Saturday, 7 December 2013

दलित,अंबेडकर और भाकपा ---का .हरबंस सिंह

(का .हरबंस सिंह की एक पुस्तक के कुछ अंश 'पार्टी जीवन',खंड : 11,अंक: 24,लखनऊ,16 दिसंबर 2010 को प्रकाशित हुये थे उसी का एक छोटा सा भाग यहाँ 'साभार' दिया जा रहा है---विजय राजबली माथुर)
भाकपा ने काफी गहनता के साथ भारत में जातीय समस्या को समझा। हमारी यह समझ थी कि औद्योगीकरण बढ्ने के साथ बढ़ते मजदूर वर्ग में मार्क्सवादी समझ अंततः जातीय सचेतना को समाप्त कर देगी । इसीलिए हमने कभी भी अंबेडकर,उनके लेखन और कार्यों को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन वर्गीय संघर्षों के दौरान हमारे अनुभवों ने हमें कुछ नई समझदारी पैदा करने के लिए विवश कर दिया। 

1-जाति और जातिवाद एक मारक बुराई है। यह कार्यशील लोगों के जेहन में बहुत गहरी पैठ रखती है। इसके खिलाफ संघर्ष एक बहुत ही लंबी लड़ाई है। 

2- कम्युनिस्टों को, जब तक वे पार्टी के सदस्य हैं, जातिवाद पर विश्वास करने का कोई अधिकार नहीं है। 

3-लेकिन जातिवादी पार्टियों के साथ लगातार बातचीत और उनके साथ एकता एवं संघर्ष की रणनीति बहुत ही आवश्यक है। 

4- बौद्ध धर्म ने जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया। मध्यकाल में सूफी-संतों ने जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम ने 1920 से 1947 के काल में जाति व्यवस्था के खिलाफ अनथक  संघर्ष किया। परंतु हर बार पीछे हटने के बावजूद जाति व्यवस्था का भूत बार-बार फिर उपस्थित हो जाता है। हमें जाति व्यवस्था के खिलाफ हर संघर्ष के अनुभवों का बहुत ही सावधानी के साथ अध्यन करना चाहिए। 

5-जातियों के उन्मूलन के लिए अंबेडकर ने अनथक संघर्ष किया परंतु वे इसकी सफलता के लिए रास्ता खोज नहीं सके। 

6-वर्ग संघर्षों में हमारे दिलो-दिमाग में हमेशा यह बात रहनी चाहिए कि भारत में समाजवाद को जाने वाला रास्ता जातीय उन्मूलन के रास्ते के साथ-साथ चलेगा। इसलिए समाजवाद की प्राप्ति तक हमें वर्गीय शोषण के साथ-साथ जातीय शोषण और दमन के लिए संघर्षों को अनथक रूप से चलाते रहना होगा। 

7-हमें हमेशा इस बात को दिमाग में रखना होगा कि जातिवादी दलों ने जातियों के स्थायित्व और जातिवाद में निहित स्वार्थ विकसित कर लिए हैं। ऐसे दलों के साथ कुछ मुद्दों और चुनावी तालमेल जैसे तात्कालिक समायोजन करना पड़ सकता है परंतु जातियों के उन्मूलन के संघर्ष में वे हमारे कभी भी सहयोगी नहीं बन सकते।

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