अतुल अनजान बेधड़क बोलने वाले लोगों में से हैं...भारत रत्न विवाद पर हुई मेरी बातचीत.-DrMukesh Mishra--:
भारतीय जनभावनाओं तथा देश-दुनिया के विशिष्ट लोगों को दिया जाने वाला
सर्वोच्च सम्मान है ‘भारत रत्न’। अब तक जिन लोगों को यह दिया गया, बहुत
सोच-समझ कर लंबे दौर में उनके योगदान व उनकी वैश्विक स्थिति को ध्यान में
रख कर दिया गया। हालांकि उनमें से कुछ वांछित तो कुछ अवांछित भी थे लेकिन
पा गए। कारण, भारतीय लोकतंत्र में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ‘जिसकी लाठी
उसकी भैंस’ यानी वितर्क जीत जाता है, तर्क हार जाता है। दबी जुबान से लोग
भारत के सम्मान के लिए कड़वा घूंट पी लेते हैं। सरकार के फैसलों पर सहमत न
होते हुए भी असहमति के स्वर तेज नहीं करते। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि
सरकार ने जो किया उस पर बहस नहीं होगी, या वही अंतिम फैसला है और जनता को
उसे शिरोधार्य करना ही होगा।
हमें बचना होगा उस स्थिति से कभी-कभी
हम अपनी संकीर्ण राजनीतिक सोच में इस कदर उलझ जाते हैं कि भारत रत्न को
‘वोट खेंचू मशीन’ के रूप में पेश करने में भी नहीं घबराते। इस स्थिति से
हमें बचना होगा। आने वाली सरकारों को ध्यान रखना होगा कि भारत रत्न रेवड़ी
की तरह नहीं बांटे जाने चाहिए। ज्यादा बांटोगे तो पद, गरिमा और उसका सम्मान
घट जाएगा। हम देख रहे हैं कि पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण भी अपनी
कुछ चमक खो रहे हैं। जब हम सुनते हैं कि लता मंगेशकर अपनी बहन का नाम
प्रस्तावित करती हैं। जब हम सुनते हैं कि तीसरे दर्जे की फिल्मी नायिकाएं
सरकार के वयोवृद्ध राजनेताओं द्वारा पद्म पुरस्कारों के लिए बेताबी के साथ
समर्थन हासिल करती हैं। और जब हम सुनते हैं कि अमजद अली जैसा पिता अपने दो
बेटों को पद्म पुरस्कार दिलाने के लिए अपने रसूख का इस्तेमाल करने को
व्याकुल हैं। तब आम जनता, चिंतकों, नीति-निर्माताओं को समझना चाहिए कि हवा
का रु ख किधर है? हम दे तो देंगे पुरस्कार लेकिन कहीं वे सम्मान अपनी आभा
खो बैठे तो शायद लोग कल उन्हें ड्राइंग रूम में सजाने का साहस भी नहीं जुटा
पाएंगे। सचिन को भारत रत्न दिया गया। इसमें किसी को आपत्ति नहीं कि सचिन
ने क्रिकेट की दुनिया में इतिहास रच डाला। अपने-अपने वक्त में खेल की
दुनिया में बहुतों ने इतिहास रचा। हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने हॉकी स्टिक
और गेंद के रिश्ते को ऐसा दिखाया कि लगा उसके बीच में कहीं चुंबक था। केडी
सिंह बाबू ने भी हॉकी में अपनी जादूगरी दिखाई। ओलम्पिक में पहली बार
महाराजा करणी सिंह ने भी कांस्य पदक जीत कर विश्व में भारत का नाम रोशन
किया। ‘फ्लाइंग सिख’
मिल्खा सिंह ने दुनिया में अपना लोहा मनवाया।
वह भी हकदार थे लेकिन वह उस दौर के थे, जब अखबारों में मात्र खबरें होती
थीं। सिनेमा हॉल में सूचना विभाग की एक रील दिखाई जाती थी, खिलाड़ियों के
करतबों वाली। तब चौबीस घंटे के स्पोर्ट्स चैनल नहीं थे। तब छोटी चीज को
महिमा मंडित करने वाले वे हथियार नहीं थे जो आज कॉरपोरेट मीडिया के हाथ में
आ गए हैं। तब विज्ञापन से व्यक्तित्वों को सजाया नहीं जाता था। आज सब कुछ
है। सचिन को इसका जरूर फायदा मिला है। भारतीय मीडिया ने तो मैच के पंद्रह
दिन पहले से ही सचिन को भारत रत्न घोषित करना शुरू कर दिया था। सरकार पर
दबाव बनाने के लिए कॉरपोरेट जगत और विज्ञापनदाताओं ने एक मुहिम चला दी।
ध्यानचंद जैसे तमाम खिलाड़ी अभाव की जिंदगी जीते रहे। खेलों के कई धुरंधर
अपने-अपने तमगे लेकर बाजार में बेचने को निकले, उनकी भी खबरें बनीं। वे रेल
के फस्र्ट क्लास कोच में सफर करने को भी मोहताज रहे जबकि क्रिकेट के भगवान
भारत रत्न लेकर छुट्टी मनाने स्पेशल प्लेन से मसूरी पहुंच गए। बेशक, सचिन
एक महान खिलाड़ी हैं। लेकिन यह आज के दौर का सच है। कॉरपोरेट, दौलत,
विज्ञापन, पूंजी और खेल का बनावटी रिश्ता है। सचिन आपको मुबारकबाद लेकिन यह
जिम्मेदारी आपकी है कि अपने खेल और इस सम्मान को संकीर्ण राजनीति का
हिस्सा मत बनने देना। अकूत दौलत मिली लेकिन दूसरी ओर कई मेधावी खिलाड़ी जो
इतिहास बना चुके हैं, कहीं अंधेरे में जुगनू पकड़ने की कोशिश में टहल रहे
हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सचिन के कोच आचरेकर का तीनों दिन मुंबई के
वानखेड़े स्टेडियम में सचिन को खेलते देखने आना अच्छा लग रहा था, लेकिन
तीनों ही दिन वह एक ही पुरारने कोट को पहने हुए ही दिखाई पड़े। तो लगा कि
कहीं वह अभी आर्थिक तंगहाली के शिकार हैं। गुरु का अतुलनीय योगदान, शिष्य
की उसके आदशरे पर चलने की मुहिम, इतिहास तो रच गई लेकिन गंदे कोट का पहलू
भी दिल को कुछ कहता है। दरअसल, सचिन को भारत रत्न देने के पहले से ही एक
राजनीति हो रही थी। कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला ने मीडिया को वक्तव्य दिया
कि सोनिया गांधी ने उनसे पूछा था कि यदि किसी खिलाड़ी को राज्य सभा में
मनोनीत करना हो तो कौन हो सकता है? फिर सोनिया ने स्वयं ही कहा कि अगर सचिन
को नामित करें तो कैसा रहेगा? राजीव शुक्ला ने कहा,‘मैं सचिन से बात करके
बताऊंगा।’ बकौल राजीव शुक्ला सचिन की सहमति के बाद सोनिया गांधी ने पीएम को
अनुरोध पत्र भेजा। इस प्रकार, सचिन का नामांकन राज्य सभा में हो गया।
स्पष्ट है कि भारत रत्न देने से पहले कहीं न कहीं यह बताने की कोशिश थी कि
कांग्रेस ने ही सचिन को पहले राज्य सभा में भेजा और अब खेल खत्म भी नहीं
हुआ कि फौरन भारत रत्न। कोई र्चचा नहीं, कोई कैबिनेट नहीं बैठी, कोई समिति
नहीं बनी। सरकार के कुछ लोगों ने मन बना रखा था, माहौल पहले से तैयार था। ’
सलीके से दिया जाता सचिन को भारत रत्न दिया जाता, कोई दिक्कत नहीं थी।
लेकिन यकायक देना जैसे कोई प्रायोजित कार्यक्रम हो। यदि यही दस दिन बाद
सलीके से दिया जाता तो किसी प्रकार का सवाल नहीं खड़ा होता। लेकिन जल्दबाजी
ने सचिन के ही व्यक्तित्व के आसपास कोई एक रेखा खींच दी है, जो सुनहरी
नहीं लगती। संभवत: सचिन को कुछ लोग आगामी चुनाव में वोट बटोरू मशीन के रूप
में देखना चाहते हैं। क्या यह सम्मान इस दृष्टि से दिया गया है? यह तो समय
ही बताएगा। सचिन के इस सम्मान का जितना आनंद हम उठा सकते थे, जल्दबाजी ने
उन पलों को छीन कर चिंता की कुछ लकीरें खड़ी कर दीं। कांग्रेस व सरकार के
रवैये ने सचिन के बारे में कुछ कहने-सुनने का नाहक अवसर दे दिया। लेकिन
मनमोहन सिंह सरकार की यही शैली है। दुखद यह भी है कि वैज्ञानिक सीएनआर राव
को उनके साथ भारत रत्न क्यों दिया गया? उन्हें पहले क्यों नहीं दिया गया?
क्या यह बैलेंसिंग एक्ट था? शायद वह अकेले ऐसे वैज्ञानिक हैं, जिन्हें
दुनिया के सौ से अधिक देशों ने मानद उपाधियां दी हैं। चयन प्रक्रिया के वे
कौन-से भोथड़े हथियार हैं, जो उनके योगदान को रेखांकित नहीं कर सके? कुछ
राजनीतिक दलों के व्याकुल नेता कई लोगों को भारत रत्न दिलाने की बहस कर रहे
हैं। अटल बिहारी वाजपेयी, वाईबी चौहान, संसदीय पुरोधा कॉमरेड भूपेश गुप्त
सहित ध्यानचंद, दिलीप कुमार, मुकेश अंबानी के नाम भी सुनाई देते हैं लेकिन
देखना है कि क्या छोटी तबियत के लोग बड़े फैसले ले पाते हैं?
अतुल अनजान बेधड़क बोलने वाले लोगों में से हैं...भारत रत्न विवाद पर हुई मेरी बातचीत.-DrMukesh Mishra--:
भारतीय जनभावनाओं तथा देश-दुनिया के विशिष्ट लोगों को दिया जाने वाला
सर्वोच्च सम्मान है ‘भारत रत्न’। अब तक जिन लोगों को यह दिया गया, बहुत
सोच-समझ कर लंबे दौर में उनके योगदान व उनकी वैश्विक स्थिति को ध्यान में
रख कर दिया गया। हालांकि उनमें से कुछ वांछित तो कुछ अवांछित भी थे लेकिन
पा गए। कारण, भारतीय लोकतंत्र में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ‘जिसकी लाठी
उसकी भैंस’ यानी वितर्क जीत जाता है, तर्क हार जाता है। दबी जुबान से लोग
भारत के सम्मान के लिए कड़वा घूंट पी लेते हैं। सरकार के फैसलों पर सहमत न
होते हुए भी असहमति के स्वर तेज नहीं करते। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि
सरकार ने जो किया उस पर बहस नहीं होगी, या वही अंतिम फैसला है और जनता को
उसे शिरोधार्य करना ही होगा।
हमें बचना होगा उस स्थिति से कभी-कभी हम अपनी संकीर्ण राजनीतिक सोच में इस कदर उलझ जाते हैं कि भारत रत्न को ‘वोट खेंचू मशीन’ के रूप में पेश करने में भी नहीं घबराते। इस स्थिति से हमें बचना होगा। आने वाली सरकारों को ध्यान रखना होगा कि भारत रत्न रेवड़ी की तरह नहीं बांटे जाने चाहिए। ज्यादा बांटोगे तो पद, गरिमा और उसका सम्मान घट जाएगा। हम देख रहे हैं कि पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण भी अपनी कुछ चमक खो रहे हैं। जब हम सुनते हैं कि लता मंगेशकर अपनी बहन का नाम प्रस्तावित करती हैं। जब हम सुनते हैं कि तीसरे दर्जे की फिल्मी नायिकाएं सरकार के वयोवृद्ध राजनेताओं द्वारा पद्म पुरस्कारों के लिए बेताबी के साथ समर्थन हासिल करती हैं। और जब हम सुनते हैं कि अमजद अली जैसा पिता अपने दो बेटों को पद्म पुरस्कार दिलाने के लिए अपने रसूख का इस्तेमाल करने को व्याकुल हैं। तब आम जनता, चिंतकों, नीति-निर्माताओं को समझना चाहिए कि हवा का रु ख किधर है? हम दे तो देंगे पुरस्कार लेकिन कहीं वे सम्मान अपनी आभा खो बैठे तो शायद लोग कल उन्हें ड्राइंग रूम में सजाने का साहस भी नहीं जुटा पाएंगे। सचिन को भारत रत्न दिया गया। इसमें किसी को आपत्ति नहीं कि सचिन ने क्रिकेट की दुनिया में इतिहास रच डाला। अपने-अपने वक्त में खेल की दुनिया में बहुतों ने इतिहास रचा। हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने हॉकी स्टिक और गेंद के रिश्ते को ऐसा दिखाया कि लगा उसके बीच में कहीं चुंबक था। केडी सिंह बाबू ने भी हॉकी में अपनी जादूगरी दिखाई। ओलम्पिक में पहली बार महाराजा करणी सिंह ने भी कांस्य पदक जीत कर विश्व में भारत का नाम रोशन किया। ‘फ्लाइंग सिख’
मिल्खा सिंह ने दुनिया में अपना लोहा मनवाया। वह भी हकदार थे लेकिन वह उस दौर के थे, जब अखबारों में मात्र खबरें होती थीं। सिनेमा हॉल में सूचना विभाग की एक रील दिखाई जाती थी, खिलाड़ियों के करतबों वाली। तब चौबीस घंटे के स्पोर्ट्स चैनल नहीं थे। तब छोटी चीज को महिमा मंडित करने वाले वे हथियार नहीं थे जो आज कॉरपोरेट मीडिया के हाथ में आ गए हैं। तब विज्ञापन से व्यक्तित्वों को सजाया नहीं जाता था। आज सब कुछ है। सचिन को इसका जरूर फायदा मिला है। भारतीय मीडिया ने तो मैच के पंद्रह दिन पहले से ही सचिन को भारत रत्न घोषित करना शुरू कर दिया था। सरकार पर दबाव बनाने के लिए कॉरपोरेट जगत और विज्ञापनदाताओं ने एक मुहिम चला दी। ध्यानचंद जैसे तमाम खिलाड़ी अभाव की जिंदगी जीते रहे। खेलों के कई धुरंधर अपने-अपने तमगे लेकर बाजार में बेचने को निकले, उनकी भी खबरें बनीं। वे रेल के फस्र्ट क्लास कोच में सफर करने को भी मोहताज रहे जबकि क्रिकेट के भगवान भारत रत्न लेकर छुट्टी मनाने स्पेशल प्लेन से मसूरी पहुंच गए। बेशक, सचिन एक महान खिलाड़ी हैं। लेकिन यह आज के दौर का सच है। कॉरपोरेट, दौलत, विज्ञापन, पूंजी और खेल का बनावटी रिश्ता है। सचिन आपको मुबारकबाद लेकिन यह जिम्मेदारी आपकी है कि अपने खेल और इस सम्मान को संकीर्ण राजनीति का हिस्सा मत बनने देना। अकूत दौलत मिली लेकिन दूसरी ओर कई मेधावी खिलाड़ी जो इतिहास बना चुके हैं, कहीं अंधेरे में जुगनू पकड़ने की कोशिश में टहल रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सचिन के कोच आचरेकर का तीनों दिन मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में सचिन को खेलते देखने आना अच्छा लग रहा था, लेकिन तीनों ही दिन वह एक ही पुरारने कोट को पहने हुए ही दिखाई पड़े। तो लगा कि कहीं वह अभी आर्थिक तंगहाली के शिकार हैं। गुरु का अतुलनीय योगदान, शिष्य की उसके आदशरे पर चलने की मुहिम, इतिहास तो रच गई लेकिन गंदे कोट का पहलू भी दिल को कुछ कहता है। दरअसल, सचिन को भारत रत्न देने के पहले से ही एक राजनीति हो रही थी। कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला ने मीडिया को वक्तव्य दिया कि सोनिया गांधी ने उनसे पूछा था कि यदि किसी खिलाड़ी को राज्य सभा में मनोनीत करना हो तो कौन हो सकता है? फिर सोनिया ने स्वयं ही कहा कि अगर सचिन को नामित करें तो कैसा रहेगा? राजीव शुक्ला ने कहा,‘मैं सचिन से बात करके बताऊंगा।’ बकौल राजीव शुक्ला सचिन की सहमति के बाद सोनिया गांधी ने पीएम को अनुरोध पत्र भेजा। इस प्रकार, सचिन का नामांकन राज्य सभा में हो गया। स्पष्ट है कि भारत रत्न देने से पहले कहीं न कहीं यह बताने की कोशिश थी कि कांग्रेस ने ही सचिन को पहले राज्य सभा में भेजा और अब खेल खत्म भी नहीं हुआ कि फौरन भारत रत्न। कोई र्चचा नहीं, कोई कैबिनेट नहीं बैठी, कोई समिति नहीं बनी। सरकार के कुछ लोगों ने मन बना रखा था, माहौल पहले से तैयार था। ’
सलीके से दिया जाता सचिन को भारत रत्न दिया जाता, कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन यकायक देना जैसे कोई प्रायोजित कार्यक्रम हो। यदि यही दस दिन बाद सलीके से दिया जाता तो किसी प्रकार का सवाल नहीं खड़ा होता। लेकिन जल्दबाजी ने सचिन के ही व्यक्तित्व के आसपास कोई एक रेखा खींच दी है, जो सुनहरी नहीं लगती। संभवत: सचिन को कुछ लोग आगामी चुनाव में वोट बटोरू मशीन के रूप में देखना चाहते हैं। क्या यह सम्मान इस दृष्टि से दिया गया है? यह तो समय ही बताएगा। सचिन के इस सम्मान का जितना आनंद हम उठा सकते थे, जल्दबाजी ने उन पलों को छीन कर चिंता की कुछ लकीरें खड़ी कर दीं। कांग्रेस व सरकार के रवैये ने सचिन के बारे में कुछ कहने-सुनने का नाहक अवसर दे दिया। लेकिन मनमोहन सिंह सरकार की यही शैली है। दुखद यह भी है कि वैज्ञानिक सीएनआर राव को उनके साथ भारत रत्न क्यों दिया गया? उन्हें पहले क्यों नहीं दिया गया? क्या यह बैलेंसिंग एक्ट था? शायद वह अकेले ऐसे वैज्ञानिक हैं, जिन्हें दुनिया के सौ से अधिक देशों ने मानद उपाधियां दी हैं। चयन प्रक्रिया के वे कौन-से भोथड़े हथियार हैं, जो उनके योगदान को रेखांकित नहीं कर सके? कुछ राजनीतिक दलों के व्याकुल नेता कई लोगों को भारत रत्न दिलाने की बहस कर रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी, वाईबी चौहान, संसदीय पुरोधा कॉमरेड भूपेश गुप्त सहित ध्यानचंद, दिलीप कुमार, मुकेश अंबानी के नाम भी सुनाई देते हैं लेकिन देखना है कि क्या छोटी तबियत के लोग बड़े फैसले ले पाते हैं?
हमें बचना होगा उस स्थिति से कभी-कभी हम अपनी संकीर्ण राजनीतिक सोच में इस कदर उलझ जाते हैं कि भारत रत्न को ‘वोट खेंचू मशीन’ के रूप में पेश करने में भी नहीं घबराते। इस स्थिति से हमें बचना होगा। आने वाली सरकारों को ध्यान रखना होगा कि भारत रत्न रेवड़ी की तरह नहीं बांटे जाने चाहिए। ज्यादा बांटोगे तो पद, गरिमा और उसका सम्मान घट जाएगा। हम देख रहे हैं कि पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण भी अपनी कुछ चमक खो रहे हैं। जब हम सुनते हैं कि लता मंगेशकर अपनी बहन का नाम प्रस्तावित करती हैं। जब हम सुनते हैं कि तीसरे दर्जे की फिल्मी नायिकाएं सरकार के वयोवृद्ध राजनेताओं द्वारा पद्म पुरस्कारों के लिए बेताबी के साथ समर्थन हासिल करती हैं। और जब हम सुनते हैं कि अमजद अली जैसा पिता अपने दो बेटों को पद्म पुरस्कार दिलाने के लिए अपने रसूख का इस्तेमाल करने को व्याकुल हैं। तब आम जनता, चिंतकों, नीति-निर्माताओं को समझना चाहिए कि हवा का रु ख किधर है? हम दे तो देंगे पुरस्कार लेकिन कहीं वे सम्मान अपनी आभा खो बैठे तो शायद लोग कल उन्हें ड्राइंग रूम में सजाने का साहस भी नहीं जुटा पाएंगे। सचिन को भारत रत्न दिया गया। इसमें किसी को आपत्ति नहीं कि सचिन ने क्रिकेट की दुनिया में इतिहास रच डाला। अपने-अपने वक्त में खेल की दुनिया में बहुतों ने इतिहास रचा। हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने हॉकी स्टिक और गेंद के रिश्ते को ऐसा दिखाया कि लगा उसके बीच में कहीं चुंबक था। केडी सिंह बाबू ने भी हॉकी में अपनी जादूगरी दिखाई। ओलम्पिक में पहली बार महाराजा करणी सिंह ने भी कांस्य पदक जीत कर विश्व में भारत का नाम रोशन किया। ‘फ्लाइंग सिख’
मिल्खा सिंह ने दुनिया में अपना लोहा मनवाया। वह भी हकदार थे लेकिन वह उस दौर के थे, जब अखबारों में मात्र खबरें होती थीं। सिनेमा हॉल में सूचना विभाग की एक रील दिखाई जाती थी, खिलाड़ियों के करतबों वाली। तब चौबीस घंटे के स्पोर्ट्स चैनल नहीं थे। तब छोटी चीज को महिमा मंडित करने वाले वे हथियार नहीं थे जो आज कॉरपोरेट मीडिया के हाथ में आ गए हैं। तब विज्ञापन से व्यक्तित्वों को सजाया नहीं जाता था। आज सब कुछ है। सचिन को इसका जरूर फायदा मिला है। भारतीय मीडिया ने तो मैच के पंद्रह दिन पहले से ही सचिन को भारत रत्न घोषित करना शुरू कर दिया था। सरकार पर दबाव बनाने के लिए कॉरपोरेट जगत और विज्ञापनदाताओं ने एक मुहिम चला दी। ध्यानचंद जैसे तमाम खिलाड़ी अभाव की जिंदगी जीते रहे। खेलों के कई धुरंधर अपने-अपने तमगे लेकर बाजार में बेचने को निकले, उनकी भी खबरें बनीं। वे रेल के फस्र्ट क्लास कोच में सफर करने को भी मोहताज रहे जबकि क्रिकेट के भगवान भारत रत्न लेकर छुट्टी मनाने स्पेशल प्लेन से मसूरी पहुंच गए। बेशक, सचिन एक महान खिलाड़ी हैं। लेकिन यह आज के दौर का सच है। कॉरपोरेट, दौलत, विज्ञापन, पूंजी और खेल का बनावटी रिश्ता है। सचिन आपको मुबारकबाद लेकिन यह जिम्मेदारी आपकी है कि अपने खेल और इस सम्मान को संकीर्ण राजनीति का हिस्सा मत बनने देना। अकूत दौलत मिली लेकिन दूसरी ओर कई मेधावी खिलाड़ी जो इतिहास बना चुके हैं, कहीं अंधेरे में जुगनू पकड़ने की कोशिश में टहल रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सचिन के कोच आचरेकर का तीनों दिन मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में सचिन को खेलते देखने आना अच्छा लग रहा था, लेकिन तीनों ही दिन वह एक ही पुरारने कोट को पहने हुए ही दिखाई पड़े। तो लगा कि कहीं वह अभी आर्थिक तंगहाली के शिकार हैं। गुरु का अतुलनीय योगदान, शिष्य की उसके आदशरे पर चलने की मुहिम, इतिहास तो रच गई लेकिन गंदे कोट का पहलू भी दिल को कुछ कहता है। दरअसल, सचिन को भारत रत्न देने के पहले से ही एक राजनीति हो रही थी। कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला ने मीडिया को वक्तव्य दिया कि सोनिया गांधी ने उनसे पूछा था कि यदि किसी खिलाड़ी को राज्य सभा में मनोनीत करना हो तो कौन हो सकता है? फिर सोनिया ने स्वयं ही कहा कि अगर सचिन को नामित करें तो कैसा रहेगा? राजीव शुक्ला ने कहा,‘मैं सचिन से बात करके बताऊंगा।’ बकौल राजीव शुक्ला सचिन की सहमति के बाद सोनिया गांधी ने पीएम को अनुरोध पत्र भेजा। इस प्रकार, सचिन का नामांकन राज्य सभा में हो गया। स्पष्ट है कि भारत रत्न देने से पहले कहीं न कहीं यह बताने की कोशिश थी कि कांग्रेस ने ही सचिन को पहले राज्य सभा में भेजा और अब खेल खत्म भी नहीं हुआ कि फौरन भारत रत्न। कोई र्चचा नहीं, कोई कैबिनेट नहीं बैठी, कोई समिति नहीं बनी। सरकार के कुछ लोगों ने मन बना रखा था, माहौल पहले से तैयार था। ’
सलीके से दिया जाता सचिन को भारत रत्न दिया जाता, कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन यकायक देना जैसे कोई प्रायोजित कार्यक्रम हो। यदि यही दस दिन बाद सलीके से दिया जाता तो किसी प्रकार का सवाल नहीं खड़ा होता। लेकिन जल्दबाजी ने सचिन के ही व्यक्तित्व के आसपास कोई एक रेखा खींच दी है, जो सुनहरी नहीं लगती। संभवत: सचिन को कुछ लोग आगामी चुनाव में वोट बटोरू मशीन के रूप में देखना चाहते हैं। क्या यह सम्मान इस दृष्टि से दिया गया है? यह तो समय ही बताएगा। सचिन के इस सम्मान का जितना आनंद हम उठा सकते थे, जल्दबाजी ने उन पलों को छीन कर चिंता की कुछ लकीरें खड़ी कर दीं। कांग्रेस व सरकार के रवैये ने सचिन के बारे में कुछ कहने-सुनने का नाहक अवसर दे दिया। लेकिन मनमोहन सिंह सरकार की यही शैली है। दुखद यह भी है कि वैज्ञानिक सीएनआर राव को उनके साथ भारत रत्न क्यों दिया गया? उन्हें पहले क्यों नहीं दिया गया? क्या यह बैलेंसिंग एक्ट था? शायद वह अकेले ऐसे वैज्ञानिक हैं, जिन्हें दुनिया के सौ से अधिक देशों ने मानद उपाधियां दी हैं। चयन प्रक्रिया के वे कौन-से भोथड़े हथियार हैं, जो उनके योगदान को रेखांकित नहीं कर सके? कुछ राजनीतिक दलों के व्याकुल नेता कई लोगों को भारत रत्न दिलाने की बहस कर रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी, वाईबी चौहान, संसदीय पुरोधा कॉमरेड भूपेश गुप्त सहित ध्यानचंद, दिलीप कुमार, मुकेश अंबानी के नाम भी सुनाई देते हैं लेकिन देखना है कि क्या छोटी तबियत के लोग बड़े फैसले ले पाते हैं?
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