Wednesday, 29 January 2014

CPI to contest 10 to 12 Lok Sabha seats in Bihar:.... A B Bardhan



CPI leader A. B. Bardhan (left) at a press conference in Patna on Sunday.

http://www.patnadaily.com/index.php/news/8321-cpi-to-contest-10-to-12-lok-sabha-seats-in-bihar-a-b-bardhan.html

Patna: Communist Party of India (CPI) former General Secretary A. B. Bardhan, speaking at a press conference in Patna on Sunday, said that the party would contest on 10 to 12 seats in Bihar in the next Lok Sabha election and the CPI was open to the idea of forming alliance with parties other than the Congress and the Bharatiya Janata Party (BJP).

Speaking at the conclusion of the party's three-day state meeting on Sunday, Bardhan said that the alliance with the non-Congress, non-BJP parties would be based on the common minimum program (CMP) to make a formidable third front capable to form the next government at the Center.

While not ruling out an alliance with the Janata Dal – U in Bihar, the communist leader said that it would be possible only if the JD-U broke its ties with the BJP.
Interestingly, it's every five years the CPI and its various avatars differentiated only by their alphabets within the parenthesis, come up with the same song and dance hoping to form a 'viable' third front that would successfully take on the establishment politics led by the Congress and the BJP only to be swept away in the electoral vote counts hanging barely to a thread for their political survival.


"We are open to talk to any party that agrees with our philosophy and will name the constituencies in Bihar only after consulting with our partners like Communist Party of India – Marxist (CPI-M), Communist Party of India – ML (CPI-ML), and Forward Block," Bardhan said.

No leftist press conference is complete without the announcement of an upcoming protest rally and Bardhan did not disappoint either. "We will hold a massive rally in Patna on October 25 to expose the failure of the current administration. Issues like land reform, contractual teachers, and private university bill would be taken up during this rally," he said.

Friday, 24 January 2014

बर्बर यौन अपराध और रुग्ण यौनाचार आज के पूँजीवाद/नवउदारवाद की सार्वभौमिक संस्कृति है---सत्य नारायण



 Satya Narayan
24-01-2014 
महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों का आखिर कारण क्‍या है ?:

जो भी बिक सके, उसे बेचकर मुनाफा कमाना पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति है। पूँजीवादी समाज के श्रम-विभाजन जनित अलगाव ने समाज में जो ऐन्द्रिक सुखभोगवाद, रुग्ण- स्वच्छन्द यौनाचार और बर्बर स्त्री-उत्पीड़क यौन फन्तासियों की ज़मीन तैयार की है, उसे पूँजीपति वर्ग ने एक भूमण्डलीय सेक्स बाज़ार की प्रचुर सम्भावना के रूप में देखा है। सेक्स खिलौनों, सेक्स पर्यटन, वेश्यावृत्ति के नये-नये विविध रूपों, विकृत सेक्स, बाल वेश्यावृत्ति, पोर्न फिल्मों, विज्ञापनों आदि-आदि का कई हज़ार खरब डालर का एक भूमण्डलीय बाज़ार तैयार हुआ है। टी.वी., डी.वी.डी., कम्प्यूटर, इन्टरनेट, मोबाइल, डिजिटल सिनेमा आदि के ज़रिए इलेक्ट्रानिक संचार-माध्यमों ने सांस्कृतिक रुग्णता के इस भूमण्डलीय बाज़ार के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभायी है। खाये-अघाये धनपशु तो स्त्री-विरोधी अपराधों और अय्याशियों में पहले से ही बड़ी संख्या में लिप्त रहते रहे हैं, भले ही उनके कुकर्म पाँच सितारा ऐशगाहों की दीवारों के पीछे छिपे होते हों या पैसे और रसूख के बूते दबा दिये जाते हों। अब सामान्य मध्यवर्गीय घरों के किशोरों और युवाओं तक भी नशीली दवाओं, पोर्न फिल्मों, पोर्न वेबसाइटों आदि की ऐसी पहुँच बन गयी है, जिसे रोक पाना सम्भव नहीं रह गया है। यही नहीं, मज़दूर बस्तियों में भी पोर्न फिल्मों की सी.डी. का एक बड़ा बाज़ार तैयार हुआ है। वहाँ मोबाइल रीचार्जिंग की दुकानों पर मुख्य काम अश्लील वीडियो और एम.एम.एस. क्लिप्स बेचने का होता है। दिल्ली की मज़दूर बस्तियों में यह सब आम बात है। प्रसिद्ध अध्येता यान ब्रेमेन के अध्ययन के अनुसार, सूरत में हीरा तराशी के जिन नियमित स्वेटशॉप्स में दिन भर काठियावाड़ी नौजवान हाड़तोड़ काम करते हैं, वही रात में ऐसी उमसभरी माँदों में तब्दील हो जाते हैं जहाँ पश्चिम से आयातित विकृत से विकृत परपीड़क पोर्न सी.डी. देखी जाती हैं। इस सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आज की पूँजीवादी व्यवस्था में अनिश्चितता, मायूसी और तंगहाली के घने अँधेरे में जी रही मेहनतकश आबादी का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा विकृत पोर्न संस्कृति की नशीली ख़ुराक में जीने का सहारा तलाश रहा है। मज़दूर आन्दोलन के गतिरोध, पतन और विघटन की भी इसमें एक अहम भूमिका है। आज के हालात में, अभी भी कुछ मेहनतकश ऐसे हैं जो विद्रोह कर रहे हैं या लड़ाई का सही रास्ता तलाश रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो मायूसी, अवसाद और विमानवीकारी जीवन स्थितियों के कारण नशे और अश्लील फिल्मों आदि की लत की चपेट में आ रहे हैं। और इन्हीं में से कुछ ऐसे भी हैं जो पूरी तरह विमानवीकृत होकर लम्पट-अपराधी बन रहे हैं। ऐसे ही कुछ लम्पट-अपराधी तत्व 16 दिसम्बर की घटना सहित बच्चियों और औरतों के ख़िलाफ़ हाल के कई बर्बर अपराधों में शामिल रहे हैं।

पूँजीवादी रुग्ण संस्कृति का ज़हर सिर्फ़ शहरी परजीवी अमीरों और गाँवों के कुलकों-फार्मरों के बेटों की ही नहीं, बल्कि आम मध्यवर्गीय युवाओं और मज़दूरों की नसों में भी घुल रहा है। भारतीय गाँवों, और शहरों तक में अभी भी समाज में जिस तरह स्त्री-पुरुष पार्थक्य और मध्ययुगीन, गैरजनवादी, स्त्री विरोधी मूल्यों- मान्यताओं का प्रभाव है, उससे न तो शहरी मध्यवर्ग मुक्त है, न ही मज़दूर वर्ग। ऐसी स्थिति में, भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों की विडम्बना है कि नवउदारवाद के दौर की “खुलेपन” की नग्न-फूहड़ संस्कृति यहाँ यौन-अपराधों को खुलकर बढ़ावा दे रही है। लेकिन यह मानना ग़लत होगा कि यह समस्या मुख्यतः पिछड़े समाजों की है। बर्बर यौन अपराध और रुग्ण यौनाचार आज के पूँजीवाद की सार्वभौमिक संस्कृति है। पश्चिम के विकसित देशों में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में आज़ादी और खुलापन आम बात है, लेकिन 2012 में स्वीडन जैसे “सभ्य” समृद्ध देश ने बलात्कार और यौन हिंसा का विश्व रिकार्ड क़ायम किया है। आबादी के हिसाब से, इस वर्ष वहाँ भारत की तुलना में तीस गुना अधिक बलात्कार हुए। जर्मनी में औसतन हर वर्ष बलात्कार और यौन हिंसा की आठ हज़ार घटनाएँ दर्ज होती हैं। ब्रिटेन इस मामले में दुनिया के शीर्षस्थ दस देशों में शामिल है। अमेरिका में हर साल लगभग तीन लाख औरतें यौन हिंसा का शिकार होती हैं।






https://www.facebook.com/satya.narayan.522/posts/10202959466488874

Wednesday, 22 January 2014

In what relation do the Communists stand to the proletarians as a whole?---Arvind Raj Swarup Cpi

In what relation do the Communists stand to the proletarians as a whole?

The Communists do not form a separate party opposed to the other working-class parties.

They have no interests separate and apart from those of the proletariat as a whole.


They do not set up any sectarian principles of their own, by which to shape and mould the proletarian movement.

The Communists are distinguished from the other working-class parties by this only:

 1. In the national struggles of the proletarians of the different countries, they point out and bring to the front the common interests of the entire proletariat, independently of all nationality. 
2. In the various stages of development which the struggle of the working class against the bourgeoisie has to pass through, they always and everywhere represent the interests of the movement as a whole.

The Communists, therefore, are on the one hand, practically, the most advanced and resolute section of the working-class parties of every country, that section which pushes forward all others; on the other hand, theoretically, they have over the great mass of the proletariat the advantage of clearly understanding the line of march, the conditions, and the ultimate general results of the proletarian movement.

The immediate aim of the Communists is the same as that of all other proletarian parties: formation of the proletariat into a class, overthrow of the bourgeois supremacy, conquest of political power by the proletariat.

The theoretical conclusions of the Communists are in no way based on ideas or principles that have been invented, or discovered, by this or that would-be universal reformer.

They merely express, in general terms, actual relations springing from an existing class struggle, from a historical movement going on under our very eyes. 


(Anand Prakash Tiwari Karl Marx ke yeh vichar kya Purane ho gaye hai?)Quoted from the Manifesto of Communist Party.

Sunday, 19 January 2014

काले धन के पहाड़ पर विराजमान हैं बाबा रामदेव---अमित राणा

पर उपदेश कुशल बहुतेरे:
बाबा रामदेव काफी समय से देश भर में काले धन के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. लेकिन तहलका की पड़ताल बताती है कि असल में उनका खुद का हाल पर उपदेश कुशल बहुतेरे जैसा है. काले धन को लेकर सरकारों को पानी पी-पीकर कोसने वाले बाबा रामदेव खुद उसी काले धन के पहाड़ पर विराजमान हैं. मनोज रावत की रिपोर्ट
साल 2004 की बात है. बाबा रामदेव योगगुरु के रूप में मशहूर हुए ही थे. चारों तरफ उनकी चर्चा हो रही थी. टीवी चैनलों पर उनकी धूम थी. देश के अलग-अलग शहरों में चलने वाले उनके योग शिविरों में पांव रखने की जगह नहीं मिल रही थी और बाबा के औद्योगिक प्रतिष्ठान दिव्य फार्मेसी की दवाओं पर लोग टूटे पड़ रहे थे.लेकिन फार्मेसी ने उस वित्तीय वर्ष में सिर्फ छह लाख 73 हजार मूल्य की दवाओं की बिक्री दिखाई और इस पर करीब 54 हजार रुपये बिक्री कर दिया गया. यह तब था जब रामदेव के हरिद्वार स्थित आश्रम में रोगियों का तांता लगा था और हरिद्वार के बाहर लगने वाले शिविरों में भी उनकी दवाओं की खूब बिक्री हो रही थी. इसके अलावा डाक से भी दवाइयां भेजी जा रही थीं.
रामदेव के चहुंओर प्रचार और देश भर में उनकी दवाओं की मांग को देखकर उत्तराखंड के वाणिज्य कर विभाग को संदेह हुआ कि बिक्री का आंकड़ा इतना कम नहीं हो सकता. उसने हरिद्वार के डाकघरों से सूचनाएं मंगवाईं. पता चला कि दिव्य फार्मेसी ने उस साल 3353 पार्सलों के जरिए 2509.256 किग्रा माल बाहर भेजा था. इन पार्सलों के अलावा 13 लाख 13 हजार मूल्य के वीपीपी पार्सल भेजे गए थे. इसी साल फार्मेसी को 17 लाख 50 हजार के मनीऑर्डर भी आए थे.
सभी सूचनाओं के आधार पर राज्य के वाणिज्य कर विभाग की विशेष जांच सेल (एसआईबी) ने दिव्य फार्मेसी पर छापा मारा. इसमें बिक्रीकर की बड़ी चोरी पकड़ी गई. छापे को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा बताते हैं, 'तब तक हम भी रामदेव जी के अच्छे कार्यों के लिए उनकी इज्जत करते थे. लेकिन कर प्रशासक के रूप में हमें मामला साफ-साफ कर चोरी का दिखा.' राणा आगे बताते हैं कि मामला कम से कम पांच करोड़ रु के बिक्रीकर की चोरी का था.
भ्रष्टाचार और काले धन को मुद्दा बनाकर रामदेव पिछले दिनों भारत स्वाभिमान यात्रा पर निकले हुए थे. इस यात्रा का पहला चरण खत्म होने के बाद 23 नवंबर को वे दिल्ली में थे. यहां बाबा का कहना था कि यदि संसद के शीतकालीन सत्र में लोकपाल और काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने वाले बिल पारित नहीं होते हैं तो वे उन पांच राज्यों में आंदोलन करेंगे जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इससे कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में उनका कहना था, ‘जिस दिन काले धन पर कार्रवाई शुरू होगी, उस दिन पता चलेगा कि जिन्हें हम खानदानी नेता समझ रहे थे उनमें से 99 प्रतिशत तो खानदानी लुटेरे हैं.’
अब सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार और काले धन की जिस सरिता के खिलाफ रामदेव अभियान छेड़े हुए हैं उसी में अगर वे खुद भी आचमन कर रहे हों तो? फिर तो वही बात हुई कि औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत. तहलका की यह पड़ताल कुछ ऐसा ही इशारा करती है.
सबसे पहले तो यह सवाल कि काला धन बनता कैसे है. आयकर विभाग के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, 'करों से बचाई गई रकम और ट्रस्टों में दान के नाम पर मिले पैसे से काला धन बनता है. काले धन को दान का पैसा दिखाकर, उस पर टैक्स बचाकर उसे फिर से उद्योगों में निवेश किया जाता है. इससे पैदा होने वाली रकम को पहले देश में जमीनों और जेवरात पर लगाया जाता है. इसके बाद भी वह पूरा न खप सके तो उसे चोरी-छुपे विदेश भेजा जाता है. यह एक अंतहीन श्रृंखला है जिसमें बहुत-से ताकतवर लोगों की हिस्सेदारी होती है.’
दिव्य फार्मेसी पर छापे की कार्रवाई को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा बताते हैं कि उनकी टीम ने इस छापे से पहले काफी होमवर्क किया था. राणा कहतेे हैं, ‘मेरी याददाश्त के अनुसार लगभग पांच करोड़ रु के राज्य और केंद्रीय बिक्री कर की चोरी का मामला बन रहा था.’ टीम के एक अन्य सदस्य बताते हैं, ‘पुख्ता सबूतों के साथ 2000 किलो कागज सबूत के तौर पर इकट्ठा किए गए थे.’
रामदेव से जुड़ी फार्मेसी पर छापा मारने पर उत्तराखंड के तत्कालीन राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल बड़े नाराज हुए थे. उन्होंने इस छापे की पूरी कार्रवाई की रिपोर्ट सरकार से तलब की थी. उस दौर में प्रदेश के प्रमुख सचिव (वित्त) इंदु कुमार पांडे ने राज्यपाल को भेजी रिपोर्ट में छापे की कार्रवाई को निष्पक्ष और जरूरी बताया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी इस रिपोर्ट के साथ अपना विशेष नोट लिख कर भेजा था जिसमें उन्होंने प्रमुख सचिव की बात दोहराई थी. रामदेव ने अधिकारियों पर छापे के दौरान बदसलूकी का आरोप लगाया था जिसे राज्य सरकार ने निराधार बताया था.
विभाग के कुछ अधिकारियों का मानना है कि रामदेव के मामले में अनुचित दबाव पड़ने के बाद डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा ने समय से चार साल पहले ही सेवानिवृत्ति ले ली थी. राणा को तब विभाग के उन उम्दा अधिकारियों में गिना जाता था जो किसी दबाव से डिगते नहीं थे. एसआईबी के इस छापे के बाद राज्य या केंद्र की किसी एजेंसी ने रामदेव के प्रतिष्ठानों पर छापा मारने की हिम्मत नहीं की. इसी के साथ रामदेव का आर्थिक साम्राज्य भी दिनदूनी रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा.
लेकिन बिक्री कम दिखाना तो कर चोरी का सिर्फ एक तरीका था. दिव्य फार्मेसी एक और तरीके से भी कर की चोरी कर रही थी. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि उस साल फार्मेसी ने वाणिज्य कर विभाग को दिखाई गई कर योग्य बिक्री से पांच गुना अधिक मूल्य की दवाओं (30 लाख 17 हजार रु) का ‘स्टाॅक हस्तांतरण’ बाबा द्वारा धर्मार्थ चलाए जा रहे ‘दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट’ को किया. रिटर्न में फार्मेसी ने बताया कि ये दवाएं गरीबों और जरूरतमंदों को मुफ्त में बांटी गई हैं. लेकिन वाणिज्य कर विभाग के तत्कालीन अधिकारी बताते हैं कि दिव्य फार्मेसी उस समय गरीबों को मुफ्त बांटने के लिए दिखाई जा रही दवाओं को कनखल स्थित दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट से बेच रही थी. दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट के पास में ही रहने वाले भारत पाल कहते हैं, 'पिछले 16 सालों के दौरान मैंने बाबा के कनखल आश्रम में कभी मुफ्त में दवाएं बंटती नहीं देखीं.’
रामदेव काले धन की बात करते हैं, मगर बिक्रीकर अधिकारियों के मुताबिक उनकी दिव्य फार्मेसी ने बिक्री का आंकड़ा बहुत कम दिखाकर 2004 में पांच करोड़ रु के बिक्रीकर की चोरी की. यही नहीं, गरीबों को मुफ्त दवा बांटने के नाम पर फार्मेसी ने रामदेव द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न ट्रस्टों को अरबों रुपये का स्टॉक ट्रांसफर किया जिसे बेचकर फिर से करोड़ों का बिक्रीकर बचाया गया. कर बचाकर ही काला धन बनता है
इसी तर्ज पर आज भी दिव्य फार्मेसी रामदेव द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न ट्रस्टों को गरीबों को मुफ्त दवाएं बांटने के नाम पर मोटा स्टॉक ट्रांसफर कर रही है. अभी तक दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट का उत्तराखंड राज्य में वाणिज्य कर में पंजीयन तक नहीं है. नियमानुसार बिना पंजीयन के ये ट्रस्ट किसी सामान की बिक्री नहीं कर सकते, लेकिन हैरानी की बात यह है कि इन ट्रस्टों में स्थित केंद्रों से हर दिन लाखों की दवाएं और अन्य माल बिकता है. पिछले कुछ सालों के दौरान दिव्य फार्मेसी से दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट, पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट और अन्य स्थानों में अरबों रुपये मूल्य का स्टाॅक ट्रांसफर हुआ है जिसकी बिक्री पर नियमानुसार बिक्री कर देना जरूरी है. ट्रस्टों के अलावा देश भर मेंे रामदेव के शिविरों में दवाओं के मुफ्त बंटने के दावे की जांच करना मुश्किल है, परंतु इन शिविरों में हिस्सा लेने वाले श्रद्धालु जानते और बताते हैं कि यहां दवाएं मुफ्त में नहीं बांटी जातीं. अब दिव्य फार्मेसी द्वारा बनाई जा रही 285 तरह की दवाएं और अन्य उत्पाद इंटरनेट से भी भेजे जाने लगे हैं. इंटरनेट पर बिकने वाली दवाओं पर कैसे बिक्री कर लगे, यह उत्तराखंड का वाणिज्य कर विभाग नहीं जानता. इन दिनों नोएडा में रह रहे जगदीश राणा कहते हैं, ‘रामदेव को जितना बिक्री कर देना चाहिए, वे उसका एक अंश भी नहीं दे रहे.’
उत्तराखंड में बिक्री कर ही राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा है. उत्तराखंड सरकार के कर सलाहकार चंद्रशेखर सेमवाल बताते हैं, ‘पिछले साल राज्य में बिक्री कर से कुल 2940 करोड़ रु की कर राशि इकट्ठा हुई थी, यह राशि राज्य के कुल राजस्व का 60 प्रतिशत है.’ इसी पैसे से सरकार राज्य में सड़कें बनाती है , गांवों में पीने का पानी पहुंचाया जाता है, अस्पतालों में दवाएं जाती हैं , सरकारी स्कूल खुलते हैं और ऐसे ही जनकल्याण के दूसरे काम चलाए जाते हैं. रामदेव नेताओं पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें देश के विकास से कोई मतलब नहीं है, वे बस अपनी झोली भरना चाहते हैं. लेकिन जब रामदेव का अपना ही ट्रस्ट इतने बड़े पैमाने पर करों की चोरी कर रहा हो तो क्या यह सवाल उनसे नहीं पूछा जाना चाहिए?
केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के एक पूर्व सदस्य बताते हैं, ‘करों को बचा कर ही काला धन पैदा होता है और इस काले धन का सबसे अधिक निवेश जमीनों में किया जाता है.’ पिछले सात-आठ साल के दौरान हरिद्वार जिले में रामदेव के ट्रस्टों ने हरिद्वार और रुड़की तहसील के कई गांवों, नगर क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्र में जमकर जमीनें और संपत्तियां ली हैं. अखाड़ा परिषद के प्रवक्ता बाबा हठयोगी कहते हैं, ‘रामदेव ने इन जमीनों के अलावा बेनामी जमीनों और महंगे आवासीय प्रोजेक्टों में भी भारी निवेश किया है.’ हठयोगी आरोप लगाते हैं कि हरिद्वार के अलावा रामदेव ने उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भी जमकर जमीनें खरीदी हैं. तहलका ने इन आरोपों की भी पड़ताल की. जो सच सामने आया वह चौंकाने वाला था.
जमीन का फेर:
योग और आयुर्वेद का कारोबार बढ़ने के बाद रामदेव ने वर्ष 2005 में पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट के नाम से एक और ट्रस्ट शुरू किया. रामदेव तब तक देश की सीमाओं को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय हस्ती हो गए थे. 15 अक्टूबर, 2006 को गरीबी हटाओ पर हुए मिलेनियम अभियान में रामदेव ने विशेष अतिथि के रूप में संयुक्त राष्ट्र को संबोधित किया. अपने वैश्विक विचारों को मूर्त रुप देने के लिए अब उन्हें हरिद्वार में और ज्यादा जमीन की जरूरत थी. इस जरूरत को पूरा करने के लिए आचार्य बालकृष्ण, दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि ट्रस्ट के नाम से दिल्ली-माणा राष्ट्रीय राजमार्ग पर हरिद्वार और रुड़की के बीच शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में खूब जमीनें खरीदी गईं. राजस्व अभिलेखों के अनुसार शांतरशाह नगर की खाता संख्या 87, 103, 120 और 150 में दर्ज भूमि रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर है. यह भूमि कुल 23.798 हेक्टेयर(360 बीघा) के लगभग बैठती है और इसी पर पतंजलि फेज-1, पतंजलि फेज- 2 और पतंजलि विश्वविद्यालय बने हैं.
बढेड़ी राजपूताना के पूर्व प्रधान शकील अहमद बताते हैं कि शांतरशाह नगर और उसके आसपास रामदेव के पास 1000 बीघा से अधिक जमीन है. लेकिन बाबा के सहयोगियों और ट्रस्टों के नाम पर खातों में केवल 360 बीघा जमीन ही दर्ज है. इस भूमि में से रामदेव ने 20.08 हेक्टेयर भूमि को अकृषित घोषित कराया है. राज्य में कृषि भूमि को अकृषित घोषित कराने के बाद ही कानूनन उस पर निर्माण कार्य हो सकता है.
तहलका ने राजस्व अभिलेखों की गहन पड़ताल की. पता चला कि रामदेव, उनके रिश्तेदारों और आचार्य बालकृष्ण ने शांतरशाह नगर के आसपास कई गांवों में बेनामी जमीनों पर पैसा लगाया है. उदाहरण के तौर पर, शांतरशाह नगर की राजस्व खाता संख्या 229 में जिन गगन कुमार का नाम दर्ज है वे कई वर्षों से आचार्य बालकृष्ण के पीए हैं. 8000 रु महीना पगार वाले गगन आयकर रिटर्न भी नहीं भरते. गगन ने 15 जनवरी, 2011 को शांतरशाह नगर में 1.446 हेक्टेयर भूमि अपने नाम खरीदी. रजिस्ट्री में इस जमीन का बाजार भाव 35 लाख रु दिखाया गया है, परंतु हरिद्वार के भू-व्यवसायियों के अनुसार किसी भी हाल में यह जमीन पांच करोड़ रुपये से कम की नहीं है. यह जमीन अनुसूचित जाति के किसान की थी जिसे उपजिलाधिकारी की विशेष इजाजत से खरीदा गया है. इससे पहले गगन ने 14 मई, 2010 को रुड़की तहसील के बाबली-कलन्जरी गांव में एक करोड़ 37 लाख रु बाजार मूल्य दिखा कर जमीन की रजिस्ट्री कराई थी. यह जमीन भी 15 करोड़ रु से अधिक की बताई जा रही है. स्थानीय पत्रकार अहसान अंसारी का दावा है कि बाबा ने और भी दसियों लोगों के नाम पर हरिद्वार में अरबों की जमीनें खरीदी हैं. बाबा हठयोगी सवाल करते हैं, ‘देश भर में काले धन को लेकर मुहिम चला रहे रामदेव के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर महज आठ हजार रुपये महीना पाने वाले गगन कुमार जैसे इन दसियों लोगों के पास अरबों की जमीनें खरीदने के लिए पैसे कहां से आए.’
शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद बाबा की नजर हरिद्वार की औरंगाबाद न्याय पंचायत पर पड़ी. इसी न्याय पंचायत में राजाजी राष्ट्रीय पार्क की सीमा पर लगे औरंगाबाद और शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला गांव हैं. उत्तराखंड में भू-कानूनों के अनुसार राज्य से बाहर का कोई भी व्यक्ति या ट्रस्ट राज्य में 250 वर्ग मीटर से अधिक कृषि भूमि नहीं खरीद सकता. विशेष परिस्थितियों और प्रयोजन के लिए ही इससे अधिक भूमि खरीदी जा सकती है, लेकिन इसके लिए शासन की अनुमति जरूरी होती है.
रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को 16 जुलाई, 2008 को उत्तराखंड सरकार से औरंगाबाद, शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला आदि गांवों में पंचकर्म व्यवस्था, औषधि उत्पादन, औषधि निर्माणशाला एवं प्रयोगशाला स्थापना के लिए 75 हेक्टेयर जमीन खरीदने की इजाजत मिली थी. शर्तों के अनुसार खरीदी गई भूमि का प्रयोग भी उसी कार्य के लिए किया जाना चाहिए जिस कार्य के लिए बताकर उसे खरीदने की इजाजत ली गई है. पहले बगीचा रही इस कृषि-भूमि पर रामदेव ने योग ग्राम की स्थापना की है. श्रद्धालुओं को बाबा के इस रिजॉर्टनुमा ग्राम में बनी कॉटेजों में रहकर पंचकर्म कराने के लिए 1000 रु से लेकर 3500 रु तक प्रतिदिन देना होता है.
आयकर विभाग की नजर से बचने के लिए बेनामी जमीनें खरीदी गई हैं और ज्यादातर जमीनों को दाखिल-खारिज नहीं कराया गया है. बालकृष्ण के पीए गगन कुमार की तनख्वाह भले ही 8000 रु महीना हो लेकिन वे करोड़ों की जमीनों के मालिक हैं. उधर, जो जमीनें ट्रस्ट के नाम पर खरीदी गई हैं उनमें भी कई मामलों में 90 फीसदी तक स्टांप ड्यूटी की चोरी की गई है
औरंगाबाद गांव के पूर्व प्रधान अजब सिंह चौहान दावा करते हैं कि उनके गांव में बाबा के ट्रस्ट और उनके लोगों के कब्जे में 2000 बीघे के लगभग भूमि है. लेकिन राजस्व अभिलेखों में रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके ट्रस्टों के नाम पर एक बीघा भूमि भी दर्ज नहीं है. क्षेत्र के लेखपाल सुभाश जैन्मी इस बात की पुष्टि करते हुए बताते हैं, ‘राजस्व रिकॉर्डों में भले ही रामदेव के ट्रस्ट के नाम एक भी बीघा जमीन दर्ज नहीं हुई है परंतु उत्तराखंड शासन से इजाजत मिलने के बाद पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट ने औरंगाबाद और तेलीवाला गांव में काफी जमीनों की रजिस्ट्रियां कराई हैं.’ राजस्व अभिलेखों में दाखिल-खारिज न होने का नतीजा यह है कि किसानों की सैकड़ों बीघा जमीनें बिकने के बाद भी अभी तक उनके ही नाम पर दर्ज हैं. इन सभी भूमियों पर रामदेव के ट्रस्टों का कब्जा है. राजस्व अभिलेखों में अभी भी औरंगाबाद ग्राम सभा की सारी जमीन कृषि भूमि है. नियमों के अनुसार कृषि भूमि पर भवन निर्माण करने से पहले उस भूमि को उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश अधिनियम की धारा 143 के अनुसार अकृषित घोषित करके उसे आबादी में बदलने की अनुमति लेनी होती है. इसके लिए आवेदक के नाम खतौनी में जमीन दर्ज होना आवश्यक है. रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर इन गांवों में एक इंच भूमि भी दर्ज नहीं है, लेकिन गजब देखिए कि नियम-कायदों को ताक पर रखकर यहां योग ग्राम के रूप में पूरा शहर बसा दिया गया है.
औरंगाबाद गांव के बहुत बड़े हिस्से को कब्जे में लेने के बाद रामदेव के भूविस्तार अभियान की चपेट में उससे लगा गांव तेलीवाला आया. योग ग्राम स्थापित करने के डेढ़ साल बाद फिर उत्तराखंड शासन ने पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट को 26 फरवरी, 2010 को हरिद्वार के औरंगाबाद और शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला गांव में और 155 हेक्टेयर (2325 बीघा) जमीन खरीदने की इजाजत दी. यह इजाजत पतंजलि विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए दी गई थी. इस तरह उत्तराखंड शासन से बाबा के पतंजलि योगपीठ को औरंगाबाद और तेलीवाला गांव की कुल 230 हेक्टेयर (3450 बीघा) जमीन खरीदने की अनुमति मिली जो इन दोनों गांवों की खेती वाली भूमि का बड़ा भाग है. इसके अलावा बाबा ने इन गांवों में सैकड़ों बीघा बेनामी जमीनें कई लोगों के नाम पर ली हैं जिन्हें वे धीरे-धीरे कानूनी प्रक्रिया पूरी करके अपने ट्रस्टों के नाम कराएंगे.
कई गांववाले दावा करते हैं कि तेलीवाला और औरंगाबाद गांव में रामदेव के ट्रस्ट के कब्जे में 4000 बीघा से अधिक जमीन है. प्रशासन द्वारा मिली इतनी अधिक भूमि खरीदने की इजाजत और बेनामी व कब्जे वाली जमीनों को देखने के बाद इस दावे में सत्यता लगती है. लेकिन राजस्व अभिलेख देखें तो औरंगाबाद ग्राम सभा की ही तरह तेलीवाला गांव में भी रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर एक इंच भूमि दर्ज नहीं है.
आखिर ऐसा क्यों? :
यह जानने से पहले कुछ और सच्चाइयां जानते हैं. तेलीवाला गांव में 2116 खातेदारों के पास कुल 9300 बीघा जमीन है. गांव के 330 गरीब भूमिहीनों के नाम सरकार से कभी पट्टों पर मिली 750 बीघा कृषि-भूमि या घर बनाने योग्य भूमि है. लेखपाल जैन्मी बताते हैं कि जमीनें बेचने के बाद गांव के खातेदारों में से सैकड़ों किसान भूमिहीन हो गए हैं. गांववालों के अनुसार गांव की कुल भूमि का बड़ा हिस्सा रामदेव के पतंजलि योगपीठ के कब्जे में है. इसकी पुष्टि बालकृष्ण का एक पत्र भी करता है. बालकृष्ण ने सात सितंबर, 2007 को ही हरिद्वार के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर स्वीकारा था कि तेलीवाला गांव की 80 प्रतिशत भूमि के उन्होंने बैनामे करा लिए हैं इसलिए गांव की फिर चकबंदी की जाए. यानी सब कुछ पहले से तय था और प्रशासन से बाद में जमीन खरीदने की विशेष अनुमति मिलना महज एक औपचारिकता थी. प्रस्ताव में किए गए बालकृष्ण के दावे को सच माना जाए तो रामदेव के पास अकेले तेलीवाला गांव में ही करीब 8000 बीघा जमीन होनी चाहिए. गांववालों ने समयपूर्व, नियम विरुद्ध हो रही इस चकबंदी का विरोध किया है. उन्हें आशंका है कि चकबंदी करा कर बालकृष्ण अपनी दोयम भूमि को किसानों की उपजाऊ भूमि से बदल देंगे.
हरिद्वार में रामदेव के आर्थिक साम्राज्य का तीसरा बड़ा भाग
पदार्था-धनपुरा ग्राम सभा के आसपास है. बाबा ने यहां के मुस्तफाबाद, धनपुरा, घिस्सुपुरा, रानीमाजरा और फेरुपुरा मौजों में जमीनें खरीदी हैं. ये जमीनें पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड के नाम पर शासन की अनुमति से खरीदी गई हैं. आठ जुलाई, 2008 को बाबा को मिली अनुमति में बृहत स्तर पर औषधि निर्माण और आयुर्वेदिक अनुसंधान के उद्देश्य की बात है. पर बाद में यहां फूड पार्क लिमिटेड की स्थापना की गई है. ग्रामीणों के अनुसार पतंजलि फूड पार्क लिमिटेड लगभग 700 बीघा जमीन पर है. 98 करोड़ के इस प्रोजेक्ट पर केंद्र के फूड प्रोसेसिंग मंत्रालय से 50 करोड़ रु की सब्सिडी (सहायता) मिली है. नौ कंपनियों के इस समूह में अधिकांश कंपनियां रामदेव के नजदीकियों द्वारा बनाई गई हैं. मां कामाख्या हर्बल लिमिटेड में रामदेव के जीजा यशदेव आर्य, योगी फार्मेसी के निदेशक सुनील कुमार चतुर्वेदी और संजय शर्मा जैसे रामदेव के करीबी ही निदेशक हैं. रामदेव के पतंजलि फूड पार्क व झारखंड फूड पार्क को स्वीकृति दिलाने में कांग्रेस के एक केंद्रीय मंत्री का आशीर्वाद साफ-साफ झलकता है. फूड पार्क के उद्घाटन के समय रामदेव ने केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्री के सामने घोषणा की थी कि वे हर साल उत्तराखंड से 1000 करोड़ की जड़ी-बूटियां या कृषि उत्पाद खरीदेंगे. परंतु बाबा ने सरकार से करोड़ों रुपये की सब्सिडी खा कर भी वादा नहीं निभाया. चमोली जिले में जड़ी-बूटी के क्षेत्र में काम करने वाली एक संस्था अंकुर संस्था के जड़ी-बूटी उत्पादक सुदर्शन कठैत का आरोप है कि बाबा ने उत्तराखंड में अभी एक लाख रुपये की जड़ी-बूटियां भी नहीं खरीदी हैं.
पदार्था के राजस्व अभिलेखों को देखने से पता चलता है कि यहां पतंजलि फूड पार्क लिमिटेड, रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके किसी नजदीकी व्यक्ति के नाम पर कोई जमीन दर्ज नहीं है. सवाल उठता है कि बिना राजस्व खातों में जमीन दर्ज हुए बाबा को कैसे फूड पार्क के नाम पर बने इस प्रोजेक्ट के लिए सब्सिडी मिली. यह सवाल जब हम राज्य सरकार के सचिव स्तर के संबंधित अधिकारी से पूछते हैं तो वे बताते हैं, 'हमारे पास कभी फूड पार्क की फाइल नहीं आई, संभवतया यह फाइल सीधे केंद्र सरकार को भेज दी गई हो.'
रामदेव ने हरिद्वार के दौलतपुर और उसके पास के गांवों जैसे बहाद्दरपुर सैनी, जमालपुर सैनीबाग, रामखेड़ा, हजारा और कलियर जैसे कई गांवों में भी बड़ी मात्रा में नामी- बेनामी जमीनें खरीदी हैं. हरिद्वार के एक महंत आचार्य बालकृष्ण के साथ एक बार उनकी जमीनों को देखने गए. नाम न छापने की शर्त पर वे बताते हैं, 'दिन भर घूमकर भी हम बाबा की सारी जमीनें नहीं देख पाए.’ प्राॅपर्टी बाजार के दिग्गज दावा करते हैं कि हरिद्वार में कम से कम 20 हजार बीघा जमीन बाबा के कब्जे में है.
लेकिन रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर राजस्व अभिलेखों में हरिद्वार में लगभग 400 बीघा भूमि ही दर्ज है. सवाल उठता है कि सभी तरह से ताकतवर रामदेव ने आखिर इतनी बड़ी मात्रा में जमीन खरीदने के बाद अपने ट्रस्टों या लोगों के नाम पर जमीन का दाखिल-खारिज क्यों नहीं कराया. इसका जवाब देते हुए कर विशेषज्ञ बताते हैं कि जमीनों का दाखिल-खारिज कराते ही बाबा की जमीनें आयकर विभाग की नजरों में आ सकती थीं इसलिए विभाग की संभावित जांचों से बचने के लिए इन जमीनों को दाखिल-खारिज करा कर राजस्व अभिलेखों में दर्ज नहीं कराया गया है.
तहलका ने इन जमीनों के लेन-देन में लगे धन पर भी नजर डाली. पता चला कि बाबा से जुड़े लोग या ट्रस्ट इन जमीनों की रजिस्ट्री तो सर्कल रेट पर करते थे परंतु बाबा ने किसानों को जमीन का मूल्य उसके सर्कल रेट से कई गुना अधिक दिया. उत्तराखंड का औद्योगिक शहर बनने के बाद हरिद्वार में जमीनों के भाव आसमान छू रहे थे. ग्रामीणों की मानें तो बाबा के मैनेजरों ने दलालों को भी गांव में जमीन इकट्ठा करने के एवज में मोटा कमीशन दिया.
जमीनों की खरीद-फरोख्त के सिलसिले में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी के न्यायालय में वर्ष 2009 और 2010 में हुए दर्जन भर से अधिक स्टांप अधिनियम के मामले चल रहे हैं. ये मामले पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड द्वारा पदार्था-धनपुरा गांव के मुस्तफाबाद मौजे में खरीदी गई जमीनों पर स्टांप शुल्क चोरी से संबंधित हैं. इन मामलों में न्यायालय ने पाया कि रजिस्ट्री करते समय स्टांप शुल्क बचाने की नीयत से इन जमीनों का प्रयोजन जड़ी-बूटी रोपण यानी कृषि और बागबानी दिखाया गया. बाबा के लोग रजिस्ट्री कराते हुए यह भी भूल गए कि उन्हें शासनादेश में इस भूमि को खरीदने की अनुमति औषधि निर्माण व अनुसंधान के लिए मिली थी जो कृषि कार्य से हटकर उद्योग की श्रेणी में आता है. ऊपर से पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ने इस जमीन को अकृषित घोषित कराए बिना ही इस पर औद्योगिक परिसर स्थापित कर दिया है. कम स्टाम्प शुल्क लगाने में पकड़े गए इन मामलों में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी ने पतंजलि योगपीठ पर स्टाम्प चोरी और अर्थदंड के रूप में करीब 55 लाख रु का जुर्माना भी लगाया.
साभार : 

Saturday, 18 January 2014

दोषियों को दंडित न किया जाना ही हो सकता है आत्मघाती दुष्प्रचार का कारण ---विजय राजबली माथुर

जिस समय वाम  एकता को मजबूत करने के प्रयास चल रहे हों उसी समय सबसे पुराने वाम दल के राष्ट्रीय सचिव के विरुद्ध घृणित दुष्प्रचार किया जाना अनायास ही नहीं है। बल्कि कम्युनिस्ट व वाम एकता को छिन्न-भिन्न करने का यह  कार्पोरेटी दुष्प्रयास एक लंबे समय से चलता आ रहा है जिसका पर्दाफाश इसी ब्लाग पर पिछली पोस्ट्स में किया जाता रहा है। किन्तु भाकपा केंद्रीय नेतृत्व, विशेषकर वरिष्ठ कामरेड ए बी बर्द्धन एवं कामरेड अतुल अनजान पर नामोलेख के साथ तथा इशारों द्वारा छींटाकशी  कारपोरेट समर्थक लाबी द्वारा एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत की जाती रही है जिसे एक बार फिर सार्वजनिक प्रकाश में लाया जा रहा है। यदि पहले ही उन दोषी लोगों के विरुद्ध कारवाई की गई होती तो कामरेड अतुल अनजान साहब को अब यह प्रतिवाद (CONTRADICTION) जारी नहीं करना पड़ता। दोषी लोग घृणित पार्टी विरोधी अभियान निर्बाध रूप से  चलाते रहे जिसका पूरा-पूरा लाभ कारपोरेट लाबी ने उठा कर भाकपा और इसके राष्ट्रीय सचिव पर प्रहार कर दिया।


 कामरेड अनजान पर इशारों में प्रहार का नमूना :



 वरिष्ठ कामरेड ए बी बर्द्धन पर इशारों में  प्रहार का नमूना :

 'इंकलाब' के संचालक द्वारा अधिकृत भाकपा प्रत्याशी  और उनका AAP को अपने सहयोगी सहित खुला समर्थन :







प्रत्याशी सहयोगी द्वारा कामरेड अनजान पर खुला प्रहार :
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=489602807814378&set=gm.427019937399700&type=1&theater


किस AAP का समर्थन कर रहे हैं ये दुष्प्रचारक?:


Thursday, 16 January 2014

"द वीक"में आयी खबर मुझ पर हमला---अतुल कुमार अनजान

मेरे किसी अन्य दल में जाने कि खबर "द वीक"में आयी यह मुझ पर हमला ,है पेश है वीक को लिखे ख़त कि कॉपी,इस खबर का काफी प्रसार प्रचार किया गया लेकिन रोज़ टेलिविज़न में होता हु किसी पत्रकार ने इसे सजींदगी से नहीं लिया ना मुझसे पूछा, आज लखनऊ होते हुए अपनी लोकसभा घोसी जा रहा हु, आपकी मुहब्बतो का तलबगार.
 आपका अतुल 



30 सितंबर 2013 की सफल  लखनऊ रैली के बाद उसके प्रतिफल को नष्ट करने हेतु सी पी आई में घुसे हुये पोंगापंथियों ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के मद्दे नज़र वरिष्ठ कामरेड ए बी बर्द्धन एवं कामरेड अतुल  कुमार अनजान के विरुद्ध घृणित अभियान चला रखा था जिसका प्रतिवाद करते हुये मैंने 24 दिसंबर 2013 को इसी ब्लाग में यह लेख दिया था :
अवाम की आवाज़ और चेहरा :लखनऊ की शान और उत्तर प्रदेश का सितारा - अतुल अनजान



 अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

                                  (मैथिलीशरण गुप्त )
कामरेड अतुल अनजान लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और AISF के भी पूर्व अध्यक्ष तो हैं ही। वर्तमान में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 'राष्ट्रीय सचिव' तथा AIKS-अखिल भारतीय किसानसभा के 'राष्ट्रीय महामंत्री हैं'।  न केवल अपनी ओजस्वी वाक-शैली वरन जनता के मर्म को समझने वाले एक जन-प्रिय नेता के रूप में भी जाने जाते हैं। 

यदि भाकपा केंद्रीय नेतृत्व उनके राष्ट्रीय कृत्यों के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में पार्टी के पथ -प्रदर्शक के रूप में उनको अतिरिक्त भार  दे दे  तो पार्टी को अत्यंत लाभ हो सकता है।  

Tuesday, 14 January 2014

." कस्में वादें प्यार वफा सब वादे हैं वादों का क्या........."--- Drigvindu Mani Singh



कलई खुल रही है और आम आदमी मीडीया की चकाचौंध में भ्रमित हैं। आम आदमी को बदनाम कर रही है आम आदमी पार्टी। मैने ऐसा आम आदमी नही देखा जो अपने ही देश को आम आदमी पार्टी के प्रशान्त भूषन की तरह तोडने की बात करता हो, और कश्मीर को पाकिस्तान को सौंपने की बात करता हो।मैने ऐसा आम आदमी नही देखा जो आम आदमी पार्टी की मंत्री राखी बिडला की तरह गेंद को बम बनाने पर तुली हुई थीं।मैने ऐसा आम आदमी नही देखा जो चने खा कर गुजारा करता है और आन्दोलन करता है लेकिन आम आदमी पार्टी के कुमार विश्वास की तरह लग्जरी गाडियों के काफिले में चलता है और पाँच सितारा होटलों में रहता है।मैने ऐसा भी आम आदमी नही देखा जो आम आदमी पार्टी के मंत्री और कानून के जानकार सोमनाथ भारती की तरह भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिये सबूतों से छेडछाड करता है और जिसके रवैये पर न्यायपालिका गंभीर टिप्प्णी करती है।मैने ऐसा भी आम आदमी नही देखा जो अपने ही बच्चों की झूठी कसम खाता है और आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अर्विन्द केजरीवाल की तरह जिसका भ्रष्टाचार के विरुद्ध विरोध किया उसी के साथ गलबहिया कर लिया सत्ता के लोभ में।ऐसा भी आम आदमी नही देखा जो कि केजरीवाल की तरह खुद ही एफ आई आर लिखाता है शीला के खिलाफ और मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण के बाद आम आदमी पार्टी कहती है की शीला के खिलाफ राष्ट्रमंण्डल घोटालों में सबूत ही नही है।ऐसा भी आम आदमी नही देखा जो आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अर्विन्द केजरीवाल की तरह जनता दरबार लगाने की बात करता है और पहले दिन के कुछ ही मिनटों में जनता दरबार छोडकर भाग जाता है और एलान करता है कि अब दिल्ली में जनता दरबार नही लगेगा।मैने ऐसा भी आम आदमी नही देखा जो आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अर्विन्द केजरीवाल की तरह मुख्यमंत्री बनने के पहले पानी के मीटरों को "फाल्टी" बताता था और अब मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्ही "फाल्टी" मीटरों को आम आदमी के घरों में लगवा रहा है जबकि वह स्वयं भी मुख्यमंत्री होने के साथ ही साथ दिल्ली जल बोर्ड का अध्यक्ष भी है। किसी भी तरह की सरकारी सुविधा न लेने का वादा और दावा करने वाले आम आदमी पार्टी के आम आदमियों ने सभी तरह की सुविधायें लीं। लग्जरी गाडियां लीं, बंगले लिये, सुरक्षा ली। वाह रे आम आदमी !!! आम आदमी को बदनाम कर रही है आम आदमी पार्टी!!! मलंग का गीत याद आ गया...." कस्में वादें प्यार वफा सब वादे हैं वादों का क्या........."

Monday, 13 January 2014

देश हित में आधार कार्ड योजना तत्काल रद्द की जाये/या मनमोहन सरकार बर्खास्त की जाये ---विजय राजबली माथुर


एक तरफ तो मनमोहन सरकार सुप्रीम कोर्ट को जैविक सुरक्षा संबंधी ठोस जानकारी नहीं दे रही है तो दूसरी ओर गैस उपभोक्ताओं को कैश सबसीडी 'आधार कार्ड' के आधार पर देने के फरमान जारी कर चुकी है। वहीं इसी सरकार ने मुकेश अंबानी के गैस उद्योग को भारी सबसीडी घोषित कर दी है। साफ है कि मनमोहन सरकार के लिए देश की जनता और संप्रभुता के ऊपर अमेरिकी हित हावी हैं।

राष्ट्रपति महोदय को चाहिए कि वह मनमोहन सरकार से देश हित में 'आधार कार्ड योजना' को तत्काल रद्द करने को कहें और ऐसा न करने पर मनमोहन सरकार को बर्खास्त कर दें और किसी कार्यवाहक पी एम की देख-रेख में लोकसभा चुनाव सम्पन्न होने दें। 

निराधार 'आधार कार्ड योजना' देश के लिए कितना गंभीर खतरा है उनका संकेत इन लिंक्स पर उपलब्ध है।  :


Surveillance and security
Surveillance by USA on India’s leaders and private citizens is bad enough, but India is preparing for its own internal surveillance. Surveillance assumes that the subject surveilled is a suspected spy or a criminal [Note 2]. This assumption for general public surveillance in a democracy is unwarranted because the general public becomes “suspect”. Surveillance of criminal suspects (targetted surveillance) is standard police and intelligence practice and, in a democratic society, is done with appropriate established, well-defined checks and safeguards, so that the power of surveillance is not misused to gain advantage or blackmail or settle scores for political or partisan purposes. Even with checks and balances in place, targetted surveillance has led to innumerable cases of staged or false “encounters” resulting in extra-judicial killings based on questionable intelligence reports, mere suspicion or motivated political orders.


http://www.kractivist.org/india-open-secrets-effects-on-sovereignty-and-democracy-uid-sundayreading/

The Aadhaar scheme is unconstitutional---Justice K.S. Puttaswamy

 http://www.kractivist.org/india-aadhaar-scheme-is-unconstitutional-justice-k-s-puttaswamy-uid/


The Ministry had unveiled the scheme in 97 districts and planned to extend it to almost 265 districts by January 1, under which all consumers in these districts had to get their bank accounts linked with their Aadhaar number to avail themselves of the subsidy. The Aadhaar platform, which provides a resident a 12-digit unique number after recording bio-metric information like fingerprints and iris, is being used to implement the cash transfer scheme.
But the Supreme Court ruled that Aadhaar could not be made mandatory for people to get government services and nobody should be deprived of any such facilities for want of the card. It also rejected the review petition filed by the government on this issue.


http://www.thehindu.com/news/national/aadhaar-not-mandatory-for-lpg-subsidy-moily/article5217892.ece


Sunday, 12 January 2014

कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी को लाल सलाम...कैलाश पांडे

  1. कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी को लाल सलाम...! ( 11 जनवरी शहादत दिवस ):
    11 जनवरी 1948 को टिहरी गढ़वाल राजशाही के खिलाफ लड़ते हुए कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी कीर्तिनगर में शहीद हुए थे और इसके साथ ही लगभग 1200 साल की सामंती हकूमत से टिहरी की जनता को मुक्ति मिली थी । टिहरी की जनता एक साथ राजा और ब्रिटिश राज दोनों का दमन झेल रही थी । 1920 को जन्मे नागेन्द्र सकलानी 16 वर्ष की उम्र में ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता बन चुके थे । इसी बीच टिहरी रियासत में अकाल पड़ा तो राजा ने जनता को राहत देने के बजाय अपने राजकोष को भरना ज्यादा मुनासिब मानते हुए भू-व्यवस्था एवं पुनरीक्षण के नाम पर जनता को ढेरों करों से लाद दिया । इस राजसी क्रूरता के खिलाफ़ नागेन्द्र ने गांव-गांव अलख जगा आंदोलन को नयी धार दी। नतीजतन, राजा का बंदोबस्त कानून क्रियान्वित नहीं हो सका।
    राजशाही से क्षुब्ध लोगों ने सकलानी व अन्य आन्दोलनकारियों के नेतृत्व में कड़ाकोट (डांगचौरा) से बगावत शुरू कर दी और करों का भुगतान न करने का ऐलान कर डाला। किसानों व राजशाही फौज के बीच संघर्ष का दौर चला। नागेन्द्र को राजद्रोह में 12 साल की सजा सुनाई गई। नागेन्द्र सकलानी ने जेल में 10 फरवरी 1947 से आमरण अनशन शुरू किया। मजबूरन राजा को नागेन्द्र सकलानी को साथियों सहित रिहा करना पड़ा। सुमन की शहादत पहले ही जेल में हो चुकी थी, राजा जानता था कि सुमन के बाद सकलानी की जेल में ही शहादत का अंजाम क्या हो सकता है।
    इसके साथ ही जनता ने वनाधिकार कानून संशोधन, बराबेगार, पौंणटोंटी जैसी कराधान व्यवस्था को समाप्त करने की मांग की। मगर राजा ने इसे अनसुना कर दिया। सकलाना की जनता ने स्कूलों, सड़कों, चिकित्सालयों की मौलिक मांगों के साथ ही राजस्व अदायगी को भी रोक डाला। विद्रोह को दबाने के लिए विशेष जज के साथ फौज सकलाना पहुंची। यहां उत्पीड़न और घरों की नीलामी के साथ निर्दोंष जेलों में ठूंस जाने लगे। ऐसे में राजतंत्रीय दमन के खिलाफ़ संघर्ष तेज़ हुआ और आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए सत्याग्रहियों की भर्ती शुरू हुई। सकलाना में आजाद पंचायत की स्थापना हुई तो इसका असर कीर्तिनगर परगना तक पहुंचा । आन्दोलन के इस बढ़ते दौर में बडियार में भी आजाद पंचायत की स्थापना हुई।
    10 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर में सामंती बंधनों से मुक्ति को जनसैलाब उमड़ पड़ा। राजा के चंद सिपाहियों ने जनाक्रोश के भय से अपनी हिफाजत की एवज में बंदूकें जनता को सौंप दी। इसी बीच जनसभा में कचहरी पर कब्जा करने का फैसला हुआ और कचहरी पर ‘तिरंगा’ फहरा दिया गया । गौरतलब है कि इससे 5 महीने पहले 15 अगस्त 1947 को अंग्रेज भारत छोड़कर जा चुके थे । कीर्तिनगर में झंडा फहराने की खबर जैसे ही नरेन्द्रनगर पहुंची तो वहां से फौज के साथ मेजर जगदीश, पुलिस अधीक्षक लालता प्रसाद व स्पेशल मैजिस्ट्रेट बलदेव सिंह 11 जनवरी को कीर्तिनगर पहुंचे। राज्य प्रशासन ने कचहरी को वापस हासिल करने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन जनाक्रोश के चलते उन्हें मुंह की खानी पड़ी। फौज ने आंसू गैस के गोले फेंके तो भीड़ ने कचहरी को ही आग के हवाले कर दिया।
    हालातों को हदों से बाहर होता देख अधिकारी जंगल की तरफ भागने लगे। आंदोलनकारियों के साथ जब यह खबर नागेन्द्र को लगी तो उन्होंने साथी भोलू भरदारी के साथ पीछा करते हुए दो अधिकारियों को दबोच लिया। सकलानी बलदेव के सीने पर चढ़ गये। खतरा भांपकर मेजर जगदीश ने फायरिंग का आदेश दिया। जिसमें दो गोलियां नागेन्द्र सकलानी व मोलू भरदारी को लगी, और इस जनसंघर्ष में दोनों क्रांतिकारी शहीद हो गये। कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य कामरेड नागेन्द्र सकलानी पार्टी के निर्देश पर ही टिहरी राजशाही के विरूद्ध संघर्ष को तेज़ करने कीर्तिनगर पहुंचे थे । मोलू भरदारी भी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार सदस्य थे। शहादत के गमगीन माहौल में राजतंत्र एक बार फिर हावी होता कि पेशावर विद्रोह के नायक कामरेड चन्द्रसिंह गढ़वाली ने नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया ।
    12 जनवरी 1948 के दिन शहीद नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी की देहों को लेकर आंदोलनकारी टिहरी रवाना हुए । जनता ने पूरे रास्ते अमर बलिदानियों को भावपूर्ण विदाई दी। 15 जनवरी को शहीद यात्रा के टिहरी पहुंचने से पहले ही वहां भारी जन-आक्रोश फैल चुका था । जिससे डरकर राजा मय लश्कर नरेन्द्रनगर भाग खड़ा हुआ। कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत सामंतशाही के ताबूत में अंतिम कील साबित हुई और टिहरी की जनता को राजशाही से मुक्ति मिली । अंततः 1 अगस्त 1949 को टिहरी रियासत का भारत में विलय हो गया ।
    11 जनवरी को कीर्तिनगर में हर साल कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की याद में शहीद मेला लगता है और भाजपाई-कांग्रेसी इस शहीद मेले के कर्ता-धर्ता होते हैं....जबकि इन दोनों पार्टियों ने ही कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी के हत्यारे राजा और उसके वंशजों को अपनी-अपनी पार्टियों का टिकट देकर संसद में भेजा । पहले ‘राजा’ मानवेन्द्र शाह कांग्रेस के टिकट पे चुनकर संसद जाता रहा और जब वो एक बार हारा तो फिर जो गायब हुआ तो भाजपा के राम ध्वजा रथ पर ही सवार नजर आया और मरते दम तक भाजपा का सांसद रहा और अब उसी राजा की पुत्र-वधु भाजपा से सांसद है.... इसलिए न तो उनको कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी के क्रांतिकारी इतिहास से कोई लेना-देना है और न ही वो चाहते हैं कि जनता इस इतिहास को जाने-समझे इसलिए वो उनकी शहादत को मेला-खेला आयोजित करने तक सीमित कर देना चाहते हैं.... ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले’ कहने वाले की मंशा जो भी रही हो पर भाजपाईयों-कांग्रेसियों ने इसे इस तरह अपनाया है कि मेले जरूर लगें पर विचार गायब हो जाय । शहीदेआज़म भगत सिंह तक को भी विचारहीन दिखाने की...बम-पिस्तौल तक सीमित करने की...आतंकवादी के बतौर प्रचारित करने की...उनका विचार जनता तक न पहुँचने देने की भरसक कोशिशें शासक-वर्ग ने की हैं पर भगत सिंह भारत की आज़ादी की लड़ाई के ऐसे प्रकाश-स्तम्भ हैं जो इस देश में मेहनतकश वर्ग के आन्दोलन को, नए भारत के निर्माण की लड़ाई में लगे क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को हमेशा प्रेरित करते रहेंगे और शासक-वर्ग की कुचेष्टाएं भी उनकी लोकप्रियता को, उनके राष्ट्रनायक के दर्जे को कभी भी कम नहीं कर सकेंगी । कामरेड नागेन्द्र सकलानी को भी मूर्ति और मेले तक सीमित करने की साजिशें कभी सफल नहीं हो सकतीं । कामरेड नागेन्द्र सकलानी की शहादत, उनकी क्रांतिकारी प्रतिबद्धता और जनता पर अटूट विश्वास भारत में नए जनवाद और बेहतर उत्तराखण्ड की लड़ाई में उन्हें हमेशा हमारा नायक बनाये रखेंगी ।
    उत्तराखण्ड के इतिहास में राजाओं-सामंतों के खिलाफ़ किसान संघर्षों की लम्बी परंपरा रही है । उत्तराखण्ड में जनता के संघर्ष को आगे बढ़ा रहे क्रांतिकारी-कम्युनिस्टों को जरूर ही उत्तराखंड के सामंतवाद विरोधी-उपनिवेशवाद विरोधी किसान संघर्षों के इतिहास की विरासत को प्रतिष्ठित करना होगा । उत्तराखण्ड में क्रांतिकारी संघर्षों को आगे बढ़ाने में यह महत्वपूर्ण साबित होगा ।

Friday, 10 January 2014

हज़ारे नहीं होते तो मोदी की दावेदारी मजबूत नहीं होती ---आशुतोष/तमाशे का इतिहास समझें---विजय राजबली माथुर


http://www.livehindustan.com/



अभी 100 दिन पूर्व ही अपने लेख द्वारा आशुतोष जी ने सिद्ध किया था कि हज़ारे आंदोलन द्वारा ही मोदी अगले पी एम के विकल्प के रूप में उभर कर आ सके थे। अब 10 दिन से मोदी के स्थान पर मनमोहन सिंह जी के प्रिय शिष्य अरविंद केजरीवाल साहब का नाम उभर गया है और खुद आशुतोष जी उनके सिपहसालार बन रहे हैं। 

1947 का भारत-विभाजन तो सांप्रदायिक आधार पर साम्राज्यवादी अमेरिका ने ब्रिटेन से करवा दिया था और पाकिस्तान पर उसका अप्रत्यक्ष नियंत्रण भी हो गया था जो अब भी बरकरार है। लेकिन नेहरू जी ने इजीप्ट के अब्दुल गामाँल नासर और यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो के साथ मिल कर 'गुट निरपेक्ष सम्मेलन' नामक तीसरा गुट बना लिया था और अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे झुके नहीं थे भले ही 1962 में उनके मित्र जान एफ केनेडी ने चीन के विरुद्ध सहायता का प्रस्ताव भी किया तो उसे भी ठुकरा दिया था। फिर 1965 में शास्त्री जी ने लिंडन जानसन के आगे न झुक कर अमेरिकी PL-480 स्कीम को खत्म कर दिया था।  PL-480 स्कीम के अंतर्गत अमेरिका गेंहू से शराब खींच कर फोकस गेंहू भारत को बेच कर उस धन से अपने दूतावास के माध्यम से ऐसा साहित्य प्रचारित कराता था जिससे समाजवाद/साम्यवाद के प्रति घृणा युवकों में भरी जाती थी।

रूस के सहयोग से जो बुनियादी ढांचा भारत ने मजबूत कर लिया था उसका लाभ मिलने का जब समय आया तब अमेरिका ने भारत के उद्योगपतियों को उकसा कर उसे हड़प लेने को प्रेरित किया। सिंडीकेट ने समाजवादी नमूने की नीतियों को छोडने का दबाव बनाया किन्तु  1969 में इंदिरा जी ने इन्दिरा कांग्रेस बना कर CPI के सहयोग से 14 बैंकों  का राष्ट्रीयकरण करके व राजाओं का प्रिवी पर्स समाप्त करके उनको झटक दिया था। 1971 में रिचर्ड निकसन के 7वां बेड़ा के बंगाल की खाड़ी में पहुँचने से पूर्व ही बांग्ला देश को आज़ाद करा लिया था। किन्तु उमाशंकर दीक्षित की सलाह पर  1975 में आपातकाल की घोषणा करके इन्दिरा जी अलोकप्रिय हो गईं थीं और 1977 में सांसद तक न निर्वाचित हो सकीं तब आपातकाल में RSS मुखिया मधुकर दत्तात्रेय 'देवरस' से किए गुप्त समझौते के आधार पर 1980 का चुनाव RSS की 100 प्रतिशत सपोर्ट से जीता और समाजवादी नीतियों का परित्याग करके पूर्ण पूंजीवाद की ओर कदम बढ़ा दिया था। 1980 से ही श्रम न्यायालयों ने श्रमिकों के विरुद्ध और मालिकों के पक्ष में फैसले सुनाना प्रारम्भ कर दिया था। 1984  में अमेरिकी साजिश के तहत इन्दिरा जी की हत्या करा दी गई जिससे राजीव गांधी सहानुभूति के रथ पर सवार होकर तीन चौथाई बहुमत से संसद में पहुंचे और निर्बाध रूप से उदारीकरण के नाम पर निजीकरण चालू कर दिया। 1989 में बाबरी मस्जिद/ राम जन्म भूमि का ताला खुलवा कर सांप्रदायिक/साम्राज्यवादी शक्तियों को मजबूत कर दिया जिससे आर्थिक/राजनीतिक क्षेत्र में हो रहे प्रतिगामी परिवर्तनों से देशवासियों का ध्यान हटाया जा सके। 
1991 में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने उनकी भी हत्या करवा दी और इस सहानुभूति लहर में इंका के नरसिंघा राव जी (पूर्व RSS कार्यकर्ता) पी एम बने और पूर्व वर्ल्ड बैंक कर्मी मनमोहन सिंह जी वित्त मंत्री। सरकारी उद्योग अब खुल कर निजी क्षेत्र को दिये गए और इस कार्य को तीव्र गति प्रदान की संघी पी एम बाजपेयी जी ने जिसे अब मनमोहन जी निर्बाध रूप से पूरा कर रहे हैं। 

इन नीतियों से जनता का शोषण-उत्पीड़न इतना बढ़ा कि किसानों-मजदूरों मे आत्म-हत्याओं तक का सिलसिला चल पड़ा। विपरीत परिस्थितियों में सोनिया जी के विदेश इलाज के दौरान हज़ारे आंदोलन खड़ा करके जनता का ध्यान बांटा गया और उसके फल स्वरूप भाजपा व आ आ पा को व्यापक लाभ हुआ। मोदी की सांप्रदायिक नर-संहार की छवि के कारण अमेरिका ने अरविंद केजरीवाल को आगे कर दिया जो मनमोहन जी के  पूर्ण आशीर्वाद से आगे बढ़ रहे हैं। कारपोरेट घरानों के बड़े पदाधिकारी इस पार्टी में शामिल होकर 2014 में सत्ता पर काबिज होने के लिए पूरे तौर पर तैयार हैं। अफसोस और दुख की बात है कि कुछ कम्युनिस्ट और वामपंथी भी निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर आ आ पा के भक्त बने हुये हैं।





Tuesday, 7 January 2014

कम्‍युनिस्‍ट का व्‍यक्तित्‍व और जीवन उसके उसूलों का पहला घोषणा पत्र होना चाहिए-----कविता कृष्‍णपल्‍लवी

https://www.facebook.com/notes/kavita-krishnapallavi/


वामपंथी बुद्धिजीवियों और राजनीतिक कर्मियों की निजी ज़ि‍न्‍दगी के बारे में कुछ बेलागलपेट बातें

January 6, 2014 at 7:05pm


इस देश में जितने वामपंथी, प्रगतिशील, जनवादी ख़यालात के लोग हैं, अपनी निजी ज़ि‍न्‍दगी में वे बस इतनी-सी हिम्‍मत जुटा लें कि 
 (1) रोज़मर्रे के पारिवारिक-सामाजिक जीवन में जाति और धार्मिक रूढ़ि‍यों को बाल भर भी जगह न दें 
(2) धार्मिक कर्मकाण्‍डों के साथ होने वाली शादी-ब्‍याह या किसी भी आयोजन में हिस्‍सा लेने से विनम्रता पूर्वक इंकार कर दें 
(3) अपनी या अपने बेटे-बेटियों की शादी कोर्ट में पंजीकरण करके करायें 
(4) अपने वयस्‍क बच्‍चों की ज़ि‍न्‍दगी में परामर्श से अधिक दख़ल न दें, अपनी ज़ि‍न्‍दगी के सारे फैसले उन्‍हें खुद लेने दें, उन्‍हें स्‍वयं अपना जीवन-साथी चुनने की पूरी आज़ादी दें और इसके हिसाब से उनकी सांस्‍कृतिक परवरिश करें 
(5) पत्‍नी, बहन और बेटी को हर हाल में रोज़गार (अंशकालिक, पूर्णकालिक, जैसी भी हो) के लिए और सामाजिक जीवन में भागीदारी के लिए तैयार करें, घृणित-नीरस घरेलू गुलामी से आज़ाद करें, और सभी घरेलू कामों (सफ़ाई, खाना बनाना, बच्‍चे की देखभाल) में अनिवार्यत:, बराबरी से (प्रतीक रूप में नहीं) हाथ बँटायें, तथा,
(6) सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी उन्‍हें (बलात् नहीं) शामिल करने की भरपूर कोशिश करें, -- तो भारतीय समाज में वामपंथ की साख बढ़ाने में बहुत मदद मिलेगी।
 यदि कम्‍युनिस्‍ट अपना जीवन अपने विचारों के हिसाब से जीने लगें, तो यह जाति-उत्‍पीड़न और स्‍त्री-उत्‍पीड़न की कुरीतियों और रूढि़यों में डूबे भारतीय समाज में, अपने-आप में एक सांस्‍कृतिक क्रान्ति होगी।
प्राय: भारतीय कम्‍युनिस्‍ट परिस्थितियों की आड़ लेकर, उतना भी नहीं करते जितना पश्चिमी समाज का एक औसत चेतना वाला बुर्ज़ुआ जनवादी नागरिक करता है। उतना भी नहीं करते जितना भारत का बुर्ज़ुआ जनवादी संविधान भी कहता है। वे निजी तौर पर एक दकियानूस, छिपे हुए जातिवादी संस्‍कार वाले, रूढ़ि‍भीरू, मर्दवादी का जीवन जीते हैं। तमाम वामपंथी लेखकों-पत्रकारों को ही देखिये, मार्क्‍सवादी विवेचना के नाम पर गट्ठर का गट्ठर लिख मारते हैं, पत्‍नी को घर की नौकरानी बनाकर रखते हैं, कई तो बाहर स्‍त्री साहित्‍यकारों के पीछे कुत्‍तों की तरह लार टपकाते लपकते-लरियाते हैं, अपनी बेटी की शादी की बारी आती है तो  जाति, लगन सब देखते हैं, पण्डित-नाई, मँड़वा-कोहबर-परिछावन सब होने लगता है, बेटे  को सिविल सर्विस में या विदेश भेजने के लिए प्रेरणा-पैसा-डण्‍डे का अनुशासन सब लगा देते हैं, शादी काफी छाँट बीनकर करते हैं और पत्रम-पुष्‍पम् के नाम पर  कुछ दहेज भी झींट लेते हैं। कभी-कभी तो अपने जैसे ही किसी सजा‍तीय प्रगतिशील को पकड़कर बेटे-बेटी की भी डील  हो जाती है, मार्क्‍सवाद भी ज़ि‍न्‍दाबाद, जातिवाद भी ज़ि‍न्‍दाबाद -- दोनों बन्‍धु समधी-समधी हो जाते हैं! केरल बंगाल जैसे राज्‍यों में कुछ अपवाद मिलेंगे, पर चुनावी वामपंथी दलों के हिन्‍दी पट्टी के नेताओं का चरित्र भी इस मामले में उतना ही गया-गुज़रा होता है। पंजाब में भी कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन की परम्‍परा कुछ जुझारू भले ही रही हो, पर धर्म और स्त्रियों के मामले में रू‍ढ़ि‍यों-परम्‍पराओं से समझौते की रीत पुरानी रही है और वहाँ का कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी आंदोलन भी इससे अछूता नहीं है। वहाँ के ज्‍यादातर कम्‍युनिस्‍ट सिख धर्म की रैडिकल परम्‍परा की दुहाई देते हुए कम्‍युनिस्‍ट से ज्‍यादा सिख जैसा आचरण करने लगते हैं। शादी-ब्‍याह, मरनी-करनी के संस्‍कारों में धर्म और गुरुद्वारे का स्‍थान बना रहता है। पगड़ी एक धार्मिक प्रतीक है(यदि राष्‍ट्रीयता विशेष की लोक संस्‍कृति का प्रतीक होती तो सभी पंजाब निवासी लगाते), पर उसे राष्‍ट्रीय लोक संस्‍कृति का प्रतीक बताते हुए पंजाब के सिख  पृष्‍ठभूमि के अधिकांश कम्‍युनिस्‍ट उसे धारण करते हैं। आम किसानी संस्‍कृति में जैसा होता है, गाँवों के कम्‍युनिस्‍ट परिवारों में बाहर का काम करने के बावजूद सभी घरेलू कामों का बोझ स्त्रियों पर होता है।
भारतीय समाज में य‍ह मर्दवाद इतना गहरा है कि कम्‍युनिस्‍ट जीवन-शैली को काफी हद तक लागू करने वाले ग्रुपों-संगठनों में भी कार्य-विभाजन में, जो घरेलू इन्‍तज़ामात टाइप काम होते हैं, वह सहज ही, ज्‍यादातर, स्‍त्री कॉमरेडों के मत्‍थे आ पड़ते हैं। स्त्रियाँ साफ-सफाई, खान-पान व्‍यवस्‍था, रख-रखाव और प्रबंधन में अपनी बचपन से हुई स्‍त्री-सुलभ परवरिश की वजह से, ज्‍यादा कुशल होती हैं। पुरुषों की परवरिश ऐसी नहीं होती। पर कम्‍युनिस्‍ट बनने के बाद वे इसे एक टास्‍क या चुनौती बनाकर सीख क्‍यों नहीं लेते? यह सही है कि आम परिवारों में लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई को गम्‍भीरता से नहीं लिया जाता। इससे बौद्धिक क्षमता, और ज्‍यादा सामाजिक जीवन बिताने की वजह से सांग‍ठनिक क्षमता भी, प्राय:, स्‍त्री कम्‍युनिस्‍टों की अपेक्षा पुरुष कम्‍युनिस्‍टों में ज्‍यादा होती है। अत: व्‍यवहारत: कार्यविभाजन में निश्‍चय ही निरपेक्ष समानतावाद नहीं हो सकता, लेकिन वस्‍तुगत स्थिति की इस सीमा के सुरक्षा कवच में तब्‍दील होने का ख़तरा तो रहता ही है! क्‍या नहीं रहता है?
 इसीलिए तो कम्‍युनिस्‍ट जीवन-शैली की बात कहते हुए हमारे शिक्षकों ने बौद्धिक कामों में दक्ष लोगों द्वारा भी शारीरिक श्रम करने और उसमें हुनरमंदी हासिल करने पर बल दिया है। यह न तो बुर्ज़ुआ नारीवाद है, न ही स्‍त्री-आरक्षण की माँग जैसी कोई चीज़। यह कम्‍युनिस्‍ट उसूलों को स्‍त्री-पुरुष कम्‍युनिस्‍टों के सामूहिक जीवन में लागू करने सम्‍बन्‍धी एक बुनियादी बात है।
बहरहाल, बात में से बात निकलते हम यहाँ तक आ पहुँचे। मेरी मुख्‍य बात यह थी कि यूँ तो एक हद तक शुरू से ही, और विशेष तौर पर कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के संशोधनवादी गड्ढे में गिरने के बाद, भारतीय कम्‍युनिस्‍टों के जीवन में जो दोगलापन, पाखण्‍ड और रू‍ढ़ि‍यों के आगे समर्पण की प्रवृत्ति दीखती है, उससे आम दमित-उत्‍पीडि़त जन समुदाय में एक तरह का अविश्‍वास और संशय पैदा होता है। जनता किताबें पढ़कर, ज्ञान की बातें सुनकर या आर्थिक माँगों को लेकर कुछ आन्‍दोलन कर देने या आम राजनीतिक प्रचार की बातें मात्र सुनकर कम्‍युनिज्‍़म के प्राधिकार को और कम्‍युनिस्‍ट नेतृत्‍व को स्‍वीकार नहीं कर लेगी। वह हमारा जीवन और व्‍यवहार देखकर यक़ीन करना चाहती है कि क्‍या हम जिन उसूलों की बात करते हैं उन्‍हें अपने जीवन में भी लागू करते हैं? क्‍या हम वाक़ई जनता को नेतृत्‍व देने के काबिल हैं?क्‍या हम वाक़ई भरोसे के क़ाबिल हैं?
 एक कम्‍युनिस्‍ट का व्‍यक्तित्‍व और जीवन उसके उसूलों का पहला घोषणा पत्र होना चाहिए। संशोधनवादियों के कुकर्मों से जनता में कम्‍युनिस्‍टों की जो साख गिरी है, उसका खामियाजा तो आने वाले दिनों में भी 'जेनुइन' कम्‍युनिस्‍टों को भुगतना पड़ेगा। इन्‍हीं कुकर्मो के हवाले दे-देकर, एक ओर वे बुर्ज़ुआ नारीवादी हैं जो तरह-तरह की अस्मितावादी और एन.जी.ओ. पंथी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम करती हैं और जिनके पास स्‍त्री-मुक्ति की न तो कोई वैज्ञानिक परियोजना है, न ही जिन्‍हें आम स्त्रियों की दुर्दशा से कुछ लेना-देना है। दूसरी ओर वे भाँति-भाँति के बुर्ज़ुआ दलितवादी नेता और बुद्धिजीवी हैं, जो संशोधनवाद के दौर के हवाले  दे-देकर सभी कम्‍युनिस्‍टों को बदनाम करते हैं। उनके पास दलित मुक्ति या जातिनाश की कोई भी परियोजना नहीं है, गाँवों में रहने वाली बहुसंख्‍यक दलित आबादी के हितों को लेकर लड़ने का जोखिम लेना तो दूर, बात बहादुरों की यह क्रीमी परत उनके लिए अपना थोड़ा सा क्रीम पोंछकर भी नहीं देगी। पर हज़ारों वर्षों से अमानुषिक जाति-उत्‍पीड़न की शिकार आम दलित आबादी को ये सुविधाभोगी दलित नेता और बुद्धिजीवी जाति-आधार पर आसानी से अपने साथ खड़ा कर लेते हैं।
 कम्‍युनिस्‍ट सर्वाधिक कुचली गयी और सर्वाधिक सुषुप्‍त क्रान्तिकारी पोटेंशियल वाली दलित सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी को फिर अवश्‍य अपने साथ गोलबंद कर लेंगे, बशर्ते कि 
 (1) वे जाति व्‍यवस्‍था के समूलनाश का अपना प्रोजेक्‍ट समाज में लगातार, बल देकर प्रस्‍तुत करें
 (2) मेहनतक़श आबादी के बीच जाति-विभेद के विरुद्ध सतत् सामाजिक-सांस्‍कृतिक आन्‍दोलन चलायें, और सबसे बढ़कर, 
(3) वे अपने निजी जीवन द्वारा जाति-भेद और धार्मिक रूढ़ि‍यों को न मानने की नज़ीर समाज के सामने पेश करें।

Sunday, 5 January 2014

क्या सचमुच केजरीवाल महान है ? या गृह युद्ध का घमासान है?

करवटें बदल नहीं ,तु अब तो आँखें खोल दे !
तु निकल तो एक बार , इन्कलाब बोल दे !
गाँव -गाँव भय अशांति उठ रहा तूफ़ान है !
क्रांति के सपूत जाग हो रहा बिहान हैं।

क्या सचमुच केजरीवाल महान है ?:
------------------------------
राजनीति तो इसी का नाम है !
क्या सचमुच केजरीवाल महान है ?
ब्यवस्था बदलो यह तो महज नारा था !
असली मकसद तो सत्ता सुख हथियाना था !
देखा अन्ना जी का बड़ा नाम है !
इसे भूनाना ही तो केजरीवाल का काम है !
क्या सचमुच केजरीवाल महान है ?
झुठे कसमें-वायदे इनका तकिया कलाम है !
45 करोड़ के बंगले हथियाना इनकी शान है !
क्या सचमुच केजरीवाल महान है ?
पानी दिया ,बिजली दिया फिर देंगे दुनिया -जहान !
पहले पूरा करने दो हमें अपना अरमान !
राजनीति तो इसी का नाम है !
क्या सचमुच केजरीवाल महान है ?
सी पी आई शीर्ष नेतृत्व को पार्टी में घुसे कारपोरेट दलालों की खुली लताड़ : 

 कारपोरेट भ्रष्टाचार के संरक्षक की  कारपोरेट दलाल सी पी आई नेता द्वारा खुली पैरवी :


"भारत नमोमय बने या न बने, केजरीवाल या नंदन निलेकणि प्रधानमंत्री बने या नहीं बने, अब कॉरपोरेट राज से मुक्ति असम्भव है और इस भय, आतंक, गृहयुद्ध और युद्ध से भी रिहाई असम्भव है।
मूक भारत है बहुत लेकिन शोर है।
जनादेश जो कॉरपोरेट बनने की इजाजत हम देते रहे हैं, उसकी तार्किक परिणति यही है।
जनादेश का नतीजा जो भी हो, हमेशा अल्पसंख्यकों और शरणार्थियों की गरदने या हलात होती रहेगी या जिबह। अखिलेश का समाजवादी राज और उत्तर प्रेदेश के बहुप्रचारित सामाजिक बदलाव के चुनावी समीकरण का नतीजा मुजफ्फरनगर है तो नमोमय भारत के बदले केजरीवाल भारत बनाकर भी हम लोग क्या इस हालात को बदल पायेंगे, बुनियादी मसला यही है। इस स‌िलसिले को तोड़ने के लिये हम शायद कुछ भी नहीं कर रहे हैं। गर्जना, हुंकार और शंखनाद के गगनभेदी महानाद में हमारी इंद्रियों ने काम करना बन्द कर दिया है।"

पलाश विश्वास
(उपरोक्त कथन  वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी पलाश विश्वास साहब का  हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।)
 =============================================****=============
( जिस प्रकार कारपोरेट वर्ग का एक खेमा और वर्तमान पी एम मनमोहन सिंह जी केजरीवाल की पीठ पर खड़े हैं और पर्दे के पीछे से RSS का जो समर्थन उनको प्राप्त है उससे तो यही लगता है की यदि इस बार भी जनता को छल कर यदि केजरीवाल को केंद्र की सत्ता सौंप दी गई तो दक्षिन पंथी असैनिक तानाशाही स्थापित करने का पहला चरण पूर्ण हो जाएगा और तब लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से उसे अपदस्थ करना दुष्कर हो जाएगा क्योंकि 'सलवा जुडूम' जैसे कृत्य करके उसका बचाव RSS तब खुल कर करेगा। उन परिस्थितियों में किसान-मजदूर के हिमायती हिंसक नक्सली गुट ही उसका मुक़ाबला करने को सामने रहेंगे। शोषित-उत्पीड़ित जनता तब उन हिंसक नक्सलियों का ही साथ देगी न कि साम्यवाद का चोला ओढ़े कारपोरेट दलालों का। वह समय शीघ्र भी आ सकता है यदि समय रहते समस्त कम्युनिस्ट लोकतान्त्रिक शक्तियाँ एकजुट होकर  'आ आ पा =आप',भाजपा/इन्दिरा कांग्रेस के विरोध में न आकर बंट कर परस्पर संघर्ष करती रहीं तो।  ---विजय राजबली माथुर)

Friday, 3 January 2014

अरविन्द केजरीवाल और मोदी भारत के बड़े पूंजीपति वर्ग के दो खेमों के प्रतिनिधि हैं---अजय सिन्हा

"आप" और पूंजीपति वर्ग:

भारत और पूरे विश्व में जो अंतहीन आर्थिक मंदी फैली है, उसने सभी देशों के पूंजीपति वर्ग को शासन के नए-नए रूपों और नए-नए मुखौटों की बेतहाशा से खोज करने के लिए प्रेरित और बाध्य किया है। पूरी दुनिया के पूंजीवादियों और साम्राज्यवादियों को भावी क्रांति के पदचाप सुनाई देने लगे हैं। वे रातों की नींद और दिन का चैन खो चुके हैं। वे किसी भी तरह से अपनी कब्र खोदने वाले मज़दूर वर्ग को जगने और उसकी विराट क्रांतिकारी ताकत के जाग उठने को रोकना चाहते है। लेकिन हाय रे भाग्य ! उनकी कोई भी कोशिश कामयाब होती नहीं दिख रही है।

भारत में आर्थिक मंदी के दिनों-दिन गहराते जाने की परिस्थिति ने जहां एक तरफ मज़दूरों के श्रम की भयंकर लूट को जन्म दिया और निम्नपूंजीवादी व मंझोले तबकों के भारी पैमाने पर सम्पतिहरण व स्वत्वहरण को जन्म दिया, वहीँ दूसरी तरफ इसने भारत के पूंजीपति वर्ग को नरेंद्र मोदी जैसे फासीवादी को भारत के भाग्यविधाता के रूप में पेश करने के लिए बाध्य किया है जो जनता को धर्म और छदम देशभक्ति के आधार पर बांटने का काम करने के साथ-साथ पूंजीपति वर्ग की भारी लूट को भी बदस्तूर जारी  रख सके …लेकिन इस choice में क्रांति के फूट पड़ने के अपने भारी खतरें हैं, जिससे पूंजीपति वर्ग वाकिफ है। दरअसल पूंजीपति वर्ग के बीच इस बात को लेकर भारी मतभेद दिखाई दे रहा हैं कि मोदी जैसे फासीवादी नेता को आगे बढ़ाकर किसी भी तरह से श्रम की भारी लूट के आधार पर सुपर मुनाफा को बनाए रखा जाए या फिर किसी moderate व्यक्ति, जिसकी छवि ठीक-ठाक हो, को आगे बढ़ाकर बीच का कोई रास्ता निकाला जाए। लेकिन दूसरे option की कल तक दिक्कत यह थी कि भारत में कल तक ऐसी कोई पार्टी और व्यक्ति नहीं था। कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद, जद, टीएमसी … सभी जनता की नज़रों में पहले ही गिर चुकी थीं। इस मोड़ पर पूंजीपति वर्ग की सबसे बड़ी आफियत या सुविधा यह थी कि इस बीच मज़दूर वर्ग की ताकतें अत्यंत कमजोर ही बनी रहीं। 


"आप" पार्टी बड़े पूंजीपति वर्ग की सबसे चहेती पार्टी बनकर उभर रही है.…

इस घटनाक्रम के ठीक इसी मोड़ पर सुनियोजित या अप्रत्याशित तौर से "आप" पार्टी और क्षमतावान, आदर्शवादी और वैचारिक तौर पर सबसे कम खतरनाक तथा सुघड़ नेता श्री अरविन्द केजरीवाल के उदय ने पूंजीपति वर्ग के लिए दूसरे options को आज़माना आसान बना दिया है। अरविन्द केजरीवाल और मोदी भारत के बड़े पूंजीपति वर्ग के दो खेमों के प्रतिनिधि हैं, जिसमें अरविन्द केजरीवाल के आदर्शवादी चेहरे व कुछ नया प्रयोग करने वाले व्यक्तित्व और दिल्ली में मिली अपार सफलता से निखरी "आप" पार्टी बड़े पूंजीपति वर्ग की सबसे चहेती पार्टी बनकर उभर रही है.…… यह महज़ कोई संयोग नहीं है कि प्रायः सभी कॉर्पोरेट मीडिया घरानों में "आप" और केजरीवाल की धूम मची है और वे खुलकर "आप" को केंद्रीय सत्ता की असली हकदार बता रहे हैं

इस मोड़ पर मज़दूर वर्ग की ताकतों को सही मूल्यांकन और सही कार्यनीति अपनाने की सख्त जरूरत है...... आप सभी दोस्तों से हार्दिक अपील है कि इस बहस को गम्भीरता के साथ आगे बढ़ाया जाए …… .


  ‘आप’ में शामिल होने के लिए ‘खास’ में मची होड़:

 Ajay Sinha ‘आप’ में शामिल होने के लिए ‘खास’ में मची होड़
आईबीएन-7 | 03-Jan 10:26 AM

कॉरपोरेट जगत से जुड़े कई बड़े नाम पार्टी से जुड़े हैं। रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड की पूर्व अध्यक्ष मीरा सान्याल लंबे अरसे से आम आदमी पार्टी से जुड़ी हैं। मीरा ने दक्षिण मुंबई से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए आवेदन भी किया है। आदर्श, दुनिया की नाम कंपनियों में शुमार एप्पल के पश्चिमी भारत के सेल्स प्रमुख थे। आईटी कंपनी इन्फोसिस के बोर्ड मेंबर वी बालाकृष्णन भी बुधवार को आम आदमी पार्टी के सदस्य बन गए। बालाकृष्णन को इन्फोसिस के संभावित सीईओ के तौर पर देखा जा रहा था।
कॉरपोरेट जगत के अलावा दूसरी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं में आप ज्वाइन करने की होड़ मची है। दिल्ली विश्वविद्यालय की अध्यक्ष रह चुकी अलका लांबा ने कांग्रेस से 20 साल पुराना नाता तोड़ आप का दामन थाम लिया है। लंबे अरसे तक समाजवादी पार्टी की लाल टोपी पहनने वाले कमाल फारुकी को भी आम आदमी की टोपी में नया सबक नजर आ रहा है। बीजेपी के पूर्व एमएलए कानू कलसारिया ने आम आदमी पार्टी का हाथ थाम लिया है।

https://www.facebook.com/ajay.sinha.9699/posts/762252950470960 


मज़दूर वर्ग के सापेक्ष "आप", कांग्रेस और भाजपा तीनों के बीच कहाँ कोई फर्क है ?
मज़दूर वर्ग के सापेक्ष "आप", कांग्रेस और भाजपा तीनों के बीच कहाँ कोई फर्क है ? कहाँ कोई फर्क दिखा ??

आज विधान सभा में मज़दूर वर्ग के सापेक्ष "आप", कांग्रेस और भाजपा तीनों के बीच कोई फर्क नहीं दिखा।जो फर्क आज से पहले दीखता था आज उसका पूरी तरह खात्मा हो गया। आज विधान सभा में "आप" पर चौतरफा हमला बोलने वाली भाजपा ने एक बार भी नहीं पूछा कि "आप" सरकार के मज़दूर वर्ग के हितों के लिए क्या programme है। उसे यह बात भी याद नहीं रही कि अरविन्द केजरीवाल ने contract labour की प्रथा को समाप्त करने का वादा किया था। कांग्रेस को भी "आप" की यह वादाखिलाफी याद नहीं आयी। वाह! क्या संयोग है !! कैसी सुन्दर चतुर एकता है !!! क्या मज़दूर वर्ग इसका जवाब देगा?????? जरूर देगा, जरूर