Thursday, 31 December 2015

स्वतन्त्रता आंदोलन की सबसे पुरानी पार्टी (भाकपा ) : जनता से दूर क्यों? ------ विजय राजबली माथुर

 ***** प्रस्तुत फोटो भाकपा के 90 वर्ष पूर्ण होने पर स्थापना  दिवस समारोहों की झलकी दिखाते हैं *****
बिहार में स्थापना दिवस कार्यक्रम 


उत्तर-प्रदेश (कानपुर ) स्थापना दिवस कार्यक्रम 

http://communistvijai.blogspot.in/2015/12/blog-post_26.html

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एक और गुमराह करती खबर। ये समाचार सोनिया कांग्रेस को 131 वर्ष पुराना और आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाला बता रहे हैं। सच्चाई इस प्रकार है ------
1)--- 1857 की क्रांति में भाग लेने व उसके विफल होने पर 1875 में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 'आर्यसमाज' बना कर और इसकी शाखाएँ ब्रिटिश छावनियों में खोल कर देश की जनता को आज़ादी के संघर्ष के लिए तैयार करना शुरू किया था। ब्रिटिश सरकार उनको REVOLUTIONARY SAINT कहती थी। अतः
2) --- दयानन्द सरस्वती की मुहिम को धक्का पहुंचाने के लिए वाईस राय लार्ड डफरिन ने अपने विश्वस्त रिटायर्ड़ ICS एलेन आकटावियन (AO ) हयूम के जरिये WC (वोमेश चंद ) बेनर्जी की अध्यक्षता में1885 में  08 दिसंबर को जिस इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करवाई थी वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद का SAFTY VALVE थी। दादा भाई नेरोजी और गोपाल कृष्ण गोखले ऐलान करते थे कि वे नस-नस में राज-भक्त हैं।
3 ) --- स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्देश पर आर्यसमाजी कांग्रेस में घुस गए और उसको आज़ादी के संघर्ष में मोड दिया था। 'कांग्रेस का इतिहास ' के लेखक डॉ पट्टाभि सीता रमाइय्या ने कबूला है कि, गांधी जी के सत्याग्रह में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत कांग्रेसी आर्यसमाजी थे।
4 ) --- आज़ादी के संघर्ष पर मुड़ चुकी कांग्रेस को पछाड़ने के लिए ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन के जरिये 'मुस्लिम लीग' 30 दिसंबर 1906 में, लाला लाजपत राय व मदन मोहन मालवीय के जरिये 'हिन्दू महासभा' 1920 में गठित करवाई गईं जिनमें हिंदूमहासभा के असफल रहने पर 1925 में पूर्व क्रांतिकारी सावरकार व पूर्व कांग्रेसी हेडगेवार के जरिये आर एस एस का गठन करवाया गया था।
5 ) क्रांतिकारी आर्यसमाजियों ने कांग्रेस को क्रांति की ओर मोड़ने के उद्देश्य से भारत में भी 1925 में 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना  26 दिसंबर को की थी । इनके ही सदस्य भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल,बटुकेश्वर दत्त आदि-आदि क्रांतिकारी थे।
6 ) --- आज़ादी के बाद कांग्रेस में संघ समर्थकों के सिंडीकेट से भिड़ने के लिए इंदिरा गांधी ने जिस कांग्रेस (आर ) का गठन किया था वही आज की सोनिया कांग्रेस है जो मात्र 46 वर्ष ही पुरानी है और उसका आज़ादी के संघर्ष से कोई वास्ता नहीं रहा है।
7 ) --- आज़ादी वाली पुरानी कांग्रेस तो समाप्त हो गई और संघ से ग्रस्त कांग्रेसियों को तो कांग्रेस (ओ ) के नाम से जाना गया जो 1977 में जनता पार्टी में विलीन होकर समाप्त हो चुकी है।
आज की सोनिया कांग्रेस को 1885 वाली आज़ादी के संघर्ष की कांग्रेस मानना व कहना ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वथा गलत है।
8 ) --- आज आज़ादी के संघर्ष वाली सबसे पुरानी पार्टी सिर्फ 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ' ही है जो ब्राह्मण वाद से ग्रस्त होने के कारण ऐसा दावा प्रस्तुत नहीं कर रही है परंतु सच्चाई तो यही है।



Comments
Prakash Sinha
Prakash Sinha तथ्यपूर्ण जानकारी दी है, विजय जी आपने ।

 https://www.facebook.com/photo.php?fbid=990365184358791&set=a.154096721318979.33270.100001559562380&type=3&theater


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 'ऐतिहासिक सत्य ' तो यही है कि, आज स्वतन्त्रता आंदोलन की संघर्षरत पार्टियों में एकमात्र 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' ही सबसे पुरानी पार्टी है और गलत ढंग से प्रचारित सोनिया कांग्रेस नही। किन्तु पार्टी को नियंत्रित करने वाला ब्राह्मण नेतृत्व भी स्वतन्त्रता संघर्ष का श्रेय सोनिया कांग्रेस को ही देता है अपनी पार्टी को नहीं। अपने अस्तित्व को नकारने के कारण ही 1952 व 1957 के संसदीय  मुख्य विपक्षी दल को आज एक राजनीतिक दल के रूप में अपनी मान्यता समाप्त होने के खतरे से भी झूझना पड़ रहा है। 'इंडिया दैट इज़ भारत दैट इज़ उत्तर-प्रदेश' की नीति पर चल कर ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा हेतु गठित आर एस एस की समर्थक पार्टी स्वतन्त्रता आंदोलन से कोसों दूर रहने के बावजूद आज देश की सत्ता को चला रही है। जबकि शुरुआती मुख्य विपक्षी पार्टी अब भी अस्तित्व रक्षा की बजाए छिन्न-भिन्न होने की दिशा में चल रही है जैसा की उत्तर-प्रदेश में पार्टी के स्थापना समारोहों के फ़ोटोज़ से सिद्ध होता है। 

कानपुर में सम्पन्न मुख्य समारोह अथवा प्रदेश कार्यालय प्रांगण में सम्पन्न समारोह किसी में भी प्रदेश के ही वासी और राष्ट्रीय सचिव जन-प्रिय नेता कामरेड अतुल अंजान साहब को शामिल करना मुनासिब नहीं समझा गया। जबकि बिहार में सम्पन्न समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में उनको शामिल किया गया। अकेले अंजान साहब में वह क्षमता है कि उत्तर-प्रदेश व बिहार दोनों प्रदेशों की जनता को वह पार्टी के साथ जोड़ सकते हैं। किन्तु सत्ता-गलियारों में पकड़ जमाये जनाधार-विहीन नेतृत्व को यह गंवारा नहीं है। प्रदेश पार्टी को दो-दो बार तोड़ चुकने वाले लोग वीरेंद्र यादव जी द्वारा वर्णित 80 प्रतिशत पिछड़े व दलित -सर्वहारा वर्ग के लोगों से सिर्फ काम लेना चाहते हैं उनको पद व अधिकार  देना नहीं। जबकि अंजान साहब सबको साथ लेकर चलने वाले है इसलिए इन लोगों के निशाने पर हैं। बार-बार उनके विरुद्ध प्रेस के संपर्कों से अभियान चलाया जाता है जिसके परिणाम स्वरूप जनता के बीच पार्टी की छवी ठहर ही नहीं पाती। 

एथीस्टवाद की आड़ में पोंगा-पंथ को मजबूत किया जा रहा है और इस वर्ग के प्रदेश पार्टी के सीताराम केसरी को अगला प्रदेश सचिव बनाने कि गुप-चुप मुहिम चल रही है जिसके लिए अंजान साहब को प्रदेश से दूर रखना ज़रूरी है। और इस प्रकार एक स्वर्णिम अवसर को निजी स्वार्थों की बलिवेदी पर चढ़ाया जा रहा है। यदि अब भी पार्टी हितों को सर्वोपरि रखा जाये और अंजान साहब के संरक्षण में प्रदेश पार्टी को चलने को प्रेरित किया जाये तथा साथ ही साथ थोथे एथीज़्म का परित्याग करके वास्तविक 'धर्म' के 'मर्म' को जनता को समझाया जाये तो उत्तर-प्रदेश से फासिस्ट शक्तियों को उखाड़ने में भाकपा को सफलता मिल सकती है। 
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