"बड़ा सवाल !
एक कम्युनिस्ट की अपने दल विशेष प्रति वफादारी जरुरी है पर उसका आचरण मुख्य रूप से साम्यवाद के मूल विचार के प्रचारक का होना चाहिए जो समाज को बेहतर बना सकता है लोगों को एक बेहतर इंसान बना सकता है। पर आमतौर पर अधिकतर कम्युनिष्ट सैंकड़ो विभाजित दलों में से किसी एक के ही कट्टर प्रचारक होते हैं जो एक भक्त के से ही आचरण के प्रतीत होते हैं और जिस विचार से एक बेहतर इंसान निकलके आना चाहिए आश्चर्यजनक रूप से उसके विपरीत एक आत्ममुग्ध, जिद्दी, तुनकमिजाज, समाज से अलग सा दिखने वाला व्यक्तित्व ही एक कम्युनिष्ट नजर आता है..... न.रुका।"
*हमारे उत्तर-प्रदेश के कर्णधार व उनके राष्ट्रीय आश्रयदाताओं के विचार :
मार्क्सवाद /साम्यवाद को भारतीय संदर्भ में प्रस्तुत करना तो गलत घोषित हो गया किन्तु RSS/भाजपा, मोदी उसका विकल्प केजरीवाल एवं उसके फिल्मी प्रचारक का उल्लेख -'गुड वन' । क्या 69 प्रतिशत जनता इससे ही वामपंथ की झोली में आ जाएगी? जबकि प्रकाश करात साहब जो इस समय वामपंथ के भगवान बने हुये हैं M=मार्क्स की जगह मुलायम तथा L= लेनिन की जगह लालू मानते हैं और ये दोनों पिछड़े के नाम पर मोदी के पीछे खड़े हैं। :
**उपरोक्त विचारों के संदर्भ में युवा कामरेड की उपरोक्त पीड़ा भी विचारणीय है। साम्यवाद व वामपंथ के हितैषियों की सोच को जहां कर्णधार संघी सोच घोषित कर रहे हैं वहीं उनके विचार जन-मानस में क्या छवी बनाते हैं उसका आभास जोया अंसारी साहिबा की इस टिप्पणी से होता है कि " साम्यवाद को सर्वहारा को सौंपें " ।
वस्तुतः बक़ौल मनीषा पांडे जी ( इलाहाबाद के सी पी एम नेता की पुत्री तथा पत्रकार ) कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता अपनी पत्नियों की कमाई पर नेतागिरी करते हैं और इस प्रकार महिलाओं के शोषण के लिए उत्तरदाई हैं । व्यवहार में मनीषा जी का कथन सही है।
वरिष्ठ जागरूक पत्रकार पलाश विश्वास साहब कम्युनिस्ट कर्णधारों की जनता से दूरी को देश के लिए घातक मानते हैं :
http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/views/2015/03/23/
ऐसे लोग जन-जागरण वाले विचारों को 'एथीस्टवाद' के विरुद्ध बता कर अप्रत्यक्ष रूप से ढोंग-पाखंड-आडंबर को ही बढ़ावा देते हैं उसे 'ब्राहमणवाद' न कहा जाये तो क्या कहा जाये? राजद के युवा का मानना है कि 1991 से प्रारम्भ उदरवाद को रोकना संभव नहीं है।
तो क्या देश की जनता सशस्त्र क्रान्ति का साथ देगी? क्या सशस्त्र क्रान्ति के लिए समय उपयुक्त है और वह सफल हो सकेगी? 1857 का उदाहरण सामने है तभी तो गांधी जी को 'सत्य-अहिंसा' का सहारा लेना पड़ा था। आज मार्कन्डेय काटजू साहब की गांधी-विरोधी लेखनी व गोडसे के महिमा-मंडन के परिप्रेक्ष्य में नीतियाँ निर्धारित करके जनता को जागरूक करने की नितांत आवश्यकता है तभी 'संघ' के कुचक्र को नष्ट किया जा सकेगा। केवल और केवल 'आर्थिक-आंदोलन' जब तक कि 'सामाजिक-जाग्रति' न उत्पन्न हो कोई क्रान्ति नहीं कर सकता है।
----- विजय राजबली माथुर
****************************************************************************
Facebook Comment :
No comments:
Post a Comment