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने बुधवार को कहा कि पश्चिम बंगाल में वाम दलों को नेतृत्व बदलने पर विचार करना चाहिए। उन्होंने उदारण देते हुए कहा कि टीम के खराब प्रदर्शन पर कोच को बर्खास्त कर दिया जाता है। उन्होंने कहा, "राज्य में वामपंथी राजनीति कमजोर पड़ गई है। मेरा वामदलों से आग्रह है कि सत्ता के भविष्य के लिए एक समीक्षा करें।" चटर्जी ने कहा, "प्रत्येक स्तर पर जीत जनरल, कप्तान और नेता पर निर्भर करती है। मैंने खेल में देखा है कि अगर टीम अच्छा प्रदर्शन करने में असफल होती है तो कोच को जूते पड़ते हैं। कुछ ऐसा ही किए जाने की जरूरत है।"

मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के पूर्व नेता चटर्जी, राज्य में स्थानीय निकाय चुनावों में वाम मोर्चा के पिटने के एक दिन बाद यह बात कही।  नगरपालिका चुनाव में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने आठ और कांग्रेस ने दो पद जीते। जबकि वाम मोर्चा ने सिर्फ एक नगरपालिका जीती। वर्ष 2008 में पार्टी से निष्कासित किए जाने से पूर्व चटर्जी कई दशकों तक माकपा के शीर्ष नेता रहे।

  एक कार्यक्रम के मौके पर मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा, "हितों की रक्षा के लिए हमें, वास्तविक वाम राजनीति की जरूरत है। लेकिन यह राजनीति कमजोर हो गई है।"
 
साभार :
 
रजनीश के झा /आर्यावृत

Thursday, 26 September 2013

Hume lagta hai ab samay aa gaya hai--- Anand Prakash Tiwari






Hume lagta hai ab samay aa gaya hai apni Sangathnik kamjoriyo ko sarwzanik Karen ki.Sangthan par kuchh log kundl mar kar bait gaye hain. Sangthan me aamud band ho gayi hai.Members kunthit hokar baithate za rahe hain.Padadhikari hat as hain.Niteeya babti hain lekin lagu nhi ho pati .Netao ki karyashaily se karyakarta aur zanta confuse hain.
Loksabha me taqut kaise barh payegi.?
Kahan, kaun, chunaw lar kar kaise jeetega, ?Karya yozna ban paying hai kya?
Jaha chunaw Lara Jana hai Waha karyakartao ke beech aatm munthan hua ?
Hum apne samarthko ke sompark me hai??


Anand Prakash Tiwari

Wednesday, 25 September 2013

Massive march to Parliament on 12th December, 2013---Gurudas Dasgupta



All the eleven recognized trade unions of the country, AITUC, INTUC, BMS, CITU, HMS and six others have called for protest throughout the country in the States' capitals demanding implementation of the 10-point charter they have formulated which begins with the demand that the Government should take steps to curb sky high prices of food articles along with the other demands, kaam kaa daam chaiya, equal benefit for the contract workers, no job cut, no wage cut, no disinvestment of profit making public sector. The charter also demanded a welfare fund to be set up by the government to provide pension to the senior rural workers and maternity benefit to all working women. There was two-day general strike on 20th and 21st February, 2013, government had merely appointed a four member cabinet committee headed by Mr. Antony, which also included Mr. Chidambaram. The Committee had several meetings with the trade unions but had not reached to any conclusion. As a result, another phase of agitation has begun, next will be a massive march to Parliament on 12th December, 2013.
The rising tornado of the trade union movement and increasing unity among the workers is the only silver lining of protest against the bulldozing economic policy of the country. Trade Unions need your support. My appeal to my friends is to come forward expressing solidarity to the fighting working masses who actually produce wealth to benefit the nation but they themselves are denied the basic right of their human living.

Tuesday, 24 September 2013

VK Singh controversy: CPI demands CBI probe into claims made by former army chief---Atul Anjan




Communist Party of India leader Atul Anjan on Saturday lashed out at former Army chief General (Retd.) V.K. Singh over the recent allegations leveled against him, and said that there should be a Central Bureau of Investigation (CBI) probe into the entire episode so that the national interest is not compromised.

"The Communist Party of India demands that the claims made by the Army Chief and the evidence that emerged in the report is thoroughly investigated by the CBI. The investigation report should be put before the country within three months, and not longer," Anjan said.

"If he thinks that all of this is in national interest, he should state it publicly. But being the ex-Army chief, it is not appropriate for him to make these controversial statements. He loves to make these controversial statements just to remain in the limelight," Anjan said.

"He should not indulge in these activities because the common man will not accept it," he added.

Saying the allegations made by VK Singh are serious, Anjan accused the former Army chief of misusing intelligence services and wasting public money to destabilize the Central Government.

"The General is making all kinds of allegations. Since he became the chief of the Indian Army, he has been surrounded by controversies. He is trying to topple a democratically elected government by misusing intelligence units and putting surveillance on several politicians and wasting money on it," Anjan said.

Anjan also suggested that people in apolitical positions must keep away from politics for a period of 10 years after retirement
as they hold secret information of the country, which may be compromised.

"People in constitutional positions of law and order should not be allowed to enter politics till 10 years after retirement because they have been in close quarters to pivotal secret information of the country. They should sign a bond or affidavit in this regard," Anjan suggested.

Former chief of army staff General VK Singh on Saturday strongly rejected allegations that he had misused a technical services division (TSD) created by him when he was army chief to unseat the National Conference-Congress-led government in Jammu and Kashmir, or to target senior army officers, including present army chief General Bikram Singh.

"What the J and K Chief Minister is saying is motivated and is his personal agenda," General Singh said. "If this unit (TSD) was allowed to function properly, the cross border terrorism you are seeing today, would not have happened," he further stated.

"Anyone who says that this (TSD) is a private army, doesn't know anything about the armed forces," General Singh said.

Emphatically stating that he would wholeheartedly welcome a White Paper on the entire controversy that was being linked to him, he said: "There are a lot of probes going on, what has happened to them? This is an orchestrated campaign against me by a few people."

"This is very interesting. I have been accused of toppling the Indian Government, and now the Jammu and Kashmir government. It is hogwash," General Singh said, adding that he was being targetted because he had shared the dais with BJP leader Narendra Modi at an ex-servicemen's rally in Rewari, Haryana last Sunday.

Singh said the Indian Army in Jammu and Kashmir works solely to stabilise, and said that the allegations against him are part of a vote bank agenda in the lead-up to the 2014 general elections in the country.

General Singh also denied having any close links with the Bharatiya Janata Party (BJP), and said he is a nationalist whose main mission has been to awaken the people and create awareness to ensure that there is a corrupt-free system in the country.

"If being a nationalist, if thinking about the nation always portrays you as BJP, then I think people need to get their heads examined. I have got good relations with all parties. It's not just BJP. I go anywhere with anybody whom I feel is going to do well for this country," he said in an exclusive interview.

Media reports has claimed that General (Retd.) Singh set up a special unit in the army which tried to destabilize the Jammu and Kashmir government. The report claims that a secret Board of Officers inquiry has recommended that the CBI look into the matter.

Confirming the findings of an army inquiry panel into the dubious workings of a secret intelligence unit set up in 2010 by General (Retd.) Singh, the government on Friday said it had taken steps to prevent such "undesirable activities", but was yet to decide about ordering a CBI inquiry.

Media report also claims that the unit set up by General (Retd.) Singh called the Technical Services Division (TSD), a part of Military Intelligence, tried to block General Bikram Singh's promotion.

The reports said that the Board of Officers' recommendation has been examined by the Prime Minister's Office (PMO) and the Ministry of Defence.


साभार:
(Dinesh Reghunath R shared Communist Party of India's photo.)

Monday, 23 September 2013

Adhar cards not compulsory, don’t give them to illegal immigrants: SC ---(Dinesh Reghunath R)


New Delhi: In a significant development, the Supreme Court on Monday ruled that Aadhar cards are not mandatory even as various state governments insist on making it compulsory for a range of formalities, including marriage registration, disbursal of salaries and provident fund among other public services.

A bench of Justices BS Chauhan and SA Bobde said, "The Centre and state governments must not insist on Aadhar cards from citizens before providing them essential services."

The apex court also directed the central and the state governments not to issue the Aadhar cards to illegal immigrants.

The apex court, while trashing the Centre's claim of Rs 50,000 crore expenses on the UIDAI project, said that Aadhar card is not necessary for important services.


The apex court passed the order in response to a PIL pleading it to examine the "voluntary" nature of the Aadhaar cards. The PIL was filed by Justice KS Puttaswamy, a retired judge of the Karnataka High Court recently.

In the PIL the petitioner had also sought an immediate stay on the implementation of the scheme.

"The scheme is complete infraction of Fundamental Rights under Articles 14 (right to equality) and 21 (right to life and liberty). The government claims that the scheme is voluntary but it is not so. Aadhaar is being made mandatory for purposes like registration of marriages and others. Maharashtra government has recently said no marriage will be registered if parties don't have Aadhaar cards," the petitioner said.

The petitioner asserted that the issue required a meticulous judicial examination by the Bench since it raised questions not only over the government's authority to implement the scheme, but also highlighted the perils of the manner of its implementation.

The Bench accepted his arguments and agreed to hear his contentions on the interim stay as well on Sep 23 while asking the centre and state governments to file their replies.

In its reply, the Centre had earlier claimed that for an Aadhaar card, consent of an individual was indispensable and hence it was a voluntary project, with an objective to promote inclusion and benefits of the marginalised sections of the society that has no formal identity proof.

Sunday, 22 September 2013

Sad commentary on the market dominated economic policy of the Government---Gurudas Dasgupta


Mr. Raghuram Rajan, the new Governor of RBI, taking into consideration the inflation which is double digit today, has resorted to the same measure as his predecessor had done. He has increased the repo rate, rate at which banks borrow money from the RBI. It will make bank loan costlier and is likely to increase the deposit rate benefiting the people who are fix depositing in banks. Mr. Chidambaram always criticised the earlier Governor for increasing the interest rate. Now what is his reaction? The present Governor is close to him.

This monetary measure is not going to bring down the inflation. This has been tried for the last four years. Therefore, there is not going to be any relief to the people. What is important is to curb prices by increasing production, stop forward trading and stockpiling. It is also essential to curb speculation and stop the economy from being a speculative economy. It is also necessary to curb the luxurious import, import of luxury goods and also resort to price fixing of essential commodities, strengthen the Public Distribution System. Agricultural production must be boosted. If no comprehensive measures are taken like this, it is wrong to believe that the prices will come down and difficulties of the common people will be ameliorated. But the Government is not likely to do it because they believe market will bring down the prices.

It is a sad commentary on the market dominated economic policy of the Government.

Saturday, 21 September 2013

”महंगाई, अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ! सद्भाव, विकास और कानून के राज के लिये!!"---डॉ गिरीश

 
 कामरेड डॉ गिरीश ,राज्य सचिव -भाकपा,उत्तर प्रदेश


भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं जन संगठनों द्वारा 30 सितम्बर को राजधानी लखनऊ में एक विशाल रैली आयोजित की जा रही है। इस रैली में भाकपा एवं जन संगठनों के कई वरिष्ठ नेतागण भाग लेने लखनऊ पधारेंगे।
उपर्युक्त जानकारी देते हुए भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने 19 सितम्बर को लखनऊ में   बताया कि इस रैली के प्रमुख वक्ता भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी होंगे। इसके अलावा आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की सचिव अमरजीत कौर, अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव अतुल कुमार अंजान, भारतीय खेत मजदूर यूनियन के महासचिव नागेन्द्र नाथ ओझा, अखिल भारतीय नौजवान सभा के अध्यक्ष आफताब आलम, आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के अध्यक्ष परमजीत ढाबां एवं वह स्वयं भी सम्बोधित करेंगे। अन्य वामदलों के प्रादेशिक नेताओं को भी एकजुटता प्रकट करने हेतु आमंत्रित किया गया है।
रैली के आयोजन के उद्देश्यों के बारे में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने बताया कि केन्द्र और उत्तर प्रदेश की सरकारें लगातार जनविरोधी कामों को अंजाम दे रही हैं। इससे आम लागों के कष्ट और कठिनाईयां बेहद बढ़ गयी हैं। अपनी बदहाली के चलते लोगों में दोनों सरकारों के प्रति भारी गुस्सा है। इस गुस्से को आगामी लोक सभा चुनावों में अपने-अपने पक्ष में भुनाने के लिये साम्प्रदायिक एवं जातिवादी दल घृणित खेल खेल रहे हैं। मुजफ्फरनगर का दंगा इसी खेल का परिणाम है जिसमें भाजपा ही नहीं, कंाग्रेस, बसपा और सपा के नेता लिप्त पाये गये।
भाकपा एवं वामपंथ महसूस करता है कि जनता के इस गुस्से को सही दिशा दिये जाने की आवश्यकता है वरना इसका फायदा वही पूंजीवादी पार्टियां उठा ले जायेंगी जिनके काले कारनामों, निकम्मेपन एवं अवसरवादी नीतियों की वजह से यह जनाक्रोश पैदा हुआ है।
भाकपा जनता के ज्वलंत सवालों पर लगातार आन्दोलन चला रही है ताकि जनता के सामने एक वामपंथी जनवादी विकल्प पेश किया जा सके। इन्हीं आन्दोलन के अगले चरण के रूप में 30 सितम्बर को प्रदेशव्यापी रैली लखनऊ में की जा रही है। रैली की केन्द्रीय विषयवस्तु है - 
”महंगाई, अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ!
सद्भाव, विकास और कानून के राज के लिये!!"
रैली में उन सभी बिन्दुओं पर चर्चा होगी जो आज प्रदेश एवं देश की तमाम मेहनत करने वाली जनता को व्यथित कर रहे हैं।


Friday, 20 September 2013

Modi’s rise, UP violence inter- related: A B Bardhan

New Delhi: Communist Party of India ( CPI) on Sep 18,2013 exhorted the Muslim community to side with the secular forces in the country to defend secularism and social harmony saying that the naming of Narendra Modi as the prime ministerial candidate for the 2014 Lok Sabha polls and communal holocaust in Western UP are inter- related developments.

“ These two developments are part of the BJP’s well- planned electoral strategy aimed at reaping harvest in the ensuing general elections,” CPI veteran A B Bardhan said in an interview to UNI.

 Bardhan also impressed upon the Samajwadi party to correct its” bhool”( Mistake)and take urgent measures to restore confidence of the minorities, reestablish its credentials of secularism and good governance.

 The CPI veteran maintained that that the two developments had cast their shadow on the political scenario and would bring about far reaching consequences for the country.

  Putting the developments into perspective, he said these  had demonstrated beyond doubt that the RSS had now the tightened its grip over the BJP and that its dictates had to be complied with under all circumstances.

  These also showed that the as the Lok Sabha polls were drawing nearer, the BJP had become” bekrar( impatient) and it has decided  that only the aggressive Hindutava  could fetch it some more seats.

 Besides, Mr Modi, in an attempt to present himself a secularist and development- oriented, he was  managing some people coming in his rallies clad in burquas and  wearing skull caps to show that the minorities are also with him.

 He said the people had yet not forgotten the 2002 Gujarat massacre while Modi and the BJP were trying to make them forget the same by beating drums about his development model.

 On the other hand he said the BJP was trying its best to en cash on the people’s disillusionment with the Congress led UPA government’s failure to contain sky rocketing prices of essential commodities, downfall of economy and all prevailing corruption.

 He said it is true that  now there is  ”the little” possibility of the UPA returning to power at the Centre in 2014 as the people have developed great dislike and disdain for its rule”.

“ The BJP and the Sangh Parivar want to en cash this people’s anger for political benefit, but they are underestimating the roots of secularism in our country. Countrymen see Modi as the one who divides the people, so they will not accept him as their prime minister.” He said.

 The CPI veteran said all the more it had also be noted that the BJP has no worthwhile existence in the Southern and Eastern states. So they will not succeed in forming a government at the Centre despite their hard try.

 At present only two small parties- the Akali Dal and the Shiv Sena are with the BJP while during the Atal Bihari Vajpayee government it led  a 22 party coalition.” So therefore the dream of Modi and the BJP will remain unfulfilled.”

 He said these two developments did not augur well for the minorities in the country.” For them there is only one option now that they should join the secular forces. In this task the Left parties will have a great role to play. They will definitely unite all  such forces on a single platform.”

 On  Akhilesh Yadav government’s failure to contain communal violence that claimed 48 innocent lives, over 100 seriously injured and led to displacement of 40,000 people and devastation of property worth million of rupees and displacing thousands of others, said it might have initially imagined that the communal tension, spread by the BJP, would help them politically.


“ But the tension was so deep and that it was allowed to increase to the extent that the minorities were forced to flee their homes and lands to save their lives. The incompetence of the Samajwadi government has caused great anguish among the Muslim community, Bardhan added.

Wednesday, 18 September 2013

राजनीति से निरपेक्ष संस्कृति या तो अराजकता लायेगी या फिर फासिज्म और अंधविश्वास बढ़ाने वाले बाबा पैदा करेगी---जितेन्द्र रघुवंशी

 http://iptanama.blogspot.in/2013/08/blog-post_26.html

26 अगस्त 2013 को  'इप्टानामा'पर प्रकाशित यह लेख साभार उद्धृत किया जा रहा है:

संस्कृति को अपनी राजनीति तय करनी पड़ेगी

इप्टा के महासचिव 
जितेन्द्र रघुवंशी का यह साक्षात्कार ‘परिकथा’ के लिए सचिन श्रीवास्तव ने लिया था। 
रंगकर्म के साथ जितेन्द्र जी को लंबा सांगठनिक अनुभव भी है। यह साक्षात्कार नाट्य -लेखन से लेकर नाट्य-प्रस्तुति और अंततः दर्शक-संवाद तक रंगकर्म की विभिन्न प्रक्रियाओं तथा उसके सामाजिक सरोकारों की बारीक पड़ताल करता है। एक प्रतिबद्ध रंगकर्मी के लिए नाट्य-चिंतन के जितने पहलू हो सकते हैं, कमोबेश वे सारे आयाम इस साक्षात्कार में देखे जा सकते हैं: 


0जितेन्द्र जी,  शुरुआत  बिल्कुल प्रारंभिक दौर से करते है। पहले थियेटर के प्रति अपने झुकाव- लगाव के बारे में बताइए।
00 हमारा परिवार शुरू से ही इप्टा से जुड़ा रहा। पिताजी राजेन्द्र रघुवंशी इप्टा के संस्थापक सदस्यों में रहे थे। आगरा में उन्होंने बिशन खन्ना जी के साथ मिलकर 1 मई 1942 को आगरा कल्चरल स्क्वाड की स्थापना की। इन्हें प्रेरणा मिली  थी बंगाल कल्चरल स्क्वाड से । इसके बाद 1943 में बंबई में इप्टा के पहले सम्मेलन में वे गये थे। सम्मेलन के बाद आगरा में यह संस्था इप्टा की इकाई के रूप में कार्य करने लगी। हमारी माताजी अरुणा रघुवंशी भी रंगमंच से जुड़ी थीं। वे आगरा में थियेटर से जुड़ने वाली पहली महिला थीं उन्होंने प्रेमचंद की कृति ’गोदान’ पर आधारित नाटक में धनिया की भूमिका निभायी थी। कलकत्ता में 1952 में इसका एक शानदार प्रदर्शन हुआ था।  करीब एक लाख लोगों के सामने इस नाटक का मंचन हुआ था। बताते हैं कि उस वक्त मैं डेढ़ साल का था और माँ का रोल आता था तो मुझे किसी और की गोद में दे दिया जाता था। अपना सीन करने के बाद मां फिर गोद में ले लेती थीं। इस तरह पलना-बढ़ना ही रंगमंच पर हुआ। 1957 के दिल्ली सम्मेलन की कुछ धुँधली यादें हैं  मुझे । यहाँ नटराज नगरी बसायी गई थी। बचपन तो इसी तरह बीता, रंग संस्कारों के साथ।

0 इस तरह आपका बचपन ही नाटकों गीतों और इप्टा के साथ बीता लेकिन सघन जुड़ाव कब हुआ? कब तय किया कि इसी तरह से दुनिया में रहना है ?
00 सजग  रूप से  नाटक  से  जुड़ाव 1968 में इप्टा की 25वीं सालगिरह पर हुआ। इस मौके पर आगरा में एक बड़ा समारोह आयोजित किया गया था। साथ ही कॉलेज के दिनों में नाटक से लगाव गहरा होता गया। चूंकि हमारा पूरा परिवार ही इप्टा से जुड़ा था, छोटे भाई शैलेन्द्र, दिलीप रघुवंशी और बहन ज्योत्स्ना, परिवार की वधुएँ भावना, कुमकुम एवं दामाद कुं. अजीत कुमार सिंह और हम सभी के बच्चे भी इप्टा और रंगकर्म से जुडे़ हैं , इसके अलावा कुछ और सोचना न तो जरूरी था और न हो सका।

0 वह जो दौर था, जिसे पढ़ते, याद करते हुए हम सभी उत्साह से भर जाते हैं। उस दौर के कौन से चेहरे आपको याद आते हैं? वह याद कैसी है?
00 वास्तव में उन लोगों की याद बहुत वेदनादायक है। वे सभी लोग आज भी याद आते ही हैं। मान लीजिए, उस वक्त कोई गीत या नाटक याद आता था तो किसी को भी फोन करके पूछ लेते थे कि फलाँ गीत किसने लिखा है, या फलाँ नाटक किसका है। आज यह स्थिति नहीं है। जो पहला दौर था इप्टा का या यूँ कहें कि रंग आंदोलन का, उसमें विभिन्न टीमों के लोग कला में तो पारंगत थे ही, वे स्पष्ट राजनीतिक समझ भी रखते थे।

0 किस तरह काम करते थे तब?
00 उस वक्त उन लोगों ने आशु नाटक काफी किये। किसी भी जगह जाते थे तो वहाँ की समस्या देखी और बातचीत करके नाटक की स्क्रिप्ट फाइनल की और पात्र बाँट लिये। इसकी शुरुआत  तो 43 में ही हो गई थी, लेकिन 50 के दशक में यह उरूज पर था। अन्य इकाइयों ने भी आशु नाटक किये। इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए। आज नये प्रयोग हो रहे हैं। डायलॉग थियेटर, इनविजिबल थियेटर का भी दौर है। तो इन सबके बीच वे लोग याद आते हैं, जो अपने आप में एक संस्था थे और ऐसे लोग एक-दो नहीं थे । हर इकाई में दर्जनों ऐसे लोग थे।

0 उस दौर में तो इप्टा ही रंग आंदोलन का पर्याय था, तो  रंगकर्म से कौन से लोग जुड़ रहे थे तब ? उनके बारे में कुछ बताइये।
00 जहाँ तक आगरा का मामला है, तो यहाँ कुछ परिवार थे। वैसे तो पूरे भारत में ही नाट्यकर्म से जुड़े  कुछ परिवार रहे हैं। रंगकर्म है भी सामूहिक कार्य, सो सबसे पहले परिवार को ही जोड़ लिया जाता है। तब बिशन खन्ना जी का परिवार था। वह पिताजी के बहुत अच्छे मित्र थे। बाद में वे फिल्मों में भी गये और खूब नाम कमाया।   ’गांधी’ फिल्म में भी उन्होंने काम किया। उनके बड़े भाई श्रीकृष्णचंद्र खन्ना भी अच्छे कलाकार थे। इनके पुत्र अजय खन्ना जी (बाद में सितारवादक के रूप में ख्यात) ने 1950 में लिटिल इप्टा की पहली प्रस्तुति ‘डाकघर’  में  काम किया। तब आगरा में इप्टा के साथ बच्चों का संगठन लिटिल इप्टा और महिलाओं का संगठन विप्टा ( वीमेन्स इप्टा ) भी कार्य करते  थे। रमा जी, श्यामा जी, चंद्रलेखा जी ने विप्टा की पहली प्रस्तुति जो अमृता प्रीतम की कृति ’पांच बहनें’ पर थीं, में काम किया। इसमें  सभी स्त्री पात्र थे। मदनसूदन जी का पूरा परिवार ही इप्टा के साथ जुड़ा हुआ था। उन्होंने ‘अदाकार ’ (कलकत्ता), सत्यजित राय के टीवी सीरियलों व रेडियो में भी काम किया, उनका जल्दी निधन हो गया। उनकी माँ व भाई ओम प्रकाश सूदन भी  सहयोग करते थे। बहन डॉ निर्मल चोपड़ा थी। सांरगीवादक इस्माइल बेचैन थे। उनके भाई तबला वादक फैयाज खाँ थे। सितारवादक फड़के जी थे। नृत्य में डी.के. राय व बाबूलाल श्रीवास्तव थे। डॉ. सी. बी. सूद का परिवार था। उनकी बेटी भी रंगकर्म से जुड़ी थीं। डॉत्र रामगोपाल सिंह का परिवार भी था। इसके  अलावा जसूजा परिवार था। कुमार  जसूजा और उनके भाई स्वदेश जसूजा इप्टा  के शुरुआती  दिनो में काफी सक्रिय रहे थे।  इप्टा का जो आठवाँ सम्मेलन दिल्ली में हुआ था, उसमें उनका बडा योगदान था। स्वदेश जी तैयारी के लिए काफी पहले दिल्ली पहुँच गये थे। वे अच्छे अभिनेता तो थे ही, मंच के पीछे के कार्यों में भी  पारंगत थे। अमृतलाल  नागर जी का परिवार भी था। वे उत्तरप्रदेश इप्टा के अध्यक्ष भी रहे। उनकी बेटी अचला  नागर और बेटे शरद नागर ने भी लंबे समय तक काम किया। इसके अलावा लंबी  फेहरिस्त है, विभिन्न विधाओं से जुड़े लोगांे की । ये सभी लोग रंगमंच की शास्त्रीय समझ तो रखते ही थे, उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति में भी माहिर थे। उस दौर में ’चौपाल’ नृत्य नाटिका तैयार की गई थी, उसकी प्रस्तुतियों की तो गिनती ही नहीं है। बाहर जाकर भी कई पीढ़ियों ने वह नाटक किया। ‘गठबंधन’ को तो विश्व शांति परिषद को जूलियो क्यूरी पदक मिला। ये सभी अग्रज हमारे विनम्र प्रणाम के हकदार हैं।

0 आज क्या फर्क देखते हैं, उस दौर में जो रंगकर्म हो रहा था और आज का जो रंगकर्म का परिदृश्य है, उसके बीच कौन- सा साम्य या दूरी है ?
00 हम दो दौरों की तुलना करें तो इप्टा की बहुत बड़ी भूमिका देश के सांस्कृतिक परिदृश्य में है, लेकिन इधर मुझे यह देखकर अचंभा होता है कि इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ -दोनों की  भूमिका को 50  और 60 के दौर तक ही समाप्त मान लिया जाता है। अभी दिल्ली में एक बड़ा सेमीनार हुआ, उसमें भी चर्चा का केन्द्र यही  था। दूरदर्शन पर  चर्चाएँ होती हैं, तो विषय होता है कि इप्टा के समाप्त होने के क्या कारण हैं? देखिये, यह एक अणु की तरह है। एटम कभी खत्म नहीं होता। इप्टा के पिछले दौर में जो लोग जुडे़ थे, वे बहुत बडे नाम हैं। उनमें से बहुत से कलाकार महान हैं। उस दौर में संस्कृतिकर्म का एक ही आंदोलन था। उस समय के सभी सोचने-समझने वाले कलाकार इसमें शामिल थे। बाद में आजादी के बाद नये बदलाव आए और कुछ राजनीतिक भटकाव भी आये तो लोगों ने नई राहें चुनीं। उत्पल दत्त जी, शंभू मित्रा जी, हबीब तनवीर साहब जैसे बड़े लोग इनमें शामिल थे।

0 लेकिन ये लोग अलग हुए तो इप्टा पर नकारात्मक फर्क पडा? क्या इससे आंदोलन कमजोर हुआ ?
00 देखिए, ये  सभी  उसी परंपरा  को आगे  बढा रहे थे, उनकी राजनीतिक और सामाजिक भूमि घुमा-फिरा कर वही थी। उनकी  कला की जो वैचारिक और सौदर्यशास्त्रीय पंरपरा है, वह एक ही है। बाद में इप्टा से अलग होकर जो काम करने लगे, ये सभी उसी धारा के थे। जैसा कि मैंने पहले कहा कि पहले एक ही आंदोलन था, तो सब उसमें शरीक थे, बाद में कुछ अलग राह पर चल पडे़, लेकिन वे सब उसी धारा के हैं। पानी वही है सभी में। एक -दूसरे को वे प्रभावित भी करते हैं। कुल मिलाकर इप्टा का जो आंदोलन था, उसके अकेले हम ही वारिस नहीं हैं, जो इप्टा के नाम से काम कर  रहे हैं। आज ‘जन नाट्य मंच’, ‘जन संस्कृति मंच’, ‘नया थियेटर’, ‘एक्ट वन’, ‘एकजुट’, ‘निशान्त’, ‘सहमत’, ‘समुदाय’, ‘रंगकर्मी’ सहित और भी कई समूह हैं, जो वही काम कर रहे हैं।

0 यह जो 60-70 का दौर था,  उसमें वैचारिकता ज्यादा थी। नाट्य दल भी थे  और उनका  समाज और  राजनीति में हस्तक्षेप भी अधिक था। आज तक आते -आते यह बदलाव कैसे आया ?
00 इप्टा ने लगभग 60 के दशक तक एक आंदोलन की तरह काम किया।  राष्ट्रीय स्तर पर  वह एक नहीं रहा, लेकिन अलग-अलग इकाइयां काम  करती रहीं। फिर एक  लंबा गैप  आता है और 1985 में फिर इप्टा नये सिरे से परिदृश्य में आता  है। साठोत्तरी  मोहभंग के  बाद हताशा, मूल्यों का विघटन, एकाकीपन, संत्रास, ऊब जैसे शब्द खूब चर्चा में हैं, लेकिन यह जो 70 का दशक है, यह नई चेतना का समय है। दुनिया भर में नये आंदोलनों का उभार हुआ। फ्रांस से लेकर भारत तक। भारत में नक्सलबाड़ी चेतना आयी। इस नयी चेतना ने इप्टा के पुनर्निर्माण में भूमिका अदा की। इस तरह इप्टा की भूमिका इस दौर में भी रही। 90-  91 के बाद वाम राजनीति पर आघात भी लगा। बाबरी-ध्वंस और सोवियत- संघ का विघटन इसी दौर में हुआ लेकिन इप्टा इस दौर में भी अपना काम करती रही और बेहतर ढंग से कर रही थी। प्रतीक रूप से इप्टा पर डाक टिकट का जारी होना इसका उदाहरण है। इस दौर में सांस्कृतिक यात्राएं निकाली गईं। आगरा से दिल्ली तक, लखनऊ से अयोध्या तक, काशी से मगहर तक। स्वर्ण-जयंती भी मनाई गयी। याद कीजिए कि इस दौर में जो राष्ट्रीय नाट्य उत्सव हुआ उसमें छह में से तीन नाटक इप्टा के थे। तो रचनात्मक ऊर्जा तो इस दौर में भी रही है। 1985 से आज तक इप्टा का राष्ट्रीय संगठन निरंतर सक्रिय है। उसका विस्तार हो रहा है। 24 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में इप्टा की 600 से ज्यादा इकाइयाँ हैं।

0 तब फिर इस तरह के सवाल क्यों खडे हुए हैं, क्या खामी है?
00 देखिए, यह कह सकते हैं कि पुराने दौर में बड़े कलाकार थे, जो अब नहीं हैं। लेकिन संख्यात्मक रूप से आज ज्यादा अच्छी स्थिति है। इसे आप रंग-आंदोलन की तरह देखिए। पहले इप्टा अकेला संगठन था। आज रंग-आंदोलन में कई रंगमंडलों-संगठनों की भूमिका है। हमारे मित्र राकेश कहते हैं कि हबीब जी की जो एक यूनिट थी, उसने अपनी अलग पहचान बनाई और हम इतनी यूनिटों के बावजूद क्या कर रहें हैं, पहचान नहीं बना पा रहे हैं तो मेरा कहना है कि सही नहीं है कि पहचान नहीं बना पा रहे, ऊँचाई पर नहीं पहुँच रहे लेकिन ज्यादा जरूरी है कि जमीन पर ही विस्तार हो रहा है, यह बड़ी बात है -आज बहुत से युवा और बच्चे रंग आंदोलन में शरीक हो रहे हैं।

0 लेकिन वह युवा फिर चला भी जाता है, दूसरी राह पकड लेता है ?
00 देखिए, युवाओं की भागीदारी के कई स्तर हैं। एक तो वह युवा है, जो ग्लैमर के लिए थियेटर में आता है। उसे कहीं और पहुँचना होता है, सो वह ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाता है। यह एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा उन युवाओं का है, जो आत्माभिव्यक्ति के लिए थियेटर की तरफ आते हैं।

0यह तो हुई युवाओं की बात । बच्चों पर जो काम हो रहा है अलग-अलग राज्यों में, उसे आप कैसे देखते हैं ?
00 हिन्दुस्तान के अलग-अलग राज्यों में इप्टा का कलात्मक स्तर अलग है। काम करने का ढंग और हस्तक्षेप का तरीका भी अलग है। यह हालिया दृश्य  में पूरे  रंग-आंदोलन  में है। अशोक नगर, आगरा, भिलाई, रायगढ़ इंदौर, रायबरेली आदि इप्टा की यूनिट में बच्चों पर काम हो रहा है। यह बच्चों की नर्सरी है। यहां बच्चों को सिर्फ नाच-गाना ही नहीं सिखाया जा रहा है, बल्कि उन्हें पूरा रचनात्मक संस्कार दिया जा रहा है। देखिए, अगर एक बच्चा थियेटर से जुड़ता है, तो एक पूरा परिवार रंगमंच से जुड़ जाता है। यह महत्वपूर्ण बात है। एक सिलसिला बनता है, जो जारी रहता है। आज आगरा में लिटिल इप्टा की  तीसरी पीढ़ी काम  कर रही है। इसमें समर्पण है। वे चाहते हैं कि रोज नाटक हो, कोई बातचीत हो, कोई कहानी ही पढ़ी जाय, लेकिन हम नहीं कर पाते । युवाओं का बड़ा हिस्सा थियेटर को  व्यक्तित्व निर्माण का  अहम हिस्सा मानता है।  अब तो मैनेजमेंट के बड़े कॉलेज भी नुक्कड़ नाटक को अपने वार्षिक समारोह का हिस्सा बनाने लगे हैं।

0 लेकिन उसमें से वैचारिक पक्ष तो लगभग गायब ही रहता है?
00 देखिए, प्रसन्ना जी ने इस संदर्भ में बडी अच्छी बात कही है। इससे पहले बिहार के राष्ट्रीय सम्मेलन में भी उन्होंने यह कहा था कि पहले हम क्रांतिकारी नाटक करते थे, अब नाटक करना ही क्रांतिकारी कार्य है। इसी तरह कविता, पेंटिंग, अच्छी किताब की तलाश, यह सब सकारात्मक है। नाटक से व्यक्ति क्रांतिकारी कार्यों में पांरगत होता है, यह ठीक है। यह करना ही बड़ी बात है। आज के दौर में युवा यहाँ अनुशासन देखता है, सामूहिकता देखता है। जब वह अन्य जगहों से थियेटर की तुलना करता है, तो उसका दृष्टिकोण बनता है। आज आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और पूरी हिन्दी पट्टी में ग्रामीण इकाइयां गठित की जा रही हैं, इनमें लोक कलाकारों को जोड़ा जाना बहुत जरूरी है। युवाओं की भागीदारी भी है। अनुभव बताता है कि  शहरों में जो युवा निम्न  मध्यवर्गीय घरों  से आ रहे हैं, वे थियेटर  के लिए ज्यादा टिकाऊ हैं कोई कारीगर है,  कोई दर्जी है, कम्प्यूटर  हार्डवेयर के काम के जानकार हैं। इस तरह के युवाओं की भी  इच्छाएं हैं कि टी.वी. और फिल्मी परदे पर आयें, लेकिन वे अपने भीतर कला को जीवित रखते हैं, क्योकि उनके कार्यों में ही कला की परंपरा है।

0 ऐसे युवा तो कस्बों  में होंगे, लेकिन वहां उनके सामने आजीवका का संकट है। अगर उसे कोई राह मिलती है, तो वह बड़े शहरों की तरफ भागता है।
00 हमारे पिताजी कहते थे कि थियेटर करना ज्यादा मुश्किल होता जायेगा। रंगकर्मी को अपनी आजीविका के प्रति सावधान रहना होगा। आप देखिए कि पहले एक आदमी घर में कमाने वाला होता था, जरूरतें कम थीं और बाकी लोग अपनी रुचि के अन्य कार्यो को करते रहते थे। आजीविका का संकट नहीं था, आज है, बहुत बडा संकट है, यह व्यावहारिक दिक्कत है। आजीविका के लिए छोटे शहरों से पलायन हो रहा है, इसका अभी कोई इलाज हमारे पास नहीं है। लेकिन अच्छी बात यह है कि इसमें भी कई शहरों की कला बाहर जा रही है, इसे पॉजिटिव ढंग से देखें।

0 तो क्या अभी जो आप कह रहे थे, कस्बों के मध्यवर्गीय युवा कला सहेजने के लिए बेहतर है?
00 बिल्कुल । दर्शक संख्या के उदाहरण से इसे देखिए। शहर में करीब 1000 निमंत्रण पत्र तो आमतौर पर छपाये ही जाते हैं। वे बँटते भी हैं। एस.एम.एस. का जमाना है, तो वह भी सूचना का साधन है और अखबारो में भी नाटक की सूचना छप ही जाती है। इन सबके बावजूद  1000 की  क्षमता वाले हॉल में 700-800 दर्शक पहुचते हैं। दिल्ली, आगरा, लखनऊ, मुंबई, पटना, भोपाल जबलपुर जैसे शहरों में यह हालत है, जो सांस्कृतिक रूप से सचेत शहर माने जाते हैं। अन्य शहरों में तो हालत और भी खराब है। छोटे शहरों में यह  संख्या बढ जाती है, वहाँ ज्यादा दर्शक पहुचते हैं। गाँवों में नाटक करने पर तो पूरा ग्रामीण समाज ही दर्शक होता है। तो रास्ता तो यही है। कितने रंगमंडल बनेंगे और वे किस तरह से ग्रामीण समाज से, कस्बाई समाज से अपना लगाव बरकरार रखंेगे, यह जरूरी है। वे ही सर्वाइव करेंगे।

0 बाल इप्टा आगरा में लंबे समय  से काम कर रही है, इसके अनुभव को ध्यान में रखते हुऐ क्या देश के स्तर पर बाल रंगमंच के लिए कोई योजना है ?
00 भिलाई में  2006  में एक  राष्ट्रीय  बाल एवं तरुण नाट्य कार्यशाला  का आयोजन किया गया था, जिसमें इप्टा और अन्य संगठनों के लोग भी जुटे थे असम से, दक्षिण भारत से भी लोग आये थे। बच्चों का थियेटर अधिक संभावनापूर्ण है। यह दो तरह का है। स्कूलो में भी अब तो थियेटर को पढ़ाया जा रहा है। दो तरह की प्रस्तुतियां हो रहीं हैं। एक तो रिकार्डेड है, जिसमें संवाद, संगीत रिकार्ड कर अभिनय किया जाता ह,ै दूसरे सीधी प्रस्तुतियां है मंच की। अभी हाल ही में भिलाई सम्मेलन में भी इस पर अलग से एक सत्र रखा गया था। योजना है कि इस साल अंतर्राष्ट्रीय बाल रंगमंच दिवस को पूरे देश में मनाया जाय। अलग-अलग इकाइयाँ बच्चों पर काम कर रही हैं। इनके बीच समन्वय का काम भी है। कई इकाइयाँ बच्चों का मेला आयोजित करती हैं। दक्षिण भारत में बाल रंग मेलों की लंबी परंपरा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का जो पाठयक्रम है, संस्कार रंग टोली का वह अच्छा पाठयक्रम है। एन.सी.ई.आर.टी में भी एक पाठ्यक्रम तैयार हुआ है, कोशिश है कि इसे स्कूली शिक्षा का हिस्सा बनाया जाए जिससे युवाओं के रोजगार के रास्ते भी खुलेंगे और थियेटर भी सम्पन्न होगा।

0 आज नाटक लिखने वालों की  कमी है। हाल ही में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में भी आपने यह सवाल उठाया था। इस कमी को पूरा करने के लिए कोई कार्य योजना ?
00 हिन्दी में नाटक लिखने वालों की कमी है। असल में नाटक किसी रचनाकार की प्राथमिकता में नहीं है । हिन्दी के एक बडे़ कवि ने मुझसे पूछा कि इप्टा के गीतों की परंपरा रही है लेकिन अब गीत नहीं आ रहे हैं नाटकों में ? मैं कहता हूं कि आज हमारे कितने कवि हैं, जो गीत लिख रहे हैं? इकाइयाँ अपनी जरूरत के हिसाब से खुद ही गीत तैयार करती हैं और  उनकी चलताऊ-सी धुन बनाकर नाटक में इस्तेमाल कर लेती हैं। नाटक के लिए सजग रूप से काम करने की जरूरत है, नाट्य लेखन में भी और गीत लेखन में भी। हमारी कोशिश है कि कोई  कार्यशाला की जाय जिसमें  लेखक  और  निर्देशक  साथ -साथ हों। इस संबंध में देखते हैं कि कब कोई कार्य योजना बन पाती है। जयपुर में एक नाट्यशाला  का  प्रस्ताव है। नामवर  जी और हंगल साहब ने इस बारे में पहल भी की थी। एक पुरस्कार भी घोषित किया  गया था, लेकिन  हिन्दी में कम नाटक  आये और जो आये वे स्तरीय नहीं थे। दक्षिण की  भाषाओं में  कुछ अच्छे नाटक तैयार हुए हैं। हमें अनुवाद का भी काम करने की जरूरत है। अच्छी कृतियाँ देशकाल की सीमा से परे होती हैं, यह बात कहने की जरूरत ही नहीं है।

0 पिछला पूरा साल देश और विदेश में राजनीतिक और सामाजिक उथल - पुथल से भरा रहा। इस पर कोई महत्वपूर्ण नाटक दिखाई नहीं दिया। अच्छा और लंबे समय तक याद रहने लायक तो बिल्कुल भी नहीं ?
00 करीब तीन-चार दशक नुक्कड़ नाटक खूब चलन में रहा। यह तुरंत हुई घटनाओं पर प्रतिक्रिया की तरह ही था। अब इसे सरकार और कारपोरेट हाउस ने हथिया लिया है। वे अपने प्रोपेगैंडा में नुक्कड़ का इस्तेमाल करते हैं, तो हमारी दिक्कत यह है कि हमारा नुक्कड़ कैसे इनसे अलग हो ? आज नुक्कड़ नाटको पर नए ढंग से बात करने की जरूरत है। नुक्कड़ का मुहावरा बेहद रटा-रटाया हो गया है। एक रात मैंने 25 नुक्कड नाटक देखे और (कहना नहीं चाहिए लेकिन) तकरीबन मेरी तबियत खराब होने की स्थिति में पहुंच गयी। हमारे नुक्कड़ नाटकों में सत्ता का प्रतीक एक दीन -हीन सा पुलिसवाला होता है या जनता होगी तो गरीब है, गिड़गिड़ा रही है या पिट रही है। तो यह स्टीरियो टाइप है, जो शोषण का स्रोत है, जो पूंजीपति हैं, वह नुक्कड़ नाटक में गायब है।

0 तो दिक्कत कहां है?
00 यह बड़े लेखकों का काम है कि वे लिखें, अच्छे नाटक लिखें। आज के रंग आंदोलन को तो पापुलर कल्चर में भी हस्तक्षेप करना चाहिए, कुछ लोग कर रहे हैं यह अच्छी बात है। हमारे जो नजदीकी लेखक हैं, उनसे हम कहते भी हैं कि हमारे लिए कोई नाटक लिखिए। जावेद सिद्दीकी से, अतुल तिवारी से हमने अनुरोध किया है। जावेद अख्तर साहब ने तो एक बार मंच से नाटक लिखने की घोषणा भी की थी। उन्हें वक्त मिलेगा तो लिखेंगे। इनके पास अलग मुहावरा है, जो नाटक के लिए ताजगी देगा। हम तो चाहते हैं कि मिल जुलकर एक नाटक लिखा जाए, जिसकी एक ही दिन पूरे देश में प्रस्तुति भी हो।

0 नाटको के लिए पूंजी की समस्या हमेशा रही है। हमारे देश में कारपोरेट सत्ता और अन्य संस्थान हैं, जो पूंजी उपलब्ध भी कराते हैं लेकिन गंभीर थियेटर करने वाले समूहों को चाहे वह इप्टा हो जसम हो जनम या अन्य समूह, कहाँ तक कदम बढाने चाहिए? खासकर कारपोरेट पूंजी के सवाल पर आप क्या सोचते हैं ?
00 बहुलवाद भारत जैसे देश में हर स्तर पर है। सब काम कर रहे हैं और करते  रहें। महिद्रा थियेटर फेस्टिवल हो रहा है। उसकी भी अपनी तरह की जरूरत है। अकादमी से अगर कोई मदद मिलती है और रंगमंडलों को यह ठीक लगे तो वे लें, लेकिन मेरा तो अनुभव यह है कि अकादमियों की खुद की हालत बहुत अच्छी नहीं है। इन्हें जो फंड मिलता है, वह तो तनख्वाह में ही चला जाता है। संगीत नाटक अकादमी अब तो राष्ट्रीय नाट्योत्सव भी नहीं करती, वह तो नेशनल स्कूल आफ ड्रामा करता है। यह बुनियादी तौर पर अकादमी का काम है। राज्यों में हो या राष्ट्रीय स्तर पर, यह अकादमी को ही करना चाहिए। हालांकि इसे सरलीकृत भी नहीं किया जाना चाहिए। महाराष्ट्र में अकादमी की हालत बहुत अच्छी है। जो पैसा देगा वह अपने शर्तें भी रखेगा। मेरा व्यक्तिगत मत है कि रंग आंदोलन संस्थाओं में ज्यादा पैसा नहीं होना चाहिए। व्यवस्था चलती रहे, यही बहुत है। हाँ, बड़े काम करने हैं, जैसे पीपुल्स थियेटर अकादमी या कोई रंगमंडल बनाना है, तो सहयोग लिया जा सकता है। इन मदो में भी संस्कृति मंत्रालय के पैसे का कुछ ही लोग सही इस्तेमाल कर पाते हैं। कभी इस पर भी कैग की रिपोर्ट आये तो पता चलेगा कि क्या काम हुआ है। बड़ी योजनाओं में पैसा लेना कोई बुरा नहीं है, लेकिन सिर्फ इसी का रोना रोते रहना गलत है। नाट्य प्रस्तुति के लिए पैसे की कमी नहीं है, इसके लिए संस्थाओं पर निर्भर भी नहीं रहना चाहिए। यह सामूहिक ढंग से ही हो, तभी अच्छा है।

0 नाटकों की कार्यशालायें उत्साह बढाती हैं। इन्हें आप किस तरह देखते हैं?
00 कार्यशालायें तो जितनी हों उतना अच्छा। प्रशिक्षण और प्रस्तुति, दोनों तरह की कार्यशालाओं की सख्त जरूरत है। यह एक स्वाभाविक मांग होती है कि किसी कार्यशाला का समापन प्रस्तुति से हो। कई बार प्रस्तुति का दबाव कार्यशाला के प्रशिक्षण को प्रभावित करता है। मेरा मानना है कि दोनों पक्षों को एक साथ करना अनिवार्य नहीं होना चाहिए। अमूमन कार्यशालाओं के समापन में नाटकों की ही प्रस्तुतियां होती हैं। जरूरत है कि कविता, कहानी यहां तक कि निबंध की भी एकल या सामूहिक प्रस्तुतियों को तैयार किया जाए, चूंकि हमारा जोर नाटक की सामाजिक भूमिका पर ज्यादा है, जो होना भी चाहिए, इसलिए विचार और कला दोनों का प्रशिक्षण जरूरी है।

0 कार्यशालाओं की रूपरेखा कैसी होनी चाहिए?
00 एक तो हमारे यहाँ कार्यशालाओं की ही कमी है। उस कार्यशाला के लिए जरूरी पाठयक्रम की भी कमी है। आज थियेटर मैनेजमेंट की सख्त जरूरत है। एक प्रोफेशनल थियेटर को कैसे संचालित किया जाए, इसका प्रबंध कोर्स तो फिर भी उपलब्ध है, लेकिन शौकिया और नुक्कड़ के  प्रबंधन पर कोई कोर्स नहीं है। इसकी  भी जरूरत है। कोई टीम क्यों नये सिरे से सारी परशानियों से निपटे। उसे पुराने सदस्य अपने अनुभव से पहले ही तैयार कर सकते है। इसे मौखिक के बजाय लिखित ढंग से बताया जाए, तो बेहतर होगा।

0 मौजूदा राजनीति और सामाजिक परिदृश्य बहुत उत्साहित करने वाला नहीं है। ऐसे में नाटक करना और फिर समाज और राजनीति में हस्तक्षेप  मुश्किल काम है, तो इस लगभग संस्कृति -विरोधी समय में आप सबसे बड़ी चुनौती क्या मानते है।
00 मेरी नजर में आज के समय और समाज में प्रतिरोध की आवाज की कलात्मक अभिव्यक्ति की समस्या है। वह एक बड़ी दिक्कत है। सबसे बड़ी दिक्कत-आज मसलों की वैचारिक पहचान तो सही होती है, लेकिन चीजें इतनी जटिल हैं कि जब उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति की बात आती है तो इन दोनों में साम्य  दिखायी नहीं देता। एक ही मुद्दे पर प्रेक्षागृहों में सुबह और दोपहर के सत्रों में जो बातचीत होती है, उसमें लगता है कि हम एक सिरे पर पहँुच गये हैं और समस्या की बारीक पड़ताल कर ली है। बात शाम को  ठहर जाती है, जब उन्हंी चिंताओं की कलात्मक अभिव्यक्ति सामने आती है। हमारी वैचारिक चिंताओं का कलात्मक रुपांतरण नहीं हो पाता। मैं मानता हूँ कि अगर हमारी प्रस्तुति प्रभावशाली है तो लोग आयेंगे और नाटक देखेगें। तब न तो धन की समस्या होगी और न ही दर्शकों का रोना होगा। कलात्मक अभिव्यक्ति को हम अपनी परंपरा से भी सीख सकते है। पापुलर कल्चर में हस्तक्षेप और उसके टूल के इस्तेमाल की तरफ भी ध्यान देना ही होगा। आज पापुलर कल्चर में जो दिखाया जा रहा है, वह दिखावटी या यूँ कहें कि संग्रहालय की वस्तु सरीखा है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए हमें लोक की ओर जाना पडे़गा। रंग आंदोलन के पिछले दौर में वैचारिक और कलात्मक अभिव्यक्ति में समानता थी, जिसके कारण थियेटर लोक तक पहुँच पाया और ज्यादा हस्तक्षेप कर पाया।

0 तो इसका विकल्प क्या है? यह जो वैचारिकी और कला के बीच की दूरी है, इसके बीच क्या कोई सिरा है, जो दोनों को करीब ला सकता है?
00 मुझे आंध्रप्रदेश की याद आती है। वहाँ लोक में थियेटर घुला हुआ है। आन्ध्रप्रदेश की इप्टा की इकाई के कई गीत वहाँ प्रचलित हैं। ‘नामपल्ली स्टेशन गाड़ी’ गाने का तो बाद में फिल्म में भी इस्तेमाल हुआ। एक गायक हैं, आंध्रप्रदेश के बड़े संगीतकार हैं वंदेमातरम श्रीनिवासन। उनका नाम तो श्रीनिवासन है, लेकिन उनका गीत वंदेमातरम इतना प्रचलित हुआ कि उनका नाम ही वंदेमातरम  श्रीनिवासन हो गया। तो इन अनुभवों से, एक-दूसरे के काम से हम सीख सकते हैं। केरल पीपुल्स आर्ट क्लब का सबसे चर्चित नाटक है ‘तुमने मुझे कम्युनिस्ट बनाया’ और  यह किसी शौकिया समूह ने नहीं किया है। यह एक प्रोफशलन गु्रप का नाटक है। उनके गीतों के कैसेट वहाँ आम दुकानों पर बिकते हैं, जिस तरह हमारे यहाँ देशी-विदेशी सीडी बिकती हैं।

0हिन्दुस्तानी थियेटर और वर्ल्ड थियेटर के बीच आप कैसे समानताऐं देखते है?
00 मैं रंगमंच को मूलतः तीन भाषाओं हिन्दी, रूसी और अंग्रेजी के  माध्यम से जानता हूँ। हिन्दी के रंगकर्मी विश्व रंगमच में जो कुछ घटित हो रहा है , उससे प्रभावित हुए हैं, हालाँकि हमारे थियेटर का मुहावरा विश्व रंगमंच से भिन्न है। हमने देखा है कि विश्व रंगमंच के बहुत से श्रेष्ठ निर्देशक समकालीन भारतीय  नाट्य पंरपरा की ओर मुखातिब हुए हैं। इधर यह भी हुआ है कि दुनिया के श्रेष्ठ निर्देशकों की पुस्तकें हिन्दी में आई हैं। जहाँ तक तुलना की बात है तो यह एक जटिल काम है। इसमें गुणवत्ता की कसौटी शामिल होती है। इस लिहाज से हमारा रंगमंच ज्यादा शौकिया है और दुनिया का प्रोफेशनल। इसलिए तुलना तो बनती नहीं है। बाकी दुनिया में भी शौकिया थियेटर हैं, लेकिन उसमें भी फर्क है। जैसे पेरिस में दोनों तरह के गु्रप हैं, एक बिल्कुल प्रोफशनल है और कुछ जेनुइन थियेटर समूह हैं। फ्रांस की सरकार वहाँ जेनुइन ग्रुप्स को कुछ सहायता उपलब्ध कराती है। इस तरह हर जगह अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं और इसी से काम का ढंग भी भिन्नता लिये हुए है। इस दौर में हमारा जो रंगमंच छोटी जगह पर ,छोटी संस्थाओं के माध्यम से निरंतरता को बचाये रख पायेगा, वही हस्तक्षेप कर पाएगा और बचा भी रह पाएगा । ब्रेख्त की एक कविता के माध्यम से इसे समझा जा सकता है कि हाथी उँचाई से गिरेगा तो मर जायेगा, कुत्ता गिरेगा तो उसे चोट लगेगी और चींटी गिरेगी तो उसे कुछ नहीं होगा। इसे भी प्रसन्नाजी ने हाल के इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में उदधृत किया था, तो हमें तो थियेटर में चीटियों पर ज्यादा भरोसा है।

0 नाटक मंडली नाटक और दर्शक के बीच के रिश्ते के आप कैसे देखते है? इनके बीच संवाद की प्रक्रिया सघन हो या फिर नाटक करने के बाद दर्शक को अपने विवेक पर छोड दिया जाए।
00 नाटक और दर्शक के बीच संवाद की कई शैलियां हैं। नाटक के साथ दर्शको का संवाद तो जरूरी है ही। शुद्व मनोरंजन तक हम नाटक को सीमित नहीं कर सकते। ब्रेख्त कहते हैं कि मनोरंजन की सीमा क्या हो, जरा    ध्यान कर लीजिए। हमें तो समाज को वैचारिक रूप से जागृत बनाना है। आज थियेटर का काम लोगों के विवेक को जाग्रत करना है और महज विवेक से भी काम नहीं चलेगा। विवेक के साथ संवेदना भी जरूरी है क्योंकि यदि संवेदना ही नहीं होगी तो कोरा विवेक जड़ बना देगा। नाटक की प्रस्तुति के बाद अंतःक्रिया किस रूप में हो, संवाद कैसा हो, यह सवाल महत्वपूर्ण है। नाटक देखने के बाद तो वहाँ अच्छा कहा ही जाता है। शौकिया थियेटर के लिए यह जरूरी भी है। पहली प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ाने वाली होती है, लेकिन रंगमंडलों के एक दो साथियों को जिम्मेदारी के साथ यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी प्रस्तुति कैसी थी। देखिए, कलाकार और प्रस्तुति से जुड़े  अन्य साथियों को पता होता है कि उसने क्या किया है। वह खुद ही बता सकता है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि शुरुआत में ही टूट पड़ा जाए। मैं खुद भी सजग रूप से अपने नाटकांे के बाद प्रस्तुति पर टिप्पणी करता हूँ, चाहे वह टुकडो में ही आये क्योंकि एक डेढ़- महीने की मेहनत से कोई नाटक किया जाता है तो उस पर सीधा हमला ठीक नहीं। अगर पोस्टमार्टम करना ही हो तो किसी लेख, कविता, नाटक  को लेकर चार लोग बैठ जाइए, थोडी देर बाद इसमें कुछ नहीं बचेगा। हाँ, बात होनी चाहिए, इसमें इनकार नहीं है, लेकिन देखना चाहिए कि कलाकार की सीमा क्या है। शौकिया तौर पर काम करने वाले ने रंगमंच की व्यवस्थित पढाई या प्रशिक्षण तो लिया नहीं होता है तो थोड़ा ठहर कर और आराम से बात करनी चाहिए। दर्शकों के  साथ भी यही बात लागू होती है। यह ऑब्जेक्टिविटी जीवन के हर क्षेत्र में जरूरी है।

0 अभी आपने कहा कि नाटकों की कमी है और बड़े लेखको को इस ओर आना होगा। क्या यह सभंव है कि जो रंगकर्म कर रहा है, उससे सीधा जुड़ा है, कलाकार या निर्देशक या दीगर काम करने वाले साथी हैं, वे ही नाटक लिखें। उन्हें नाटक की जरूरत और मंच की क्षमता का भी अंदाजा अधिक होता है।
00 मुझे ऐसा लगता है कि हमारे युवा साथी लिखने-पढ़ने के मामले में बडे आलसी हैं। इप्टा के साथी जो प्रशिक्षण के लिए विभिन्न संस्थानों में जा रहे हैं उनसे मैं यही कहता हूं कि प्रशिक्षण तो मिलेगा ही लेकिन जितना भी समय मिले तो कुछ न कुछ पढ़ो और लिखो। कुछ नहीं तो अपने नाट्यानुभव ही लिखो। हांलांकि सामान्यतः कोई लिखता नहीं है। कार्यशालाओं  की बात अलग है, जहां प्रकाशन  की व्यवस्था होती है। देखिए, दिमाग तो पढ़ने से ही बनेगा और साहित्य की इसमें भूमिका है। अगर कोई यह सोचे की फिल्म या कोई अच्छे टी.वी सीरियल देखकर वह अपनी समझ विकसित कर कर लेगा, तो यह गलत है। एक कलाकार को चीजें अमूर्तन में समझनी होती हैं। टी.वी. फिल्म में अच्छी से अच्छी कृति एक तय फारमेट में सामने आती है, लेकिन किताब से उसके पात्र अमूर्त ढंग से सामने आते हैं। वे सोचने के लिए जरूरी ईंधन मुहैया कराते हैं। हम उनकी विशेषता, रहन-सहन, कपड़े, कद -आदि की सोचते हैं और उन्हें मूर्त रूप देते हैं, तो यह एक कलाकर को परिष्कृत करता है। इसलिए पढ़ने का, साहित्य का कोई विकल्प नहीं है। अब लिखने की ऐसी स्थिति हो, जहां सामान्य लेखन ही नहीं हो रहा है तो नाटक लिखना तो दुष्कर है। हमने कोशिश की थी कि हमारे कुछ साथी नाटक लिखें। और कुछ नहीं तो अपने- अपने काम-धंधे से जुड़ी बातों को ही तरतीब से लिखें। इस तरह चार-पाँच स्क्रिप्ट सामने आयी थीं। उनमें स्थानीय बोली और काम से संबंधित शब्दावली और वस्तुएं भी आयीं जो सामान्य नाटकों में संभव नहीं थे। कुछ की प्रस्तुति भी हुई। लेकिन उसमें दूसरी प्रस्तुति के लिए जरूरी बदलाव मुश्किल काम है।

0 तो नाट्य लेखन के लिए किस पर निर्भर रहा जाए?
00 नाट्य लेखन वही कर पायेगा जिसके पास लेखन के जरूरी औजार होंगे। बिना औजार के कोई रचना अच्छी कैसे हो सकती है। लेखन के औजारों की गैर मौजूदगी में नाट्य गढना संभव नहीं है। यह शिल्पगत कौशल है। प्रेरणा- प्रतिभा अपनी जगह है, लेकिन जरूरी चीज है, लेखन के औजार।


0 आज नाटक अगर लिखा भी जाता है तो वह तेजी से सामने नहीं आ पाता। अखबारों में तो नाटक छापने लायक स्पेस ही नहीं है। थियेटर पर जो पत्रिकाएं हैं, उनमें आप किस तरह की उम्मीद देखते   है ?
00 थियेटर की जो पत्रिकाएं निकल रहीं हैं, उनमें नियमितता और निरंतरता की कमी है। यह जरूर है कि इधर कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं ने रंगमंच पर कॉलम शुरू किये हैं। कई अन्य पत्रिकायें भी निकल रहीं हैं, लेकिन उनका वितरण और विपणन कमजोर है। रंगकर्म पर कई अच्छी पत्रिकाएं हैं, जिनके बारे में अन्य क्षेत्रो में पता ही नहीं चल पाता। कई बार तो जिस शहर या कस्बे से पत्रिकाएं निकलती हैं, वहीं के लोगों को जानकारी नहीं होती। मेरा मत है कि नाटक की पत्रिकाएं चल सकती हैं, इसकी बहुत ज्यादा जरूरत है। उसके बेचने या चलाने में भी दिक्कत नहीं आयेगी। बस कमर कसने की जरूरत है। एक और पक्ष है, इप्टा की ही कई पत्रिकाएं निकलती और बंद होती रही हैं। 85 के बाद सुब्रतो बनर्जी के संपादन में इप्टा ने ’जननाट्य’ नामक एक पत्रिका निकाली थी, जो बाद में बंद करनी पड़ी। उन्होंने बताया था कि पत्रिका के लिए रिपोर्ट नहीं मिलती थीं। यह बड़ी दिक्कत है। इकाइयों के जो लिखने-पढ़ने वाले लोग हैं, वे प्रस्तुति से भी जुड़े होते हैं, लेकिन रिपोर्ट के मामले में वे गंभीर नहीं है। अमूमन अखबार की कटिंग आदि ही भेज दी जाती है। नाटकों के विश्लेषण की रिपोर्ट में कमी है। पुराने दौर में इप्टा की प्रस्तुतियों का वर्णन ही नहीं होता था, बल्कि एनालिसिस भी होता था।

0 नए माध्यमों जैसे इंटरनेट और उसी के भीतर फेसबुक ब्लॉग आदि पर आप क्या सोचते हैं?
00  इस बीच वेब पर कुछ काम हुआ है। इप्टा की वेबसाईट भी जल्द ही लांच करने की तैयारी है, हो भी जायेगी ( इप्टा की वेबसाइट इस बीच लांच हो चुकी है-सं.)। लेकिन यह हाथी पालने के समान है। उसे खुराक चाहिए जो कंटेंट पर ही निर्भर है। उनका विश्लेषण भी हो, यह भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। आज मैं युवाओं को देखता हूँ। फेसबुक जैसे साधनों पर अभी अल्पज्ञान, आत्ममुग्धता है, कुछ अराजकता भी है। इप्टा की ही करीब 20 कम्युनिटी हैं इंटरनेट पर। मैं मान लेता हूँ कि अभी चलने दिया जाए,  कभी जरूरत पडी तो फिर बात की जायेगी। इस अराजकता के बीच भी लोग रिएक्ट कर रहे हैं। बात कर रहे हैं, प्रतिक्रियाऐं आ रही हैं। फिल्म और टी.वी. ने समाज और राजनीति पर कई दुष्प्रभाव डाले हैं, लेकिन एक अच्छी बात हुई है कि इसने दर्शक की रुचि को परिष्कृत किया है। अब देखिए कि सीरियल्स में सास-बहू का दौर बीत गया है।

0 आने वाले समय के प्रति आप आशावान हैं, यह हम सभी जानते हैं । आप अपनी पूरी ऊर्जा के साथ रंग-आंदोलन में सक्रिय हैं , ऐसे में आने वाले वक्त को आप कैसे देखते हैं, किस तरफ जाना ठीक होगा?
00 मैं सचमुच आशावादी हूँ। मित्र कहते हैं कि निराशावाद जिस तरह से बीमारी है, उसी तरह अतिरिक्त आशावाद भी एक बीमारी है। हर तरह की कला और साहित्य का स्वर्णकाल होता है, थियेटर का भी बताया जाता है। जो भी हो, हम तो उसमें नहीं थे, हमारा स्वर्णकाल तो यही है। आज हम चुनौतियों को देख रहे हैं, हस्तक्षेप कर रहे हैं। मुश्किलों से जूझ रहे हैं और सपने देख रहे हैं। ये सपने भी अनंत हैं। भविष्य का जो रास्ता है, वह एक नहीं है। सारा थियेटर क्रांतिकारी या सामाजिक हो जायेगा, इसकी उम्मीद बेमानी है। सभी तरह के फूल खिलें, यह हमारी इच्छा है, लेकिन देश की बहुसंख्यक गरीब जनता को  संबोधित रंगमंच विकसित करना जरूरी है। हमें थोडे़ लोगों का विशिष्ट रंगमंच नहीं चाहिए। हमें तो ज्यादा न हो, लेकिन अच्छा हो, सुरुचिपूर्ण हो, सार्थक हो ऐसा थियेटर चाहिए। वह थियेटर जो मुश्किल समय में सिर्फ आनंद ही न दे, बल्कि झकझोरे और सोचने के लिए बाध्य करे। यह अकेले रंगमंच का सवाल नहीं है, सभी कलाओं की सामूहिक चिंता यही है।

0 तो क्या कला के माध्यम से ही बदलाव की दिशा तय की जा सकती है?
00 परिवर्तन में कला की एक सीमित भूमिका ही होती है। बड़ी भूमिका तो सामाजिक और राजनीतिक समूहों की है। अगर सामाजिक संगठन कला को, संस्कृति को अपने एजेंडे पर रखते हैं, तभी व्यापक बदलाव आ सकते हैं। संस्कृतिविहीन राजनीति भी बेहतरी का रास्ता तय नहीं कर सकती है। इसी तरह संस्कृति को अपनी राजनीति तय करनी पड़ेगी। यह दोतरफा है। राजनीति से निरपेक्ष संस्कृति या तो अराजकता लायेगी या फिर फासिज्म और अंधविश्वास बढ़ाने वाले बाबा पैदा करेगी। संस्कृतिकर्मी किसी दल से जुडे़ या नहीं, यह उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है, लेकिन राजनीतिक समझ होना जरूरी है। राजनीति का भी यह रवैया कि लिखना-पढ़ना, नाटक आदि कार्य गैरजरूरी हैं, गलत है। स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद के काल में हमारे नेता अच्छे लेखक भी थे। वे संस्कृति की समझ भी रखते थे । राजनीति को एक संस्कृति देना ही असल में आज एक मुश्किल काम है। हालांकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में आसानी से कुछ मिलता नहीं है। जे.एन.यू. में एक सेमिनार के दौरान मैंने अपने वक्तव्य में कहा था कि क्या आइत्मातोव की कृतियों से यह दुनिया बेहतर हुई? शायद हां, शायद नहीं? लेकिन इतना तय है कि आइत्मातोव की कृतियाँ न होतीं, तो दुनिया आज से बदतर जरूर होती। अगर कृतियां -कलाऐं नहीं होंगी तो हम हताशा के दौर में चले जायेंगे। इससे बचने के लिए साझा प्रयास की जरूरत है।