****** हाल ही में मथुरा में वामदलों का एक दिवसीय क्षेत्रीय सम्मेलन हुआ ......... वामदलों को मीडिया में चल रही बहसें प्रभावित नहीं करतीं।यह वामदलों की सबसे बड़ी कमजोरी है। ******
Madhuvandutt Chaturvedi
छह वामदलों के मथुरा क्षेत्रीय सम्मलेन में कल सीपीआई राज्य सचिव का. (डॉ) गिरीश शर्मा को सुना । प्रतिनिधि सम्मलेन की बजाय चुनाव सभा में दिया जा रहा भाषण लगा । सपा बसपा कांग्रेस और बीजेपी को समानरूप से लांछित कर रहे थे । आगामी विधानसभा चुनाव के लिए जनता को कोई स्पष्ट सन्देश मैं नहीं सुन सका । राज्य में वामपंथी दलों की चुनाव में स्वतंत्र भागीदारी के लिए बस्तुगत आधारों का कोई मार्क्सवादी विश्लेषण नहीं था । कुल मिलाकर निराशा हुई । लेकिन इस बात की ख़ुशी हुई कि क्षेत्र के तमाम साथी एक जगह इकठ्ठा हुए और उत्साह के साथ एकदूसरे से मिले ।
https://www.facebook.com/madhuvandutt/posts/1006440102802056
यूपी में वाम का संकट-3-
वाम को यूपी में विकास करना है तो अपने पुराने वस्त्रों को छोड़ना पड़ेगा। विभिन्न किस्म की संकीर्णताएं, कठमुल्लापन और वामपंथी रोमैंटिशिज्म को छोड़ना होगा।वाम को सबसे ज्यादा क्षति इन चीजों ने पहुँचायी है।एक खास किस्म के पुराने आचार-व्यवहार ,जीवनशैली को बनाए रखकर वाम के जनाधार का विकास संभव नहीं है।यूपी में बहुत बड़ा हिस्सा है जो आपसी पंगों के कारण वामदलों से निकाल दिया गया। वाम के अंदर सामान्य सी भी सहिष्णुता और उदारता नहीं है,वामनेता और कार्यकर्ता बहुत ही जल्दी फतबे देने लगते हैं,तंज कसने लगते हैं,सामान्य भाषा में कहें तो डाह और कुतर्क या अविवेकवाद इस तरह के कॉमरेडों की सबसे बड़ी पूंजी है।अपनी घटिया समझ के आधार पर वे विभिन्न वर्गों और समुदायों के बारे में राय बनाए रखते हैं,इसके चलते उनके मन और आचरण में कम्युनिस्ट पार्टी के करीब आने के बाद भी कोई बदलाव नहीं आता।विभिन्न पेशेवर तबकों और कामों के प्रति सम्मान का भाव एकसिरे से गायब है।खासकर मध्यवर्गीय तबके के लोग जिन पेशों में काम करते हैं उनके प्रति अवैज्ञानिक समझ इनमें कूट-कूटकर भरी हुई है।वे हर मध्यवर्गीय व्यक्ति को ´लंपट किसान´ की नजर से देखते हैं,औचकभाव से देखते हैं।उनमें मध्यवर्गीय यथार्थ को जानने और समझ बनाने की बुद्धि अभी तक विकसित नहीं हो पायी है।
मार्क्सवाद को जानने का अर्थ है और भी विनम्र बनना है,लेकिन यूपी में उलटा है
यूपी में वाम का संकट-5-
समाजवादी विचारों के प्रचार-प्रसार में अहंकार और दम्भ बहुत बड़ी समस्या है।मैंने जब आरंभ में मार्क्सवाद पढ़ा और मथुरा में जन सांस्कृतिक मंच के मित्रों में काम करता था तो अमूमन समाजवाद,मार्क्सवाद के अहंकार और श्रेष्ठताबोध से भरी बातें किया करता था,हमेशा पार्टी लाइन की श्रेष्ठता हर मंच पर हर गोष्ठी में सिद्ध करता रहता था,लेकिन कुछ दूसरे मित्र भी थे जिनमें एकदम अहंकार नहीं था,वे कभी पार्टी लाइन की श्रेष्ठता की वकालत नहीं करते थे।मैंने बाद में उनसे विनम्रता सीखी,अहंकार को त्यागकर अपनी बात कहने की कला सीखी।
पार्टी लाइन सही है,पार्टी कभी गलत नहीं हो सकती,इसके आदर्श पुरूष थे सव्यसाची जिनसे हम बहुत प्रभावित थे,बाद में अनुभव से पता चला कि मामला इतना सरल नहीं है।अनेक मामलों में,विषयों में पार्टी की कोई लाइन नहीं है,अथवा जो लाइन है वह सुसंगत नहीं है।
मार्क्सवाद को जानने का अर्थ है और भी विनम्र बनना है,लेकिन यूपी में उलटा है,हो सकता है अन्यत्र भी यही समस्या हो। प्रगतिशील लेखकों के एक वर्ग में यह समस्या आज भी है। दंभ और अहंकार के कंधे पर सवार होकर जब मार्क्सवाद आएगा तो बेहद खतरनाक होगा।जेएनयू में जाने के बाद अहंकार एकदम चूर-चूर हो गया,वहां जाकर पता चला कि मार्क्सवाद के बारे में ,कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में कितना कम जानता था और पहलीबार यह लगा कि मार्क्स अपूर्ण हैं। अनेक मामलों में गलत भी। जेएनयू जाने के बाद महसूस हुआ कि कुछ और चाहिए जो मार्क्सवाद के बाहर है उसे खोजो,कुछ और चाहिए जो पार्टी लाइन के बाहर है उसे खोजो। पार्टीलाइन के बाहर ज्ञान खोजे बिना न तो पार्टी सुधर सकती है और न कॉमरेड सुधर सकते हैं। सवाल यह है हम मार्क्सवाद क्यों पढ़ते हैं ॽ हम क्या जानना चाहते हैं ॽ जो जानना चाहते हैं उसका क्या करना चाहते हैं ॽ
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कहने को तो भाकपा और माकपा 'जनवाद' पर आधारित दल हैं सैद्धान्तिक रूप से ,किन्तु व्यावहारिकता में ऐसा है नहीं किसी न किसी व्यक्ति - विशेष का ही नियंत्रण पूरी प्रादेशिक पार्टी पर रहता आया है। भाकपा में इसे AAP परिवार कह सकते हैं। अतः जैसा कि, मधुवन दत्त चतुर्वेदी साहब ने लिखा है ---" सीपीआई राज्य सचिव का. (डॉ) गिरीश शर्मा को सुना । प्रतिनिधि सम्मलेन की बजाय चुनाव सभा में दिया जा रहा भाषण लगा । सपा बसपा कांग्रेस और बीजेपी को समानरूप से लांछित कर रहे थे । ............................ राज्य में वामपंथी दलों की चुनाव में स्वतंत्र भागीदारी के लिए बस्तुगत आधारों का कोई मार्क्सवादी विश्लेषण नहीं था । कुल मिलाकर निराशा हुई ............................" इसे पूर्णत : डॉ गिरीश का व्यक्तिगत दृष्टिकोण नहीं मानना चाहिए क्योंकि, नियंता AAP परिवार के नायक का कहना है कि, गिरीश तभी तक पद पर हैं जब तक उनका हाथ उनकी पीठ पर है। उनके अनुसार जिस दिन कामरेड्स को पता चलेगा कि, अब उनका हाथ गिरीश की पीठ पर नहीं है उसी दिन उनको पद से हटना पड़ेगा। एक राष्ट्रीय सचिव से उन्होने डॉ गिरीश को भिड़वा दिया है और उनको फोन पर विकल्प के रूप में जिन कामरेड का हवाला दिया था इस विशेषण के साथ कि, " वह भी कोई अच्छे नहीं हैं " और इसे सही सिद्ध करने के लिए उनसे भी उन राष्ट्रीय सचिव के विरुद्ध सोशल मीडिया पर लिखवा चुके हैं। वह नायक कामरेड, उनकी पत्नी और उनके दत्तक पुत्र (A A P) ही यू पी में पार्टी की दिशा तय करते हैं। उन नायक कामरेड ने गिरीश जी को स्पष्ट निर्देश दिया हुआ है कि, obc व sc कामरेड्स से सिर्फ काम ही लेना है उनको कोई पद व ज़िम्मेदारी नहीं देना है और इसी का परिणाम था भाकपा प्रत्याशी रहे obc व sc कामरेड्स अपने दल-बल सहित भाकपा को अलविदा कह गए। मित्रसेन यादव जी को भी अपने दल - बल सहित तब भाकपा को अलविदा कहना पड़ गया जबकि वह प्रदेश सचिव थे। जो भी प्रदेश सचिव होता है वह सिर्फ वैधानिक (डियूरे ) होता है जबकि वास्तविक नियंता (डिफेकटो) यही नायक कामरेड रहते हैं जिस कारण मित्रसेन जी को उस पार्टी को छोडना पड़ा जिसके लिए संघर्ष करते हुये वह बूढ़े हुये थे। चाहे भीखा लाल जी रहे हों चाहे ऊदल जी अथवा विश्वनाथ शास्त्री जी दिशा निर्धारण स्वतंत्र रूप से करने में असमर्थ महसूस करते रहे।
जैसा कि, जगदीश्वर चतुर्वेदी जी लिखते हैं --- " यह एक वास्तविकता है कि वाम के पास यूपी के मध्यवर्ग को आकर्षित करने का कभी भी कोई ब्लू प्रिंट नहीं रहा "। भाकपा के AAP परिवार के नायक सरीखे कामरेड्स पार्टी का विस्तार और वृद्धि चाहते ही नहीं हैं अन्यथा उनका निजी 'साम्राज्य ' जो ध्वस्त हो जाएगा।
इन परिस्थितियों में यू पी के 2017 के चुनावों में छह वामपंथी दलों के अलग से खड़ा होना अप्रत्यक्ष रूप से फासिस्ट शक्तियों के लिए ही मददगार रहेगा।
( विजय राजबली माथुर )
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मथुरा में वामपंथी दलों के संयुक्त सम्मेलन को संबोधित करते हुए भाकपा उत्तर प्रदेश के सचिव डा. गिरीश |
Madhuvandutt Chaturvedi
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वामदलों को मीडिया में चल रही बहसें प्रभावित नहीं करतीं।यह वामदलों की सबसे बड़ी कमजोरी है
यूपी में वाम का संकट-1-
यूपी में वाम का संकट-1-
हाल ही में मथुरा में वामदलों का एक दिवसीय क्षेत्रीय सम्मेलन हुआ।इस सम्मेलन में किस तरह की बहस हुई और किन आधारों पर बहस हुई इस पर कोई ठोस जानकारी मेरे पास नहीं है। लेकिन कुछ खरी-खोटी सच्चाईयां हैं जिनको बहस के केन्द्र में रखना जरूरी है।हमें मालूम है वामदलों को मीडिया में चल रही बहसें प्रभावित नहीं करतीं।यह वामदलों की सबसे बड़ी कमजोरी है।
यूपी में वाम बेहद कमजोर अवस्था में है।वाम की इस कमजोरी का प्रधान कारण है वामनेताओं और वामदलों की यूनिटों का गैर-क्रांतिकारी और अ-लोकतांत्रिक चरित्र।इसके कारण बार-बार इकाईयां बनती-बिगड़ती रहती हैं।इसके अलावा वामदलों खासकर भाकपा-माकपा-माले में वे सभी वैचारिक कमजोरियां हैं जो इस क्षेत्र के गैर-वामनेताओं में हैं। इसके अलावा तीनों कम्युनिस्ट दलों में मार्क्सवादी साहित्य,ज्ञान-विज्ञान आदि के साहित्य के पठन-पाठन का अभाव है।इन इलाकों में भाकपा-माकपा-माले के अधिकांश सदस्य और नेतागण विश्व मार्क्सवादी साहित्य को पढ़ते- पढ़ाते नहीं हैं।अधिक से अधिक पार्टी की प्रचार सामग्री ही उनका ज्ञान स्रोत है।मार्क्सवादी साहित्य के ज्ञान के बिना कम्युनिस्ट कभी भी प्रभावित नहीं करते,बल्कि बे-सुरे से लगते हैं।इसके अलावा इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के पास यूपी में सांगठनिक विकास की कोई सुनियोजित योजना नहीं है।वे धार्मिक कर्मकांड की तरह किसी तरह लस्टम-पस्टम करके पार्टी यूनिटों को चलाने को ही क्रांति मानते हैं।
जो लोग सालों से इन दलों में हैं उनकी चेतना और वैचारिक समझ में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है।मैं निजी तौर पर अनेक कम्युनिस्टों को जानता हूँ।मैंने स्वयं मथुरा में कई साल माकपा सदस्य के रूप में काम भी किया है। इन इलाकों में जो कम्युनिस्ट जितना ज्यादा जड़ है वह उतना ही बड़ा क्रांतिकारी है।पढ़े-लिखे को तो ये फुली-फालतू समझते हैं।सर्जनात्मकता और नई वैचारिक बहसों में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती।ऐसी स्थिति में यूपी में वाम के भविष्य की सहज कल्पना कर सकते हैं कि आने वाले चुनाव में वे क्या करेंगे ! हमारा मानना है यूपी के कम्युनिस्टों के वैचारिक तंत्र और आंतरिक सांगठनिक ढ़ाँचे को खोलना चाहिए।उस पर खुली बहस होनी चाहिए।
वाम का उदीयमान मध्यवर्ग से अलगाव
यूपी में वाम का संकट-2-
यूपी में वाम के विकास में सबसे बड़ी बाधा है वाम का उदीयमान मध्यवर्ग से अलगाव।यूपी में यह सच है जातिवाद और सामंती सामजिक संरचनाएं बहुत बड़ी बाधाएं हैं।लेकिन वाम आजादी के बाद यूपी में पैदा हुए मध्यवर्ग की प्रकृति और उसकी राजनीतिक-बौद्धिक-पेशेवर क्षमताओं को समझने और उसके अनुकूल अपने क्रांतिकारी औजारों को निर्मित करने में वाम पूरी तरह असमर्थ रहा है। यूपी में बसपा-सपा-भाजपा का नया उभार इसलिए संभव हुआ क्योंकि इन दलों ने सही ढ़ंग से मध्यवर्ग को पकड़ा।मध्यवर्ग को बसपा-सपा-भाजपा सम्बोधित करते हैं उस तरह वाम सम्बोधित नहीं कर सकता। बुर्जुआदलों का जो लक्ष्य है वह लक्ष्य वामदलों का नहीं हो सकता।लेकिन यह एक वास्तविकता है कि वाम के पास यूपी के मध्यवर्ग को आकर्षित करने का कभी भी कोई ब्लू प्रिंट नहीं रहा।
यूपी में मध्यवर्ग को अपनी ओर खींचने के लिए जिस तरह की व्यापक सांस्कृतिक-सामाजिक समझ चाहिए वह भी कम्युनिस्ट नेतृत्व विकसित नहीं कर पाए,इसके विपरीत यह देखा गया कि कम्युनिस्ट नेताओं और कार्यकर्ताओं में मध्यवर्ग के प्रति,खाते-पीते लोगों के प्रति एक खास किस्म की मन ही मन नफरत है। इसे बनाए रखने में वामनेताओं और उनके आचरण ने नकरात्मक भूमिका निभायी है।
हम यह भूल जाएं कि साठ और सत्तर के दशक में वामदलों का किस तरह का जलवा था! उस दौर में सारे देश में भिन्न किस्म का राजनीतिक परिवेश था।वाम का बुनियादी संकट यह है कि मध्यवर्ग से वह दूर रहा और मजदूर-किसान को अपना बना न सका।फलतःउसकी स्थिति ठन ठन गोपाल जैसी होकर रह गयी !
दिलचस्प बात यह यह है वाम का अधिकाँश नेतृत्व मध्यवर्ग से आता है लेकिन मध्यवर्ग को आकर्षित करना नहीं जानता। मध्यवर्ग को आकर्षित करने की कला वाम में क्यों नहीं विकसित कर पाया ॽ क्यों मध्यवर्ग के प्रति सामंती घृणा घर किए रही ॽमध्यवर्ग के अभाव में गतिशील कम्युनिस्ट पार्टी बनाना संभव नहीं है।केरल-पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के विकास में मध्यवर्ग की बहुत बड़ी भूमिका रही है।इन दिनों बंगाल में वाम के सामने जो संकट है उसमें मध्यवर्ग के सचेत हिस्सों का वाम को छोड़कर टीएमसी के साथ चले जाना है,सबसे बड़ी समस्या है।वाम के पास वोट है,जनता है,लेकिन मध्यवर्ग भाग खड़ा हुआ है।
वाम को यह बात समझनी होगी कि यूपी में वाम का विस्तार करना है तो मध्यवर्ग को आकर्षित करने की क्षमता सांगठनिक तौर पर विकसित करनी होगी।मध्यवर्ग के बिना संगठन को गतिशील नहीं बना सकते।दूसरी बात यह कि जो लोग मध्यवर्ग से आते हैं और वाम के सदस्य हैं उनकी वैचारिक छानबीन करने की जरूरत है।
मेरा मानना है फिलहाल वाम के पास जो मध्यवर्गीय कॉमरेड हैं इनमें अधिकतर वे हैं जो एकदम सर्जनाहीन हैं,यानी वाम के पास जो मध्यवर्ग के लोग आए हैं ये वे लोग हैं जिनकी मध्यवर्ग में कोई साख नहीं है,सर्जनात्मक –वैचारिक पहचान नहीं है।रद्दी किस्म के मध्यवर्गीय लोगों को लेकर आकर्षित करने की क्षमता पैदा नहीं की जा सकती।
संकीर्णताएं, कठमुल्लापन और वामपंथी रोमैंटिशिज्म को छोड़ना होगायूपी में वाम का संकट-3-
वाम को यूपी में विकास करना है तो अपने पुराने वस्त्रों को छोड़ना पड़ेगा। विभिन्न किस्म की संकीर्णताएं, कठमुल्लापन और वामपंथी रोमैंटिशिज्म को छोड़ना होगा।वाम को सबसे ज्यादा क्षति इन चीजों ने पहुँचायी है।एक खास किस्म के पुराने आचार-व्यवहार ,जीवनशैली को बनाए रखकर वाम के जनाधार का विकास संभव नहीं है।यूपी में बहुत बड़ा हिस्सा है जो आपसी पंगों के कारण वामदलों से निकाल दिया गया। वाम के अंदर सामान्य सी भी सहिष्णुता और उदारता नहीं है,वामनेता और कार्यकर्ता बहुत ही जल्दी फतबे देने लगते हैं,तंज कसने लगते हैं,सामान्य भाषा में कहें तो डाह और कुतर्क या अविवेकवाद इस तरह के कॉमरेडों की सबसे बड़ी पूंजी है।अपनी घटिया समझ के आधार पर वे विभिन्न वर्गों और समुदायों के बारे में राय बनाए रखते हैं,इसके चलते उनके मन और आचरण में कम्युनिस्ट पार्टी के करीब आने के बाद भी कोई बदलाव नहीं आता।विभिन्न पेशेवर तबकों और कामों के प्रति सम्मान का भाव एकसिरे से गायब है।खासकर मध्यवर्गीय तबके के लोग जिन पेशों में काम करते हैं उनके प्रति अवैज्ञानिक समझ इनमें कूट-कूटकर भरी हुई है।वे हर मध्यवर्गीय व्यक्ति को ´लंपट किसान´ की नजर से देखते हैं,औचकभाव से देखते हैं।उनमें मध्यवर्गीय यथार्थ को जानने और समझ बनाने की बुद्धि अभी तक विकसित नहीं हो पायी है।
वर्तमान की नब्ज जिसके हाथ में नहीं है
यूपी में वाम का संकट-4-
यूपी में वाम का संकट-4-
यूपी और दूसरे हिन्दीभाषी राज्यों में वामकर्मियों में स्वतंत्रता की भावना सबसे गरम रूप में नजर आती है।हर समय वे क्रांति,समाजवाद आदि को लेकर गरमागरम बातें करते हैं।सबको धिक्कारते हैं,पूंजीवाद की भयावह तस्वीर पेश करते हैं और अपनी श्रेष्ठता का जाप करते हैं।इनमें सबमें गरम आग मिलेगी।लेकिन मुश्किल यह है कि समाज में कहीं आग नहीं है।यह असल में ऐसे व्यक्ति की आग है जिसने समाज से वैराग्य ग्रहण कर लिय़ा है,जो सामाजिक यथार्थ से भागा हुआ है,वर्तमान की नब्ज जिसके हाथ में नहीं है।मुक्तिबोध की भाषा में कहें यह अस्थायी सन्यासी है।सुनने में इस तरह का सन्यास भाव अच्छा लगता है।लेकिन यथार्थ में यह दमघोंटू है।इसे हम यथार्थरहित स्वतंत्रता कहें तो समीचीन होगा।कम्युनिस्टों में यथार्थरहित स्वतंत्रता कब और कैसे आई इसके बारे में ठीक से बताना मुश्किल है।यह ऐसा कॉमरेड है जिसने सही ढ़ंग से न तो जनतंत्र को देखा है और न उसके विस्तार को महसूस ही किया है उसके लिए तो जनतंत्र आज भी बोगस है,बेकार है।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से वह लोकतंत्र में दिलचस्पी नहीं लेता।आए दिन लोकतंत्र पर हमले करता है,लोकतंत्र में शामिल दलों को निशाना बनाता है।उसके लिए सपा बुरा दल है,बसपा गुण्डों का दल है,कॉग्रेस बिकी हुई पार्टी है।भाजपा चोर है।यदि कोई ईमानदार हैं तो बस कम्युनिस्ट! इस तरह का ज्ञान कितना अज्ञान से भरा है इसे बताने की जरूरत नहीं है।इन इलाकों के कॉमरेड लोकतंत्र में नहीं शब्दतंत्र में जिंदा रहता है।लोकतंत्र से विमुख रहकर शब्दों की जुगाली करना समाजवाद नहीं है और न यह एक अच्छे कम्युनिस्ट का ही लक्षण है। एक अच्छा कम्युनिस्ट वह है जो लोकतंत्र को जाने,यथार्थ को जाने,उसे व्यक्त करना जाने।
मसलन्,इन दिनों हम सब फेसबुक पर हैं,यूपी के तमाम नेता और कॉमरेड भी फेसबुक पर हैं,पता करो ये लोग सारे दिन क्या करते हैं ,ये अपने विचारों का प्रचार क्यों नहीं करते,किसने रोका है यहां पर,फेसबुक पर तो पूरी आजादी है,कुछ भी लिख सकते हैं.लेकिन वे नहीं लिखेंगे।वे सामान्य सा मेल-मिलाप ,संचार भी नहीं करते फेसबुक पर।इससे पता चलता है ये लोग नए ज्ञान को ग्रहण करने और उसके अनुकूल आचरण करने से डरते हैं।नए के प्रति भय,संकोच और कुंठाएं इस कदर भरी पड़ी हैं कि वे नए विचार व्यक्त करने वाले साथियों को तत्काल वर्ग शत्रु घोषित कर देते हैं,बिका हुआ घोषित कर देते हैं।
मार्क्सवाद को जानने का अर्थ है और भी विनम्र बनना है,लेकिन यूपी में उलटा है
यूपी में वाम का संकट-5-
समाजवादी विचारों के प्रचार-प्रसार में अहंकार और दम्भ बहुत बड़ी समस्या है।मैंने जब आरंभ में मार्क्सवाद पढ़ा और मथुरा में जन सांस्कृतिक मंच के मित्रों में काम करता था तो अमूमन समाजवाद,मार्क्सवाद के अहंकार और श्रेष्ठताबोध से भरी बातें किया करता था,हमेशा पार्टी लाइन की श्रेष्ठता हर मंच पर हर गोष्ठी में सिद्ध करता रहता था,लेकिन कुछ दूसरे मित्र भी थे जिनमें एकदम अहंकार नहीं था,वे कभी पार्टी लाइन की श्रेष्ठता की वकालत नहीं करते थे।मैंने बाद में उनसे विनम्रता सीखी,अहंकार को त्यागकर अपनी बात कहने की कला सीखी।
पार्टी लाइन सही है,पार्टी कभी गलत नहीं हो सकती,इसके आदर्श पुरूष थे सव्यसाची जिनसे हम बहुत प्रभावित थे,बाद में अनुभव से पता चला कि मामला इतना सरल नहीं है।अनेक मामलों में,विषयों में पार्टी की कोई लाइन नहीं है,अथवा जो लाइन है वह सुसंगत नहीं है।
मार्क्सवाद को जानने का अर्थ है और भी विनम्र बनना है,लेकिन यूपी में उलटा है,हो सकता है अन्यत्र भी यही समस्या हो। प्रगतिशील लेखकों के एक वर्ग में यह समस्या आज भी है। दंभ और अहंकार के कंधे पर सवार होकर जब मार्क्सवाद आएगा तो बेहद खतरनाक होगा।जेएनयू में जाने के बाद अहंकार एकदम चूर-चूर हो गया,वहां जाकर पता चला कि मार्क्सवाद के बारे में ,कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में कितना कम जानता था और पहलीबार यह लगा कि मार्क्स अपूर्ण हैं। अनेक मामलों में गलत भी। जेएनयू जाने के बाद महसूस हुआ कि कुछ और चाहिए जो मार्क्सवाद के बाहर है उसे खोजो,कुछ और चाहिए जो पार्टी लाइन के बाहर है उसे खोजो। पार्टीलाइन के बाहर ज्ञान खोजे बिना न तो पार्टी सुधर सकती है और न कॉमरेड सुधर सकते हैं। सवाल यह है हम मार्क्सवाद क्यों पढ़ते हैं ॽ हम क्या जानना चाहते हैं ॽ जो जानना चाहते हैं उसका क्या करना चाहते हैं ॽ
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कहने को तो भाकपा और माकपा 'जनवाद' पर आधारित दल हैं सैद्धान्तिक रूप से ,किन्तु व्यावहारिकता में ऐसा है नहीं किसी न किसी व्यक्ति - विशेष का ही नियंत्रण पूरी प्रादेशिक पार्टी पर रहता आया है। भाकपा में इसे AAP परिवार कह सकते हैं। अतः जैसा कि, मधुवन दत्त चतुर्वेदी साहब ने लिखा है ---" सीपीआई राज्य सचिव का. (डॉ) गिरीश शर्मा को सुना । प्रतिनिधि सम्मलेन की बजाय चुनाव सभा में दिया जा रहा भाषण लगा । सपा बसपा कांग्रेस और बीजेपी को समानरूप से लांछित कर रहे थे । ............................ राज्य में वामपंथी दलों की चुनाव में स्वतंत्र भागीदारी के लिए बस्तुगत आधारों का कोई मार्क्सवादी विश्लेषण नहीं था । कुल मिलाकर निराशा हुई ............................" इसे पूर्णत : डॉ गिरीश का व्यक्तिगत दृष्टिकोण नहीं मानना चाहिए क्योंकि, नियंता AAP परिवार के नायक का कहना है कि, गिरीश तभी तक पद पर हैं जब तक उनका हाथ उनकी पीठ पर है। उनके अनुसार जिस दिन कामरेड्स को पता चलेगा कि, अब उनका हाथ गिरीश की पीठ पर नहीं है उसी दिन उनको पद से हटना पड़ेगा। एक राष्ट्रीय सचिव से उन्होने डॉ गिरीश को भिड़वा दिया है और उनको फोन पर विकल्प के रूप में जिन कामरेड का हवाला दिया था इस विशेषण के साथ कि, " वह भी कोई अच्छे नहीं हैं " और इसे सही सिद्ध करने के लिए उनसे भी उन राष्ट्रीय सचिव के विरुद्ध सोशल मीडिया पर लिखवा चुके हैं। वह नायक कामरेड, उनकी पत्नी और उनके दत्तक पुत्र (A A P) ही यू पी में पार्टी की दिशा तय करते हैं। उन नायक कामरेड ने गिरीश जी को स्पष्ट निर्देश दिया हुआ है कि, obc व sc कामरेड्स से सिर्फ काम ही लेना है उनको कोई पद व ज़िम्मेदारी नहीं देना है और इसी का परिणाम था भाकपा प्रत्याशी रहे obc व sc कामरेड्स अपने दल-बल सहित भाकपा को अलविदा कह गए। मित्रसेन यादव जी को भी अपने दल - बल सहित तब भाकपा को अलविदा कहना पड़ गया जबकि वह प्रदेश सचिव थे। जो भी प्रदेश सचिव होता है वह सिर्फ वैधानिक (डियूरे ) होता है जबकि वास्तविक नियंता (डिफेकटो) यही नायक कामरेड रहते हैं जिस कारण मित्रसेन जी को उस पार्टी को छोडना पड़ा जिसके लिए संघर्ष करते हुये वह बूढ़े हुये थे। चाहे भीखा लाल जी रहे हों चाहे ऊदल जी अथवा विश्वनाथ शास्त्री जी दिशा निर्धारण स्वतंत्र रूप से करने में असमर्थ महसूस करते रहे।
जैसा कि, जगदीश्वर चतुर्वेदी जी लिखते हैं --- " यह एक वास्तविकता है कि वाम के पास यूपी के मध्यवर्ग को आकर्षित करने का कभी भी कोई ब्लू प्रिंट नहीं रहा "। भाकपा के AAP परिवार के नायक सरीखे कामरेड्स पार्टी का विस्तार और वृद्धि चाहते ही नहीं हैं अन्यथा उनका निजी 'साम्राज्य ' जो ध्वस्त हो जाएगा।
इन परिस्थितियों में यू पी के 2017 के चुनावों में छह वामपंथी दलों के अलग से खड़ा होना अप्रत्यक्ष रूप से फासिस्ट शक्तियों के लिए ही मददगार रहेगा।
( विजय राजबली माथुर )
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