वामपंथी और बुद्धिजीवी बिलबिला रहे है. आखिर क्यो? कभी सोचा है.
यह स्थिति, आपने स्वयं उत्पन्न किया है. आपकी बौद्धिकता और
जनवादी सोच विश्वविधालय से जंतर-मंतर तक सिमट कर रह गयी.
यह स्थिति इसलिए भी उत्पन्न हुई की बुद्धिजीवियों और आम जनता के
बीच एक बड़ी दूर बनी रही. आप बड़ी-बड़ी बाते कर लेते है, अकैडमिक
पेपर और पुस्तकें लिख लेते है मगर कोई एक ऐसा विकल्प लोगों के
सामने प्रस्तुत नहीं किया जिसमे समस्या का समाधान मौजूद हो.
मुसलमान, आदिवासी, दलित और शोषित समाज जनवादी आंदोलनों मे
भीड़ मात्र बनकर खड़ा रहा और मलाई वही लोग खाते रहे जिनके विरुद्ध शोषित समाज को लड़ाई लड़नी थी. जिस भीड़ के लिए आप सत्ता की बात करते थे उस भीड़ को आपने मुख्य-धारा मे शामिल ही नहीं किया. वही आभिजात वर्ग काँग्रेस के साथ थे, वही आभिजात वर्ग का कब्ज़ा आरएसएस के ऊपर है और वही आभिजात वर्ग वामपंथियों के साथ है. सीधे शब्दों मे बोल दूँ तो जो ब्राह्मणवाद काँग्रेस मे था वही आरएसएस मे है और वही वामपंथ मे है. बौद्धिक विवेचना एक बात है और लोगों की आकांक्षाओं पर खड़ा उतरना दूसरी बात है. उदाहरण, मेरे एक प्रोफेसर पश्चिम बंगाल से है. वीरभूम-बोलपुर संसदीय क्षेत्र से सोमनाथ चटर्जी आठ बार सांसद बने है लेकिन मेरे प्रोफेसर ने बचपन से लेकर आजतक सोमनाथ दादा को अपनी आँखों से नहीं देखा. बंगाल से आपके क़िला के ढहने के कारणों को समझने के लिए यही एक उदाहरण काफी है. मै आपकी बौद्धिकता पर प्रश्न खड़ा नहीं कर रहा हूँ. आज यदि आपकी तड़प और बेचैनी को आम-जनता का सहयोग नहीं मिल रहा है तो इसमे अचरज की कोई बात नहीं है. खैर, जो भी हो पीएचडी तो जेएनयू से ही करना है.
मुझे कन्हैया कुमार को लेकर थोड़ी भी चिंता नहीं है, वह सप्ताह भर के भीतर रिहा हो जायेगा. रिहाई के बाद वामपंथ का बड़ा नेता भी बनेगा और पोलित-बेयूरों का प्रतिनिधित्व भी करेगा.Ameeque Jamei भाई जान, हमे चिंता तो आपकी है. लात, घुषा और मुक्का खाने के बाद भी आप तटस्थ है मगर अबतक किसी बड़े ब्राह्मणवादी वामपंथी नेताओं का आपके प्रति कोई ब्यान नहीं सुना. ............................... मै क्यों न समझूँ की वामपंथ ने भी आदिवासियों, दलितों, मुसलमानों और शोषितों को एक भीड़ के रूप मे ही इस्तेमाल किया है? खैर, जो भी हो पीएचडी तो जेएनयू से ही करना है................................
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