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क्या बांये से कोई रास्ता निकलता है ? :
देश की मौज़ूदा फिरकापरस्त, पूंजीवादी और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था में भी सी.पी.आई, सी.पी.एम, माले सहित सभी वामपंथी पार्टियां अगर विमर्श के बाहर हैं तो यह चिंता का सबब है। न लोग उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं और न वे ख़ुद अपने को लेकर गंभीर है। अपने देश की परिस्थितियों के अनुरूप ख़ुद को ढालने के बजाय लेनिन, माओ, स्टालिन और चे ग्वेवारा में अपना रास्ता तलाशने वाले, अपनी ज़मीन और जड़ों से कटे उनके मौज़ूदा किताबी, आत्ममुग्ध और अहंकारी नेतृत्व ने देश में न सिर्फ वामपंथ को टुकड़ों में बांटा है, बल्कि उसकी लुटिया भी लगभग डुबा दी है। पिछले कई दशकों से वे देश की दिशाहीन राजनीति को न तो कोई विकल्प दे सके, न परिवर्तनकामी युवाओं-किसानों-मज़दूरों को कोई दिशा। एक क़ायदे का विपक्ष भी नहीं खड़ा कर सके ये लोग। कभी इन्होंने वंशवादी और भ्रष्ट कांग्रेस की पूंछ पकड़ी तो कभी अवसरवादी लालू, मुलायम, नीतीश, करूणानिधि जैसे नेताओं का पिछलग्गू बनकर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश की। यह राजनीतिक अवसरवाद उनके लिए आत्मघाती साबित हुआ। मगर अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है। वामपंथ अभी हाशिए पर ज़रूर है, मगर अप्रासंगिक नहीं। वामपंथ से असहमत लोग भी मानते हैं कि देश के वर्त्तमान अधोगामी, भ्रष्ट, फ़िरक़ापरस्त राजनीतिक परिदृश्य में नीतियों के प्रति निष्ठां और आम तौर पर व्यक्तिगत ईमानदारी अगर कही बची है तो इन्ही वामपंथी दलों में बची है। अपने छोटे-मोटे मतभेद और असहमतियां भुलाकर अगर सभी वामपंथी दल अपने हवा-हवाई नेताओं के बजाय ज़मीन से जुड़े संघर्षशील लोगों को नेतृत्व सौपकर एक साझा देशी मैनिफेस्टो के तहत चुनाव लड़ सकें तो अभी भी वे देश को एक सार्थक विकल्प या कम से कम एक मज़बूत विपक्ष दे सकने की स्थिति में हैं।
लेकिन अगर वामपंथी ख़ुद विकल्प बनने को तैयार नहीं तो कोई क्या कर सकता है ?
देश की मौज़ूदा फिरकापरस्त, पूंजीवादी और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था में भी सी.पी.आई, सी.पी.एम, माले सहित सभी वामपंथी पार्टियां अगर विमर्श के बाहर हैं तो यह चिंता का सबब है। न लोग उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं और न वे ख़ुद अपने को लेकर गंभीर है। अपने देश की परिस्थितियों के अनुरूप ख़ुद को ढालने के बजाय लेनिन, माओ, स्टालिन और चे ग्वेवारा में अपना रास्ता तलाशने वाले, अपनी ज़मीन और जड़ों से कटे उनके मौज़ूदा किताबी, आत्ममुग्ध और अहंकारी नेतृत्व ने देश में न सिर्फ वामपंथ को टुकड़ों में बांटा है, बल्कि उसकी लुटिया भी लगभग डुबा दी है। पिछले कई दशकों से वे देश की दिशाहीन राजनीति को न तो कोई विकल्प दे सके, न परिवर्तनकामी युवाओं-किसानों-मज़दूरों को कोई दिशा। एक क़ायदे का विपक्ष भी नहीं खड़ा कर सके ये लोग। कभी इन्होंने वंशवादी और भ्रष्ट कांग्रेस की पूंछ पकड़ी तो कभी अवसरवादी लालू, मुलायम, नीतीश, करूणानिधि जैसे नेताओं का पिछलग्गू बनकर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश की। यह राजनीतिक अवसरवाद उनके लिए आत्मघाती साबित हुआ। मगर अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है। वामपंथ अभी हाशिए पर ज़रूर है, मगर अप्रासंगिक नहीं। वामपंथ से असहमत लोग भी मानते हैं कि देश के वर्त्तमान अधोगामी, भ्रष्ट, फ़िरक़ापरस्त राजनीतिक परिदृश्य में नीतियों के प्रति निष्ठां और आम तौर पर व्यक्तिगत ईमानदारी अगर कही बची है तो इन्ही वामपंथी दलों में बची है। अपने छोटे-मोटे मतभेद और असहमतियां भुलाकर अगर सभी वामपंथी दल अपने हवा-हवाई नेताओं के बजाय ज़मीन से जुड़े संघर्षशील लोगों को नेतृत्व सौपकर एक साझा देशी मैनिफेस्टो के तहत चुनाव लड़ सकें तो अभी भी वे देश को एक सार्थक विकल्प या कम से कम एक मज़बूत विपक्ष दे सकने की स्थिति में हैं।
लेकिन अगर वामपंथी ख़ुद विकल्प बनने को तैयार नहीं तो कोई क्या कर सकता है ?
साभार :
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आज भाकपा महासचिव कामरेड सुधाकर रेड्डी साहब का जन्मदिन है और आज से ही पुद्दीचेरी में 22वां राष्ट्रीय अधिवेन्शन प्रारम्भ हुआ है हम दोनों मंगल कार्यक्रमों की सफलता की शुभकामनायें करते हैं ।
और अपेक्षा करते हैं कि हमारे हमारे हमदर्दों द्वारा व्यक्त विचारों की गंभीर समीक्षा करके सकारात्मक प्रगति की ओर बढ़ा जाएगा। किन्तु उत्तर प्रदेश भाकपा के कर्ण धारों को फिल्मी नायकों की चिंता के बजाए जन-चिंतकों की चिंता को दूर करने के प्रयास करने होंगे तभी सफलता हमारे चरण चूम सकेगी।
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आज भाकपा महासचिव कामरेड सुधाकर रेड्डी साहब का जन्मदिन है और आज से ही पुद्दीचेरी में 22वां राष्ट्रीय अधिवेन्शन प्रारम्भ हुआ है हम दोनों मंगल कार्यक्रमों की सफलता की शुभकामनायें करते हैं ।
और अपेक्षा करते हैं कि हमारे हमारे हमदर्दों द्वारा व्यक्त विचारों की गंभीर समीक्षा करके सकारात्मक प्रगति की ओर बढ़ा जाएगा। किन्तु उत्तर प्रदेश भाकपा के कर्ण धारों को फिल्मी नायकों की चिंता के बजाए जन-चिंतकों की चिंता को दूर करने के प्रयास करने होंगे तभी सफलता हमारे चरण चूम सकेगी।
IAS अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के अवेद्ध निलंबन के विरुद्ध तो लखनऊ में भाकपा ने विरोध-प्रदर्शन किया था जिसमें प्रादेशिक नेताओं की उल्लेखनीय उपस्थिती थी किन्तु उनमें एक प्रादेशिक नेता जो बैंक कर्मचारियों के भी नेता हैं खुद ही अपने ज़िला स्तरीय कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न करने में मशगूल रहते हैं जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जनता की कितनी असली फिक्र हो सकती है? सिर्फ सैद्धान्तिक नहीं ठोस रूप में जनता व कार्यकर्ताओं का समर्थन करके ही पार्टी को विकल्प के रूप में आगे बढ़ाया जा सकता है। बढ़ाया जाना ही चाहिए जो देश और देश की जनता की सामयिक मांग भी है।
----- विजय राजबली माथुर
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