Satya Narayan
महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों का आखिर कारण क्या है ?:
जो भी बिक सके, उसे बेचकर मुनाफा कमाना पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति है।
पूँजीवादी समाज के श्रम-विभाजन जनित अलगाव ने समाज में जो ऐन्द्रिक
सुखभोगवाद, रुग्ण- स्वच्छन्द यौनाचार और बर्बर स्त्री-उत्पीड़क यौन
फन्तासियों की ज़मीन तैयार की है, उसे पूँजीपति वर्ग ने एक भूमण्डलीय सेक्स
बाज़ार की प्रचुर सम्भावना के रूप में देखा है। सेक्स खिलौनों, सेक्स
पर्यटन, वेश्यावृत्ति के नये-नये विविध रूपों, विकृत सेक्स, बाल
वेश्यावृत्ति, पोर्न फिल्मों, विज्ञापनों आदि-आदि का कई हज़ार खरब डालर का
एक भूमण्डलीय बाज़ार तैयार हुआ है। टी.वी., डी.वी.डी., कम्प्यूटर,
इन्टरनेट, मोबाइल, डिजिटल सिनेमा आदि के ज़रिए इलेक्ट्रानिक संचार-माध्यमों
ने सांस्कृतिक रुग्णता के इस भूमण्डलीय बाज़ार के निर्माण में प्रमुख
भूमिका निभायी है। खाये-अघाये धनपशु तो स्त्री-विरोधी अपराधों और
अय्याशियों में पहले से ही बड़ी संख्या में लिप्त रहते रहे हैं, भले ही
उनके कुकर्म पाँच सितारा ऐशगाहों की दीवारों के पीछे छिपे होते हों या पैसे
और रसूख के बूते दबा दिये जाते हों। अब सामान्य मध्यवर्गीय घरों के
किशोरों और युवाओं तक भी नशीली दवाओं, पोर्न फिल्मों, पोर्न वेबसाइटों आदि
की ऐसी पहुँच बन गयी है, जिसे रोक पाना सम्भव नहीं रह गया है। यही नहीं,
मज़दूर बस्तियों में भी पोर्न फिल्मों की सी.डी. का एक बड़ा बाज़ार तैयार
हुआ है। वहाँ मोबाइल रीचार्जिंग की दुकानों पर मुख्य काम अश्लील वीडियो और
एम.एम.एस. क्लिप्स बेचने का होता है। दिल्ली की मज़दूर बस्तियों में यह सब
आम बात है। प्रसिद्ध अध्येता यान ब्रेमेन के अध्ययन के अनुसार, सूरत में
हीरा तराशी के जिन नियमित स्वेटशॉप्स में दिन भर काठियावाड़ी नौजवान
हाड़तोड़ काम करते हैं, वही रात में ऐसी उमसभरी माँदों में तब्दील हो जाते
हैं जहाँ पश्चिम से आयातित विकृत से विकृत परपीड़क पोर्न सी.डी. देखी जाती
हैं। इस सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आज की पूँजीवादी व्यवस्था में
अनिश्चितता, मायूसी और तंगहाली के घने अँधेरे में जी रही मेहनतकश आबादी का
एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा विकृत पोर्न संस्कृति की नशीली ख़ुराक में जीने का
सहारा तलाश रहा है। मज़दूर आन्दोलन के गतिरोध, पतन और विघटन की भी इसमें एक
अहम भूमिका है। आज के हालात में, अभी भी कुछ मेहनतकश ऐसे हैं जो विद्रोह
कर रहे हैं या लड़ाई का सही रास्ता तलाश रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो मायूसी,
अवसाद और विमानवीकारी जीवन स्थितियों के कारण नशे और अश्लील फिल्मों आदि की
लत की चपेट में आ रहे हैं। और इन्हीं में से कुछ ऐसे भी हैं जो पूरी तरह
विमानवीकृत होकर लम्पट-अपराधी बन रहे हैं। ऐसे ही कुछ लम्पट-अपराधी तत्व 16
दिसम्बर की घटना सहित बच्चियों और औरतों के ख़िलाफ़ हाल के कई बर्बर
अपराधों में शामिल रहे हैं।
पूँजीवादी रुग्ण संस्कृति का ज़हर
सिर्फ़ शहरी परजीवी अमीरों और गाँवों के कुलकों-फार्मरों के बेटों की ही
नहीं, बल्कि आम मध्यवर्गीय युवाओं और मज़दूरों की नसों में भी घुल रहा है।
भारतीय गाँवों, और शहरों तक में अभी भी समाज में जिस तरह स्त्री-पुरुष
पार्थक्य और मध्ययुगीन, गैरजनवादी, स्त्री विरोधी मूल्यों- मान्यताओं का
प्रभाव है, उससे न तो शहरी मध्यवर्ग मुक्त है, न ही मज़दूर वर्ग। ऐसी
स्थिति में, भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों की विडम्बना है कि नवउदारवाद
के दौर की “खुलेपन” की नग्न-फूहड़ संस्कृति यहाँ यौन-अपराधों को खुलकर
बढ़ावा दे रही है। लेकिन यह मानना ग़लत होगा कि यह समस्या मुख्यतः पिछड़े
समाजों की है। बर्बर यौन अपराध और रुग्ण यौनाचार आज के पूँजीवाद की
सार्वभौमिक संस्कृति है। पश्चिम के विकसित देशों में स्त्री-पुरुष
सम्बन्धों में आज़ादी और खुलापन आम बात है, लेकिन 2012 में स्वीडन जैसे
“सभ्य” समृद्ध देश ने बलात्कार और यौन हिंसा का विश्व रिकार्ड क़ायम किया
है। आबादी के हिसाब से, इस वर्ष वहाँ भारत की तुलना में तीस गुना अधिक
बलात्कार हुए। जर्मनी में औसतन हर वर्ष बलात्कार और यौन हिंसा की आठ हज़ार
घटनाएँ दर्ज होती हैं। ब्रिटेन इस मामले में दुनिया के शीर्षस्थ दस देशों
में शामिल है। अमेरिका में हर साल लगभग तीन लाख औरतें यौन हिंसा का शिकार
होती हैं।
महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों का आखिर कारण क्या है ?:
जो भी बिक सके, उसे बेचकर मुनाफा कमाना पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति है। पूँजीवादी समाज के श्रम-विभाजन जनित अलगाव ने समाज में जो ऐन्द्रिक सुखभोगवाद, रुग्ण- स्वच्छन्द यौनाचार और बर्बर स्त्री-उत्पीड़क यौन फन्तासियों की ज़मीन तैयार की है, उसे पूँजीपति वर्ग ने एक भूमण्डलीय सेक्स बाज़ार की प्रचुर सम्भावना के रूप में देखा है। सेक्स खिलौनों, सेक्स पर्यटन, वेश्यावृत्ति के नये-नये विविध रूपों, विकृत सेक्स, बाल वेश्यावृत्ति, पोर्न फिल्मों, विज्ञापनों आदि-आदि का कई हज़ार खरब डालर का एक भूमण्डलीय बाज़ार तैयार हुआ है। टी.वी., डी.वी.डी., कम्प्यूटर, इन्टरनेट, मोबाइल, डिजिटल सिनेमा आदि के ज़रिए इलेक्ट्रानिक संचार-माध्यमों ने सांस्कृतिक रुग्णता के इस भूमण्डलीय बाज़ार के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभायी है। खाये-अघाये धनपशु तो स्त्री-विरोधी अपराधों और अय्याशियों में पहले से ही बड़ी संख्या में लिप्त रहते रहे हैं, भले ही उनके कुकर्म पाँच सितारा ऐशगाहों की दीवारों के पीछे छिपे होते हों या पैसे और रसूख के बूते दबा दिये जाते हों। अब सामान्य मध्यवर्गीय घरों के किशोरों और युवाओं तक भी नशीली दवाओं, पोर्न फिल्मों, पोर्न वेबसाइटों आदि की ऐसी पहुँच बन गयी है, जिसे रोक पाना सम्भव नहीं रह गया है। यही नहीं, मज़दूर बस्तियों में भी पोर्न फिल्मों की सी.डी. का एक बड़ा बाज़ार तैयार हुआ है। वहाँ मोबाइल रीचार्जिंग की दुकानों पर मुख्य काम अश्लील वीडियो और एम.एम.एस. क्लिप्स बेचने का होता है। दिल्ली की मज़दूर बस्तियों में यह सब आम बात है। प्रसिद्ध अध्येता यान ब्रेमेन के अध्ययन के अनुसार, सूरत में हीरा तराशी के जिन नियमित स्वेटशॉप्स में दिन भर काठियावाड़ी नौजवान हाड़तोड़ काम करते हैं, वही रात में ऐसी उमसभरी माँदों में तब्दील हो जाते हैं जहाँ पश्चिम से आयातित विकृत से विकृत परपीड़क पोर्न सी.डी. देखी जाती हैं। इस सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आज की पूँजीवादी व्यवस्था में अनिश्चितता, मायूसी और तंगहाली के घने अँधेरे में जी रही मेहनतकश आबादी का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा विकृत पोर्न संस्कृति की नशीली ख़ुराक में जीने का सहारा तलाश रहा है। मज़दूर आन्दोलन के गतिरोध, पतन और विघटन की भी इसमें एक अहम भूमिका है। आज के हालात में, अभी भी कुछ मेहनतकश ऐसे हैं जो विद्रोह कर रहे हैं या लड़ाई का सही रास्ता तलाश रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो मायूसी, अवसाद और विमानवीकारी जीवन स्थितियों के कारण नशे और अश्लील फिल्मों आदि की लत की चपेट में आ रहे हैं। और इन्हीं में से कुछ ऐसे भी हैं जो पूरी तरह विमानवीकृत होकर लम्पट-अपराधी बन रहे हैं। ऐसे ही कुछ लम्पट-अपराधी तत्व 16 दिसम्बर की घटना सहित बच्चियों और औरतों के ख़िलाफ़ हाल के कई बर्बर अपराधों में शामिल रहे हैं।
पूँजीवादी रुग्ण संस्कृति का ज़हर सिर्फ़ शहरी परजीवी अमीरों और गाँवों के कुलकों-फार्मरों के बेटों की ही नहीं, बल्कि आम मध्यवर्गीय युवाओं और मज़दूरों की नसों में भी घुल रहा है। भारतीय गाँवों, और शहरों तक में अभी भी समाज में जिस तरह स्त्री-पुरुष पार्थक्य और मध्ययुगीन, गैरजनवादी, स्त्री विरोधी मूल्यों- मान्यताओं का प्रभाव है, उससे न तो शहरी मध्यवर्ग मुक्त है, न ही मज़दूर वर्ग। ऐसी स्थिति में, भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों की विडम्बना है कि नवउदारवाद के दौर की “खुलेपन” की नग्न-फूहड़ संस्कृति यहाँ यौन-अपराधों को खुलकर बढ़ावा दे रही है। लेकिन यह मानना ग़लत होगा कि यह समस्या मुख्यतः पिछड़े समाजों की है। बर्बर यौन अपराध और रुग्ण यौनाचार आज के पूँजीवाद की सार्वभौमिक संस्कृति है। पश्चिम के विकसित देशों में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में आज़ादी और खुलापन आम बात है, लेकिन 2012 में स्वीडन जैसे “सभ्य” समृद्ध देश ने बलात्कार और यौन हिंसा का विश्व रिकार्ड क़ायम किया है। आबादी के हिसाब से, इस वर्ष वहाँ भारत की तुलना में तीस गुना अधिक बलात्कार हुए। जर्मनी में औसतन हर वर्ष बलात्कार और यौन हिंसा की आठ हज़ार घटनाएँ दर्ज होती हैं। ब्रिटेन इस मामले में दुनिया के शीर्षस्थ दस देशों में शामिल है। अमेरिका में हर साल लगभग तीन लाख औरतें यौन हिंसा का शिकार होती हैं।
जो भी बिक सके, उसे बेचकर मुनाफा कमाना पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति है। पूँजीवादी समाज के श्रम-विभाजन जनित अलगाव ने समाज में जो ऐन्द्रिक सुखभोगवाद, रुग्ण- स्वच्छन्द यौनाचार और बर्बर स्त्री-उत्पीड़क यौन फन्तासियों की ज़मीन तैयार की है, उसे पूँजीपति वर्ग ने एक भूमण्डलीय सेक्स बाज़ार की प्रचुर सम्भावना के रूप में देखा है। सेक्स खिलौनों, सेक्स पर्यटन, वेश्यावृत्ति के नये-नये विविध रूपों, विकृत सेक्स, बाल वेश्यावृत्ति, पोर्न फिल्मों, विज्ञापनों आदि-आदि का कई हज़ार खरब डालर का एक भूमण्डलीय बाज़ार तैयार हुआ है। टी.वी., डी.वी.डी., कम्प्यूटर, इन्टरनेट, मोबाइल, डिजिटल सिनेमा आदि के ज़रिए इलेक्ट्रानिक संचार-माध्यमों ने सांस्कृतिक रुग्णता के इस भूमण्डलीय बाज़ार के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभायी है। खाये-अघाये धनपशु तो स्त्री-विरोधी अपराधों और अय्याशियों में पहले से ही बड़ी संख्या में लिप्त रहते रहे हैं, भले ही उनके कुकर्म पाँच सितारा ऐशगाहों की दीवारों के पीछे छिपे होते हों या पैसे और रसूख के बूते दबा दिये जाते हों। अब सामान्य मध्यवर्गीय घरों के किशोरों और युवाओं तक भी नशीली दवाओं, पोर्न फिल्मों, पोर्न वेबसाइटों आदि की ऐसी पहुँच बन गयी है, जिसे रोक पाना सम्भव नहीं रह गया है। यही नहीं, मज़दूर बस्तियों में भी पोर्न फिल्मों की सी.डी. का एक बड़ा बाज़ार तैयार हुआ है। वहाँ मोबाइल रीचार्जिंग की दुकानों पर मुख्य काम अश्लील वीडियो और एम.एम.एस. क्लिप्स बेचने का होता है। दिल्ली की मज़दूर बस्तियों में यह सब आम बात है। प्रसिद्ध अध्येता यान ब्रेमेन के अध्ययन के अनुसार, सूरत में हीरा तराशी के जिन नियमित स्वेटशॉप्स में दिन भर काठियावाड़ी नौजवान हाड़तोड़ काम करते हैं, वही रात में ऐसी उमसभरी माँदों में तब्दील हो जाते हैं जहाँ पश्चिम से आयातित विकृत से विकृत परपीड़क पोर्न सी.डी. देखी जाती हैं। इस सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आज की पूँजीवादी व्यवस्था में अनिश्चितता, मायूसी और तंगहाली के घने अँधेरे में जी रही मेहनतकश आबादी का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा विकृत पोर्न संस्कृति की नशीली ख़ुराक में जीने का सहारा तलाश रहा है। मज़दूर आन्दोलन के गतिरोध, पतन और विघटन की भी इसमें एक अहम भूमिका है। आज के हालात में, अभी भी कुछ मेहनतकश ऐसे हैं जो विद्रोह कर रहे हैं या लड़ाई का सही रास्ता तलाश रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो मायूसी, अवसाद और विमानवीकारी जीवन स्थितियों के कारण नशे और अश्लील फिल्मों आदि की लत की चपेट में आ रहे हैं। और इन्हीं में से कुछ ऐसे भी हैं जो पूरी तरह विमानवीकृत होकर लम्पट-अपराधी बन रहे हैं। ऐसे ही कुछ लम्पट-अपराधी तत्व 16 दिसम्बर की घटना सहित बच्चियों और औरतों के ख़िलाफ़ हाल के कई बर्बर अपराधों में शामिल रहे हैं।
पूँजीवादी रुग्ण संस्कृति का ज़हर सिर्फ़ शहरी परजीवी अमीरों और गाँवों के कुलकों-फार्मरों के बेटों की ही नहीं, बल्कि आम मध्यवर्गीय युवाओं और मज़दूरों की नसों में भी घुल रहा है। भारतीय गाँवों, और शहरों तक में अभी भी समाज में जिस तरह स्त्री-पुरुष पार्थक्य और मध्ययुगीन, गैरजनवादी, स्त्री विरोधी मूल्यों- मान्यताओं का प्रभाव है, उससे न तो शहरी मध्यवर्ग मुक्त है, न ही मज़दूर वर्ग। ऐसी स्थिति में, भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों की विडम्बना है कि नवउदारवाद के दौर की “खुलेपन” की नग्न-फूहड़ संस्कृति यहाँ यौन-अपराधों को खुलकर बढ़ावा दे रही है। लेकिन यह मानना ग़लत होगा कि यह समस्या मुख्यतः पिछड़े समाजों की है। बर्बर यौन अपराध और रुग्ण यौनाचार आज के पूँजीवाद की सार्वभौमिक संस्कृति है। पश्चिम के विकसित देशों में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में आज़ादी और खुलापन आम बात है, लेकिन 2012 में स्वीडन जैसे “सभ्य” समृद्ध देश ने बलात्कार और यौन हिंसा का विश्व रिकार्ड क़ायम किया है। आबादी के हिसाब से, इस वर्ष वहाँ भारत की तुलना में तीस गुना अधिक बलात्कार हुए। जर्मनी में औसतन हर वर्ष बलात्कार और यौन हिंसा की आठ हज़ार घटनाएँ दर्ज होती हैं। ब्रिटेन इस मामले में दुनिया के शीर्षस्थ दस देशों में शामिल है। अमेरिका में हर साल लगभग तीन लाख औरतें यौन हिंसा का शिकार होती हैं।
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