किरन बेदी के बाद अब उ.प्र. के पूर्व डी.जी.पी. बृजलाल भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं।
भाजपा के भीतर जो भी प्रमुख नेता होते हैं वे अधिकांशत: संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं। दूसरे क्रम में प्राथमिकता दी जाती है सेना, पुलिस और नागरिक सेवा के अवकाश प्राप्त नौकरशाहों को। दरअसल भारत की समूची नौकरशाही का साँचा-खाँचा कामोबेश वैसा ही है जो 1947 के पहले था। नौकरशाही राज्यसत्ता की रीढ़ होती है। पूरी जिन्दगी नौकरशाही में गुजारने वाले लोगों का दिलो दिमाग सबकुछ डण्डे के जोर से चलाने के लिए अनुकूलित हो जाता है। ये लोग जनता को भेड़ समझते हैं, प्रकृति से निरंकुश स्वेच्छाचारी होते हैं और बुर्जुआ जनवाद को भी एक मज़बूरी और पाखण्ड से अधिक कुछ नहीं समझते। इसीलिए ऐसे लोगों को भाजपा का फासिस्ट चाल-चेहरा-चरित्र अधिक सुहाता है।
जनता को भेड़ समझने वाले और सभी समस्याओं को सख्त प्रशासन के नुस्खे से हल करने के हिमायती जिस खुशहाल मध्य वर्ग को भाजपा की नीतियाँ खूब भाती हैं, उसीको आप पार्टी भी सुहाती है। दरअसल इन दोनों पार्टियों का मुख्य सामाजिक समर्थन आधार समान है। राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की नीतियों और केजरीवाल की नीतियों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। दिल्ली विधान सभा चुनावों में यही दो पार्टियाँ मुख्य प्रतिस्पर्द्धी हैं। दोनों के पास समान लोकरंजक नारे हैं। इसीलिए चुनाव सिर्फ छवियों और प्रचार के हथकण्डों के सहारे लड़े जा रहे हैं। कांग्रेस की समस्या यह है कि उसी की आर्थिक नीतियों को भाजपा ज्यादा धक्कड़शाही और अंधेरगर्दी के साथ लागू कर रही है और पूँजीपतियों का पुरजोर समर्थन भी भाजपा के साथ है। कांग्रेस के पास न कोई लोकरंजक नारा है न किसी नायक का चमकता चेहरा। इसलिए उसकी मजबूरी है कि वह अगले वर्षों तक इन्तजार करे।
नवउदारवादी नीतियों पर सभी पार्टियों की आम सहमति है। अब इन नीतियों को आगे बढ़ानें के लिए और इन नीतियों के भीषण नतीजों को भुगतने वाली जनता के प्रतिरोधों को कुचलने के लिए एक निरंकुश दमनकारी सत्ता की जरूरत है और इसके लिए अपनी प्रकृति से भाजपा अन्य बुर्जुआ दलो के मुकाबले अधिक उपयुक्त है, इसीलिए शासक वर्गों का हाथ आज भाजपा की पीठ पर है। लेकिन अलग-अलग राज्यों में स्थितियाँ ऐसी हैं कि कई जगह भाजपा का सत्ता में आना सम्भव नहीं है। लेकिन इन राज्यों में चाहे जिस बुर्जुआ पार्टी या गठबंधन की सरकार बने, बुनियादी आर्थिक नीतियों के प्रश्न पर वह केन्द्र की सत्ता के कदम से कदम मिलाकर ही चलेगी।
केजरीवाल बुनियादी आर्थिक नीतियों पर कोई सवाल नहीं उठाते। बिजली, पानी और भ्रष्टाचार के सवाल पर सस्ते लोकलुभावन नारों से अधिक उनके पास कहने को कुछ भी नहीं है। ठेका प्रथा समाप्त करने के वायदे पर पिछली बार दिल्ली मजदूरों ने उन्हें घेर लिया था और बहस में निरुत्तर होने के बाद उनके श्रम मंत्री को सिर पर पाँव रखकर भागना पड़ा था। इसबार केजरीवाल सावधान हैं। मज़दूरों के किसी भी मुद्दे को वे नहीं उठा रहे हैं। सिर्फ मध्यवर्ग, व्यापारी वर्ग और ग्रामीण दिल्ली के भूसम्पत्ति मालिकों को लुभाना चाहते हैं।
दिल्ली में सत्ता चाहे भाजपा को मिले या आप पार्टी को, भारत के शासक वर्गों के लिए दोनों ही स्थितियाँ समान रूप से अनुकूल होंगी।
हम पहले से ही कहते आये हैं कि आप पार्टी आने वाले दिनों में या तो निष्प्राण-निष्प्रभावी हो जायेगी और उसका सामाजिक समर्थन आधार भाजपा से जुड़ जायेगा, या फिर यह स्वयं एक घोर दक्षिणपंथी चरित्र वाली पार्टी के रूप में बुर्जुआ संसदीय राजनीति में व्यवस्थित हो जायेगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि जो कथित वामपंथी दिवालिये बुद्धिजीवी आज केजरीवाल से बहुत सारी उम्मीदें पाल बैठे हैं, उनकी तब क्या हालत होगी!
भाजपा के भीतर जो भी प्रमुख नेता होते हैं वे अधिकांशत: संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं। दूसरे क्रम में प्राथमिकता दी जाती है सेना, पुलिस और नागरिक सेवा के अवकाश प्राप्त नौकरशाहों को। दरअसल भारत की समूची नौकरशाही का साँचा-खाँचा कामोबेश वैसा ही है जो 1947 के पहले था। नौकरशाही राज्यसत्ता की रीढ़ होती है। पूरी जिन्दगी नौकरशाही में गुजारने वाले लोगों का दिलो दिमाग सबकुछ डण्डे के जोर से चलाने के लिए अनुकूलित हो जाता है। ये लोग जनता को भेड़ समझते हैं, प्रकृति से निरंकुश स्वेच्छाचारी होते हैं और बुर्जुआ जनवाद को भी एक मज़बूरी और पाखण्ड से अधिक कुछ नहीं समझते। इसीलिए ऐसे लोगों को भाजपा का फासिस्ट चाल-चेहरा-चरित्र अधिक सुहाता है।
जनता को भेड़ समझने वाले और सभी समस्याओं को सख्त प्रशासन के नुस्खे से हल करने के हिमायती जिस खुशहाल मध्य वर्ग को भाजपा की नीतियाँ खूब भाती हैं, उसीको आप पार्टी भी सुहाती है। दरअसल इन दोनों पार्टियों का मुख्य सामाजिक समर्थन आधार समान है। राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की नीतियों और केजरीवाल की नीतियों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। दिल्ली विधान सभा चुनावों में यही दो पार्टियाँ मुख्य प्रतिस्पर्द्धी हैं। दोनों के पास समान लोकरंजक नारे हैं। इसीलिए चुनाव सिर्फ छवियों और प्रचार के हथकण्डों के सहारे लड़े जा रहे हैं। कांग्रेस की समस्या यह है कि उसी की आर्थिक नीतियों को भाजपा ज्यादा धक्कड़शाही और अंधेरगर्दी के साथ लागू कर रही है और पूँजीपतियों का पुरजोर समर्थन भी भाजपा के साथ है। कांग्रेस के पास न कोई लोकरंजक नारा है न किसी नायक का चमकता चेहरा। इसलिए उसकी मजबूरी है कि वह अगले वर्षों तक इन्तजार करे।
नवउदारवादी नीतियों पर सभी पार्टियों की आम सहमति है। अब इन नीतियों को आगे बढ़ानें के लिए और इन नीतियों के भीषण नतीजों को भुगतने वाली जनता के प्रतिरोधों को कुचलने के लिए एक निरंकुश दमनकारी सत्ता की जरूरत है और इसके लिए अपनी प्रकृति से भाजपा अन्य बुर्जुआ दलो के मुकाबले अधिक उपयुक्त है, इसीलिए शासक वर्गों का हाथ आज भाजपा की पीठ पर है। लेकिन अलग-अलग राज्यों में स्थितियाँ ऐसी हैं कि कई जगह भाजपा का सत्ता में आना सम्भव नहीं है। लेकिन इन राज्यों में चाहे जिस बुर्जुआ पार्टी या गठबंधन की सरकार बने, बुनियादी आर्थिक नीतियों के प्रश्न पर वह केन्द्र की सत्ता के कदम से कदम मिलाकर ही चलेगी।
केजरीवाल बुनियादी आर्थिक नीतियों पर कोई सवाल नहीं उठाते। बिजली, पानी और भ्रष्टाचार के सवाल पर सस्ते लोकलुभावन नारों से अधिक उनके पास कहने को कुछ भी नहीं है। ठेका प्रथा समाप्त करने के वायदे पर पिछली बार दिल्ली मजदूरों ने उन्हें घेर लिया था और बहस में निरुत्तर होने के बाद उनके श्रम मंत्री को सिर पर पाँव रखकर भागना पड़ा था। इसबार केजरीवाल सावधान हैं। मज़दूरों के किसी भी मुद्दे को वे नहीं उठा रहे हैं। सिर्फ मध्यवर्ग, व्यापारी वर्ग और ग्रामीण दिल्ली के भूसम्पत्ति मालिकों को लुभाना चाहते हैं।
दिल्ली में सत्ता चाहे भाजपा को मिले या आप पार्टी को, भारत के शासक वर्गों के लिए दोनों ही स्थितियाँ समान रूप से अनुकूल होंगी।
हम पहले से ही कहते आये हैं कि आप पार्टी आने वाले दिनों में या तो निष्प्राण-निष्प्रभावी हो जायेगी और उसका सामाजिक समर्थन आधार भाजपा से जुड़ जायेगा, या फिर यह स्वयं एक घोर दक्षिणपंथी चरित्र वाली पार्टी के रूप में बुर्जुआ संसदीय राजनीति में व्यवस्थित हो जायेगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि जो कथित वामपंथी दिवालिये बुद्धिजीवी आज केजरीवाल से बहुत सारी उम्मीदें पाल बैठे हैं, उनकी तब क्या हालत होगी!
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