विवाद सांस्कृतिक -साहित्यिक, सेकुलर : एजेंडा आतंरिक गुटबंदी और राजनीति:-----
अपने को वामपंथ, प्रगतिशीलता और सेकुलरिज्म के पैरवीकार घोषित करने वालों द्वारा गत दो वर्षों में फेसबुक की सुविधा का उपयोग करते हुए कन्हाकांड, रायपुर महोत्सव में भागीदारी ,अज्ञेय की जन्म शताब्दी , कमलेश शुक्ल के लेखन , रमेशचन्द्र शाह को साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार दिए जाने और मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न से अलंकृत करने पर ऊपरी तौर पर जो मुद्दे उठा ये जाते रहे हैं , उससे यह भाषित होता रहा कि ये मुद्दे साहित्य, संस्कृति, सेकुलरिज्म की शुचिता से जुड़े हैं लेकिन अंत में इसके पीछे के राजनीतिक एजेंडा के कारण हर बार यह प्रायोजित बहस इनकी आपस की भद्दी आतंरिक गुटबंदी और अशालीन आरोप- प्रत्यारोप में बदलती रही है ।
दुनिया में तानाशाही पर आधारित साम्यवादी राज व्यवस्था के भू लुंठित हो जाने , २१ वीं सदी में १९वीं सदी के प्रथम अर्ध काल के अनुभवों के आधार पर लिखे मार्क्स के विश्लेषण को काल - बाधित हो जाने के कारण आज पूरी दुनिया के साम्यवादी विम्रम और विचारहीनता से ग्रस्त हैं. भारतीय साम्यवादियों की राजनीतिक और वैचारिक स्थिति तो और भी दयनीय है।
बिभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े साम्यवादी मित्र बिभ्रम,विचारहीनता की मानसिकता में स्टालिन-ट्राटस्की से जुड़े सत्ता-संघर्ष के बीच से उपजे साहित्यिक यथार्थवाद के नाम पर हुए पर- पीड़न और माओ की अमानवीय सांस्कृतिक क्रांति की भोड़ी नक़ल अपनी हाशिये पर स्थित ताकत के बदौलत घुमा फ़िरा कर करने की कोशिश करते रहते हैं.
भारतीय समाज, संस्कृति की अविवेकी समझ और व्याख्या और विश्व साम्यवाद की भद्दी, अंधी नक़ल के चलते हमारे साम्यवादी मित्र इस बात से भी कुछ सीखने के लिए तैयार नहीं हैं की रूस की जनता ने स्टालिन के शव को कब्र से निकाल बाहर किया और , चीन में साम्यवादी सरकार ने माओ की सांस्कृतिक क्रांति के चार पुरोधाओं को ( माओ की पत्नी सहित ) मृत्यु दंड दिया। आज चीन में माओ तिरस्कृत से हैं।
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अब से नौ लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर प्रथम साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष हुआ था जिसमें साम्राज्यवादी परास्त हुये थे। किन्तु पाश्चात्य प्रभुत्व के कारण हमारे साम्यवादी विद्वान हकीकत को नकार देते हैं जिसका प्रतिफल यह है कि आज के साम्राज्यवादी उन्हीं राम का नाम लेकर जनता का दमन व शोषण कर रहे हैं जिनहोने सर्व-प्रथम साम्राज्यवाद को इस धरती पर परास्त किया था।
इसी प्रकार अब से लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व श्री कृष्ण ने समानता पर आधारित गण राज्य की स्थापना करके आदर्श प्रस्तुत किया था किन्तु प्रगतिशीलता व एथीज़्म के नाम पर इस तथ्य से आँखें फेर ली जाती हैं और बजाए कृष्ण का सहारा लेने के उनकी निंदा व आलोचना की जाती है जिसका लाभ पुनः सांप्रदायिक व साम्राज्यवाद समर्थक शक्तियाँ उठा लेती हैं।
नानक,कबीर, रेदास,दयानन्द, विवेकानंद आदि के दृष्टिकोण साम्यवाद के निकट हैं किन्तु साम्यवादी विद्वान उसी एथीज़्म के वशीभूत होकर इनका सहारा लेने की जगह उनकी आलोचना करते हैं।
http://communistvijai.blogspot.in/2014/11/blog-post_1.html
अपने ब्लाग्स -'क्रांतिस्वर'तथा 'साम्यवाद (COMMUNISM)' के माध्यम से मैं भारत में साम्यवाद को सफल कैसे बनाया जाये इस संबंध में लिखता आ रहा हूँ किन्तु मेरा अस्तित्व नगण्य होने के कारण उन पर ध्यान देने की बजाए उनका तीव्र विरोध संकीर्ण प्रवृति के लोग करते रहते हैं। अतः प्रो . सत्यमित्र जी के कथन को ही आधार मान कर व्यावहारिक परिवर्तन कर लिए जाएँ तो जन-समर्थन हासिल किया जा सकता है।
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अपने को वामपंथ, प्रगतिशीलता और सेकुलरिज्म के पैरवीकार घोषित करने वालों द्वारा गत दो वर्षों में फेसबुक की सुविधा का उपयोग करते हुए कन्हाकांड, रायपुर महोत्सव में भागीदारी ,अज्ञेय की जन्म शताब्दी , कमलेश शुक्ल के लेखन , रमेशचन्द्र शाह को साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार दिए जाने और मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न से अलंकृत करने पर ऊपरी तौर पर जो मुद्दे उठा ये जाते रहे हैं , उससे यह भाषित होता रहा कि ये मुद्दे साहित्य, संस्कृति, सेकुलरिज्म की शुचिता से जुड़े हैं लेकिन अंत में इसके पीछे के राजनीतिक एजेंडा के कारण हर बार यह प्रायोजित बहस इनकी आपस की भद्दी आतंरिक गुटबंदी और अशालीन आरोप- प्रत्यारोप में बदलती रही है ।
दुनिया में तानाशाही पर आधारित साम्यवादी राज व्यवस्था के भू लुंठित हो जाने , २१ वीं सदी में १९वीं सदी के प्रथम अर्ध काल के अनुभवों के आधार पर लिखे मार्क्स के विश्लेषण को काल - बाधित हो जाने के कारण आज पूरी दुनिया के साम्यवादी विम्रम और विचारहीनता से ग्रस्त हैं. भारतीय साम्यवादियों की राजनीतिक और वैचारिक स्थिति तो और भी दयनीय है।
बिभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े साम्यवादी मित्र बिभ्रम,विचारहीनता की मानसिकता में स्टालिन-ट्राटस्की से जुड़े सत्ता-संघर्ष के बीच से उपजे साहित्यिक यथार्थवाद के नाम पर हुए पर- पीड़न और माओ की अमानवीय सांस्कृतिक क्रांति की भोड़ी नक़ल अपनी हाशिये पर स्थित ताकत के बदौलत घुमा फ़िरा कर करने की कोशिश करते रहते हैं.
भारतीय समाज, संस्कृति की अविवेकी समझ और व्याख्या और विश्व साम्यवाद की भद्दी, अंधी नक़ल के चलते हमारे साम्यवादी मित्र इस बात से भी कुछ सीखने के लिए तैयार नहीं हैं की रूस की जनता ने स्टालिन के शव को कब्र से निकाल बाहर किया और , चीन में साम्यवादी सरकार ने माओ की सांस्कृतिक क्रांति के चार पुरोधाओं को ( माओ की पत्नी सहित ) मृत्यु दंड दिया। आज चीन में माओ तिरस्कृत से हैं।
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अब से नौ लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर प्रथम साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष हुआ था जिसमें साम्राज्यवादी परास्त हुये थे। किन्तु पाश्चात्य प्रभुत्व के कारण हमारे साम्यवादी विद्वान हकीकत को नकार देते हैं जिसका प्रतिफल यह है कि आज के साम्राज्यवादी उन्हीं राम का नाम लेकर जनता का दमन व शोषण कर रहे हैं जिनहोने सर्व-प्रथम साम्राज्यवाद को इस धरती पर परास्त किया था।
इसी प्रकार अब से लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व श्री कृष्ण ने समानता पर आधारित गण राज्य की स्थापना करके आदर्श प्रस्तुत किया था किन्तु प्रगतिशीलता व एथीज़्म के नाम पर इस तथ्य से आँखें फेर ली जाती हैं और बजाए कृष्ण का सहारा लेने के उनकी निंदा व आलोचना की जाती है जिसका लाभ पुनः सांप्रदायिक व साम्राज्यवाद समर्थक शक्तियाँ उठा लेती हैं।
नानक,कबीर, रेदास,दयानन्द, विवेकानंद आदि के दृष्टिकोण साम्यवाद के निकट हैं किन्तु साम्यवादी विद्वान उसी एथीज़्म के वशीभूत होकर इनका सहारा लेने की जगह उनकी आलोचना करते हैं।
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अपने ब्लाग्स -'क्रांतिस्वर'तथा 'साम्यवाद (COMMUNISM)' के माध्यम से मैं भारत में साम्यवाद को सफल कैसे बनाया जाये इस संबंध में लिखता आ रहा हूँ किन्तु मेरा अस्तित्व नगण्य होने के कारण उन पर ध्यान देने की बजाए उनका तीव्र विरोध संकीर्ण प्रवृति के लोग करते रहते हैं। अतः प्रो . सत्यमित्र जी के कथन को ही आधार मान कर व्यावहारिक परिवर्तन कर लिए जाएँ तो जन-समर्थन हासिल किया जा सकता है।
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