डब्लू टी ओ मानवता और प्राकृतिक संसाधनों को लुटने और ध्वस्त करने का अमेरिकी षड्यंत्र
- मंजुल भारद्वाज
मुनाफ़ा .. या लूट :
संवाद ,मेल मिलाप , सम्पर्क , जानना पहचानना , एक दूसरे से जुड़ना ,एक दूसरे के दुःख दर्द में शामिल होना , एक दूसरे की मदद करना ये मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताएं हैं और इन्ही की पूर्ति हेतु उसने दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक अपना सम्पर्क स्थापित किया . एक दूसरे को खोज निकाला. आदि काल से १९५० तक ये सम्पर्क धर्म , कला, साहित्य और सांस्कृतिक आधार पर किया गया उसमें व्यापार भी शामिल था . पर सम्पर्क के मौलिक तत्व या माध्यम धर्म , कला, साहित्य और सांस्कृतिक परम्पराएं थी . पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद ये एक दूसरे के संपर्क के मौलिक तत्वों को बुनियादी रूप से बदलने की प्रक्रिया पूंजीवादी और साम्राज्यवादी देशों ने GAAT की स्थापना से शुरू की जो १९९५ में डब्लू टी ओ के रूप में प्रस्थापित हुई . इस डब्लू टी ओ की व्यवस्था ने ‘व्यापार’ को विश्व के सम्पर्क का बुनियादी सूत्र माना, बनाया और विश्व में प्रस्थापित किया जिसका एक ही उद्देश्य है मुनाफ़ा , मुनाफ़ा और सिर्फ़ मुनाफ़ा.. हर हाल में मुनाफ़ा , हर कीमत पर मुनाफ़ा .. या मुनाफ़े की बजाय लूट कहें तो एक दम सटीक !
‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ :
इस संकल्पना की जड में मनुष्य , इंसानियत श्रेष्ठ नहीं है , सभ्यता श्रेष्ठ नहीं है ‘अर्थ’, मुनाफ़ा और व्यापार श्रेष्ठ है . इस व्यवस्था का मूल्य मनुष्यों की ज़रूरतें पूरी करने का नहीं है बल्कि उसकी लालच को बढ़ाना है . समता , समानता और खुशहाली के नाम पर विषमता , अलगाव और हिंसा इसकी जड़ में है जो उपभोगतावाद के कन्धों पर बैठकर पृथ्वी को निगल रहा है और पृथ्वी का श्रेष्ठ जीव मनुष्य अपनी लालच में अपने ही साथी मनुष्य , पृथ्वी के बाकी जीवों , पर्यावरण , जीवन के लिए ज़रूरी प्राकृतिक संसाधनों को और स्वयं पृथ्वी को निगलने के लिए उतारू है . सभ्यता , संस्कृति की दुहाई देने वाला मनुष्य केवल और केवल खरीद फ़रोख्त का सामान बन गया है .
‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का मुहावरा इसका अमलीकरण मन्त्र है . नरसंहार के अणु हथियारों के विशाल जखीरे पर बैठा अमेरिका और उसके पिछलगू देश दुनिया को शान्ति के नाम पर धमकाते हैं और डब्लू टी ओ में सारे ‘व्यापार’ के मसौदों पर हस्ताक्षर कराते हैं और दुनिया के , पृथ्वी के सारे प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का अनैतिक और ग़ैर कानूनी अधिकार प्राप्त करते हैं .
कृत्रिम ज़रूरत का निर्माण :
दरअसल इस नई आर्थिक नीति (कुनीति कहें तो उपयुक्त होगा) का आधार है बोली लगाओ . यानी एक कृत्रिम ज़रूरत का निर्माण करना , उस झूठ को एक सच के रूप में बेचना ..उस झूठ को बेचने के लिए एक भीड़ बनाना जिसको ये बाज़ार कहते हैं ... यानी बुनियादी रूप से १ रुपये की कीमत वाली एक वस्तु को भीड़ यानी बाज़ार में बोली लगवाकर (सेंसेक्स का जुआघर) एक कृत्रिम ज़रूरत निर्माण कर उसे एक लाख रुपये की बना देना ..अब १ रूपये की वस्तु एक लाख की हो गयी ..इसको ये अर्थ सृजन कहते हैं ..और इस झूठ को बनाने , फैलाने वालों को अर्थ शास्त्री , और ऐसे ही झूठों को नोबेल से नवाज़ा जाता है . और इस झूठ का गुब्बारा जब फूटता है उसे ये आर्थिक मंदी का दौर कहते हैं . जीडीपी की अर्थी लिए घूमते हैं. दुनिया में भुखमरी , हिंसा और युद्ध के पैरोकार और जिम्मेदार सामान्य जनता को कहते हैं उसे इकॉनमी की समझ नहीं और इन लुटेरों को है . और यही लुटेरे फिर पारदर्शिता , ईमानदारी, नैतिकता और मनुष्यता की दुहाई देते हैं .दुनिया का मध्यम वर्ग इनकी पैरोकारी करता है . ऐसे देशों को विकास का रोल मॉडल मानता है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इनके रहमों करम पर अपने मोक्ष का मार्ग खोजता है .
इस नई आर्थिक नीति में उत्पाद का मूल्य निर्धारण एक लूट के आधार पर होते हैं , कच्चा माल सस्ता , श्रम सस्ता लेकिन तैयार माल की कीमत ज्यादा , ज्यादातर कच्चा माल सस्ता , श्रम सस्ता, लागत कम पर तैयार माल की कीमत ज्यादा . इस में ३०० गुना से ३००० हजार गुना का फर्क होता है और ये किसी भी मापदंड पर नीतिगत नहीं ठहराया जा सकता .
मनुष्यता और पृथ्वी का विध्वंस :
मध्यम वर्ग के ग्राहक और एक उदहारण देखिये एक बार आपने कार खरीद ली या टीवी या वाशिंग मशीन खरीद लिया और आप उसे शो रूम से बाहर ले आये तो उसकी कीमत आधी हो जाती है यानी शो रूम से सड़क तक आने में ..एक दहलीज़ पार करने से ही उत्पाद की कीमत आधी , ये सरे आम लूट है ऊपर से इससे कहा जा रहा है कन्जूमर फ्रेंडली ... दरअसल ये बाज़ार नहीं है ये कुत्सित उपभोगियों की विचारहीन भीड़ है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक को खाने वाला दीमक है जिससे कुनीतियों के आधार पर धनपशुओं और रक्त पिपासुओं की पैदावार होती है जो मनुष्यता और पृथ्वी का विध्वंस करता है .
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संक्षिप्त परिचय -
“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत के सर्जक व प्रयोगकर्त्ता मंजुल भारद्वाज वह थिएटर शख्सियत हैं, जो राष्ट्रीय चुनौतियों को न सिर्फ स्वीकार करते हैं, बल्कि अपने रंग विचार "थिएटर आफ रेलेवेंस" के माध्यम से वह राष्ट्रीय एजेंडा भी तय करते हैं।
एक अभिनेता के रूप में उन्होंने 16000 से ज्यादा बार मंच से पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।लेखक-निर्देशक के तौर पर 28 से अधिक नाटकों का लेखन और निर्देशन किया है। फेसिलिटेटर के तौर पर इन्होंने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थियेटर ऑफ रेलेवेंस सिद्धांत के तहत 1000 से अधिक नाट्य कार्यशालाओं का संचालन किया है। वे रंगकर्म को जीवन की चुनौतियों के खिलाफ लड़ने वाला हथियार मानते हैं। मंजुल मुंबई में रहते हैं। उन्हें 09820391859 पर संपर्क किया जा सकता है।
- मंजुल भारद्वाज
मुनाफ़ा .. या लूट :
संवाद ,मेल मिलाप , सम्पर्क , जानना पहचानना , एक दूसरे से जुड़ना ,एक दूसरे के दुःख दर्द में शामिल होना , एक दूसरे की मदद करना ये मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताएं हैं और इन्ही की पूर्ति हेतु उसने दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक अपना सम्पर्क स्थापित किया . एक दूसरे को खोज निकाला. आदि काल से १९५० तक ये सम्पर्क धर्म , कला, साहित्य और सांस्कृतिक आधार पर किया गया उसमें व्यापार भी शामिल था . पर सम्पर्क के मौलिक तत्व या माध्यम धर्म , कला, साहित्य और सांस्कृतिक परम्पराएं थी . पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद ये एक दूसरे के संपर्क के मौलिक तत्वों को बुनियादी रूप से बदलने की प्रक्रिया पूंजीवादी और साम्राज्यवादी देशों ने GAAT की स्थापना से शुरू की जो १९९५ में डब्लू टी ओ के रूप में प्रस्थापित हुई . इस डब्लू टी ओ की व्यवस्था ने ‘व्यापार’ को विश्व के सम्पर्क का बुनियादी सूत्र माना, बनाया और विश्व में प्रस्थापित किया जिसका एक ही उद्देश्य है मुनाफ़ा , मुनाफ़ा और सिर्फ़ मुनाफ़ा.. हर हाल में मुनाफ़ा , हर कीमत पर मुनाफ़ा .. या मुनाफ़े की बजाय लूट कहें तो एक दम सटीक !
‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ :
इस संकल्पना की जड में मनुष्य , इंसानियत श्रेष्ठ नहीं है , सभ्यता श्रेष्ठ नहीं है ‘अर्थ’, मुनाफ़ा और व्यापार श्रेष्ठ है . इस व्यवस्था का मूल्य मनुष्यों की ज़रूरतें पूरी करने का नहीं है बल्कि उसकी लालच को बढ़ाना है . समता , समानता और खुशहाली के नाम पर विषमता , अलगाव और हिंसा इसकी जड़ में है जो उपभोगतावाद के कन्धों पर बैठकर पृथ्वी को निगल रहा है और पृथ्वी का श्रेष्ठ जीव मनुष्य अपनी लालच में अपने ही साथी मनुष्य , पृथ्वी के बाकी जीवों , पर्यावरण , जीवन के लिए ज़रूरी प्राकृतिक संसाधनों को और स्वयं पृथ्वी को निगलने के लिए उतारू है . सभ्यता , संस्कृति की दुहाई देने वाला मनुष्य केवल और केवल खरीद फ़रोख्त का सामान बन गया है .
‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का मुहावरा इसका अमलीकरण मन्त्र है . नरसंहार के अणु हथियारों के विशाल जखीरे पर बैठा अमेरिका और उसके पिछलगू देश दुनिया को शान्ति के नाम पर धमकाते हैं और डब्लू टी ओ में सारे ‘व्यापार’ के मसौदों पर हस्ताक्षर कराते हैं और दुनिया के , पृथ्वी के सारे प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का अनैतिक और ग़ैर कानूनी अधिकार प्राप्त करते हैं .
कृत्रिम ज़रूरत का निर्माण :
दरअसल इस नई आर्थिक नीति (कुनीति कहें तो उपयुक्त होगा) का आधार है बोली लगाओ . यानी एक कृत्रिम ज़रूरत का निर्माण करना , उस झूठ को एक सच के रूप में बेचना ..उस झूठ को बेचने के लिए एक भीड़ बनाना जिसको ये बाज़ार कहते हैं ... यानी बुनियादी रूप से १ रुपये की कीमत वाली एक वस्तु को भीड़ यानी बाज़ार में बोली लगवाकर (सेंसेक्स का जुआघर) एक कृत्रिम ज़रूरत निर्माण कर उसे एक लाख रुपये की बना देना ..अब १ रूपये की वस्तु एक लाख की हो गयी ..इसको ये अर्थ सृजन कहते हैं ..और इस झूठ को बनाने , फैलाने वालों को अर्थ शास्त्री , और ऐसे ही झूठों को नोबेल से नवाज़ा जाता है . और इस झूठ का गुब्बारा जब फूटता है उसे ये आर्थिक मंदी का दौर कहते हैं . जीडीपी की अर्थी लिए घूमते हैं. दुनिया में भुखमरी , हिंसा और युद्ध के पैरोकार और जिम्मेदार सामान्य जनता को कहते हैं उसे इकॉनमी की समझ नहीं और इन लुटेरों को है . और यही लुटेरे फिर पारदर्शिता , ईमानदारी, नैतिकता और मनुष्यता की दुहाई देते हैं .दुनिया का मध्यम वर्ग इनकी पैरोकारी करता है . ऐसे देशों को विकास का रोल मॉडल मानता है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इनके रहमों करम पर अपने मोक्ष का मार्ग खोजता है .
इस नई आर्थिक नीति में उत्पाद का मूल्य निर्धारण एक लूट के आधार पर होते हैं , कच्चा माल सस्ता , श्रम सस्ता लेकिन तैयार माल की कीमत ज्यादा , ज्यादातर कच्चा माल सस्ता , श्रम सस्ता, लागत कम पर तैयार माल की कीमत ज्यादा . इस में ३०० गुना से ३००० हजार गुना का फर्क होता है और ये किसी भी मापदंड पर नीतिगत नहीं ठहराया जा सकता .
मनुष्यता और पृथ्वी का विध्वंस :
मध्यम वर्ग के ग्राहक और एक उदहारण देखिये एक बार आपने कार खरीद ली या टीवी या वाशिंग मशीन खरीद लिया और आप उसे शो रूम से बाहर ले आये तो उसकी कीमत आधी हो जाती है यानी शो रूम से सड़क तक आने में ..एक दहलीज़ पार करने से ही उत्पाद की कीमत आधी , ये सरे आम लूट है ऊपर से इससे कहा जा रहा है कन्जूमर फ्रेंडली ... दरअसल ये बाज़ार नहीं है ये कुत्सित उपभोगियों की विचारहीन भीड़ है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक को खाने वाला दीमक है जिससे कुनीतियों के आधार पर धनपशुओं और रक्त पिपासुओं की पैदावार होती है जो मनुष्यता और पृथ्वी का विध्वंस करता है .
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संक्षिप्त परिचय -
“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत के सर्जक व प्रयोगकर्त्ता मंजुल भारद्वाज वह थिएटर शख्सियत हैं, जो राष्ट्रीय चुनौतियों को न सिर्फ स्वीकार करते हैं, बल्कि अपने रंग विचार "थिएटर आफ रेलेवेंस" के माध्यम से वह राष्ट्रीय एजेंडा भी तय करते हैं।
एक अभिनेता के रूप में उन्होंने 16000 से ज्यादा बार मंच से पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।लेखक-निर्देशक के तौर पर 28 से अधिक नाटकों का लेखन और निर्देशन किया है। फेसिलिटेटर के तौर पर इन्होंने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थियेटर ऑफ रेलेवेंस सिद्धांत के तहत 1000 से अधिक नाट्य कार्यशालाओं का संचालन किया है। वे रंगकर्म को जीवन की चुनौतियों के खिलाफ लड़ने वाला हथियार मानते हैं। मंजुल मुंबई में रहते हैं। उन्हें 09820391859 पर संपर्क किया जा सकता है।
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