Mukutdhari Agrawal
कुछ वर्ष पूर्व इंटीलीजीलेंस व्युरों (आई बी ) के पूर्व संयुक्त निर्देशक एम के धर की एक पुस्तक खुले रहस्य ' आई थी जिसमे उन्होने रहस्योद्घाटन किया था कि मुकेश अंबानी के स्व0 पिता धीरु भाई अंबानी ने किस तरह काँग्रेस पार्टी , उसके मंत्रियो और वरिष्ठ प्रशासको को प्रभावित किया था । पुस्तक से कुछ अंश :-
" 1980 मे धीरुभाई भारत के औधौगिक व आर्थिक परिदृश्य पर एकाएक छा गए / इसी समय काँग्रेस पार्टी ,उसके कुछ मंत्री व वरिष्ठ प्रशासक अंबानी के आकर्षण मे आए और उन्होने उभरते उद्योगपति को 500 बड़े उद्योगपतिओ के दायरे मे शामिल होने मे मदद की । 1986 मे धीरुभाई अंबानी भारतीय व्यवस्था तंत्र को अभूतपूर्व रूप से प्रभावित करने की स्थिति मे आ चुके थे । उन्होने इन्दिरा प्रशासन मे अपनी पैठ बना ली थी । इसका जरिया बने प्रणव मुखर्जी ,जैसे राजनैतिक प्रशासक ,और लाभान्वित करनेवाले अनेक पेशेवर प्रशासक जिनमे गोपी अरोरा ,नितीश सेनगुप्ता एवं एन के सिंह प्रमुख थे । 1986 मे धीरु भाई समझ गए थे कि बोली लगाने और खरीदने से भारत उनका हो सकता है "
"धीरुभाई अंबानी ने देश को सबसे बड़े औढयोगिक घरानो मे एक दिया । इसके लिए उन्होने भारत की राजनेतिक एवं प्रशासकीय पद्धति को तोड़ -मरोड़ कर रख दिया । अपनी विलक्षण प्रगति मशीन मे उन्होने अपने खास तरीके से मानव मूल्यो ,संवेधानिक औचित्यों तथा प्रशासन की कानूनी धारणायों के टुकड़े -टुकड़े कर हरेक को भ्रष्ट कर डाला ।"
- एम के धर ,पूर्व संयुक्त निर्देशक , आई बी
' खुले रहस्य 'पुस्तक से साभार
मुकेश अंबानी स्व 0 धीरु भाई अंबानी के बड़े पुत्र है । जब पिता ने काँग्रेस सत्ता और उसके मंत्रियो तथा वरीय प्रशासकीय अधिकारिओ को प्रभावित कर इतना बड़ा औढयोगिक साम्राज्य कायम कर लिया तब आज उनके पुत्र मुकेश वर्तमान प्रधान मंत्री के संपर्क का कथित लाभ ले रहे है तो आश्चर्य की बात क्या है ।
https://www.facebook.com/mukutdhari.agrawal/posts/1099126916836443
बुजुर्ग पत्रकार एवं उद्योगपति 'मुकुट धारी अग्रवाल ' साहब के इस रहस्योद्घाटन ने मुझे भी निकट इतिहास को स्मरण करने को प्रेरित कर दिया है।
1972 में सरधना रोड , मेरठ स्थित जिस प्राईवेट कंपनी के अकाउंट्स विभाग से मैंने रोजगार प्रारम्भ किया था उसमें मेरे साथ 'पतला' गाँव , मोदिनगर के एक कपड़ा व्यापारी अग्रवाल साहब के सबसे छोटे पुत्र भी कुछ समय बाद मेरे साथ आ गए थे। वह वस्तुतः LLb की पढ़ाई मेरठ कालेज , मेरठ से कर रहे थे किन्तु सांयकालीन कक्षाएं होने के कारण दिन में जाब ज्वाईन करके अपना खर्च निकाल लेते थे। उनके एक अध्यापक 'सिन्हा' साहब सुप्रसिद्ध न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा साहब के रिश्तेदार थे। प्रोफेसर सिन्हा साहब ला के साथ-साथ अपने छात्रों को तत्कालीन राजनीतिक घटनाक्रम का विश्लेषण भी समझाते चलते थे। मेरे सहकर्मी अग्रवाल साहब तो व्यापारिक घराने से थे और उनको टेक़सेशन में डिग्री हासिल करनी थी, राजनीति में उनको खुद दिलचस्पी नहीं थी । मेरे राजनीतिक रुझान के मद्दे नज़र वह मुझे कक्षा में प्राप्त विश्लेषणों से अवगत कराते रहते थे।
इन्दिरा गांधी का चुनाव रद्द हो सकता है :
प्रोफेसर सिन्हा ने 1973 में ही घोषित कर दिया था कि, रायबरेली संसदीय क्षेत्र से पी एम इन्दिरा गांधी का चुनाव रद्द हो सकता है क्योंकि न्यायाधीश सिन्हा साहब एक निर्भीक और निष्पक्ष व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति हैं। सुचेता कृपलानी जी के मुख्यमंत्रित्व काल में 1963 में वह जुड़ीशियल मेजिस्ट्रेट नियुक्त हुये थे और 1973 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायन/इंदिरा गांधी के चुनाव की सुनवाई कर रहे थे। प्रसंग वश प्रोफेसर सिन्हा साहब ने बताया था कि, जब चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने तब उनके एक रिश्तेदार का केस मेरठ के ज़िला न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा साहब की अदालत में चल रहा था। चरण सिंह फैसला अपने पक्ष में कराने के उद्देश्य से जज साहब की कोठी पर पहुँच गए थे। जज सिन्हा साहब ने अर्दली से पुछवाया कि, उनसे पता करो कि वह चौधरी चरण सिंह हैं या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री। चौधरी चरण सिंह ने अर्दली से कहलवा दिया था कि जज साहब से कह दो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह आए हैं। जज साहब ने कहला भेजा कि उनको मुख्यमंत्री से नहीं मिलना है और बाद में फैसला चरण सिंह के रिश्तेदार के विरुद्ध आया था। इसी प्रकार 12 जून 1975 को फैसला पी एम इन्दिरा गांधी के विरुद्ध आया जिसका अनुमान प्रोफेसर सिन्हा ने 1973 में ही लगा लिया था।
1980 से श्रम न्यायालयों में निर्णय श्रमिकों के विरुद्ध होने लगेंगे ::
इसी प्रकार 1973 में ही प्रोफेसर सिन्हा का आंकलन था कि, जैसी आर्थिक राजनीति चल रही है उसके अनुसार 1980 आते-आते श्रम न्यायालयों से फैसले श्रमिकों के विरुद्ध आने शुरू हो जाएँगे। 25/26 जून 1975 की एमर्जेंसी ,1977 की जनता सरकार और 1979 में उसका पतन, चौधरी चरण सिंह की इन्दिरा जी के सहयोग से गठित सरकार और उसका पतन और फिर 1980 का चुनाव RSS के अंदरूनी समर्थन से जीत कर इन्दिरा जी की पुनर्वापिसी ही वह कारण थी कि, सरकार में व्यापारियों/उद्योगपतियों का हस्तक्षेप प्रभावी भूमिका में आता चला गया जिसका वर्णन मुकुटधारी अग्रवाल साहब ने एम के धर ,पूर्व संयुक्त निर्देशक , आई बी द्वारा लिखित पुस्तक' खुले रहस्य ' के हवाले से किया है।
सरकार पर व्यापार जगत का ही यह प्रभाव था कि, हकीकत में श्रम न्यायालयों ने मालिकों के हित में मजदूरों के विरुद्ध निर्णय सुनाये। अब तो मजदूरों की दशा 18 वीं सदी की ओर लौट गई है।
उदारीकरण का अंजाम :
रिलाएन्स जियो और वर्तमान पी एम के रिश्तों की जो चर्चा है वह उदारीकरण की स्व्भाविक परिणति है। 1985 का चुनाव भी राजीव गांधी ने RSS के अंदरूनी समर्थन से ही जीता था। उन्होने ही सरकार का कार्पोरेटिकरण शुरू किया था अरुण सिंह व अरुण नेहरू के सहयोग से। यही अरुण नेहरू बाजपेयी साहब की NDA सरकार के भी सलाहकार बने थे। राजीव गांधी के वित्तमंत्री वी पी सिंह ने जब व्यापार जगत में आय कर के छापे डलवाए तब उनको बर्खास्त करा दिया गया और जब जन-समर्थन से वह पी एम बन भी गए तब उनकी एक बैसाखी RSS समर्थक भाजपा थी। धीरुभाई अंबानी को तवज्जो न देने के कारण मण्डल रिपोर्ट लागू करने को बहाना बना कर भाजपा ने उनकी सरकार को गिरा दिया था। देश में जातीय दंगे/सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे।
1991 में THE INSIDER उपन्यास ( जिसमें कुबूला गया है कि, 'हम स्वतन्त्रता के भ्रम जाल में जी रहे हैं' ) बाद में लिखने वाले पी वी नरसिंघा राव साहब के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह जी ने देश में 'उदार आर्थिक' नीतियाँ लागू कीं थीं जिनको न्यूयार्क जा कर भाजपा नेता एल के आडवाणी ने उनकी नीतियों को चुराया जाना बताया था। इसीलिए 1996 में 13 दिन के लिए फिर 1998 में 13 माह के लिए व 1999 में 60 माह के लिए भाजपा नीत सरकारें रहीं एवं 1999 से 2014 तक मनमोहन नीत कांग्रेस सरकारें दोनों में उदारीकरण बढ़ते-बढ़ते सरकारी उपक्रम निजी हाथों को सौंपे जाते रहे।
कंपनी शासन की वापसी :
रिलाएन्स जियो क्यों? 1912 के राष्ट्रपति चुनाव की ओर ध्यान दें जब मनमोहन सिंह जी के आशीर्वाद से मुकेश अंबानी की इच्छा पर प्रणव मुखर्जी साहब राष्ट्रपति बनाए गए थे जिनहोने पद पर रहते हुये 'पुजारी' की भूमिका अपने गाँव जा कर निभाई थी । 2014 का चुनाव कारपोरेट वर्चस्व स्थापित करने का ही चुनाव था। 2019 का चुनाव ईस्ट इंडिया कंपनी की तर्ज़ पर प्राईवेट कंपनियों के सरकार पर खुले नियंत्रण को स्थापित करने जा रहा है।
ब्राह्मण वाद कारपोरेट शासन में सहायक :
देश में जितने भी राजनीतिक दल हैं सबका नियंत्रण ब्राह्मणों अथवा ब्राह्मण वादियों के हाथों में है। साम्यवादी दल और सम्पूर्ण वामपंथ भी इससे अछूता नहीं रहे हैं। वर्तमान राजनीति और अर्थनीति तेज़ी से ब्राह्मण वाद की जकड़ स्थापित करने की ओर बढ़ रही है कारपोरेट घरानों का इसी में हित है जो पूरा करेंगे ब्राह्मण वादी मोदीईस्ट कामरेड्स। साधारण जनता को जागरूक करने वाला आज कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व सामने नहीं है। कथनी और करनी में भारी अंतर है। इतिहास से कोई सबक लेने वाला नहीं है।
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