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इस देश में जितने वामपंथी, प्रगतिशील, जनवादी ख़यालात के लोग हैं, अपनी निजी ज़िन्दगी में वे बस इतनी-सी हिम्मत जुटा लें कि
(1) रोज़मर्रे के पारिवारिक-सामाजिक जीवन में जाति और धार्मिक रूढ़ियों को बाल भर भी जगह न दें
(2) धार्मिक कर्मकाण्डों के साथ होने वाली शादी-ब्याह या किसी भी आयोजन में हिस्सा लेने से विनम्रता पूर्वक इंकार कर दें
(3) अपनी या अपने बेटे-बेटियों की शादी कोर्ट में पंजीकरण करके करायें
(4) अपने वयस्क बच्चों की ज़िन्दगी में परामर्श से अधिक दख़ल न दें, अपनी ज़िन्दगी के सारे फैसले उन्हें खुद लेने दें, उन्हें स्वयं अपना जीवन-साथी चुनने की पूरी आज़ादी दें और इसके हिसाब से उनकी सांस्कृतिक परवरिश करें
(5) पत्नी, बहन और बेटी को हर हाल में रोज़गार (अंशकालिक, पूर्णकालिक, जैसी भी हो) के लिए और सामाजिक जीवन में भागीदारी के लिए तैयार करें, घृणित-नीरस घरेलू गुलामी से आज़ाद करें, और सभी घरेलू कामों (सफ़ाई, खाना बनाना, बच्चे की देखभाल) में अनिवार्यत:, बराबरी से (प्रतीक रूप में नहीं) हाथ बँटायें, तथा,
(6) सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी उन्हें (बलात् नहीं) शामिल करने की भरपूर कोशिश करें, -- तो भारतीय समाज में वामपंथ की साख बढ़ाने में बहुत मदद मिलेगी।
यदि कम्युनिस्ट अपना जीवन अपने विचारों के हिसाब से जीने लगें, तो यह जाति-उत्पीड़न और स्त्री-उत्पीड़न की कुरीतियों और रूढि़यों में डूबे भारतीय समाज में, अपने-आप में एक सांस्कृतिक क्रान्ति होगी।
प्राय: भारतीय कम्युनिस्ट परिस्थितियों की आड़ लेकर, उतना भी नहीं करते जितना पश्चिमी समाज का एक औसत चेतना वाला बुर्ज़ुआ जनवादी नागरिक करता है। उतना भी नहीं करते जितना भारत का बुर्ज़ुआ जनवादी संविधान भी कहता है। वे निजी तौर पर एक दकियानूस, छिपे हुए जातिवादी संस्कार वाले, रूढ़िभीरू, मर्दवादी का जीवन जीते हैं। तमाम वामपंथी लेखकों-पत्रकारों को ही देखिये, मार्क्सवादी विवेचना के नाम पर गट्ठर का गट्ठर लिख मारते हैं, पत्नी को घर की नौकरानी बनाकर रखते हैं, कई तो बाहर स्त्री साहित्यकारों के पीछे कुत्तों की तरह लार टपकाते लपकते-लरियाते हैं, अपनी बेटी की शादी की बारी आती है तो जाति, लगन सब देखते हैं, पण्डित-नाई, मँड़वा-कोहबर-परिछावन सब होने लगता है, बेटे को सिविल सर्विस में या विदेश भेजने के लिए प्रेरणा-पैसा-डण्डे का अनुशासन सब लगा देते हैं, शादी काफी छाँट बीनकर करते हैं और पत्रम-पुष्पम् के नाम पर कुछ दहेज भी झींट लेते हैं। कभी-कभी तो अपने जैसे ही किसी सजातीय प्रगतिशील को पकड़कर बेटे-बेटी की भी डील हो जाती है, मार्क्सवाद भी ज़िन्दाबाद, जातिवाद भी ज़िन्दाबाद -- दोनों बन्धु समधी-समधी हो जाते हैं! केरल बंगाल जैसे राज्यों में कुछ अपवाद मिलेंगे, पर चुनावी वामपंथी दलों के हिन्दी पट्टी के नेताओं का चरित्र भी इस मामले में उतना ही गया-गुज़रा होता है। पंजाब में भी कम्युनिस्ट आंदोलन की परम्परा कुछ जुझारू भले ही रही हो, पर धर्म और स्त्रियों के मामले में रूढ़ियों-परम्पराओं से समझौते की रीत पुरानी रही है और वहाँ का कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन भी इससे अछूता नहीं है। वहाँ के ज्यादातर कम्युनिस्ट सिख धर्म की रैडिकल परम्परा की दुहाई देते हुए कम्युनिस्ट से ज्यादा सिख जैसा आचरण करने लगते हैं। शादी-ब्याह, मरनी-करनी के संस्कारों में धर्म और गुरुद्वारे का स्थान बना रहता है। पगड़ी एक धार्मिक प्रतीक है(यदि राष्ट्रीयता विशेष की लोक संस्कृति का प्रतीक होती तो सभी पंजाब निवासी लगाते), पर उसे राष्ट्रीय लोक संस्कृति का प्रतीक बताते हुए पंजाब के सिख पृष्ठभूमि के अधिकांश कम्युनिस्ट उसे धारण करते हैं। आम किसानी संस्कृति में जैसा होता है, गाँवों के कम्युनिस्ट परिवारों में बाहर का काम करने के बावजूद सभी घरेलू कामों का बोझ स्त्रियों पर होता है।
भारतीय समाज में यह मर्दवाद इतना गहरा है कि कम्युनिस्ट जीवन-शैली को काफी हद तक लागू करने वाले ग्रुपों-संगठनों में भी कार्य-विभाजन में, जो घरेलू इन्तज़ामात टाइप काम होते हैं, वह सहज ही, ज्यादातर, स्त्री कॉमरेडों के मत्थे आ पड़ते हैं। स्त्रियाँ साफ-सफाई, खान-पान व्यवस्था, रख-रखाव और प्रबंधन में अपनी बचपन से हुई स्त्री-सुलभ परवरिश की वजह से, ज्यादा कुशल होती हैं। पुरुषों की परवरिश ऐसी नहीं होती। पर कम्युनिस्ट बनने के बाद वे इसे एक टास्क या चुनौती बनाकर सीख क्यों नहीं लेते? यह सही है कि आम परिवारों में लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई को गम्भीरता से नहीं लिया जाता। इससे बौद्धिक क्षमता, और ज्यादा सामाजिक जीवन बिताने की वजह से सांगठनिक क्षमता भी, प्राय:, स्त्री कम्युनिस्टों की अपेक्षा पुरुष कम्युनिस्टों में ज्यादा होती है। अत: व्यवहारत: कार्यविभाजन में निश्चय ही निरपेक्ष समानतावाद नहीं हो सकता, लेकिन वस्तुगत स्थिति की इस सीमा के सुरक्षा कवच में तब्दील होने का ख़तरा तो रहता ही है! क्या नहीं रहता है?
इसीलिए तो कम्युनिस्ट जीवन-शैली की बात कहते हुए हमारे शिक्षकों ने बौद्धिक कामों में दक्ष लोगों द्वारा भी शारीरिक श्रम करने और उसमें हुनरमंदी हासिल करने पर बल दिया है। यह न तो बुर्ज़ुआ नारीवाद है, न ही स्त्री-आरक्षण की माँग जैसी कोई चीज़। यह कम्युनिस्ट उसूलों को स्त्री-पुरुष कम्युनिस्टों के सामूहिक जीवन में लागू करने सम्बन्धी एक बुनियादी बात है।
बहरहाल, बात में से बात निकलते हम यहाँ तक आ पहुँचे। मेरी मुख्य बात यह थी कि यूँ तो एक हद तक शुरू से ही, और विशेष तौर पर कम्युनिस्ट आंदोलन के संशोधनवादी गड्ढे में गिरने के बाद, भारतीय कम्युनिस्टों के जीवन में जो दोगलापन, पाखण्ड और रूढ़ियों के आगे समर्पण की प्रवृत्ति दीखती है, उससे आम दमित-उत्पीडि़त जन समुदाय में एक तरह का अविश्वास और संशय पैदा होता है। जनता किताबें पढ़कर, ज्ञान की बातें सुनकर या आर्थिक माँगों को लेकर कुछ आन्दोलन कर देने या आम राजनीतिक प्रचार की बातें मात्र सुनकर कम्युनिज़्म के प्राधिकार को और कम्युनिस्ट नेतृत्व को स्वीकार नहीं कर लेगी। वह हमारा जीवन और व्यवहार देखकर यक़ीन करना चाहती है कि क्या हम जिन उसूलों की बात करते हैं उन्हें अपने जीवन में भी लागू करते हैं? क्या हम वाक़ई जनता को नेतृत्व देने के काबिल हैं?क्या हम वाक़ई भरोसे के क़ाबिल हैं?
एक कम्युनिस्ट का व्यक्तित्व और जीवन उसके उसूलों का पहला घोषणा पत्र होना चाहिए। संशोधनवादियों के कुकर्मों से जनता में कम्युनिस्टों की जो साख गिरी है, उसका खामियाजा तो आने वाले दिनों में भी 'जेनुइन' कम्युनिस्टों को भुगतना पड़ेगा। इन्हीं कुकर्मो के हवाले दे-देकर, एक ओर वे बुर्ज़ुआ नारीवादी हैं जो तरह-तरह की अस्मितावादी और एन.जी.ओ. पंथी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम करती हैं और जिनके पास स्त्री-मुक्ति की न तो कोई वैज्ञानिक परियोजना है, न ही जिन्हें आम स्त्रियों की दुर्दशा से कुछ लेना-देना है। दूसरी ओर वे भाँति-भाँति के बुर्ज़ुआ दलितवादी नेता और बुद्धिजीवी हैं, जो संशोधनवाद के दौर के हवाले दे-देकर सभी कम्युनिस्टों को बदनाम करते हैं। उनके पास दलित मुक्ति या जातिनाश की कोई भी परियोजना नहीं है, गाँवों में रहने वाली बहुसंख्यक दलित आबादी के हितों को लेकर लड़ने का जोखिम लेना तो दूर, बात बहादुरों की यह क्रीमी परत उनके लिए अपना थोड़ा सा क्रीम पोंछकर भी नहीं देगी। पर हज़ारों वर्षों से अमानुषिक जाति-उत्पीड़न की शिकार आम दलित आबादी को ये सुविधाभोगी दलित नेता और बुद्धिजीवी जाति-आधार पर आसानी से अपने साथ खड़ा कर लेते हैं।
कम्युनिस्ट सर्वाधिक कुचली गयी और सर्वाधिक सुषुप्त क्रान्तिकारी पोटेंशियल वाली दलित सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी को फिर अवश्य अपने साथ गोलबंद कर लेंगे, बशर्ते कि
(1) वे जाति व्यवस्था के समूलनाश का अपना प्रोजेक्ट समाज में लगातार, बल देकर प्रस्तुत करें
(2) मेहनतक़श आबादी के बीच जाति-विभेद के विरुद्ध सतत् सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन चलायें, और सबसे बढ़कर,
(3) वे अपने निजी जीवन द्वारा जाति-भेद और धार्मिक रूढ़ियों को न मानने की नज़ीर समाज के सामने पेश करें।
वामपंथी बुद्धिजीवियों और राजनीतिक कर्मियों की निजी ज़िन्दगी के बारे में कुछ बेलागलपेट बातें
January 6, 2014 at 7:05pm
इस देश में जितने वामपंथी, प्रगतिशील, जनवादी ख़यालात के लोग हैं, अपनी निजी ज़िन्दगी में वे बस इतनी-सी हिम्मत जुटा लें कि
(1) रोज़मर्रे के पारिवारिक-सामाजिक जीवन में जाति और धार्मिक रूढ़ियों को बाल भर भी जगह न दें
(2) धार्मिक कर्मकाण्डों के साथ होने वाली शादी-ब्याह या किसी भी आयोजन में हिस्सा लेने से विनम्रता पूर्वक इंकार कर दें
(3) अपनी या अपने बेटे-बेटियों की शादी कोर्ट में पंजीकरण करके करायें
(4) अपने वयस्क बच्चों की ज़िन्दगी में परामर्श से अधिक दख़ल न दें, अपनी ज़िन्दगी के सारे फैसले उन्हें खुद लेने दें, उन्हें स्वयं अपना जीवन-साथी चुनने की पूरी आज़ादी दें और इसके हिसाब से उनकी सांस्कृतिक परवरिश करें
(5) पत्नी, बहन और बेटी को हर हाल में रोज़गार (अंशकालिक, पूर्णकालिक, जैसी भी हो) के लिए और सामाजिक जीवन में भागीदारी के लिए तैयार करें, घृणित-नीरस घरेलू गुलामी से आज़ाद करें, और सभी घरेलू कामों (सफ़ाई, खाना बनाना, बच्चे की देखभाल) में अनिवार्यत:, बराबरी से (प्रतीक रूप में नहीं) हाथ बँटायें, तथा,
(6) सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी उन्हें (बलात् नहीं) शामिल करने की भरपूर कोशिश करें, -- तो भारतीय समाज में वामपंथ की साख बढ़ाने में बहुत मदद मिलेगी।
यदि कम्युनिस्ट अपना जीवन अपने विचारों के हिसाब से जीने लगें, तो यह जाति-उत्पीड़न और स्त्री-उत्पीड़न की कुरीतियों और रूढि़यों में डूबे भारतीय समाज में, अपने-आप में एक सांस्कृतिक क्रान्ति होगी।
प्राय: भारतीय कम्युनिस्ट परिस्थितियों की आड़ लेकर, उतना भी नहीं करते जितना पश्चिमी समाज का एक औसत चेतना वाला बुर्ज़ुआ जनवादी नागरिक करता है। उतना भी नहीं करते जितना भारत का बुर्ज़ुआ जनवादी संविधान भी कहता है। वे निजी तौर पर एक दकियानूस, छिपे हुए जातिवादी संस्कार वाले, रूढ़िभीरू, मर्दवादी का जीवन जीते हैं। तमाम वामपंथी लेखकों-पत्रकारों को ही देखिये, मार्क्सवादी विवेचना के नाम पर गट्ठर का गट्ठर लिख मारते हैं, पत्नी को घर की नौकरानी बनाकर रखते हैं, कई तो बाहर स्त्री साहित्यकारों के पीछे कुत्तों की तरह लार टपकाते लपकते-लरियाते हैं, अपनी बेटी की शादी की बारी आती है तो जाति, लगन सब देखते हैं, पण्डित-नाई, मँड़वा-कोहबर-परिछावन सब होने लगता है, बेटे को सिविल सर्विस में या विदेश भेजने के लिए प्रेरणा-पैसा-डण्डे का अनुशासन सब लगा देते हैं, शादी काफी छाँट बीनकर करते हैं और पत्रम-पुष्पम् के नाम पर कुछ दहेज भी झींट लेते हैं। कभी-कभी तो अपने जैसे ही किसी सजातीय प्रगतिशील को पकड़कर बेटे-बेटी की भी डील हो जाती है, मार्क्सवाद भी ज़िन्दाबाद, जातिवाद भी ज़िन्दाबाद -- दोनों बन्धु समधी-समधी हो जाते हैं! केरल बंगाल जैसे राज्यों में कुछ अपवाद मिलेंगे, पर चुनावी वामपंथी दलों के हिन्दी पट्टी के नेताओं का चरित्र भी इस मामले में उतना ही गया-गुज़रा होता है। पंजाब में भी कम्युनिस्ट आंदोलन की परम्परा कुछ जुझारू भले ही रही हो, पर धर्म और स्त्रियों के मामले में रूढ़ियों-परम्पराओं से समझौते की रीत पुरानी रही है और वहाँ का कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन भी इससे अछूता नहीं है। वहाँ के ज्यादातर कम्युनिस्ट सिख धर्म की रैडिकल परम्परा की दुहाई देते हुए कम्युनिस्ट से ज्यादा सिख जैसा आचरण करने लगते हैं। शादी-ब्याह, मरनी-करनी के संस्कारों में धर्म और गुरुद्वारे का स्थान बना रहता है। पगड़ी एक धार्मिक प्रतीक है(यदि राष्ट्रीयता विशेष की लोक संस्कृति का प्रतीक होती तो सभी पंजाब निवासी लगाते), पर उसे राष्ट्रीय लोक संस्कृति का प्रतीक बताते हुए पंजाब के सिख पृष्ठभूमि के अधिकांश कम्युनिस्ट उसे धारण करते हैं। आम किसानी संस्कृति में जैसा होता है, गाँवों के कम्युनिस्ट परिवारों में बाहर का काम करने के बावजूद सभी घरेलू कामों का बोझ स्त्रियों पर होता है।
भारतीय समाज में यह मर्दवाद इतना गहरा है कि कम्युनिस्ट जीवन-शैली को काफी हद तक लागू करने वाले ग्रुपों-संगठनों में भी कार्य-विभाजन में, जो घरेलू इन्तज़ामात टाइप काम होते हैं, वह सहज ही, ज्यादातर, स्त्री कॉमरेडों के मत्थे आ पड़ते हैं। स्त्रियाँ साफ-सफाई, खान-पान व्यवस्था, रख-रखाव और प्रबंधन में अपनी बचपन से हुई स्त्री-सुलभ परवरिश की वजह से, ज्यादा कुशल होती हैं। पुरुषों की परवरिश ऐसी नहीं होती। पर कम्युनिस्ट बनने के बाद वे इसे एक टास्क या चुनौती बनाकर सीख क्यों नहीं लेते? यह सही है कि आम परिवारों में लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई को गम्भीरता से नहीं लिया जाता। इससे बौद्धिक क्षमता, और ज्यादा सामाजिक जीवन बिताने की वजह से सांगठनिक क्षमता भी, प्राय:, स्त्री कम्युनिस्टों की अपेक्षा पुरुष कम्युनिस्टों में ज्यादा होती है। अत: व्यवहारत: कार्यविभाजन में निश्चय ही निरपेक्ष समानतावाद नहीं हो सकता, लेकिन वस्तुगत स्थिति की इस सीमा के सुरक्षा कवच में तब्दील होने का ख़तरा तो रहता ही है! क्या नहीं रहता है?
इसीलिए तो कम्युनिस्ट जीवन-शैली की बात कहते हुए हमारे शिक्षकों ने बौद्धिक कामों में दक्ष लोगों द्वारा भी शारीरिक श्रम करने और उसमें हुनरमंदी हासिल करने पर बल दिया है। यह न तो बुर्ज़ुआ नारीवाद है, न ही स्त्री-आरक्षण की माँग जैसी कोई चीज़। यह कम्युनिस्ट उसूलों को स्त्री-पुरुष कम्युनिस्टों के सामूहिक जीवन में लागू करने सम्बन्धी एक बुनियादी बात है।
बहरहाल, बात में से बात निकलते हम यहाँ तक आ पहुँचे। मेरी मुख्य बात यह थी कि यूँ तो एक हद तक शुरू से ही, और विशेष तौर पर कम्युनिस्ट आंदोलन के संशोधनवादी गड्ढे में गिरने के बाद, भारतीय कम्युनिस्टों के जीवन में जो दोगलापन, पाखण्ड और रूढ़ियों के आगे समर्पण की प्रवृत्ति दीखती है, उससे आम दमित-उत्पीडि़त जन समुदाय में एक तरह का अविश्वास और संशय पैदा होता है। जनता किताबें पढ़कर, ज्ञान की बातें सुनकर या आर्थिक माँगों को लेकर कुछ आन्दोलन कर देने या आम राजनीतिक प्रचार की बातें मात्र सुनकर कम्युनिज़्म के प्राधिकार को और कम्युनिस्ट नेतृत्व को स्वीकार नहीं कर लेगी। वह हमारा जीवन और व्यवहार देखकर यक़ीन करना चाहती है कि क्या हम जिन उसूलों की बात करते हैं उन्हें अपने जीवन में भी लागू करते हैं? क्या हम वाक़ई जनता को नेतृत्व देने के काबिल हैं?क्या हम वाक़ई भरोसे के क़ाबिल हैं?
एक कम्युनिस्ट का व्यक्तित्व और जीवन उसके उसूलों का पहला घोषणा पत्र होना चाहिए। संशोधनवादियों के कुकर्मों से जनता में कम्युनिस्टों की जो साख गिरी है, उसका खामियाजा तो आने वाले दिनों में भी 'जेनुइन' कम्युनिस्टों को भुगतना पड़ेगा। इन्हीं कुकर्मो के हवाले दे-देकर, एक ओर वे बुर्ज़ुआ नारीवादी हैं जो तरह-तरह की अस्मितावादी और एन.जी.ओ. पंथी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम करती हैं और जिनके पास स्त्री-मुक्ति की न तो कोई वैज्ञानिक परियोजना है, न ही जिन्हें आम स्त्रियों की दुर्दशा से कुछ लेना-देना है। दूसरी ओर वे भाँति-भाँति के बुर्ज़ुआ दलितवादी नेता और बुद्धिजीवी हैं, जो संशोधनवाद के दौर के हवाले दे-देकर सभी कम्युनिस्टों को बदनाम करते हैं। उनके पास दलित मुक्ति या जातिनाश की कोई भी परियोजना नहीं है, गाँवों में रहने वाली बहुसंख्यक दलित आबादी के हितों को लेकर लड़ने का जोखिम लेना तो दूर, बात बहादुरों की यह क्रीमी परत उनके लिए अपना थोड़ा सा क्रीम पोंछकर भी नहीं देगी। पर हज़ारों वर्षों से अमानुषिक जाति-उत्पीड़न की शिकार आम दलित आबादी को ये सुविधाभोगी दलित नेता और बुद्धिजीवी जाति-आधार पर आसानी से अपने साथ खड़ा कर लेते हैं।
कम्युनिस्ट सर्वाधिक कुचली गयी और सर्वाधिक सुषुप्त क्रान्तिकारी पोटेंशियल वाली दलित सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी को फिर अवश्य अपने साथ गोलबंद कर लेंगे, बशर्ते कि
(1) वे जाति व्यवस्था के समूलनाश का अपना प्रोजेक्ट समाज में लगातार, बल देकर प्रस्तुत करें
(2) मेहनतक़श आबादी के बीच जाति-विभेद के विरुद्ध सतत् सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन चलायें, और सबसे बढ़कर,
(3) वे अपने निजी जीवन द्वारा जाति-भेद और धार्मिक रूढ़ियों को न मानने की नज़ीर समाज के सामने पेश करें।
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