Tuesday, 8 September 2015

: वाम असफल क्यो ? कौन दोषी है ? कहाँ चूक हुई ?,कमजोरियाँ किधर है ? ---विजय राजबली माथुर

07-09-2015 

ढ़ोंगी पोंगापंथी और एथीस्ट एक समान :

वेदों में निहित हैं साम्यवाद के सिद्धान्त :
 जिस प्रकार किसी भी संगठन या संस्था  के निर्माण के पूर्व उसके संचालन के लिए 'नियम' बनाए जाते हैं उसी प्रकार इस धरती के निर्माण के बाद जब 'मननशील प्राणी' = 'मनुष्य' की उत्पत्ति अब से लगभग दस लाख वर्ष पूर्व  हुई तो इस नई सृष्टि के संचालन हेतु भी कुछ नियमों का निर्धारण किया गया । इन नियमों का संकलन 'वेदों' में है जो  श्रेष्ठ=आर्ष= आर्य  विद्वानों द्वारा संग्रहित किए गए थे। कालांतर में ढ़ोंगी-पाखंडी-आडंबरधारी ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों द्वारा जिस हिंसक 'हिन्दू' संप्रदाय/मजहब/रिलीजन को खड़ा किया गया उसने वैदिक ज्ञान-विज्ञान को ध्वस्त करके पौराणिक कपोलकल्पित कहानियों की रचना की जो 'गर्व से हिन्दू' कहलाने वालों का आदर्श बनी हुई हैं। ये पौराणिक हिन्दू वैदिक ज्ञान को परिदृश्य में धकेलने हेतु उनको वेद-सम्मत बताते हैं और एथीस्ट उनके कथन को ब्रह्म-वाक्य मान कर चलते हैं। उपरोक्त फोटो टिप्पणियाँ ऐसे ही दो एथीस्टों द्वारा व्यक्त हैं जो उत्तर-प्रदेश भाकपा के कर्णधार भी हैं । ऐसी ही कारगुजारियों के कारण देश की जनता कम्यूनिज़्म को हिकारत की नज़र से देखती है।

 ये कर्णधार सवर्णवाद/ब्रहमनवाद से भी बुरी तरह से ग्रस्त हैं जिसका ज्वलंत उदाहरण यह टिप्पणी है ;



अभी हाल ही में भाकपा से लखनऊ की दो विधानसभा क्षेत्रों से पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी रहे( एक पिछड़े वर्ग से व दूसरे दलित वर्ग से संबन्धित ) पार्टी छोड़ कर एक ऐसी पार्टी में शामिल हुये हैं जो फासिस्ट संगठन की ही सहायक है। उन दोनों को धनिक होने के कारण पार्टी में शामिल करके प्रत्याशी बनाया गया था लेकिन उनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। उनको हारने पर संकेत दे दिया गया था कि अगले चुनावों में उनको प्रत्याशी नहीं बनाया जाएगा अतः गैर-कम्युनिस्ट प्रवृति के वे लोग उखड़ गए। कर्णधारों का यह व्यवहार उपरोक्त टिप्पणियों पर अवलंबित रहा है। 

ढोंगियों को जवाब देने या उनसे जवाब मांगने की क्या ज़रूरत ?:

एथीस्ट वादी भी ढोंगियों-पाखंडियों-आडंबरकारियों की ही तरह 'अधर्म' को धर्म कहते हैं व सत्य को स्वीकारना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे भी उल्टे उस्तरे से जनता को मूढ़ रहे हैं। इसी कारण खुद को उग्र क्रांतिकारी कहने वाले एथीस्टों ने चुनाव बहिष्कार करके अथवा 'संसदीय साम्यवाद' के समर्थक दलों का विरोध करके केंद्र में सांप्रदायिकता के रुझान वाली सरकार गठित करवा दी है जिसका खामियाजा पूरे देश की जनता को भुगतना होगा। 

धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।



अध्यात्म =अध्यन+ आत्मा = अपनी आत्मा का अध्यन। 
देवता= जो देता है और लेता नहीं है ,जैसे-नदी,वृक्ष,पर्वत,आकाश,अन्तरिक्ष,अग्नि,जल,वायु आदि न कि जड़ मूर्तियाँ/चित्र आदि। 

भगवान = भ (भूमि-पृथ्वी)+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I (अनल-अग्नि )+न (नीर-जल )। 

खुदा = चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी भी प्राणी ने नहीं बनाया है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 

GOD = G (जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय )। उत्पत्ति,पालन व संहार करने के कारण ही इनको GOD भी कहते हैं। 
देखिये कैसे?:
वायु +अन्तरिक्ष =  वात 

अग्नि  =पित्त

 भूमि + जल = कफ 

इन तीनों का समन्वय ही शरीर को धारण करता है 

वात +पित्त + कफ =भगवान=खुदा=GOD 

शरीर को धारण करने व समाज को धारण करने हेतु
धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य परमावश्यक है। 

क्या महर्षि कार्ल मार्क्स अथवा शहीद भगत सिंह जी ने कहीं कहा है कि साम्यवाद के अनुयाइयों को झूठ बोलना चाहिये,हिंसा ही करनी चाहिए,चोरी करना चाहिए,अपनी ज़रूरत से ज़्यादा चीज़ें जमा करना चाहिए और अनियंत्रित सेक्स करना चाहिए। यदि इन विद्वानों ने  ऐसा नहीं कहा है तो इनका नाम बदनाम करने के लिए 'एथीस्ट वादी' ही जिम्मेदार हैं। और इसी कारण रूस से भी साम्यवाद उखड़ा है। 

"येभ्यो माता ................................................................आदित्यां अनुमदा स्वस्तये " (ऋग्वेद मंडल १० /सूक्त ६३ में वर्णित इस मन्त्र के भवानी दयाल सन्यासी जी द्वारा किये काव्यानुवाद  पंक्ति:

ऋतू अनुकूल मेंह बरसे दुखप्रद दुष्काल न आवे.
सुजला सुफला मातृ भूमि हो,मधुमय क्षीर पिलावे..

अब भगवान् का अर्थ मनुष्य की रचना -मूर्ती,चित्र आदि से पोंगा-पंथियों के स्वार्थ में कर दिया गया है और प्राकृतिक उपादानों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है जिसका परिणाम है-सुनामी,अति-वृष्टि,अनावृष्टि,अकाल-सूखा,बाढ़ ,भू-स्खलन,परस्पर संघर्ष की भावना आदि-आदि.

एक विद्वान की इस प्रार्थना पर थोडा गौर करें -

ईश हमें देते हैं सब कुछ ,हम भी तो कुछ देना सीखें.
जो कुछ हमें मिला है प्रभु से,वितरण उसका करना सीखें..१ ..

हवा प्रकाश हमें मिलता है,मेघों से मिलता है पानी.
यदि बदले में कुछ नहीं देते,इसे कहेंगे बेईमानी..
इसी लिए दुःख भोग रहे हैं,दुःख को दूर भगाना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..२ ..

तपती धरती पर पथिकों को,पेड़ सदा देता है छाया.
अपना फल भी स्वंय न खाकर,जीवन उसने सफल बनाया..
सेवा पहले प्रभु को देकर,बाकी स्वंय बरतना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..३..

मानव जीवन दुर्लभ है हम,इसको मल से रहित बनायें.
खिले फूल खुशबू देते हैं,वैसे ही हम भी बन जाएँ..
जप-तप और सेवा से जीवन,प्रभु को अर्पित करना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..४..

असत नहीं यह प्रभुमय दुनिया,और नहीं है यह दुखदाई.
दिल-दिमाग को सही दिशा दें,तो बन सकती है सुखदाई ..
'जन'को प्रभु देते हैं सब कुछ,लेकिन 'जन'तो बनना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..५..

शीशे की तरह चमकता हुआ साफ़ है कि वैदिक संस्कृति हमें जन  पर आधारित अर्थात  समष्टिवादी बना रही है जबकि आज हमारे यहाँ व्यष्टिवाद हावी है जो पश्चिम के साम्राज्यवाद की  देन है. दलालों के माध्यम से मूर्ती पूजा करना कहीं से भी समष्टिवाद को सार्थक नहीं करता है.जबकि वैदिक हवन सामूहिक जन-कल्याण की भावना पर आधारित है.

ऋग्वेद के मंडल ५/सूक्त ५१ /मन्त्र १३ को देखें-

विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये.
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्व्हंससः ..

(जनता की कल्याण -कामना से यह यग्य रचाया.
विश्वदेव के चरणों में अपना सर्वस्व चढ़ाया..)

जो लोग धर्म की वास्तविक व्याख्या को न समझ कर गलत  उपासना-पद्धतियों को ही धर्म मान कर चलते हैं वे अपनी इसी नासमझ के कारण ही  धर्म की आलोचना करते और खुद को प्रगतिशील समझते हैं जबकि वस्तुतः वे खुद भी उतने ही अन्धविश्वासी हुए जितने कि पोंगा-पंथी अधार्मिक होते हैं.

ऋग्वेद के मंडल ७/सूक्त ३५/मन्त्र १ में कहा गया है-

शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न  इन्द्रावरुणा रातहव्या। 
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं यो :शं न  इन्द्रा पूष्णा वाजसतौ । ।

(सूर्य,चन्द्र,विद्युत्,जल सारे सुख सौभाग्य बढावें.
रोग-शोक-भय-त्रास हमारे पास कदापि न आवें..)

इन्हीं तत्वों को जब मैक्समूलर साहब जर्मन ले गए तो वहां के विचारकों ने अपनी -अपनी पसंद के क्षेत्रों में उनसे ग्रहण सामग्री के आधार पर नई -नई खोजें प्रस्तुत कीं हैं.जैसे डा.हेनीमेन ने 'होम्योपैथी',डा.एस.एच.शुस्लर ने 'बायोकेमिक'  भौतिकी के वैज्ञानिकों ने 'परमाणु बम'एवं महर्षि कार्ल मार्क्स ने 'वैज्ञानिक समाजवाद'या 'साम्यवाद'की खोज की.

सर्वे भवन्तु सुखिन: ,सर्वे सन्तु निरामय :। 
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद दुखभाग भवेत॥ 
ऋग्वेद के अंतिम सूक्त के पांचवें इस  श्लोक  का काव्यानुवाद यह है---
सबका भला करो भगवान सब पर दया करो भगवान । 
सब पर कृपा करो भगवान,सब का सब विधि हो कल्याण । । 
हे ईश सब सुखी हों कोई न हो  दुखारी। 
सब हों निरोग भगवन धनधान्य के भण्डारी। । 
सब भद्र भाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों। 
दुखिया न कोई होवे सृष्टि में प्राणधारी । । 

वेदों में किसी व्यक्ति,जाति,क्षेत्र,सम्प्रदाय,देश-विशेष की बात नहीं कही गयी है.वेद सम्पूर्ण मानव  ही नहीं जीव-निर्जीव सभी सृष्टि की रक्षा की बात करते हैं। 
यदि हम जनता के समक्ष इन सच्चाईयों को लेकर जाएँ तो जनता हमारा न केवल स्वागत व समर्थन करेगी बल्कि संसद से ढ़ोंगी-साम्राज्यवादी/संप्रदायवादी  लोगों को भी उखाड़ फेंकेगी।





धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।



अध्यात्म =अध्यन+ आत्मा = अपनी आत्मा का अध्यन। 

देवता= जो देता है और लेता नहीं है ,जैसे-नदी,वृक्ष,पर्वत,आकाश,अन्तरिक्ष,अग्नि,जल,वायु आदि न कि जड़ मूर्तियाँ/चित्र आदि। 

भगवान = भ (भूमि-पृथ्वी)+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I (अनल-अग्नि )+न (नीर-जल )। 

खुदा = चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी भी प्राणी ने नहीं बनाया है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 

GOD = G (जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय )। उत्पत्ति,पालन व संहार करने के कारण ही इनको GOD भी कहते हैं। 
देखिये कैसे?:
वायु +अन्तरिक्ष =  वात 
अग्नि  =पित्त
 भूमि + जल = कफ 
इन तीनों का समन्वय ही शरीर को धारण करता है 

वात +पित्त + कफ =भगवान=खुदा=GOD 

शरीर को धारण करने व समाज को धारण करने हेतु
धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य परमावश्यक है। 

क्या महर्षि कार्ल मार्क्स अथवा शहीद भगत सिंह जी ने कहीं कहा है कि साम्यवाद के अनुयाइयों को झूठ बोलना चाहिये,हिंसा ही करनी चाहिए,चोरी करना चाहिए,अपनी ज़रूरत से ज़्यादा चीज़ें जमा करना चाहिए और अनियंत्रित सेक्स करना चाहिए। यदि इन विद्वानों से ऐसा नहीं कहा है तो इनका नाम बदनाम करने के लिए 'एथीस्ट वादी' ही जिम्मेदार हैं। और इसी कारण रूस से भी साम्यवाद उखड़ा है। 

एथीस्ट वादी भी ढोंगियों-पाखंडियों-आडमबरकारियों की ही तरह 'अधर्म' को धर्म कहते हैं व सत्य को स्वीकारना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे भी उल्टे उस्तरे से जनता को मूढ़ रहे हैं। इसी कारण खुद को उग्र क्रांतिकारी कहने वाले एथीस्टों ने चुनाव बहिष्कार करके अथवा 'संसदीय साम्यवाद' के समर्थक दलों का विरोध करके केंद्र में सांप्रदायिकता के रुझान वाली सरकार गठित करवा दी है जिसका खामियाजा पूरे देश की जनता को भुगतना होगा। 

ढ़ोंगी-पाखंडी-आडंबरधारी और एथीस्ट दोनों का ही हित तानाशाही में है दोनों की ही आस्था लोकतन्त्र में नहीं है और दोनों ही परस्पर अन्योनाश्रित हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही संभव नहीं है। दोनों ही 'सत्य ' उद्घाटित नहीं होने देना चाहते हैं क्योंकि अज्ञान ही उनका संबल है जागरूक जनता को वे दोनों ही उल्टे उस्तरे से मूढ़ नहीं सकेंगे। 
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