यह वामपंथ की हार है
मुझे जुम्मा-जुम्मा आठ दिन
हुए हैं काॅंगे्रस से जुड़े हुए कि एक वामपंथी मित्र ने मुझे चिढाने के
लिये कहा कि आपका तो सूपड़ा साफ हो गया। मैंने उन्हें तुरन्त जवाब दिया कि
‘मेरा नहीं, आपका सूपड़ा साफ हुआ है।’ बोले-‘क्या मतलब?’ मैंने कहा-‘मैं तो
आपको छोड़ चुका, क्योंकि आप कहीं भी कामयाब नहीं हो रहे थे।’ बोले-‘इससे
मेरा क्या लेना-देना?’ मैंने कहा-‘क्यों नहीं है आपका लेना-देना? पचास-साठ
सालों से लगे हुए हो, मजदूरों को माक्र्सवाद पढ़ा रहे हो, समाजवाद समझा रहे
हो, साम्प्रदायिकता और फासीवाद के खिलाफ गला फाड़-फाड़ कर बोल रहे हो,
संघ-परिवार की तरह वामपंथ की भी हजारों संस्थाएॅं हैं, लाखों की संख्या में
पेड-अनपेड प्रशिक्षित प्रचारक हैं, आपकी चार पार्टियाॅं हैं, पोलित ब्यूरो
के राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं आपके पास, क्या आज वे सबसे सब फेल नहीं हो
गये हैं?’ मैंने आगे कहा-‘डा॰ रामविलास शर्मा से मेरी बहुत-सी असहमतियाॅं
हैं, पर एक बात उन्होंने बहुत मार्के की कही थी और वह यह कि ‘भारत में यदि
फ़ासिस्ट तानाशाही क़ायम होती है तो इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले वामपंथी
पार्टियों पर होगी, और इन वामपंथी पार्टियों में सबसे ज्यादा कम्युनिस्ट
पार्टी पर।’ रामविलास शर्मा ने यह बात 1967 में अपने लेख में लिखी थी, जो
‘आलोचना’ में छपा था। यानी 1967 में भी वामपंथी लोग अपना दायित्व नहीं निभा
रहे थे। इसलिये मेरी दृष्टि में चार राज्यों के चुनाव परिणाम कुछ भी चैंका
देने वाले नहीं हैं। मैं इसे भाजपा की जीत और काॅंगे्रस की हार के रूप में
नहीं देख रहा हूॅं, बल्कि देख रहा हॅूं फासीवाद और पूॅंजीवाद की जीत के
रूप में और देख रहा हूॅं समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष ताकतों की करारी हार के
रूप में। यही नहीं, मुझे 2014 के लोकसभा-चुनावों में भी कोई अप्रत्याशित
परिवर्तन होता दिखायी नहीं दे रहा है। क्या हुआ हमारे लगातार चल रहे
सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलनों का? क्या वे जनता में अपना प्रभाव नहीं
छोड़ पा रहे हैं? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। वे प्रभाव छोड़ते हैं, लोगों
के मन भी बदलते हैं। वे सरकार तक को हिला देते हैं, ऐसे आन्दोलन भी देश में
हुए हैं। किन्तु समस्या यह है कि इन आन्दोलनों के बीच से कोई राजनीतिक
विकल्प गरीबों, मजदूरों और शोषितों के हित में कभी नहीं फूट सका। और संयोग
से विकल्प फूटा, तो वह समाजवादी आन्दोलन से नहीं फूटा।
आम आदमी पार्टी
दिल्ली में इसी विकल्प--आम आदमी पार्टी--को सफलता मिली। यह नजरअन्दाज कर
देने वाला सवाल नहीं है, बल्कि इसे समझे जाने की जरूरत है। आम आदमी पार्टी
का जन्म अन्ना हजारे के आन्दोलन से हुआ है। अरविन्द केजरीवाल और उनके सभी
साथी अन्ना हजारे के अनशन में उनके साथ थे, बल्कि उन सबने मिलकर अन्ना
आन्दोलन को कामयाब बनाया था। इसी आन्दोलन से वैकल्पिक राजनीति के बीज फूटे।
केजरीवाल ने समझ लिया था कि राजनीति को बदलने के लिये नयी राजनीति करना
जरूरी है। केजरीवाल ने हिम्मत की, ‘आम आदमी पार्टी’ बनायी और दिल्ली की
जनता को नया राजनीतिक विकल्प दिया। जनता परिवर्तन चाहती है, यह अरविन्द
केजरीवाल ने समझ लिया था। परिणाम सामने है। कानून-व्यवस्था और भ्रष्टाचार
से त्रस्त दिल्ली की जनता ने इस नये विकल्प का स्वागत किया और इस स्वागत ने
काॅंगे्रस का ही नहीं, भाजपा का भी सारा खेल बिगाड़ दिया। सपा और बसपा तक
इस विकल्प के आगे ढेर हो गये।
क्या आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय राजनीति
में भी कोई धमाका करेगी? इस सवाल पर विचार करने का वक्त अभी नहीं आया है,
क्योंकि उसका कोई बहुत व्यापक राजनीतिक एजेण्डा सामने नहीं आया है। चूॅंकि
उसका जन्म अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल के आन्दोलन से हुआ है, और अभी
भ्रष्टाचार का विरोध या उन्मूलन ही उसके एजेण्डे में है, इसलिये राष्ट्रीय
विकल्प देने के लिये केजरीवाल को यह बताना अभी बाकी है कि उनकी पार्टी का
राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेण्डा क्या होगा, देश की ज्वलन्त समस्याएॅं
वे कैसे हल करेंगे और दलित-पिछड़ी जातियों तथा अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर
उनका रुख क्या होगा? अभी बेरोजगारी के सवाल पर भी उनका विजन साफ नहीं है।
उन्होंने यह भी अभी स्पष्ट नहीं किया है कि वे निजीकरण का रास्ता अपनायेंगे
या राष्ट्रीयकरण का?
लेकिन एक बात साफ है कि जनता विकल्प चाहती है,
क्योंकि मौजूदा विकल्प वह आजमा चुकी है, और उनसे वह निराश है। उसे रोजगार,
शिक्षा और आवास की जरूरत है, जिसे काॅंगे्रस और भाजपा दोनों ने बाजार के
हवाले कर दिया है। उसे हासिल करने के लिये उसके पास पैसे नहीं है। आम आदमी
पार्टी यह कर सकेगी या नहीं, यह सवाल अभी विचारणीय नहीं है। विचारणीय सवाल
यह है कि इन मुद्दों पर आधी सदी से भी ज्यादा समय से संघर्षरत सामाजिक और
वामपंथी आन्दोलन कोई विकल्प न देने का कोई पश्चाताप करेंगे अथवा इसी तरह
फासिस्ट ताकतों का मार्ग-प्रशस्त करते रहेंगे?
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