काकोरी के शहीदों को याद करते हुए :
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फासिस्टों के पास जनसंघर्षों में, राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्षों में
भागीदारी की कोई विरासत नहीं है। फासिस्ट भीड़ की हिंसा और उन्माद को
भड़काकर बर्बर नरसंहार करवा सकते हैं, पर वे किसी उदात्त लक्ष्य के लिए
लड़ने और कुर्बानी देने का साहस जुटा ही नहीं सकते। आर.एस.एस. और किसी भी
ब्राण्ड के हिन्दुत्ववादी ने राष्ट्रीय आन्दोलन में कभी हिस्सा नहीं
लिया। अंग्रेजों से इनकी वफादारी के वायदों, मुखबिरी और माफीनामों के दस्तावेजी प्रमाण मौजूद हैं।
राष्ट्रीय आन्दोलन की दौर की अपनी शर्मनाक़ भूमिका को झूठे प्रचारों से
ढँकने के तरह-तरह के उपक्रम करते हुए ये फासिस्ट जनता की गौरवशाली विरासत
को चुराने हड़पने का भी काम करते हैं। कभी उग्र राष्ट्रवादी तिलक के
पुरातनपंथी धार्मिक विचारों के पक्ष को 'हाइलाइट' करके उनसे अपने को जोड़ते
हैं, कभी अनुदारवादी बुर्ज़ुआ नेता पटेल को अपना नायक बताते हैं, कभी
'गाँधीवादी समाजवाद' की दुहाई देने लगते हैं, तो कभी बिस्मिल, राजेन्द्र
लाहिड़ी, जतिन दास, भगतसिंह आदि की क्रान्तिकारी परम्परा से अपने को
जोड़ने लगते हैं। ऐसा करते हुए इन क्रान्तिकारियों के विचारों को छिपाकर
फासिस्ट उन्हें केवल राष्ट्रवादी नायक के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
आज के दिन फासिस्ट हिन्दुत्ववादी भी काकोरी के शहीदों को ''शत-शत नमन''
करने का पाखण्ड कर रहे हैं। लेकिन ये कपटी यह नहीं बताते कि बिस्मिल,
अशफ़ाकुल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह आदि साम्राज्यवाद विरोधी
होने के साथ ही एक सच्चे सेक्युलर लोकतांत्रिक गणराज्य के पक्षधर थे और
साम्प्रदायिकता की राजनीति के धुर-विरोधी थे। 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन
एसोसियेशन' के इन्हीं आदर्शों को 1928 में स्थापित 'हिन्दुस्तान
सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन' ने आगे विकसित किया जब भगतसिंह और उनके
साथियों ने 'डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ इण्डिया' के स्थान पर 'सोशलिस्ट
डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ इण्डिया' की स्थापना को अपना लक्ष्य घोषित किया।
बिस्मिल, अशफ़ाकुल्ला और उनके साथियों की विरासत को आज वास्तव में
स्वीकार करने का सर्वोपरि अर्थ है 'सेक्युलरिज़्म' के क्रान्तिकारी अर्थ
को ग्रहण करना और साम्प्रदायिक राजनीति का खूनी खेल खेलने वाले उन्मादी
हिन्दुत्ववादी फासिस्टों के मंसूबों को नाक़ाम करने के लिए व्यापक
जन-समुदाय को लामबंद करना।
संघियों को हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको,
हेडगेवार, गोलवरकर, सावरकर, मुंजे, गोडसे, श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि की
जयंतियाँ मनानी चाहिए। ऐसे लोग बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी आदि का नाम
लेकर क्रांतिकारी विरासत को कलंकित करते हैं, उसकी वास्तविक पहचान पर
कालिख पोतते हैं।
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