.फासीवाद का विरोध न केवल लेखकीय सरोकार है वरन मानवीय सत्ता का लोकतान्त्रिक धर्म भी है---कँवल भारती
लोकतंत्र
में भी फासीवाद मरता नहीं है, बल्कि पूरी हनक के साथ मौजूद रहता है. यह
किसी एक देश की बात नहीं है, बल्कि प्राय: सभी लोकतान्त्रिक देशों की बात
है. अक्सर दो किस्म के लोग फासीवादी होते हैं, (एक) राजनेता, जो वोट की
राजनीति करते हैं और (दो) धर्मगुरु, जो अज्ञानता फैलाते हैं. ज्ञान की
रौशनी से ये दोनों लोग डरते हैं. इसलिए सत्य का गला दबाने के लिए ये दोनों
एक-दूसरे से हाथ मिलाये रहते हैं. जब तक जनता गूंगी-बहरी बनकर जहालत की
चादर ओढ़े रहती है, वे लोग खुश रहते हैं, क्योंकि इसी में उनकी तानाशाही
सत्ता बनी रहती है. पर उन्हें जनता के जागरूक होने का डर हमेशा बना रहता
है. इसीलिए ये दोनों लोग शान्ति और अमन की बातें करते हैं, ताकि समाज में
यथास्थिति बनी रहे. यथास्थिति का अर्थ है राजनीति और धर्मगुरुओं का गठजोड़
कायम रहे और उनके द्वारा जनता का शोषण और संसाधनों की अबाध लूट चलती रहे.
इसलिए जैसे ही नेताओं को पता चलता है कि जनता जहालत की चादर उतारकर फेंकने
लगी है और उनके विरोध में प्रदर्शन करने वाली है, तो वे तुरंत शान्ति
बनाने के लिए धारा 144 लगा देते हैं. इस धारा के तहत दस लोग भी एक जगह न
इकठ्ठा हो सकते हैं और न मीटिंग कर सकते हैं. अगर इकठ्ठा होंगे और मीटिंग
करेंगे, तो पुलिस को पूरा अधिकार दिया गया है कि वह उन्हें तुरंत गिरफ्तार
करके जेल भेज सकती है, अगर विरोधी उनकी सत्ता के लिए चुनौती है, तो वह उस
पर रासुका लगा सकती है, उसे जिला बदर कर सकती है, यहाँ तक कि उसे देश निकला
तक दे सकती है या उसे देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर कर सकती है. फ़िदा मकबूल
हुसैन और तसलीमा नसरीन के मामले में हम यह देख भी चुके हैं. ( यहाँ मैं
सिर्फ बुद्धिजीवियों तक सीमित हूँ, राजनीतिक दलों के विरोध प्रदर्शनों को
इस सन्दर्भ में न देखें, क्योंकि वे फासीवादियों से अलग नहीं होते, बल्कि
उनके हमशक्ल ही होते हैं, सिर्फ उनकी टीमें अलग-अलग होती हैं.) इस फासीवाद
के तहत सत्य का स्वर बुलन्द करने वाले लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों और
जनता का दमन सिर्फ आज की हकीकत नहीं है, बल्कि यह दमन सदियों से होता आया
है. चार्वाकों से लेकर शम्बूक तक, कबीर से लेकर मीरा तक, गैलेलियो से लेकर
सुकरात तक, बहुत लम्बी सूची है. इस फासीवाद के अभी ताज़ा शिकार डा. विनायक
सेन, सीमा आज़ाद, डा. दाभोलकर, तसलीमा नसरीन और शीबा फहमी हुए हैं. तसलीमा
नसरीन के खिलाफ दरगाहे आला हज़रत के cleric के साहबजादे हसन रज़ा खां नूरी ने
FIR लिखाई है कि उन्होंने ट्विटर पर अपने कमेन्ट से मुसलमानों की भावनाएं
भड़कायी हैं. दरअसल ये भावनाएं जनता की नहीं होती हैं, वरन खुद धर्मगुरु
(क्लेरिक) की होती हैं. शीबा फहमी ने ऐसा क्या लिख दिया कि जज ने उनके
खिलाफ गिरफ़्तारी का वारंट निकाल दिया? उन्होंने एक साल पहले मोदी के खिलाफ
फेसबुक पर लिखा था, जिसके विरुद्ध एक संघी ने FIR लिखाई थी, मामला अदालत
में था, पर जज भी उसी शान्ति का पक्षधर निकला, जिसे मोदी जैसे नेता और
धर्मगुरु चाहते हैं और जो फासीवाद चाहता है, सो जज ने शीबा के खिलाफ वारंट
इशु कर दिया. यहाँ यही कहने को मन करता है कि जज ने साम्प्रदायिकता का साथ
दिया, न्याय का नहीं. बहरहाल, ऐसे हजार जज मिलकर भी सत्य का गला नहीं घोंट
सकते और न लेखक की आवाज़ को दबा सकते हैं. ख़ुशी है कि शीबा फहमी को उच्च
अदालत से जमानत मिल गयी है. लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हम सारे लेखक,
कलाकार और बुद्धिजीवी तसलीमा नसरीन और शीबा फहमी के साथ पूरी तरह एकताबद्ध
हैं. जितना संभव हो सकेगा, हम फासीवाद के विरुद्ध मिलकर लड़ेंगे. हम सब उनके
साथ हैं. लोकतंत्र की जय और फासीवाद की क्षय होकर रहेगी.
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