जेएनयू में छात्रों के एक ग्रुप के 9 फरवरी के जिस आयोजन के नाम पर, मोदी सरकार और संघ परिवार ने अपने सभी विरोधियों और सबसे बढ़कर वामपंथ को देशद्रोही दिखाने की जबर्दस्त मुहिम छेड़ी है, उस आयोजन को लेकर रहस्य गहराता जा रहा है। बेशक, इस क्रम में अफजल गुरु की फांसी की सजा के विरोध को जिस तरह देशद्रोह बनाने की कोशिश की गई है, उसे मंजूर नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार, किसी भी प्रकार के नारे लगाने भर को राजद्रोह नहीं माना जा सकता है। वास्तव में इस संबंध में तो देश का सर्वोच्च न्यायालय पहले ही स्पष्टï राय दे चुका है और बाकायदा हिंसा के लिए फौरी उकसावे की शर्त लगा चुका है। फिर भी, उक्त आयोजन को लेकर सरकार समेत संघ परिवार की ''देशद्रोह के नमूनेÓÓ की निर्मिति खुद गंभीर संदेहों के घेरे में है। इन संदेहों के दो-तीन तत्व विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।
पहला, तथ्य जो खासतौर पर दिल्ली सरकार द्वारा कराई गई पूरे मामले की मजिस्ट्रेटी जांच से सामने आया है, यह है कि उक्त आयोजन के लिए दो टेलीविजन चैनलों के कैमरों को विशेष रूप से और निजी तौर पर बुलाया गया था। इनमें से एक चैनल को तो बाद में उक्त कार्यक्रम की रिकार्डिंग के साथ छेड़छाड़ कर के कन्हैया के मुंह से नारे लगवाने वाला फर्जी वीडियो बनाने के लिए, रंगे हाथों पकड़ा भी गया है। यह दूसरी बात है कि भाजपा सरकार के आशीर्वाद से इसके बावजूद, इस चैनल को कोई नोटिस तक नहीं मिला है, फिर दूसरों को वीडियो के साथ फर्जीवाड़ा न करने का सबक देने वाली कोई सजा दिए जाने का तो सवाल ही कहां उठता है। विश्वविद्यालय सिक्युरिटी के परिसर में प्रवेश के रिकार्ड के अनुसार, इन चैनलों को प्रस्तावित आयोजन से काफी पहले और जेएनयू के एबीवीपी नेताओं द्वारा बुलाया गया था।
इससे कम से कम एक बात तो निर्विवाद रूप से साबित हो ही जाती है। 9 फरवरी को जेएनयू में जो कुछ हुआ, स्वत:स्फूर्त नहीं था। उसके लिए कम से कम उन लोगों की तरफ से पूरी तैयारी थी, जिन्होंने बाद में इसे जेएनयू के खिलाफ हमले का हथियार बनाया। क्या टेलीविजन चैनल इस पूर्व-नियोजित टकराव को, संघ-एबीवीपी के पक्ष से दर्ज करने के लिए ही बुलाए गए थे? आखिरकार, 'देशभक्तों बनाम देशद्रोहियों के युद्घÓ के भोंडे रूपक के प्रचार के जरिए, इस रिकार्डिंग का जेएनयू के छात्र आंदोलन को बदनाम करने में तो उपयोग किया ही जा सकता था। पहले पुणे फिल्म तथा टेलीविजन इंस्टीट्यूट, फिर मद्रास आईआईटी पेरियार-आंबेडकर स्टडी सर्किल, फिर गैर-नैट छात्रवृत्ति बंद किए जाने के खिलाफ आक्यूपाई यूजीसी और अंतत: रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या, हरेक मामले में मोदी सरकार और उसकी शिक्षा मंत्री के कदमों के खिलाफ संघर्ष के अगले मोर्चे पर रहे जेएनयू के वामपंथी छात्र आंदोलन पर अंकुश लगाना जरूरी था।
लेकिन, लगता है कि खेल शायद इससे भी बड़ा था। एबीवीपी के बुलाए वफादार चैनलों की रिकार्डिंग के माध्यम से सत्तापक्ष तथा उसके द्वारा नियंत्रित शासन-प्रशासन के पास, 9 फरवरी को जो कुछ हुआ था, उसकी साक्ष्यों समेत पूरी जानकारी शुरु से ही थी, जिसमें आपत्तिजनक नारे लगाने वालों से संबंधित जानकारी भी शामिल थी। इसके बावजूद, पहले एबीवीपी व भाजपा सांसद की शिकायत के माध्यम से सिर्फ आपत्तिजनक नारों को उछाला गया और उनके लिए छात्रसंघ के अध्यक्ष व महासचिव समेत, वामपंथी छात्र नेताओं के मुंह में ये नारे रखने की कोशिश की गई। इनका झूठ अब बाकायदा पकड़ा जा चुका है। लेकिन, कन्हैया की गिरफ्तारी से लेकर अब जमानत पर रिहाई तक, पिछले इतने घटनापूर्ण करीब चार हफ्तों में पुलिस, न सिर्फ उक्त नकाबपोशों को पकड़ नहीं पाई है बल्कि उनकी किसी तरह से पहचान तक नहीं कर पाई है। वास्तव में पुलिस इस सच्चाई को देखकर भी नहीं देखना चाहती है कि कोई बाहरी नकाबपोश थे, जिन्होंने उक्त आपत्तिजनक नारे लगाए थे।
इसका सबसे उदार अर्थ तो यही हो सकता है कि सरकार की और इसलिए उसकी पुलिस की भी दिलचस्पी, वास्तव में न तो उक्त राष्टï्रविरोधी नारों में थी और न उक्त नारे लगाने वालों को देश के कानून के तहत बनने वाली सजा दिलाने में। उनकी दिलचस्पी तो जेएनयू छात्र आंदोलन, जेएनयू और उसके बहाने से विपक्ष तथा विशेष रूप से वामपंथ को देशविरोधी प्रचारित करने में थी और यह उद्देश्य पूरा हो चुका है। लेकिन, इससे एक और गंभीर आशंका भी पैदा होती है। कहीं मौके पर संघ के वफादार टेलीविजन कैमरों की ही तरह, देश तोडऩे के नारे लगाने वाले नकाबपोशों की उपस्थिति भी प्रायोजित और इसलिए एक बड़े षडय़ंत्र का हिस्सा तो नहीं थी? बेशक, नवउदारवाद के इस जमाने में बार-बार कहकर 'षडय़ंत्र सिद्घांतÓ को इतना बदनाम कर दिया गया है कि ऐसे षडय़ंत्र की ओर इशारा करते हुए भी हिचक होती है। लेकिन, सच्चाई यह है कि दुनिया भर में सत्ताधारी ताकतेें, एजेंट प्रोवेकेटियरों का ऐसा उपयोग करती आई हैं और आज भी कर रही हैं।
वास्तव में इसी बीच सामने आई इशरत जहां प्रकरण को नया रंग देने की सारी कोशिशों के बावजूद, पूर्व-गृह सचिव जीके पिल्लै ने चिदंबरम तथा कांग्रेस को मुश्किल में डालने की कोशिश करते हुए भी, इस पूरे प्रकरण के खुफिया ब्यूरो का एक ''कंट्रोल्ड आपरेशनÓÓ होने की बात मानी है। सुरक्षातंत्र की भाषा के जानकारों के अनुसार, इस मामले में कंट्रोल्ड ऑपरेशन का संक्षिप्त अर्थ है—बहकाकर बुलाना और खत्म कर देना! हालांकि यह सोचकर दहशत होती है, फिर भी सच यही है कि जो खुफिया एजेंसियां एक कॉलेज छात्रा समेत चार लोगों को, उनकी पृष्ठïभूमि कुछ भी हो, फंसाकर षडय़ंत्रपूर्वक मौत के घाट उतार सकती हैं और इससे सत्ताधारी नेताओं की हत्या के षडय़ंत्र को विफल करना प्रचारित कर सकती हैं, क्या एक कार्यक्रम में अपने 'मनचाहेÓ नारे लगवाने के लिए तीन नकाबपोश खड़े नहीं कर सकती हैं? क्या पुलिस इसीलिए उन्हें बचा रही है? मुद्दा नारों के देशद्रोहात्मक या राजद्रोहात्मक होने न होने का नहीं है। मुद्दा इस मुद्दे को इतना तूल देने के बावजूद, ये नारे लगाने वालों की सही पहचान करने से शासनतंत्र के कतराने का है। जब तक उक्त नकाबपोशों की पक्की पहचान नहीं की जाती है और इसी के हिस्से के तौर पर छात्रसंघ के पदाधिकारियों समेत वामपंथी छात्र नेताओं को उक्त नारों से अलग नहीं किया जाता है, तब तक यह संदेह बना ही रहेगा और समय गुजरने के साथ और गहरा होता जाएगा कि कहीं यह भी छात्र आंंदोलन तथा आम तौर पर विपक्ष के खिलाफ खुफिया ब्यूरो-संघ परिवार का मिला-जुला ''कंट्रोल्ड ऑपरेशनÓÓ तो नहीं था! यह ऑपरेशन उनके लिए अंतत: फायदे का सौदा होगा या घाटे का, यह एक अलग विषय है।
http://www.deshbandhu.co.in/article/5758/10/330#.Vt0ab30rK1s
Good analysis
ReplyDelete