मिर्ज़ा हादी रुसवा द्वारा 1905 में लिखित उर्दू उपन्यास 'उमरावजान अदा'पर आधारित -1981 में प्रदर्शित फिल्म 'उमराव जान' के माध्यम से मुजफ्फर अली साहब ने 1840 से 1857 तक के काल खंड में ब्रिटिश साम्राज्य के सहारे चल रही नवाबों/सुल्तानों की विलासिता और ईमानदारों को कर्तव्य पालन के कारण होने वाली दुश्वारीयों/हानियों तथा निर्दोषों के उत्पीड़न-शोषण की जानकारी उपलब्ध कराई थी। किन्तु शायद इस फिल्म को भी मनोरंजन के ही एक दृष्टिकोण से लिया गया प्रतीत होता है। तभी तो आज दिग्गज चिंतक-विचारक और बड़े कम्युनिस्ट नेता भी 'आप' और केजरीवाल के दीवाने बने घूम रहे हैं।
आज 'आप'/केजरीवाल उसी भूमिका में हैं जिसमें उस वक्त के सुल्तान और नवाब थे। जनता के उत्पीड़न और शोषण से संग्रहीत धन को कारपोरेट घराने इन नए सुल्तानों पर लुटा रहे हैं और ये नए सुल्तान मनमोहनी अदाओं से आज की उमराव जान अर्थात बेगुनाह जनता को दिवा-स्वप्न या ख़्वामख़्वाह के झूठे सब्जबाग दिखा रहे हैं ,जैसे इस सुल्तान ने उमरावजान को दिखाये थे। :
आज 'आप'/केजरीवाल उसी भूमिका में हैं जिसमें उस वक्त के सुल्तान और नवाब थे। जनता के उत्पीड़न और शोषण से संग्रहीत धन को कारपोरेट घराने इन नए सुल्तानों पर लुटा रहे हैं और ये नए सुल्तान मनमोहनी अदाओं से आज की उमराव जान अर्थात बेगुनाह जनता को दिवा-स्वप्न या ख़्वामख़्वाह के झूठे सब्जबाग दिखा रहे हैं ,जैसे इस सुल्तान ने उमरावजान को दिखाये थे। :
एक दारोगा की कर्तव्यपालन में बरती ईमानदारी की सजा उसकी पुत्री को दर-दर भटकने और ठोकरें खाने के रूप में प्राप्त हुई थी। चाह कर भी वह एक बार फँसने के बाद दलदल से न निकल सकी थी। यहाँ तक कि 1857 की क्रांति की तैयारियों में संलिप्त एक योद्धा ने जब उस लड़की को बचा कर निकालने का प्रयास किया तो उसको ही अपनी जान से हाथ धोना पड़ गया। क्रांति की विभीषिका में जब लखनऊ छोड़ कर बनारस जाने के फैजाबाद पड़ाव में भाग कर जब वह लड़की उमरावजान छिप कर वहीं डेरा जमा लेती है तो उसका अपना छोटा भाई जो उसके अपहरण का चश्मदीद गवाह था उसको भगा देता है और उसकी माँ भी उसकी रक्षा नहीं कर पाती है।
बिलकुल उसी लड़की जैसी दशा इस समय देश की जनता की हो रही है। कांग्रेस/भाजपा के साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने में संभावित संदेह को देखते हुये आज के नए 'सुल्तान' के रूप में 'आप'/केजरीवाल का अवतरण किया गया है। देश की राजधानी दिल्ली की जनता को ठगने में सफल हो जाने के बाद इस सुल्तान के हौसले बुलंद हैं। सारे देश की जनता उमरावजान की भांति ठगे जाने को आतुर प्रतीत हो रही है। दुखद स्थिति यह है कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध गर्जन/तर्जन करने वाले वामपंथी और कम्युनिस्ट भी इस नए सुल्तान पर फिदा होकर जनता को ठगे जाने की प्रक्रिया में ही शामिल होते दीख रहे हैं। छिट-पुट संघर्ष करने वालों की आवाज़ को उसी तरह दबा दिया जाएगा जिस प्रकार तब गदर के एक नायक फैज अली को उमरावजान को बचाने के प्रयास में मौत के घाट उतार दिया गया था।
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