इस समाचार के अंतिम अनुच्छेद में प्रोफेसर साहब के लिए लिखा गया है-"शुरू से जनता परिवार की एका व पार्टी विलय के खिलाफ थे। "
बिहार में राजद/ज द यू /कांग्रेस गठबंधन के विरुद्ध भाजपा गठबंधन व वामपंथी गठबंधन चुनाव लड़ेंगे। इसका प्रत्यक्ष लाभ भाजपा को मिलता दीखता है इसीलिए सपा को RJC गठबंधन से अलग रखा गया है। जिससे चुनाव बाद जीतने वाले गठबंधन का हाथ थामने में सुविधा रहे।
रही बात उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनावों की तो वे भी 2012 के विधानसभा व 2014 के लोकसभा चुनावों की तर्ज़ पर 'गुप्त समझौते' के तहत ही लड़े जाएँगे और आर एस एस के गुप्त समर्थन से सत्तारूढ़ उसी प्रकार पुनर्वापिसी करेगा जिस प्रकार 1980 में इंदिरा कांग्रेस ने की थी।
पूर्व पी एम नरसिंघा राव जी ने निजी अनुभवों के आधार पर ही 'THE INSIDER' में लिखा है कि हम "स्वतन्त्रता के भ्रमजाल में जी रहे हैं "।
लोकतन्त्र में मतदाता के हाथ में 'मत' है लेकिन उसका प्रयोग सुनिश्चित 'जाति','धर्म','संप्रदाय' के आधार पर ही होना है। वर्तमान केंद्र सरकार व उसकी प्रेरक शक्ति को इसी में सुविधा है कि दिखाने के लिए अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रहें लेकिन 'वक्त' पर वे केंद्र की फासिस्ट शक्तियों को 'मजबूत' करती जाएँ।
साम्यवाद और वामपंथ के अनुगामी 'नियंत्रक' इस सच्चाई पर 'गौर' किए बगैर जन समर्थन की आस लगाते हैं जो 'मृग-मरीचिका' सिद्ध होती रही है। जब तक जन-पक्षधर शक्तियाँ 'मनसा-वाचा-कर्मणा' संगठित होकर वंचित तबकों को 'दिल' से अपने साथ नहीं जोड़तीं तब तक ऐसा ही होता रहेगा। साम्य और समानता कागजी रहे और आंतरिक रूप से 'जाति','धर्म','संप्रदाय' की नीति पर ही चला जाये तो कैसे जनता का साथ मिले?
जनता को साम्यवाद/वामपंथ द्वारा अपने साथ न जोड़ पाने की दशा में निकट भविष्य में 'रक्त रंजित' संघर्ष की संभावनाएं बनती हैं जो देश के लिए सुखद नहीं होंगी।
बिहार में राजद/ज द यू /कांग्रेस गठबंधन के विरुद्ध भाजपा गठबंधन व वामपंथी गठबंधन चुनाव लड़ेंगे। इसका प्रत्यक्ष लाभ भाजपा को मिलता दीखता है इसीलिए सपा को RJC गठबंधन से अलग रखा गया है। जिससे चुनाव बाद जीतने वाले गठबंधन का हाथ थामने में सुविधा रहे।
रही बात उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनावों की तो वे भी 2012 के विधानसभा व 2014 के लोकसभा चुनावों की तर्ज़ पर 'गुप्त समझौते' के तहत ही लड़े जाएँगे और आर एस एस के गुप्त समर्थन से सत्तारूढ़ उसी प्रकार पुनर्वापिसी करेगा जिस प्रकार 1980 में इंदिरा कांग्रेस ने की थी।
पूर्व पी एम नरसिंघा राव जी ने निजी अनुभवों के आधार पर ही 'THE INSIDER' में लिखा है कि हम "स्वतन्त्रता के भ्रमजाल में जी रहे हैं "।
लोकतन्त्र में मतदाता के हाथ में 'मत' है लेकिन उसका प्रयोग सुनिश्चित 'जाति','धर्म','संप्रदाय' के आधार पर ही होना है। वर्तमान केंद्र सरकार व उसकी प्रेरक शक्ति को इसी में सुविधा है कि दिखाने के लिए अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रहें लेकिन 'वक्त' पर वे केंद्र की फासिस्ट शक्तियों को 'मजबूत' करती जाएँ।
साम्यवाद और वामपंथ के अनुगामी 'नियंत्रक' इस सच्चाई पर 'गौर' किए बगैर जन समर्थन की आस लगाते हैं जो 'मृग-मरीचिका' सिद्ध होती रही है। जब तक जन-पक्षधर शक्तियाँ 'मनसा-वाचा-कर्मणा' संगठित होकर वंचित तबकों को 'दिल' से अपने साथ नहीं जोड़तीं तब तक ऐसा ही होता रहेगा। साम्य और समानता कागजी रहे और आंतरिक रूप से 'जाति','धर्म','संप्रदाय' की नीति पर ही चला जाये तो कैसे जनता का साथ मिले?
जनता को साम्यवाद/वामपंथ द्वारा अपने साथ न जोड़ पाने की दशा में निकट भविष्य में 'रक्त रंजित' संघर्ष की संभावनाएं बनती हैं जो देश के लिए सुखद नहीं होंगी।
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