साम्राज्यवाद को मजबूत करने मे 'साम्यवाद 'का कितना योगदान?
"MAN HAS CREATED THE GOD FOR HIS MENTAL SECURITY ONLY"---
KARL MARX
अर्थात कार्ल मार्क्स का कथन है कि,"मनुष्य ने अपनी दिमागी सुरक्षा के लिए भगवान की उत्पत्ति की है"।
महर्षि कार्ल मार्क्स ने किस संदर्भ और परिस्थितियों मे यह लिखा इसे समझे बगैर एयर कंडीशंड कमरों मे बैठ कर उदभट्ट विद्वान 'धर्म' की चर्चा को भटकाने वाला तथ्य कहते हैं और उनमे से कुछ यह भी घोषणा करते हैं कि,;हिन्दू','इस्लाम','ईसाई'आदि ही धर्म हैं एवं धर्म की अन्य कोई परिभाषा मान्य नहीं है। इसका सीधा-सादा अर्थ है कि 'तर्क'और ज्ञान के आभाव मे ये विद्वान ढोंग-पाखंड-आडंबर जिसे साम्राज्यवादी धर्म बताते हैं उसी को धर्म स्वीकारते हैं और तभी धर्म पर प्रहार करके जनता से कटे रहते हैं। हालांकि कुछ प्रगतिशील और जागरूक साम्यवादी नेता तो धर्म को सही परिप्रेक्ष्य मे समझ कर जनता से संवाद करने लगे हैं और वे लोकप्रिय भी हैं।मुस्लिम वर्ग के एक कामरेड तो श्री कृष्ण को 'साम्यवाद ' का प्रयोग करने वाला बताते हैं और उनका जनता पर अनुकूल प्रभाव भी पड़ता है। किन्तु बुद्धिजीवी विद्वान अभी भी 18वीं सदी की सोच से साम्यवाद लाने के नाम पर नित्य ही साम्राज्यवाद के हाथ मजबूत कर रहे हैं फेसबुक पर अपने थोथे बयानों से।और तो और मजदूर नेता एवं विद्वान कामरेड ने तो तब हद ही कर दी जब RSS की वकालत वाला एक लेख ही शेयर कर डाला। देखें-
Shriram Tiwari shared a link.
तो आइये सबसे पहले आर एस एस क्यों बनवाया गया इसे जानें फिर समझें कि
'साम्यवाद है ही भारतीय अवधारणा'। 'महाभारत काल'के बाद भारत का सांस्कृतिक
पतन तीव्र गति से हुआ और आंतरिक फूट के कारण यह विदेशियों का गुलाम बना ।
विदेशी सत्ता ने यहाँ के तत्कालीन विद्वानों को अपनी ओर मिलाकर ऐतिहासिक
संदर्भों को संदेहास्पद बनाने हेतु 'पुराणों' की रचना करवाई। आम जनता ने इन
विद्वानों से गुमराह होकर पुराणों को धार्मिक ग्रंथ मान लिया और आज तक वही
विभ्रम पूजा जा रहा है। हमारे साम्यवादी विद्वान भी इन ग्रन्थों को ही
धार्मिक ग्रंथ की संज्ञा देते हैं जो उनकी ज़िद्द और जड़ता का प्रतीक
है।हवाला तो ये मार्क्स का देते हैं किन्तु ये सब महर्षि कार्ल मार्क्स के
पैर के अंगूठे के नाखून की नोक के बराबर भी नहीं ठहरते ज्ञान के मामले मे।KARL MARX
अर्थात कार्ल मार्क्स का कथन है कि,"मनुष्य ने अपनी दिमागी सुरक्षा के लिए भगवान की उत्पत्ति की है"।
महर्षि कार्ल मार्क्स ने किस संदर्भ और परिस्थितियों मे यह लिखा इसे समझे बगैर एयर कंडीशंड कमरों मे बैठ कर उदभट्ट विद्वान 'धर्म' की चर्चा को भटकाने वाला तथ्य कहते हैं और उनमे से कुछ यह भी घोषणा करते हैं कि,;हिन्दू','इस्लाम','ईसाई'आदि ही धर्म हैं एवं धर्म की अन्य कोई परिभाषा मान्य नहीं है। इसका सीधा-सादा अर्थ है कि 'तर्क'और ज्ञान के आभाव मे ये विद्वान ढोंग-पाखंड-आडंबर जिसे साम्राज्यवादी धर्म बताते हैं उसी को धर्म स्वीकारते हैं और तभी धर्म पर प्रहार करके जनता से कटे रहते हैं। हालांकि कुछ प्रगतिशील और जागरूक साम्यवादी नेता तो धर्म को सही परिप्रेक्ष्य मे समझ कर जनता से संवाद करने लगे हैं और वे लोकप्रिय भी हैं।मुस्लिम वर्ग के एक कामरेड तो श्री कृष्ण को 'साम्यवाद ' का प्रयोग करने वाला बताते हैं और उनका जनता पर अनुकूल प्रभाव भी पड़ता है। किन्तु बुद्धिजीवी विद्वान अभी भी 18वीं सदी की सोच से साम्यवाद लाने के नाम पर नित्य ही साम्राज्यवाद के हाथ मजबूत कर रहे हैं फेसबुक पर अपने थोथे बयानों से।और तो और मजदूर नेता एवं विद्वान कामरेड ने तो तब हद ही कर दी जब RSS की वकालत वाला एक लेख ही शेयर कर डाला। देखें-
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कम्युनिस्ट अपराध और उपकार के अंतर को समझें : राकेश कुमार आर्य : PRAVAKTA । प्रवक्ता : Hindi News &.
साम्यवाद
की विचारधारा क्या भारतीय संस्कृति के अनुकूल है? या साम्यवाद का भारतीय
संस्कृति, धर्म और इतिहास से भी कोई संबंध है? यदि इन जैसे प्रश्नों के
उत्तर खोजे जाऐं तो ज्ञात होता है कि वास्तविक साम्यवाद भारतीय संस्कृति
में ही है। संसार का कम्युनिस्ट समाज भारतीय साम्यवाद को समझ नहीं पाया है
और ना ही स...
- Vijai RajBali Mathur लेख मे मुद्दो की बात उठाते-उठाते अंततः RSS का समर्थन करके गुमराह किया गया है। 1857 की क्रांति मे भाग ले चुके महर्षि दयानन्द को अंग्रेज़-REVOLUTIONARY SAINT कहते थे और उनके संगठन को क्षति पहुँचने के उद्देश्य से RSS की स्थापना कराई थी जो आज आर्यसमाज को ही नियंत्रित करता प्रतीत होता है।
सर्वप्रथम बौद्धों पर अत्याचार करने वाले लोगों यथा उनके मठों को उजाड़ने,विहारों और उनके ग्रन्थों को जलाने वाले लोगों को 'हिंसा देने' के कारण 'हिन्दू' की संज्ञा दी गई थी। उसके बाद फारसियों ने एक गंदी और भद्दी गाली के रूप मे यहाँ के लोगों को 'हिन्दू' कहा। यहाँ के लोगों ने अपने तत्कालीन पुरोहितो,पुजारियों और विदेशी सत्ता के लालच मे फंसे विद्वानों की बातों को सिर -माथे पर लिया और खुद को 'हिन्दू' कहलाने लगे।
अब चूंकि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सत्ता 'मुस्लिम शासकों' से छीनी थी इसलिए उसने इन हिंदुओं को बढ़ावा देकर मुसलमानों को कुचला जिससे वे शिक्षा और रोजगार मे पिछड़ गए। कंपनी शासन ने मुस्लिमों और हिंदुओं मे खाई गहराने हेतु 'बाबरी मस्जिद' प्रकरण खड़ा कराया।
ब्रिटिश अत्याचारों और शोषण से त्रस्त होकर मुगल शासक 'बहादुर शाह जफर' के नेतृत्व मे 1857 मे तथाकथित हिंदुओं और मुसलमानों ने मिल कर क्रांति कर दी जो आंतरिक फूट के कारण निर्ममता से कुचल दी गई। पंजाब के सिखों,ग्वालियर के सिंधिया,भोपाल की बेगम,नेपाल के राणा ने 'आज़ादी की प्रथम क्रान्ति'को कुचलने मे अंग्रेजों का भरपूर साथ दिया और बहादुर शाह जफर को मांडले मे कैद करके भारत से निर्वासित कर दिया गया। इस क्रांति के बाद मुसलमानों का और भी दमन किया गया क्योंकि मुगल शासक ने इसका नेतृत्व किया था।
अपनी युवावस्था मे महर्षि दयानंद 'सरस्वती'ने भी इस क्रांति मे भाग लिया था और रानी लक्ष्मी बाई से भी उनका संपर्क था। 'क्रांति' के दमन की क्रूरता को देख कर दयानन्द ने ईस्वी सन 1875 की चैत्र प्रतिपदा को (क्रांति के 18 वर्ष बाद),'आर्यसमाज'का गठन किया जिसका उद्देश्य जनता को जागरूक करके देश को आज़ादी दिलाना था। प्रारम्भ मे जितने भी आर्यसमाज स्थापित हुये ब्रिटिश छावनी वाले नगरों मे ही हुये थे। ब्रिटिश सरकार ने उन पर कई मुकदमे भी चलवाये उनको REVOLUTIONARY SAINT कहा गया। महर्षि दयानंद 'सरस्वती' ने विदेशियों द्वारा प्रदत्त 'हिन्दू' संज्ञा का प्रबल विरोध किया। उन्होने देशवासियों को 'सनातन आर्यत्व' पर लौटने का आहवाहन किया।
दयानन्द के प्रचार से भयभीत होकर ब्रिटिश गवर्नर जनरल ने रिटायर्ड ICS एलेन आकटावियन हयूम की मदद से वोमेश चंद्र बेनर्जी (जो ईसाई थे)की अध्यक्षता मे इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना कारवाई जो सम्पूर्ण आज़ादी नही केवल 'डोमिनियन स्टेट' चाहती थी। अतः दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजी इस कांग्रेस के सदस्य बन गए और उन लोगों के प्रयास से कांग्रेस को 'सम्पूर्ण' आज़ादी को ध्येय बनाना पड़ा।डॉ पट्टाभि सीता रमय्या ने 'कांग्रेस का इतिहास' मे लिखा है कि स्वतन्त्रता आंदोलन मे भाग लेने वाले सत्याग्रहियों मे 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे।
अतः अब इस कांग्रेस को कमजोर बनाने हेतु मुसलमानों का सहारा लिया गया और ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन के माध्यम से 1906 मे 'मुस्लिम लीग'की स्थापना ब्रिटिश सरकार ने करवाई दूसरी ओर 'मुस्लिम सांप्रदायिकता' के जवाब मे मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व मे 1920 मे 'हिन्दू महासभा' का गठन करवाया गया। अभी तक महर्षि दयानन्द के बाद भी उनका प्रभाव समाप्त नहीं हुआ था अतः आर्यसमाजियों के प्रभाव से हिंदूमहासभा 'हिन्दू सांप्रदायिकता' को उभाड़ने मे विफल रही। लेकिन कांग्रेस मे सांप्रदायिक आधार पर धड़ेबंदी शुरू हो गई। इन परिस्थितियों मे 'राष्ट्र्वादी कांग्रेसियों' ने 25/26 दिसंबर 1925 को कानपुर मे कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। स्वामी सहजानन्द 'सरस्वती',क्रांतिकारी गेंदा लाल दीक्षित और महा पंडित राहुल सांस्कृत्यायन सरीखे आर्यसमाजियों ने कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत बनाने मे अपना अमित योगदान दिया।
आर्यसमजी और कम्युनिस्ट मिल कर कहीं ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ न फेंके इस लिए पूर्व क्रांतिकारी सावरकर साहब जो खुद को नास्तिक कहते थे के माध्यम से RSS का गठन करवाया गया। शासकों के साथ दुरभि संधि के तहत इस संगठन को नाजी हिटलर के 'स्टार्म फोर्स' की भांति रखा गया जिससे जनता को गुमराह किया जा सके क्योंकि हिटलर शुद्ध आर्य होने का दावा करता था और उसका वारिस यह संगठन भारत मे खुद को घोषित करने लगा। इससे यह शक नहीं पैदा हो सका कि इसके पीछे ब्रिटिश सरकार का हाथ है जबकि यह उसी के मंसूबे पूरे करने हेतु ही गठित हुआ था। RSS की जूते से टोपी तक पोशाक और परेड की गतिविधियां जर्मनी के 'स्टार्म फोर्स' की तर्ज पर रखी गईं। यह नस्लवादी तौर पर मुस्लिमों के विरुद्ध घृणा फैलाता था । मुस्लिम लीग -RSS के प्रयासों से देश 'हिन्दू-मुस्लिम दंगों'की आग मे झुलसा दिया गया और अंततः 'पाकिस्तान' एवं 'भारत' दो देशों मे बाँट दिया गया। यह साम्राज्यवाद के नए मसीहा अमेरिका की नीतियों और योजनाओं का परिणाम था।
पूंजीवाद के समर्थक नेहरू जी ने बड़ी ही चालाकी से रूस से मित्रता करके भारतीय कम्युनिस्टों को प्रभाव हींन कर दिया। आज कम्युनिस्ट आंदोलन कई पार्टियों मे विभक्त होकर पूरी तरह बिखर गया है। कांग्रेस जहां कमजोर पड़ती है वहाँ RSS समर्थित भाजपा को आगे बढ़ा देती है। दोनों साम्राज्यवादी अमेरिका समर्थक पार्टियां हैं। ऐसे मे साम्यवाद के मजबूत होकर उभरने की आवश्यकता है परंतु सबसे बड़ी बाधा वे 'साम्यवादी विद्वान और नेता' खड़ी करते हैं जो आज भी अनावश्यक और निराधार ज़िद्द पर अड़े हुये हैं कि 'मार्क्स' ने धर्म को अफीम कह कर विरोध किया है अतः साम्यवाद धर्म विरोधी है।
'एकला चलो रे ' की नीति पर चलते हुये इस ब्लाग के माध्यम से मैं सतत 'धर्म' की वास्तविक व्याख्या बताने का प्रयास करता रहता हूँ जो वस्तुतः 'नक्कारखाने मे तूती की आवाज़' की तरह है। फिर भी एक बार और-
'धर्म'=जो शरीर को धरण करने के लिए आवश्यक है जैसे-'सत्य','अहिंसा','अस्तेय','अपरिग्रह'और 'ब्रह्मचर्य'।
(क्या मार्क्स ने इन सद्गुणों को अफीम बताया है?जी नहीं मार्क्स ने उस समय यूरोप मे प्रचलित 'ईसाई पाखंडवाद'को अफीम कह कर उसका विरोध किया था। पाखंडवाद चाहे ईसाइयत का हो,इस्लाम का हो या तथाकथित हिन्दुत्व का उन सब का प्रबल विरोध करना ही चाहिए परंतु 'विकल्प' भी तो देते चलिये। )
'भगवान'=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल) का समन्वय।
'खुदा'=चूंकि ये पाँच तत्व खुद ही बने हैं इन्हे किसी ने बनाया नहीं है इसलिए इन्हे खुदा भी कहते हैं।
GOD=G(जेनेरेट)+O(आपरेट)+D(देसट्राय)। 'भगवान' या 'खुदा' सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन,पालन और 'संहार' भी करते हैं इसलिए इन्हें GOD भी कहा जाता है।
क्या मार्क्स ने प्रकृति के इन पाँच तत्वों को अफीम कहा था?'साम्यवाद' को संकुचित करने वाले वीर-विद्वान क्या जवाब देंगे?
देवता=जो देता है और लेता नहीं है जैसे-वृक्ष ,नदी,समुद्र,वायु,अग्नि,आकाश,ग्रह-नक्षत्र आदि न कि कोई व्यक्ति विशेष। क्या मार्क्स ने प्रकृति प्रदत्त इन उपादानों का कहीं भी विरोध किया है?'साम्यवाद' के नाम पर साम्यवाद का अवमूल्यन करने वाले दिग्गज विद्वान क्या जवाब देंगे?
जनता को सही राह दिखाना किस प्रकार 'भटकाव' है?जो भटकाव करते हैं उनको तो धर्म कह कर ये विद्वान सिर पर चढ़ाते हैं और उसी प्रकार मार्क्स को बदनाम करने की कोशिश करते हैं जिस प्रकार साम्राज्यवादियों के पिट्ठू विद्वान राम को बदनाम करने का साहित्य सृजन करते हैं। राम ने नौ लाख वर्ष पूर्व साम्राज्यवादी रावण को परास्त किया और उसका साम्राज्य ध्वस्त किया था। लेकिन साम्यवाद के मसीहा कहलाने वाले ये विद्वान राम-रावण युद्ध को कपोल कल्पना कह कर राम को साम्राज्यवादी RSS का खिलौना बना देते हैं। साम्राज्यवादियों ने दो धाराएँ फैला कर वास्तविकता को ढकने का स्वांग रचा है। पहले कहा गया कि वेद गड़रियों के गीत हैं और खुद 'मेक्समूलर' के माध्यम से यहाँ से मूल पांडुलिपियाँ ले गए। अंनुसन्धान किए और वेदों का भरपूर लाभ उठाया। दूसरे RSS,मूल निवासी,आदिवासी,आदि तमाम संगठनों के माध्यम से वेद और आर्यों के विरुद्ध दुष्प्रचार करवाया । कोई हिटलर की तर्ज पर हिन्दुत्व को नस्लवादी आर्य बताता है तो कोई आर्यों को यहाँ के मूल निवासियों का शोषक आक्रांता। दुर्भाग्य यह है कि साम्यवादी विद्वान इनमे से ही किसी न किसी बात को सही मानते हैं और अपना दिमाग लगा कर कुछ सोचना व समझना ही नहीं चाहते हैं। यदि कोई ऐसा प्रयास करता है तो तत्काल उसे प्रतिगामी घोषित कर देते हैं जबकि खुद कार्ल मार्क्स ने 'साम्यवाद' को देश-काल-परिस्थितियों के अनुसार लागू करने की बात कही थी। भारत मे कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना होने पर स्टालिन ने भी इसके संस्थापकों से ऐसा ही कहा था। किन्तु इन लोगों ने न तो मार्क्स के सिद्धांतों का पालन किया न ही स्टालिन के सुझाव माने और रूसी पैटर्न की नकल कर डाली। भारतीय वांगमय से मेल न खाने के कारण यहाँ की जनता के बीच साम्राज्यवादियों के सहयोग से यह प्रचारित किया गया कि साम्यवाद विदेशी विचार-धारा है और देश के अनुकूल नहीं है। डॉ राम मनोहर लोहिया और लाल बहादुर शास्त्री सरीखे नेताओं ने इसी आधार पर साम्यवाद को अत्यधिक क्षति पहुंचाई। स्टालिन ने हिटलर से समझौता कर लिया तो ठीक था लेकिन नेताजी सुभाष बोस ने हिटलर का सहयोग लेकर जापान मे पनाह ली तो उनको 'तोजो का कुत्ता' कह कर इन साम्यवादी विद्वानों ने संभोधित किया और अपेक्षा करते हैं कि जनता उनको सहयोग दे । हालांकि अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि नेताजी का विरोध करना तब गलत था।
'रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना' के माध्यम से मैंने बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार राम ने रावण के 'साम्राज्यवाद' को नष्ट किया था। यदि आज भी साम्यवाद को कामयाब करना है तो राम की नीतियों को अपनाना पड़ेगा ,राम की आलोचना करके या अस्तित्व को नकार के कामयाब न अभी तक हुये हैं न ही आगे भी हो सकेंगे। योगी राज श्री कृष्ण ने तो सर्वाधिकार का बचपन से ही विरोध किया था गावों की संपत्ति का शहरी उपभोग समाप्त करने के लिए उन्होने 'मटका फोड़' आंदोलन चलाया था और गावों का मक्खन शहर आने से रोका था। गो-संवर्द्धन पर अनुसंधान करवाया और सफलता प्राप्त की लेकिन ढ़ोंगी गोवर्धन-परिक्रमा के नाम पर इस उपलब्धि पर पलीता लगाते हैं क्योंकि उसी मे साम्राज्यवादियों का हित छिपा हुआ है। किन्तु साम्यवादी क्यों नही 'सत्य' को स्वीकार करते हैं? क्यों साम्यवादी विद्वान ढोंगियों के कथन पर ध्यान देते हैं और वास्तविकता से आँखें मूँद लेते हैं।
अभी तक सभी साम्यवादी विद्वानों ने साम्राज्यवादियों के षड्यंत्र मे फंस कर 'नकारात्मक' सोच को सच माना है। किन्तु अब आवश्यकता है कि इस सोच को सकारात्मक बना कर 'सच' को स्वीकार करें और सफलता हासिल करें। अन्यथा पूर्व की भांति 'साम्राज्यवाद को ही मजबूत' करते रहेंगे। मार्क्स ने जिस GOD का विरोध किया वह पाखंडियों की सोच वाला था वास्तविक नहीं। हमे जनता को बताना चाहिए वास्तविक GOD,खुदा या भगवान प्रकृति के पाँच तव हैं और कुछ नहीं। जनता को धर्म का मर्म बताना पड़ेगा तब ही वह ढोंग-पाखंड-आडंबर से दूर हो पाएगी। कृपया साम्यवाद का चोला ओढ़ कर 'मार्क्स' को बदनाम करना और इस प्रकार 'साम्राज्यवाद को' मजबूत करना बंद करें।
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यह लेख
मंगलवार, 3 जुलाई 2012 को 'क्रांतिस्वर'पर पूर्व प्रकाशित है जिस पर विवेकानंद त्रिपाठी जी की यह टिप्पणी भी प्राप्त हुई थी:
बेनामी3 जुलाई 2012 5:05 pm
koi saamyavaadee aapke saath chaahe ho yaa na ho, aap bahut bada kaam kar rahe hain.
thanks
vivekanand tripathi
thanks
vivekanand tripathi
फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणी---
ReplyDeleteAnand Prakash Tiwari
12 seconds ago ·
Gyanvardhak Vaigyanik Shodhparak lekh.
Awasya parhe poora aalekh......